देश की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी का योगदान -डॉ. राजकिशोर पांडेय
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- लेखक- डॉ. राजकिशोर पांडेय
भारतीय संविधान के 351वें अनुच्छेद में हिन्दी के स्वरूप एवं उसके लक्ष्य के संबंध में विचार करते हुए कहा गया है कि वह अपनी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी और अष्टम सूची में उल्लिखित अन्य भारतीय भाषाओं के रूप, शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करेगी और देश की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों का माध्यम होगी। संविधान में हिन्दी के स्वरूप एवं लक्ष्य के संबंध में जो कल्पना की गई है, वह हिन्दी की मूल प्रकृति के अनुकूल है। हिन्दी संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के उस रूप की उत्तराधिकारियाणी है, जिसका प्रयोग इस देश में अंतप्रांर्तीय व्यवहार के माध्यम के रूप में हो रहा था। एक प्रमुख संपर्क भाषा होने के के कारण इसका संबंध देश की भाषाओं के साथ, उन विदेशी भाषओं क साथ भी हो रहा है, जो विदेशी लोगों के आगमन के फलस्वरूप इस देश में आई। इस कारण इसके शब्द भंडार के निर्माण एवं स्वरूप के विकास में इन भाषाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। रूप निर्माण की दृष्टि से हिन्दी संयोगात्मक से वियोगात्मक अवस्था की ओर अग्रसर हो रही है। इसमें संस्कृत के गणों, लकारों, विभक्तियों, एवं प्रत्ययों की क्लिष्ट परंपरा नहीं है। अन्य भाषाओं के संपर्क के कारण हिन्दी में विभिन्न भाषाओं के शब्दों को आत्मसात् करने की प्रवृत्ति नहीं है। संस्कृत इस देश की प्राचीन भाषा है। वह हिन्दी एवं देश की अधिकांश भाषाओं की जननी है। संस्कृत इस देश के धर्म, संस्कृति एवं चिंतन की परंपराओं की प्रतीक है। देश की सांस्कृतिक एकता एवं स्थिरता में संस्कृत का महत्वपूर्ण योगदान है। विभिन्न विषयों की अभिव्यंजना की इसमें शक्ति है। देश के आर्य परिवार की हिन्दी, उड़िया, बंगला, असमिया, गुजराती आदि भाषाओं के शब्द भंडार में संस्कृत के शब्द प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। द्रविड़ परिवार की भाषाओं - तेलुगू, तमिल और मलयालम का शब्द भंडार भी संस्कृत से पर्याप्त प्रभावित है। भारत की सभी भाषाओं में संस्कृत शब्दों की बहुलता के कारण हिन्दी के शब्द भंडार में ऐसे शब्दों की एक लंबी सूची है, जिनका प्रयोग तत्सम् तथा तद्भव रूप में देश की सभी भाषाओं में होता है। मुसलमानों एवं यूरोपीय जातियों से संपर्क के कारण बहुत से विदेशी शब्द हिन्दी में आए और हिन्दी देश के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग के कारण विभिन्न भारतीय भाषाओं के शब्दों को हिन्दी शब्द भंडार ने आत्मसात् किया। देश की अन्य भाषाओं के मुकाबले में तमिल से हिन्दी अपेक्षाकृत दूर की भाषा समझी जाती है, किंतु दोनों भाषाओं के शब्द भंडार में सैकड़ों शब्द समान हैं। उदाहरणार्थ, तमिल में प्रयुक्त होने वाले मनम्, काव्यम्, राजनीति, आशीर्वादम्, कुलम, उपदेशम्, युद्धम्, जलम्, विषम्, पुस्तकम्, विमानम्, समयम्, दिव्यम्, विवादम्, विदेशी, मीन आदि शब्दों को लिया जा सकता है। तमिल में प्रयुक्त होने वाले ऐसे शब्दों की संख्या भी पर्याप्त है, जो हिन्दी में प्रयुक्त होने वाले शब्दों से मिलते जुलते हैं। उदाहरणार्थ, बूमि (भूमि), पूजै (पूजा), वारिया (भांया), दनम् (धन), विदुवान (विद्वान), स्तानम् (स्थान), रात्रिरि (रात्रि), लावम् (लाभ), मिट्टाय (मिठाई) आदि शब्दों को लिया जा सकता है।
