तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन इस बार दिल्ली में अनुष्ठित होने जा रहा है। मैं नागपुर में आयोजित प्रथम हिन्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन में शामिल हुआ था और उनके पश्चात् द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने के लिए मुझे मॉरीशस भी भेजा गया था। इसके लिए मैं समस्त हिन्दीभाषियों का हृदय से कृतज्ञ हूँ।
यह मुझे मालूम है कि कलकत्ता से ही हिन्दी का पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। श्री भूदेव मुखोपाध्याय, जो कि ‘एक इंसपैक्टर ऑफ स्कूल्स’ थे, बंगाल, बिहार और उड़ीसा के छात्रों से कहा करते थे: तुम लोग हिन्दी पढ़ो। उन दिनों बंगाल, बिहार और उड़ीसा एक ही राज्य था। भूदेव बाबू पहले अपने-आप को एक भारतवासी समझते थे, बाद में बंगाली। कलकत्ता से ही श्री रामानंद चट्टोपाध्याय ने तीन प्रसिद्ध मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ किया था। ये पत्रिकाएँ थी : ‘प्रवासी’ (बंगला भाषा में), ‘माडर्न रिव्यू’ (अंग्रेजी भाषा में) और ‘विशाल भारत’ (हिन्दी भाषा में)। ‘प्रवासी’ में गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की बहुतेरी रचनाएँ छपा करती थी। ‘माडर्न रिव्यू’ भारत के प्रतिनिधि-मासिक के रूप में विश्वविख्यात था। ‘माडर्न रिव्यू’ में भारत-प्रेमी सी. एफ. एंड्रयूज और जे. टी. सद्लैंड जैसे लोग लिखा करते थे। भारत की व्यवस्था के संबंध में जे. टी. सद्लैंड ने ‘माडर्न रिव्यू’ में धारावाहिक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था : ‘द लॉलैस लॉ’ (कानून रहित कानून)। बाद में जब यह पुस्तक रूप में छपा, तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने इस पुस्तक को जब्त कर लिया। इंग्लैंड में सी. एफ. एण्ड्रयूज के बहुत से ऐसे धनी भक्त थे, जो उन्हें मनमाना धन दे सकते थे। फिर भी सी. एफ. एण्ड्रयूज ने फटेहाली का जीवन व्यतीत करना पसंद किया। इंग्लैंड की जहाज कंपनियों के मालिकों का निर्देश था कि सी. एफ. एण्ड्रयूज को या उनके द्वारा अनुशंसित किसी भी व्यक्ति को बिना किसी भी खर्च के यात्रा करने की सुविधा दी जाए। सी. एफ. एण्ड्रयूज के दो ही स्थायी निवास-स्थान थे : शांतिनिकेतन और गांधी जी का साबरमती-आश्रम। उन्होंने एक किताब लिखी थी : ‘व्हाट आइ ओ टु क्राइस्ट’। यह किताब खूब बिकी और उन्हें रुपये भी खूब मिले। लेकिन ये सारे रुपये उन्होंने एक अनजान छात्र को उच्च शिक्षा के लिए ‘ऑक्सफोर्ड यनिवर्सिटी’ में भेजने में खर्च कर दिए।
श्री रामानंद चट्टोपाध्याय ने ‘विशाल भारत’ नाम का जो हिन्दी-मासिक निकाला था, उसके संपादक थे पूज्य बनारसीदास चतुर्वेदी। मैं तीनों पत्रिकाएँ ही पढ़ा करता था। मुझे अभी तक याद है कि पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी, भगवतीचरण वर्मा और निराला जी की रचनाएँ मैं खूब पसंद किया करता था। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का तो मैं उसी समय से भक्त बन गया। उनका उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ मेरा एक प्रिय उपन्यास है। जब मॉरीशस में पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी से मेरी भेंट हुई और मैंने उन पुरानी बातों की चर्चा की तो वे बहुत प्रसन्न हुए थे।
