कश्मीर में हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ -प्रो. चमनलाल सप्रू

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लेखक- प्रो. चमनलाल सप्रू

जम्मू-कश्मीर राज्य छोटा भारत है। यहाँ अनेक भाषाभाषी लोग रहते हैं। यहाँ कई इलाके ऐसे हैं, जहाँ बर्फ पिघलने का नाम ही नहीं लेती तो कई इलाके ऐसे भी हैं, जो गर्मियों में तापमान की दृष्टि से देश के किसी भी गर्म क्षेत्र की याद दिलाते हैं। मुख्यतया राज्य में जो प्रमुख भाषाएँ एवं बोलियाँ बोली जाती हैं, वे हैं- उर्दू, हिन्दी, कश्मीरी, डोगरी, बौद्धी (लद्दाखी), बल्ती, पंजाबी एवं गोजरी (पहाड़ी)। इनमें भी तीन प्रमुख भाषाएँ कश्मीरी, डोगरी और लद्दाखी राज्य की तीन इकाइयों की तीन प्रमुख भाषाएँ हैं। यह एक विडंबना है कि उर्दू राज्य के किसी भी व्यक्ति की मातृभाषा न होते हुए भी पूरे राज्य की संपर्क भाषा है और साथ ही राजभाषा भी है।
डोगरा शासकों के जमाने से ही जम्मू-कश्मीर राज्य की सरकारी जबान उर्दू है, जिसे 1947 के बाद अवामी सरकार ने भी प्रत्यक्ष कारणों से राजभाषा के रूप में राज्य के संविधान में भी स्वीकृत किया। लद्दाख यद्यपि क्षेत्रफल की दृष्टि से राज्य का दो तिहाई भूखंड है, किंतु जनसंख्या की दृष्टि यह बहुत ही छोटा इलाका है। 1947 के बाद से यहाँ शिक्षा का व्यापक प्रचार होने लगा है। उर्दू और बौद्धी के साथ साथ यहाँ के लोग हिन्दी के पठन पाठन में भी रुचि ले रहे हैं। इन पंक्तियों के लेखक को इस बात का गर्व है कि लद्दाख का प्रथम एम. ए. हिन्दी, श्री दुर्जेय छवाँग जो जम्मू-कश्मीर शिक्षा विभाग में गत 12 वर्षों से हिन्दी प्रवक्ता के रूप में काम कर रहा है, लेखक का छात्र रहा है और अब तो राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के लेह केंद्र तथा बौद्ध दर्शन महाविद्यालय लेह के सतप्रयत्नों से वहाँ हिन्दी के जानकारों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। जम्मू क्षेत्र को मैं हिमाचल प्रदेश की ही भांति हिन्दी क्षेत्र ही मानता हूँ। अधिकांश लोग देवनागरी लिपि से परिचित हैं। नई पौध (80 प्रतिशत) देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा की जानकार है। डोगरी भाषा के लिए सरकार ने यद्यपि फ़ारसी एवं देवनागरी दोनों लिपियों को मान्यता दी है, फिर भी डोगरी के लिए व्यावहारिक दृष्टि से केवल देवनागरी लिपि का ही प्रयोग किया जाता है। यह बात संतोषजनक है कि साहित्य अकादमी द्वारा जो डोगरी साहित्यकार अब तक पुरस्कृत हुए हैं, वे सब हिन्दी के भी साहित्यकार हैं।
कश्मीर घाटी आबादी के लिहाज से जम्मू-कश्मीर राज्य का सबसे बड़ा क्षेत्र है। यहाँ पर सभी लोग कश्मीरी बोलते हैं, जो उनकी मातृभाषा है। उर्दू का व्यापक प्रयोग होता है, जो सरकारी जबान है। हिन्दी सभी समझते हैं और पढ़े-लिखे लोग इसका व्यावहारिक प्रयोग कर सकते हैं। यही कारण है कि जब भी देश के अन्य प्रदेशों से हिन्दी विरोधी आवाज़ सुनाई दी कश्मीर से कभी ऐसा नारा नहीं सुनाई दिया। वास्तव में कश्मीर सदैव धार्मिक एवं भाषायी स्तर पर सहिष्णुता का एक जिन्दावेद उदाहरण रहा है। यहाँ पर प्राचीन काल से ही धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और आदान-प्रदान रहा है। यहाँ के लोगों ने हर अच्छी बात को स्वीकारा है और आत्मसात किया है। कश्मीर में प्राचीन काल से देश के कोने-कोने से यात्री अमरनाथ और क्षीर भवानी की यात्रा के लिए आते रहे हैं। असंख्य पर्यटक यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य देखने के लिए आते रहते हैं। अत्यंत प्राचीन शिक्षा केंद्र होने के कारण जिज्ञासु शिक्षार्थी भारी संख्या में यहाँ आते रहे हैं। अनेक कश्मीरी व्यापारी, कारीगर एवं मज़दूर जोड़ों में आर्थिक कारणों से देश के विभिन्न प्रांतों में, विशेषकर उत्तर भारत में, चले आते हैं। इस आदान प्रदान के कारण हिन्दी कश्मीर लोगों के लिए संपर्क भाषा के रूप में बहुत पहले से व्यवहृत हुई है।
 