विभिन्न भाषाओं के शब्दों का अपनाने के कारण हिन्दी का शब्द भंडार समृद्ध हुआ है। अपनी इसी प्रकृति के कारण हिन्दी देश की विभिन्न भाषाओं के शब्दों के साथ साथ अंग्रेजी, फारसी, अरबी आदि भाषाओं के शब्दों को भी अपना सकी है। साहित्य में इस प्रवृत्ति के संकेत हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रारंभ से ही पाया जाता है। प्रारंभिक युग के महाकाव्य पृथ्वीराज रासों में फारसी शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। भक्तिकाल में कबीर आदि संत कवि जो परंपरा विरोधी थे, उनकी भाषा में तो फारसी शब्दों का प्रयोग हुआ ही है, तुलसी जैसे परंपरावादी भक्त कवियों ने ग़रीब, नेवाज, दाम जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। रीतिकाल के कवियों की रचनाओं में फारसी शब्दों का प्रयोग बहुत हुआ है। ऐसा लगता है मिली जुली भाषा का प्रयोग उस युग में बड़े कवि का लक्षण बन गया था, जिसके कारण भिखारी दास को कहना पड़ा ‘तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार, इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार’।
अपनी इसी प्रकृति के कारण हिन्दी देश की सामाजिक संस्कृतिक की अभिव्यक्ति में महत्वपूर्ण योगदान दे सकी हे। इसका संबंध किसी विशेष धर्म, संप्रदाय के लोगों से नहीं रहा है। इसके साहित्य की समृद्धि में देश की विभिन्न क्षेत्र के साहित्याकारों एवं विभिन्न धर्म और जाति के व्यक्तियों का योगदान है।
इसके एक हजार वर्षों से हिन्दी इस देश में विभिन्न भाषाभाषी प्रांतों की प्रमुख संपर्क भाषा एवं धार्मिक, सांस्कृतिक एवं व्यापारिक केंद्रों में आदान प्रदान का माध्यम रही है। हिन्दी के व्यापक प्रसार को दृष्टि में रखकर अखिल भारतीय स्तर पर अपने विचारों के प्रसार के लिए विभिन्न प्रांतों के संतों, महात्माओं एवं साधकों ने हिन्दी का सहारा लिया। बंगाल के सिद्धों नाथ पंथ के महात्माओं एवं सूफी संतों ने कई शताब्दियों पूर्व हिन्दी के माध्यम से अपने विचारों का प्रचार किया। महामहोपाध्याय हरिप्रसाद शास्त्री द्वारा संपादित बौद्धगान-ओ-दोहा से पता चलता है कि सातवीं शताब्दी में बंगाल के सिद्ध अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी का प्रयोग करते थे। नाथ पंथ के प्रसिद्ध महात्मा गोरखनाथ (11वीं शताब्दी) का जन्म उत्तर भारत में हुआ था या दक्षिण में, यह विवाद का विषय है। किंतु पूरा देश इनका कार्यक्षेत्र था। इन्होंने समूचे देश का भ्रमण किया और अपने विचारों के प्रचार के लिए संस्कृत के साथ हिन्दी का सहारा लिया।
हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक युग में गहनीनाथ, मुक्ताबाई, एवं नामदेव आदि महाराष्ट्र के संतों ने मराठी के साथ हिन्दी में भी रचनाएँ की और देश के विभिन्न क्षेत्रों के सूफी महात्माओं ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी को अपनाया। मसूद, शेख फरीबद और बू अली कलंदर जैसे सूफी संतों की हिन्दी रचनाएँ उपलब्ध हैं। तजकिरों में ऐसे वृतांत उपलब्ध होते हैं, जिनसे पता चलता है कि सूफी संत अरबी फारसी के अच्छे विद्वान् होने पर भी दैनदिन व्यवहार में हिन्दी का प्रयोग करते थे। इनके यहाँ आयोजित सत्संगों में सभी जातियों और संप्रदायों के लोग सम्मिलित होते थे और ये अपने उपदेश हिन्दी में देते थे।
सांस्कृतिक समन्वय की दृष्टि से हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक युग में अमीर ख़ुसरो का विशेष महत्व है। फारसी का बड़ा कवि और लेखक होने पर भी अमीर ख़ुसरो ने हिन्दी में भी रचनाएँ की। उन्होंने विभिन्न शैलियों एवं रूपों में बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया। उन्होंने ऐसी गजलें लिखी, जिनमें पहली पंक्ति में फारसी तथा दूसरी पंक्ति में हिन्दी है। उन्होंने बरखा में लय रखने की नीति निकाली एवं कव्वाली में अनेक राग गाए। उन्होंने पहेली के विभिन्न रूपों अंतर्लापिका, बहिर्लापिका, मुकरी और दोसरवुना की रचना की। अमीर ख़ुसरो ने हिन्दी में रचना करके इस देश की एक भाषा के लिए जो प्रेम प्रदर्शन किया वह उनकी राष्ट्रीय भावना का एक अंग था। उन्होंने अपनी फारसी मसनवियों में भारतवर्ष, यहाँ के लोगों और वस्तुओं का जो वर्णन किया है, उससे उनके हदय में इस देश के प्रति अगाध प्रेम व्यक्त होता हे। उन्होने इस देश को अपनी मातृभूमि के रूप में देखा है और उसकी महत्ता कावर्णन किया है। उन्होंने भारतीय फूलों, नदियों एवं स्त्रियों से अच्छा बतलाया है। उन्होने भारतवर्ष को स्वर्ग के रूप में चित्रित किया है।