उस वक्त से ही मेरे मन में यह साध पनपने लगी थी कि मैं लेखक बनूँगा। समय के एक लंबे अंतराल के बाद आज मैं सोचता हूँ कि क्या सचमुच मैं एक लेखक बन पाया हूँ? शरत् बाबू की एक उक्ति याद आ रही है, उन्होंने कहा था : ‘दुनिया में दो पैर होने पर ही चला जा सकता है, लेकिन दो हाथ होने पर ही लेखक नहीं बना जा सकता’। सच पूछिए तो मैं भी लेखक कहाँ बन पाया हूँ? हरेक साल ही दिल्ली की कालीबाड़ी के मित्रगण दुर्गापूजा के अवसर पर अपनी वार्षिक पत्रिका के लिए मेरे लेख की माँग करते हैं। मरी भी हर साल यही इच्छा रहती है कि मैं उनकी पत्रिका के लिए कोई विशेष महत्व की मौलिक रचना लिख भेजूँ। लेकिन हर साल मेरा वह संकल्प कोरा संकल्प ही साबित होता है, कभी वह कार्य रूप में परिणत नहीं हो पाता। यहाँ तक कि उनकी चिट्ठी का मैं जवाब भी नहीं दे पाता हूँ।
किसी भी चिट्ठी का जवाब न देना एक अक्षम्य अपराध है, यह औरों की भांति मैं भी समझता हूँ। फिर भी मैं हमेशा यह अपराध करता हूँ और मन ही मन इसके लिए दुखी भी होता हूँ। मैं यह अपराध क्यों करता हूँ, इसे समझने मौका मेरे दूरस्थ मित्रों को कभी मिला भी नहीं। इसी वजह से वे भी मन ही मन मुझे भला-बुरा कहते हैं। शायद वे मुझे पाखंडी या अर्थलोलुप भी समझते होंगें।
लेकिन संसार में ‘आलसी’ जाति के आदमी भी होते हैं, इस बात से कोई भी अपरिचित नहीं होगा। मैं भी उसी जाति का एक आदमी हूँ। और मैं जो उस ‘आलसी’ जाति के लोगों का शिरमौर हूँ, इस बात का आविष्कार संभवत: सबसे पहले पिता ने ही किया था।
बचपन में पिताजी अक्सर कहा करते: यह लड़का आलसियों का बादशाह है, इससे कछ भी नहीं होगा।
पिताजी की दूरदृष्टि कैसी सटीक थी, यह सोच-सोच कर में आज भी हैरान रह जाता हूँ। कारण यह है कि पिताजी की प्रत्येक भविष्यवाणी अक्षरश: सत्य सिद्ध हुई है।
पिताजी यह भी कहते: इतना मुँहचोर होने पर तुम जीवन में उन्नति कैसे करोगे?
मैं उन्नति करना चाहता ही नहीं, यह बात मैं उस दिन पिताजी को समझा नहीं सका था। पिताजी की नजरों में उन्नति का मतलब था: मोटी तनख्वाह की सरकारी नौकरी, कलकत्ता में एक मकान और साथ ही साथ एक गाड़ी। और उन्नति का सबसे बड़ा लक्षण था: एक मोटा ‘बैंक-बैलेंस’। इस प्रकार की उन्नति की कामना न करना पिताजी की निगाहों में एक बहुत बड़ा अपराध था, और सिर्फ मेरे पिता जी ही क्यों, पृथ्वी के सारे पिता अपने पुत्र की उसी तरह की उन्नति की कामना करते हैं।
मेरे पिताजी आज जीवित नहीं हैं। अगर वे जीवित होते तो मेरी यह परिणति देखकर निश्चित रूप से खूब ही दुखी होते। कारण यह है कि सचमुच ही मेरी उन्नति नहीं हुई।
शुरू-शुरू में उन्होंने सोचा था कि मैं विलायत जाकर बैरिस्टरी की परीक्षा पास करूँ। उनका एक लड़का डाक्टर बना और एक लड़का इंजीनियर। सबसे छोटे-लड़के को बैरिस्टर बनना चाहिए। बात कहने में भी अच्छी लगती थी और सुनने में भी। लेकिन मैंने उनकी पहली आशा पर ही तुषारापात किया था। इसका कारण यह है कि मैंने उसी दिन साफ-साफ शब्दों में बता दिया था कि वकील मुख्तार बैरिस्टर बनने पर झूठ बोलना होगा। इसलिए यह मेरे द्वारा मुमकिन नहीं। पिताजी मेरो तर्क सुनकर हतवाक हो गए थे। हताशा, क्षोभ और दु:ख का मानो उन पर पहाड़ टूट पड़ा था। कुछ देर के बाद उन्होंने कहा था: तो फिर तुम चार्टर्ड-एकाउंटेंसी पढ़ो। इस लाइन में भी बेशुमार रूपए कमाए जा सकते हैं।
पिताजी सही मायने में मेरा भला चाहने वाले थे। इसलिए उन्हें भी ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता। कारण यह कि रुपया ही दुनिया में बड़ा होने का सबसे बड़ा मापदंड है, दूसरे पिताओं की भांति मेरे पिता जी भी यह भलिभांति समझते थे। मैंने जब उनसे कहा था कि चार्टर्ड-एकाउंटेंसी भी एक तरह से हिसाब में गोलमाल कर टैक्स की चोरी करने का तरीखा सिखाने की विद्या है, तब मुझे याद है कि वे मन ही मन बहुत नाराज हो गए थे।
उन्होंने कहा था : ‘तो फिर तुम बड़े होकर करोगे क्या?’
