मारिशस: सागर के पार लघु भारत -एस. भुवनेश्वर

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लेखक- श्री एस. भुवनेश्वर

          मारिशस एक छोटा-सा द्वीप है, जो हिन्द महासागर में पाया जाता है। यह द्वीप भारत से 3000 हजार मील दूर है। इसका क्षेत्रफल केवल 720 वर्गमील है। मारिशस की कुल जनसंख्या लगभग दस लाख की है, जिसमें 52 प्रतिशत हिन्दू हैं। एक डच शासक का नाम ‘‘मोरिस नासो’’ था। इसी शासक के ‘‘’मोरिस’ नाम से इस टापू का नाम ‘‘मारिशस’’ पड़ा।
          मोरिशस पहले एक घना जंगल था। यहाँ कोई आदिवासी नहीं था। सन् 1958 में यह द्वीप डच जाति द्वारा अधिकृत हुआ। कुछ समय बाद डच लोग मारिशस छोड़कर चले गये। मारिशस की जमीन पथरीली थी। पथरीली जमीन और घने जंगलों के कारण डच शासकों ने समझा कि यह टापू कभी भी उपजाऊ नहीं बन सकता। इसीलिए वे यहाँ से चले गए। मगर उनके चले जाने का मुख्य कारण एक और बताया जाता है कि वे ‘‘मराठा’’ जवानों से भयभीत हो गए थे। उस समय ‘‘मराठा’’ जवान हिन्द महासागर में उपस्थित थे।
          सन् 1715 में, यानि डच जाति के चले जाने के पांच वर्ष बाद, यह टापू फ्रांसीसियों द्वारा उपनिवेशित किया गया। फ्रांसीसी शासकों ने इस देश का नामकरण किया। उन्होंने इसका नाम रखा ‘‘इल-दे-फ्रांस’’ (फ्रांस का द्वीप)
          फ्रांसीसी शासकों को पता चला कि मारिशस एक उपजाऊ देश बन सकता है। उन्हें यह भी भली-भाँति मालूम था कि भारतीय अच्छे श्रमिक होते हैं। अत: वे बहुत-से भारतीय मज़दूरों को मारिशस ले गए।
          सन् 1810 में अंग्रेजों ने भारतीय सिपाहियों की सहायता से मारिशस जीत लिया। फ्रांसीसियों की तरह अंग्रेजों को भी भारतीय मज़दूरों की आवश्यकता दीख पड़ी। इस समय भारत में भी अंग्रेज राज्य था।
          सन् 1934 में भारतीयों का अधिक संख्या में मारिशस जाना आरंभ हुआ। भारत में मज़दूरों को बड़ी संख्या में ले जाने का विशेष प्रबंध किया जाता था। यहाँ अनेक स्थानों में मज़दूरों को भरती करने के लिए प्रतिनिधि नियुक्त किए जाते थे। उन्हें मज़दूरों की संख्या के अनुसार तलब मिलती थी। इसलिए वे किसी भी प्रकार से अधिक-से-अधिक श्रमिकों को मारिशस भेजने के लिए भरती करते थे।
          यह कहना आवश्यक है कि अपनी मातृभाषा को छोड़कर भारतीय मज़दूर मारिशस नहीं जाना चाहते थे। परंतु, उन्हें यह लोभ दिखाकर फंसाया गया कि वे मारिशस में बहुत पैसे कमाएंगे तथा वहाँ पत्थरों के नीचे सोना मिलता है। इसके अतिरिक्त बहुत-से भारतीयों को जबर्दस्ती ले जाया गया।
          भारतीय मज़दूर पाँच साल के शर्तनामे पर जाते थे। इस शर्तनामे को ‘‘गिरमिटिया’’ कहा जाता था। जब शर्तनामा समाप्त होने पर वे वहाँ नहीं रहना चाहते थे, तब उन्हें स्वदेश लौटने में हर प्रकार की रूकावट डाल दी जाती थी। जो श्रमिक लौटना चाहते थे, उन्हें अपने खर्च पर और उन्हीं जहाजों में वापिस आना पड़ता था जिनमें अधिकारी महोदय आने की आज्ञा देते तथा उसी समय जो वे निश्चित करते।
          भारतीय मज़दूर वहाँ नहीं रहना चाहते थे क्योंकि उन्हें तरह-तरह के कष्ट सहने पड़ते थे। उन्हें गैर-कानूनी रूप से गिरफ्तार किया जाता था। छोटी-सी भूल के लिए, कभी बिना किसी कारण ही, उन्हें इतना बड़ा दंड दिया जाता था, जिससे कई व्यक्तियों की मृत्यु भी हो जाती थी। ऐसे अत्याचार से बचने के लिए बहुत-से मज़दूर आत्महत्या कर डालते थे।