मध्ययुग में कुछ महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक कारणों से हिन्दी के प्रचार प्रसार के साथ उसके अंतप्रांर्तीय व्यवहार को बल मिला। प्राचीन काल में द्रविड़ देश में उत्पन्न भक्तिभावना ने मध्य युग में आंदोलन का रूप ग्रहण किया। विभिन्न प्रदेशों के आचार्य महात्माओं ने वृदांवन को अपने विचारों के प्रसार का केंद्र बनाया। कृष्ण की लीलाभूमि होने के कारण वृंदावन का भावनात्मक महत्व था। किंतु इन महात्माओं ने त्याग प्रधान भारतीय संस्कृति की रक्षा एवं उसका महत्व स्थापित करने के लिए जिस यज्ञ का अनुष्ठान किया था, उसके लिए व्यावहारिक दृष्टि से भी सर्वाधिक उपयुक्त स्थान वृदावन था। उन दिनों वृदावन से कुछ ही मील की दूरी पर आगरा में मुग़लों की राजधानी थी। राजनीतिक एवं व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ यह नगर भौतिकता प्रधान नागरिक संस्कृतिक का केंद्र था। भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान की दृष्टि से वृंदावन को केंद्र बनाकर विभिन्न संप्रदायों के कृष्णभक्त महात्माओं ने कृष्ण की लीलाओं के माध्यम से जिस जीवन दर्शन की अभिव्यक्ति की, उसके व्यापक प्रभाव का अनुमान रसखान जैसे मुस्लिम भक्त कवियों के ‘मानुष हौ तो वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन’ जैसे उद्गारों से लगाया जा सकता है।
गोस्वामी तुलसीदास जैसे रामभक्ति धारा के कवियों, कबीर जैसे निर्गुणियों संतों, और जायसी जैसे सूफी महात्माओं ने सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इस अनुष्ठान में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जाति पाति, ऊँच नीच के भेदभाव की निंदा, धर्म के आंडबरशून्य रूप की प्रतिष्ठा एवं त्याग प्रधान सरल जीवन पद्धति काप्रतिपादन इन संतों की रचनाओं का मूल स्वर है।
अहिन्दी भाषाभाषी क्षेत्र के बहुत से कवियों एवं महात्माओं ने भक्ति आंदोलन द्वारा प्रतिष्ठित भारतीय जीवन दर्शन के इस रूप को उजागर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। महाराष्ट्र के एकनाथ, तुकाराम, रामदास आदि संतों एवं लोक गीतकारों ने हिन्दी में रचनाएँ की, गुजरात के मालण, अरवा, दयाराम आदि भक्त कवियों ने अपनी भावना की अभिव्यक्ति के लिए हिन्दी का सहारा लिया, बंगाल के शासक हुसेन शाह के आश्रित कवि कुतुबन ने मृगावती नामक प्रेमाख्यानक काव्य की रचना की और बहुत से हिन्दी और मुसलमान कवियों ने विद्यापति के लीलापरक गीतो से प्रभावित होकर ‘ब्रजबुली’ में राधा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया, असम के शंकरदेव और नारायण देव ने हिन्दी में भक्तिपरक पदों और पंजाब के गुरुनानक, गुरु गोबिन्द सिंह आदि सिक्ख गुरुओं ने मुक्तक एवं प्रबंध काव्यों के माध्यम से भक्ति भावना की अभिव्यक्ति की।
मध्ययुग में दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार प्रसार को व्यापक बनाने में राजनीति परिस्थितियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। दक्षिण भारत पर खिलजी एवं तुगलक शासकों के आक्रमण के बाद बहुत से सैनिक एवं असैनिक अधिकारी, व्यापारी एवं सूफी संत उत्तर भारत से दक्षिण भारत में आए। मुहम्मद तुग़लक़ ने सन् 1327 में देवगिरि को राजधानी बनाया। किंतु उसके पूर्व भी उसने दिल्ली के बहुत से नागरिकों एवं सरकारी अधिकारियों को दक्षिण भारत में बसने को प्रोत्साहित किया।