मैंने कहा था : ‘मैं बंगला भाषा में एम.ए. करूँगा।’
‘बंगला में एम.ए. करके क्या बनोगे? स्कूल मास्टर?’
मैंने कहा था : ‘नहीं, मैं लेखक बनूंगा।’
पिताजी ने पूछा था: ‘लेखक बनोगे, इसका मतलब ? लेखक होने पर भी तो तुम्हें दिन के वक्त बंधी हुई तनख्वाह की एक नौकरी करनी होगी।’
मैंने कहा था : ‘नहीं ....। लेखक, यानी सिर्फ लेखक। पूरे वक्त का लेखक, सैंट-परसैंट लेखक ....। मैं नौकरी करके पार्ट-टाइम का ग़ुलाम लेखक नहीं बनना चाहता।’
पिताजी मेरी बात सुनकर मानो आकाश से नीचे गिर पड़े थे। उन्होंने कहा था: ‘क्या लिखकर कोई लेखक रूपए कमा पाता है? लिखकर भला कोई रूपए वाला बना है? शरत् बाबू का भला कितना बैंक-बैंलेंस था? माइकेल मधुसूदन दत्त को तो रुपयों के अभाव के कारण अस्पताल में बिना इलाज के मरना पड़ा था, यह क्या तुम जानते हो?’
पिताजी के सामने मैं इन बातों का कोई सीधा जवाब नहीं दे सका था। मैं कह नहीं सका था कि बैंक-बैंलेंस देखकर मैं किसी मनुष्य का मूल्यांकन नहीं कर सकता। बैंक-बैंलेंस तो बहुतों के पास होता है। क्या वे सभी मनुष्य होते हैं? और अस्पताल में मरने की विवशता? मरना तो एक दिन होगा ही, तो अस्पताल में बिना इलाज के मरने के बजाय अपने घर पर डाक्टरों की दवा खाकर मरने की यंत्रणा क्या कुछ कम होगी?
आज इतने दिनों के बाद पुराने दिनों की वे बातें याद आ रही हैं। सचमुच, पिताजी की दुरदृष्टि गजब की थी।
पिताजी अपने तर्क को सशक्त बनाने के लिए अक्सर कहा करते : ‘दुनिया में बड़ा आदमी बनने के लिए अपना ढोल खुद अपने आप पीटना होता है। कुर्सी पर आसीन लोगों की तारीफ और खुशामद करनी पड़ती है। झूठ होने पर भी प्रिय बातें कहनी पड़ती है। पाँच आदमियों के साथ मिलना-जुलना पड़ता है। तुम तो हो पहले सिरे के मुँहचोर, तुम यह सब कैसे कर सकोगे? तुम कह रहे हो कि तुम लेखक बनोगे। सो इस लाइन में भी ज़रूर दलबाजी है। तुम्हें संपादकों की मक्खनबाजी करनी होगी, प्रकाशकों के दरवाज़े पर धरना देना होगा और जो लोग पुरस्कार देते हैं : उनका स्तुति गान करना होगा। कोशिश-पैरवी के बिना तो नोबेल पुरस्कार भी नहीं मिलता। तुम्हारे जैसा मुँहचोर आदमी क्या यह सब कर सकेगा?