          अस्पताल में भी भारतीयों की कोई सेवा नहीं की जाती थी। उन्हें न सोने के लिए कोई स्थान नहीं मिलता था, न बिछाने के लिए कोई वस्त्र ही। उन्हें खाने के लिए सुबह मुट्ठी-भर सूखा चावल और शाम को मुट्ठी-भर बैल के शोरबे में डुबाया हुआ चावल मिलता था। यह भोजन भी इतनी कम मात्रा में मिलता था कि मानो उन्हें भूखे ही मरना पड़ता था। इस उपनिवेश के कानून के विरुद्ध भारतीय मज़दूरों से रविवार को भी काम करवाया जाता था। एक दिन की गैर-हाजिरी के लिए उनकी दो दिन की तलब काट ली जाती थी। अगर बीमारी के कारण किसी मजूदर ने एक मास काम नहीं किया तो उसे दो मास मुफ़्त में काम करना पड़ता था। कभी-कभी मज़दूरों को इतना काम दिया जाता था कि वे शाम को देर तक काम करने पर भी काम पूर नहीं कर पाते। फलस्वरूप उनकी इस दिन की तलब काट ली जाती थी।
          शर्तनाम पाँच साल का था। पाँच साल के बाद मज़दूर ‘‘पुराने प्रवासी’’ कहलाते थे। उनका जीवन इतना कष्टमय किया जाता था कि उन्हें अपने मालिक की हर शर्त को स्वीकार करना पड़ता था क्योंकि भारत लौटने पर समाज उन्हें ठुकराता था यह कहकर कि प्रवास में जाने से वे जाति से बहिष्कृत हो गए हैं।
          जो भारतीय मज़दूर मारिशस गए थे, उन में बढ़ई भी थे। कुछ ऐसे व्यक्ति भी थे जो पुल तथा उत्तम प्रकार के मकान बनाने में विशेषज्ञ थे। यह उल्लेखनीय है कि भारतीयों ने ही फ्रांसीसियों को नारियल का तेल बनाना सिखाया।
          ब्रिटिश शासन-काल के प्रथम दशक तक मारिशस वह स्थान रहा, जहाँ भारत से निकाले हुए कैदियों को भेजा जाता था। ‘‘देश निकालो’’ दंड पाने वाले कैदी जो मारिशस भेजे गए थे, उनमें अधिकांश वे सिपाही थे, जिन पर सैनिक संबंधी या राजनीतिक अशिष्ट व्यवहार का अरोप लगाया था। ये कैदी अधिकतर कलकत्ता से भेजे जाते थे। वे चिह्न-स्वरूप कानों में बाला पहनते थे।
          जिस प्रकार भारतीय मज़दूरों ने खून-पसीना एक करके मारिशस को उपजाऊ देश बनाया है, उसी प्रकार भारतीय कैदी वहाँ अच्छी-अच्छी सड़कें बनाकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की अथवा यातायात की सुविधा भी लाए। दु:ख की बात यह है कि इन कैदियों को जंजीर में बंधे रहकर काम करना पड़ता था। डार्विन लिखते हैं - ‘‘भारतीय कैदियों को अधिकतर दंड इसलिए मिलता था कि वे धर्म परिवर्तन नहीं करना चाहते थे’’।
          प्रवासी भारतीय निर्धन होते हुए भी अपनी संस्कृति के धनी थे। उनके पास संपत्ति नामक कोई वस्तु न थी। उनकी जो एकमात्र संपत्ति थी, वह थी उनकी संस्कृति। इन लोगों को देखने से ही प्रसिद्ध लेखक चार्ल्स डार्विन को पता चला कि भारतवासी अपनी प्राचीन सभ्यता के प्रति श्रद्धालु होते हैं।
          प्रवासी भारतीय अपने साथ रामायण तथा गीता की हस्तलिखित प्रतियाँ मारिशस ले गए थे। वहां पर वे हाथ ही से लिखकर इन धर्म-ग्रंथों की प्रतियों का वितरण किया। इसके अलावा, वे ‘‘बैठका’’ में हिन्दी पढ़ाते थे। इस प्रकार मारिशस में भारतीय संस्कृति जीवित रह सकी।