दक्षिण भारत के विभिन्न भाषाभाषी नागरिकों एवं उत्तर भारत से आए हुए व्यक्तियों के बीच पारस्परिक आदान प्रदान की भाषा हिन्दी थी। गुलबर्गा, बीजापुर एवं गोलकुंडा के शासकों के संरक्षण में बहुत से कवियों एवं लेखकों के अनेक विधाओं में समृद्ध साहित्य का निर्माण किया, जिसकी लिपि तो फारसी है, किंतु भाषा हिन्दी है। यह साहित्य जो दक्खिनी साहित्य के नाम से जाना जाता है, हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति की दृष्टि से दक्खिनी साहित्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। दक्खिनी के कवियों एवं लेखकों ने अपनी भाषा में संस्कृत के तत्सम् और तद्भवों रूपों के साथ स्थानीय भाषाओं के शब्दों मुहावरों एवं लोकोक्तियों को अपनाया। दक्खिनी में तेलुगु, मराठी, एवं कन्नड़ के शब्द पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं और उसमें बहुत से ऐसे मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है, जो स्थानीय भाषाओं से अनूदित हैं। दक्खिनी के अधिकांश साहित्यकार मुसलमान है। किंतु उन्हें भारतीय रीति रिवाजों, हिन्दू त्यौहारों एवं हिन्दू परंपराओं का अच्छा ज्ञान था। कवियों और लेखकों ने ऐसी उपमाओं एवं रूपकों का अधिक प्रयोग किया है, जो भारतीय वातावरण के हैं। स्त्री की ओर से पुरुष के प्रति प्रेम प्रदर्शन संसार को जीव का मैके और परलोक और ससुराल का रूपक आदि भारतीय साहित्य की विशेषताएँ दक्खिनी साहित्य में दिखालाई पड़ती है। दक्खिनी के कवियों ने फारसी प्रेमकथाओं के साथ भारतीय प्रेम कथाओं कावर्णन अपनी मसनवियों में किया है और गद्य लेखकों ने पंचतंत्र हितोपदेश एवं शुक्र सप्तति की कथाओं का अनुवाद किया है। गोलकुंडा के शासक मुहम्मद कुली कुतुबशाह ने हिन्दू त्यौहारो, रीति रिवाजों का वर्णन अत्यंत मनोयोग से किया है और बीजापुर के शासक इब्राहीम आदिल शाह ने अपनी ‘नवरसनामा’ में ‘सरस्वती’ स्वच्छ, सुंदरी, महाऊतम जात निर्मल कहकर बाग्देवी की स्तुति की है। दक्खिनी के सूफी लेखकों ने धर्म विशेष के सिद्धांतों के खंडन मंडन से अपने को अलग रखा है। सृष्टि खुदा और जीव के वर्णन में इस्लाम की मान्यताओं के साथ साथ भारतीय दर्शन का भी पर्याप्त प्रभाव है। कुछ सूफी फ़कीरों ने गीता की भांति शरीर के भीतर पूरी सृष्टि ईश्वर के विराट रूप का दर्शन किया है। आबिदशाह के अनुसाद दोजखख् बहिश्त, खुदा, मुहम्मद और फरिश्ते सब इस शरीर में हैं। इसमें सूर्य, चंद्रमा, तारे, नदी, पहाड़ हैं इसमें आशिक माशुक दोनों है और काफिर तथा मुसलमान को कहीं अलग ढूँढने के लिए जाने की आवश्यकता नहीं हे। कई शताब्दियों पूर्व दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में प्रशासन के कई क्षेत्रों में हिन्दी या हिन्दुस्तानी का प्रयोग होता था। हिन्दी के व्यापक व्यवहार को ध्यान में रखते हुए दक्षिण के कुछ मुसलमान शासकों ने हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठि किया। ‘तारीख फरिश्ता’ के अनुसार बहमनी वंश के सुल्तानों के शासनकाल में क़रीब दो सौ वर्षो तक तथा बीजापुर और गोलकुडा के कुछ शासकों के शासनकाल में हिन्दी सरकारी कामकाज की भाषा थी। केरल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर के अनुसार 18वीं शताब्दी में केरल के राज्यों के प्रशासन में हिन्दी या हिन्दुस्तानी का महत्वपूर्ण स्थान था। मुस्लिम राज्यों से पत्र व्यवहार में प्रशासन की सहायता के लिए हिन्दुस्तानी मुंशियों की नियुक्ति की जाती थी। उपर्युक्त गजेयिर के अनुसार कोचीन के शासकों एवं टीपू सुल्तान के बीच एक संधि हुई थी जिस के अनुसार कोचीन के राजा के परिवार के सदस्यों को हिन्दुस्तानी सीखना अनिवार्य था। ?