स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी की स्थिति

कश्मीर में स्वतंत्रता से हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सरकारी तौर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री गोपाल स्वामी अय्यंगर और शिक्षा निदेशक ख्वाजा ग़ुलामुसैयदैव (1940) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने देवनागरी और फ़ारसी लिपि में आसान उर्दू को राज्य के लिए शिक्षा का माध्यम स्वीकार किया और इसी परिप्रेक्ष्य में पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कराया। पं. हरमुकुंद शास्त्री, पं. श्रीधर कौलडुलु, प्रो. श्रीकंठतोषखानी, पं. ताराचंद सप्रू आदि शिक्षा शास्त्रियों ने व्यक्तिगत प्रयत्नों से राजकीय स्कूलों में हिन्दी के पठन पाठन को बढ़ावा दिया। आर्य समाज, सनातन धर्म सभा, हिन्दी सहायक सभा, हिन्दी परिषद, हिन्दी प्रचारिणी सभा, कश्मीर हिन्दी साहित्य सम्मेलन आदि सांस्कृति-साहित्यिक संस्थाओं ने गैर सरकारी क्षेत्र में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्हीं दिनों कश्मीर घाटी से कई हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हुईं, जिनमें स्थानीय हिन्दी लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं। इनके नाम हैं- चंद्रोदय, महावीर वितस्ता, ज्योति, इनके चलाने वालों में दुर्गा प्रसाद काचरू, दीनानाथ दीन, गोविन्द भट्ट शास्त्री और प्रेमनाथ बजाज आदि का नाम उल्लेखनीय है। इस समय के हिन्दी प्रेमियों में डाक्टर कुलभूषण तथा पं. दौलतराम शर्मा, रामचंद्र कौल अभय, पं. अमरनाथ काक, जानकीनाथ दर (वानप्रस्थी), जियालाल जलाली आदि का नामोल्लेख करना आवश्यक है। इन्होंने स्वतंत्रता से पूर्व कश्मीर में हिन्दी का वातावरण बनाने में मिशनरियों की तरह काम किया है।
 

1947 के बाद हिन्दी की स्थिति

कश्मीर घाटी में आज़ादी के बाद हिन्दी के प्रचार-प्रसार को व्यापक गति मिली। सरकारी सुविधाएँ प्राप्त हुई। कालिजों में हिन्दी के ऐच्छिक विषय के रूप में पठन पाठन की व्यवस्था हुई। आज लगभग 60 से अधिक प्राध्यापक केवल दो विश्वविद्यालयों और लगभग 20 डिग्री कालिजों में हिन्दी पढ़ाते हैं और शोधकार्य में मार्ग दर्शन करते हैं। जम्मू एवं कश्मीर के विश्वविद्यालयों में हिन्दी के छात्र-छात्राओं तथा शोधार्थियों की संख्या उत्साहवर्धक है। कश्मीर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग ने अनेक शोध प्रबंध हिन्दी संसार को दिए हैं।
कश्मीर सरकार के द्वारा संस्थापित 'कल्चरल अकादमी' ने बीसियों हिन्दी ग्रंथ प्रकाशित किए हैं। अनेक हिन्दी लेखकों को अपनी पुस्तकें प्रकाशित करने हेतु आर्थिक अनुदान दिया है। प्राय: सभी प्रतिष्ठित हिन्दी लेखकों को पुरस्कृत भी किया है। अकादमी एक द्वैमासिक हिन्दी पत्रिका 'शीराजा' भी प्रकाशित करती है। राज्य का सूचना विभाग एक मासिक हिन्दी पत्रिका 'योजना' का भी प्रकाशन करता है। रेडियो, कश्मीर श्रीनगर से कश्मीर, उर्दू के अतिरिक्त अब हिन्दी के कार्यक्रम भी प्रसारित होते हैं। युववाणी के हिन्दी कार्यक्रमों के प्रस्तोता अब्दाल अहमद 'महजूद' प्रथम कश्मीरी भाषाभाषी मुसलमान हैं, जिसने हिन्दी में एम.ए. किया है। अब तो अनेक मुसलमान स्नातकोत्तर स्तर तक हिन्दी का शिक्षण करते हैं। कश्मीर विश्वविद्यालय का पत्राचार संस्थान भी हिन्दी सर्टिफ़िकेट कोर्स चलाता है। फ़िल्मों और आकाशवाणी की विविध भारती सेवा के द्वारा भी घाटी में हिन्दी का वातावरण तैयार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कश्यप और प्रकाश नामक दो साहित्यिक पत्रिकाएँ काफ़ी समय तक प्रकाशित हुईं। इन पत्रिकाओं ने स्थानीय लेखकों को हिन्दी जगत् से परिचित कराने में उल्लेखनीय योगदान दिया है।
 