          मारिशस में प्रवासी भारतीयों को ईसाई बनने के लिए अत्यंत विवश किया गया था। आरंभ में केवल पुरुषों को वहां भेजा जाता था, स्त्रियों को नहीं, ताकि वे भारतीय हब्शी महिलाओं से विवाह करके ईसाई बन जाएं। परंतु यह योजना विफल रही।
          जो भारतीय बच्चे स्कूल जाते थे, उन्हें भी ईसाई बनाया जाता था। इससे बचने के लिए प्रवासी भारतीय अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे। अपने धर्म की रक्षा के लिए उन्हें अपने बच्चों को अनपढ़ रखना स्वीकार किया था। इस संबंध में बार्न्स लिखते हैं:
          ‘‘प्रथम स्कूल जो मारिशस में स्थापित किए गए थे, ईसाई करण के बीज बोने के लिए ही थे।’’
          यह बात अठारहवीं शताब्दी की है। श्रेष्ठ फ्रांसीसी उपन्यासकार बेरनार्दे से प्येर उस भारतीय संस्कृति से, जो मारिशस में प्रचलित थी, अति प्रभावित हुए थे। ‘‘पाल और विर्जिनी’’ नामक उपन्यास की नायिका विर्जिनी को उन्होंने भारतीय संस्कृति से सजाया है। भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए, फ्रांस की संस्कृति को लेकर लौटती हुई विर्जिनी को इन्होंने मारिशस की भूमि पर पैर रखने से पहले, जहान में ही, उसके जीवन का अंत कर देना उपन्यास में उचित समझा।
          सन् 1901 में, महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका से लौटते समय मारिशस में रुके थे। उन्होंने प्रवासी भारतीयों के वंशजों को राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रोत्साहन दिया।
          सन् 1907 में गाँधी जी ने डॉक्टर मणिलाल को मारिशस भेजा। वे प्रवासी भारतीयों के जीवन में अनेक सुधार लाए। उन्होंने ही मारिशस में आर्य समाज तथा ‘‘यंगमेन्स हिन्दू एसोसिएशन’’ की स्थापना की।
          जहाँ तक मारीशस में भारतीय संस्कृति या हिन्दी की चर्चा है, हमारा विषय तब तक पूर्ण नहीं होगा जब तक हम आचार्य वासुदेव विष्णुदयाल का उल्लेख नहीं करेंगे। भारत से उच्च शिक्षा प्राप्त कर, आचार्य जी सन् 1939 में मारिशस लौटे। स्वदेश लौटते ही उन्होंने निष्ठापूर्वक युवकों-युवतियों को ही नहीं, बल्कि साठ-सत्तर साल के बुजुर्गों को भी अपने घर में हिन्दी पढ़ाने का व्रत ग्रहण किया। इस देश में हिन्दी पढ़ाने में जो कठिनाई होती है विशेषकर शहरों में उसे दूर करने के लिए आचार्य जी ने फ्रांसीसी व्याकरण के आधार पर हिन्दी व्याकरण की अनेक पुस्तकें रचीं। हिन्दी का प्रचार विस्तार रूप से करने की दृष्टि से आचार्य विष्णुदयाल ने आरंभ में ही 300 हिन्दी पाठशालाएं देश में खोलने का प्रण ठाना।
          मारिशस में अनेक भारतीय भाषाएं बोली जाती हैं:- हिन्दी, उर्दू, तमिल, तेलुगु, गुजराती और मराठी। प्रवास में मारिशस एकमात्र देश है, जहां मराठी बोली जाती है।
          भारत के भिन्न-भिन्न प्रांतों की बोली तथा पोशाक से मारिशस में भारतीय संस्कृति की महानता अधिक बढ़ गई है। अब तो ऐसा लगता है जैसे मारिशस रूपी बगीचे में अनेक प्रकार के भारतीय फूल खिले हों। इसी कारण इस द्वीप को ‘‘सागर के पार लघु भारत’’ कहा जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
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