मैंने कहा था: ‘मैं यह सब कुछ भी नहीं चाहता। मैं सिर्फ अपने घर में बैठा-बैठा लिखूँगा।’
पिताजी ने कहा था : ‘तो फिर तुम्हारा कुछ भी होना नामुमकिन है।’
मेरे दिल्ली के मित्र यह सब जानते हैं या नहीं, कह नहीं सकता। अगर वे नहीं जानते तो उनकी जानकारी के लिए कह दूँ कि सचमुच ही मेरा कुछ भी नहीं हुआ। किसी दल में शामिल होने की स्वाभाविक प्रवीणता नहीं होने के कारण दल में रहने की सुविधाओं से मैं वंचित हुआ हूँ, वैसे ही दल के बाहर रहने के कारण होने वाली असुविधाओं को मैं पूरी यात्रा में झेलता और भोगता आया हूँ। लेकिन अहंकारी समझा जाने का खतरा मोल लेकर भी मैं कहना चाहूँगा कि पाठक-पाठिकाओं की ज़रूरत के अनुसार लिखकर लोकप्रियता अर्जित करने की जो राह प्रत्येक साहित्यकार के सामने खुली होती है, अपनी प्रतिष्ठा या स्वार्थसिद्धि के लिए यह सहजतम रास्ता चुन लेने की भूल मैंने कभी नहीं की। और फिर लोकप्रियता कायम रखने के लिए सचाई का छद्मवेश धारण कर अपनी सही जिम्मेदारी से कौशलपूर्वक बच निकलने की कोशिश भी मैंने कभी नहीं की।
और एक बात। आज जो आधुनिक है, कल वही प्राचीन हो जाएगा। और फिर कल जो आधुनिक होगा, परसों वही प्राचीन हो जायेगा। लेकिन शाश्वतता की दृष्टि से आधुनिक या प्राचीन की सारी संज्ञाएँ अर्थहीन हैं। शाश्वत शब्द भी बड़ा भ्रामक हो गया है। व्यापक प्रयोग के कारण इस शब्द का सही अर्थ विलुप्त होता जा रहा है। आधुनिक आकाश और आधुनिक समुद्र की तरह आधुनिक साहित्य भी कटहल के अमचूर की भांति ही अवास्तविक है। और भी स्पष्ट करते हुए इसे यूँ कहा जा सकता है कि आधुनिकता की संज्ञा कितनी गुणवाचक नहीं, उससे अधिक है कालवाचक। जो वस्तु क्षणभुंगर होती है, उसे लेकर महाकाल कोई सरदर्द मोल नहीं लेता। इसीलिए मैं अपनी रचनाओं में क्षण-काल के बदले चिरकाल की ही सर्वदा पूजा-आराधना करता आया हूँ।
तो फिर चारों तरफ इतनी पत्रिकाओं में ढेर-सारी रचनाएँ आप जो देखते हैं, उसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मैं लेखक हूँ। इसका एकमात्र कारण यही है कि मेरी रचनाएँ छापने पर पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री बढ़ती है, और बिक्री बढ़ने पर ही उन्हें अर्थ-लाभ होता है। प्रकाशकों के मामले में भी यही बात है। प्रकाशक लोग मेरी किताबें छापने के लिए इतने उतावले और उत्सुक रहते हैं, इसका कारण भी वही है। मेरी किताबें छापने पर प्रकाशकों का बैंक-बैलेंस बढ़ता है। इसीलिए सुदूर केरल, मैसूर, उड़ीसा, इलाहबाद, बंबई, जयपुर और दिल्ली से आकर प्रकाशक लोग अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद कर किताबें छापने के लिए मुझ से अनुमति ले जाते हैं। उद्देश्य एक ही है, रुपए कमाने का। लेकिन क्या कोई भी मुझे लेखक के रूप में स्वीकार करता है?
अतएव अपने लेखक-जीवन में मैं स्वयं अपने-आप का चरमशत्रु हूँ। और उसी शत्रुता की सबसे-बड़ी सहायिका है मेरी लोकप्रियता। इतनी लोकप्रियता नहीं होने पर संभवत: मैं एक दिन सचमुच ही सही अर्थों में लेखक हो पाता।
इसीलिए अब सोचता हूँ कि पिताजी जो कुछ कहा करते थे, ठीक ही कहते थे। मेरे जैसे मुँहचोर आदमी का सचमुच कुछ नहीं हो सकता। सचमुच मेरा कुछ हुआ भी नहीं। यह भी सच है कि इस बात का मुझे अफसोस भी नहीं है। आखिर जीवन में कुछ होना ही पड़ेगा, ऐसी कोई अनिवार्यता तो नहीं। आकाश का आकाश होना अथवा समुद्र का समुद्र होना ही क्या पर्याप्त नहीं? लेखक मैं नहीं बन पाया, न सही। मूलत: तो मैं एक मनुष्य ही हूँ। मनुष्य होना ही मेरे लिए पर्याप्त है। क्योंकि तरु-लता सहज ही तरु-लता होते हैं, पशु-पक्षी सहज ही पशु-पक्षी होते हैं, लेकिन मनुष्य अनेक कष्टों के बाद, अनेक यंत्रणाओं के बाद, अनेक साधनाओं के बाद और अनेक तपस्याओं के बाद मनुष्य बन पाता है। क्या मैं वैसा मनुष्य ही भला बन पाया हूँ?
अनुवादक : शंभुनाथ पाडिया ‘पुष्कर’