जम्मू-कश्मीर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति

वर्धा समिति के संरक्षण में वर्ष 1956 ई. में पं. शंभूनाथ पारिमू, प्रो. जगद्धर जाडू, प्रहलाद सिंह और इन पंक्तियों के लेखक ने कश्मीर समिति की स्थापना की। इसकी प्रमुख उपलब्धि यह है कि अब तक लगभग 50,000 परीक्षार्थियों ने वर्धा समिति की विभिन्न परीक्षाओं में भाग लिया। इनमें 22,000 मुस्लिम छात्र-छात्राएँ हैं। इस समय समिति राज्य के दूरस्थ भागों में लगभग 40 केंद्र चलाती है, जहाँ हिन्दी नि:शुल्क पढ़ाई जाती है। हिन्दी का एक टंकण एवं आशुलिपि प्रशिक्षण केंद्र चल रहा है। श्रीनगर में एक केंद्रीय हिन्दी पुस्तकालय है और राज्य के प्रमुख ज़िलों में भी हिन्दी पुस्तकालय हैं। समिति की ओर से स्थानीय हिन्दी लेखकों की प्रतिनिधि रचनाओं का प्रकाशन 'नीलजा' वार्षिक संग्रह में प्रकाशित होता है। अब तक सात संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
 

शेख साहि और हिन्दी

शेर-ए-कश्मीर शेख मुहम्मद अब्दुल्लाह उन स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों में से एक थे, जिन्हें महात्मा गांधी के सान्निध्य में काम करने का अवसर मिला था। इसलिए बापू की विचारधारा का उन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा भा। महात्मा गांधी राजनीतिक स्वतंत्रता से अधिक मानसिक स्वतंत्रता को महत्त्व देते थे। इस पृष्ठभूमि का प्रभाव गांधी जी के निकटतम सहयोगियों पर पड़ा था। शेख साहिब भी इस विचारधारा से प्रेरित हुए थे। उन्होंने 1947 में शासन की बागडोर संभालने के साथ ही भाषा संबंधी नीति को स्पष्ट किया और मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा दिलवाने के लिए प्रयत्नशील रहे। उनके मार्गदर्शन में कश्मीरी, डोगरी आदि का जितना विकास हुआ, वह पहले कभी नहीं हुआ था।
अपने जेल प्रवास में शेख साहिब ने स्वयं हिन्दी सीख ली और अनेक बार हिन्दी के महत्त्व पर भाषण दिया। उन्होंने कभी हिन्दी का विरोध नहीं किया, बल्कि हिन्दी विरोधी देश द्रोहियों की खुलकर आलोचना की। शेख मुहम्मद अब्दुल्लाह उन महान् पुरुषों में से हैं, जिन्होंने भारतीय संविधान का निर्माण किया। संविधान पर उनके हस्ताक्षर हिन्दी में हैं। जबकि अनेक सदस्यों ने अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर किए हैं। यह उनके देशप्रेम और स्वाभिमान का एक ज्वलंत प्रमाण है।
गांधी जन्म शताब्दी के अवसर पर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति श्रीनगर के विशेष अधिवेशन पर उन्होंने जो अध्यक्षीय भाषण दिया, वह एक तारीखी दस्तावेज है। इस अभिभाषण से उनकी भाषा-नीति एवं राष्ट्रभाषा के प्रति उनके विचार स्पष्ट हैं।
जम्मू-कश्मीर राज्य के शासन की बागडोर पुन: संभालने के उपरांत शेख साहिब ने एक आदेश के द्वारा शिक्षा विभाग को हिन्दी के जानकार अध्यापकों-अध्यापिकाओं को उर्दू सिखाने और उर्दू के जानकार अध्यापकों-अध्यापिकाओं को हिन्दी सिखाने के निर्देश दिए। शिक्षा विभाग के इस निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए कश्मीर विश्वविद्यालय के पत्राचार संस्थान ने एक पाठ्यक्रम बनाया। अध्यापक-अध्यापिकाओं ने हिन्दी का सर्टिफ़िकेट कोर्स उत्तीर्ण किया।
आज जम्मू-कश्मीर में हिन्दी का प्रचार-प्रसार बड़े सुव्यवस्थित ढंग से हो रहा है। इस राष्ट्रीय कार्य के लिए महात्मा गांधी और शेख साहिब की पुनीत प्रेरणा ही हिन्दी प्रेमियों का संबल है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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