मध्ययुग में व्यापार एवं उद्योग के क्षेत्र में हिन्दी काव्यापक रूप में प्रयोग होता था। उत्तर और दक्षिण भारत में व्यापारिक संबंध निरंतर बना रहा। धार्मिक एवं सांस्कृतिक केंद्रों की भाँति व्यापारिक केंद्रों में भी विभिन्न भाषाभाषी व्यक्तियों के बीच विचारों के आदान प्रदान की भाषा हिन्दी थी। दक्षिण में मुस्लिम राज्यों की स्थापना के बाद उत्तर और दक्षिण भारत के व्यापारिक संबंधों में और अधिक दृढ़ता आई। इब्नबतूता के अनुसार तेरहवी शताब्दी में पश्चिमी समुद्रतट पर बहुत से ऐसे व्यापारिक केंद्र थे, जहाँ अरब देशों के साथ व्यापार होता था। उन दिनों घोड़ों के आयात में बड़ी वृद्धि हुई। अरब से क़रीब दस हजार घोड़े प्रति वर्ष दक्षिण भारत में बिकने आते थे, जिनका मूल्य क़रीब बाईस लाख दीनार होता था। राजधानी बनने के बाद दौलताबाद भारत का एक बड़ा व्यापारिक नगर तथा दक्षिण एवं उत्तर भारत के बीच आयात निर्यात का केंद्र बन गया। केरल डिस्ट्रिक गजेटियर के अनुसार ट्रावरकोर के राजाओं ने उत्तर भारत के बहुत से बुनकरों को राजधानी में बसाया। उनके वंशज अब भी कोत्तार में पाए जाते है।
मध्ययुग में देश के धार्मिक एवं सांस्कृतिक केंद्रों में देश के विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए एवं स्थानीय व्यक्तियों के बीच विचारों के आदान प्रदान की भाषा हिन्दी थी। उस युग में राजनीतिक एकता न होने पर भी सांस्कृतिक एकता बराबर वही रही। रामेश्वरम्, कन्याकुमारी, काशी, द्वारिका, पुरी आदि तीर्थ स्थानों में यातायात के साधन सुलभ न होने पर भी देश के विभिन्न क्षेत्रों से लोग बड़ी संख्या में आते थे। केरल के शासकों ने अपने राज्य में उत्तर भारत से आने वाले संतों महात्माओं एवं अन्य यात्रियों के निवास के लिए धर्मशालाओं का निर्माण किया था, जिन्हें ‘गोसाई चावडी’ कहते थे। गोसाई चावडियों के ध्वंसावशेष अब भी केरल के विभिन्न स्थानों में पाए जाते हैं। गुरुवायूर जैसे धार्मिक स्थानों में बहुत से हिन्दी जानने वाले दुभाषिये रहते थे, जो बाहर से आने वाले यात्रियों की सहायता करते थे।
हिन्दी गीतों मुख्यतः भक्तिपरक गीतों ने हिन्दी के प्रचार, प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया। कबीर की ‘सबदियो’ विद्यापति के पदों, मीरा एवं सूर आदि भक्त कवियों के गीतों को देश के विभिन्न क्षेत्रों में पर्याप्त लोकप्रियता मिली। बीजापुर के शासक इब्राहीम अली आदिल ने (1580-1626) उत्तर भारत से बहुत से संगीतकारों को बीजापुर निमंत्रित किया और उनके रहने के लिए नवरसपुर नाम से एक नगर का निर्माण कराया। आदिलशाह स्वयं संगीतशास्त्र का अच्छा जानकार था। उसने ‘नवरसनामा’ नाम से एक पुस्तक की रचना की, जिसमें कुछ प्रमुख रागरागिनियों के उदाहरण हिन्दी में दिए गए हैं।
मध्ययुग में हिन्दी एवं देश की अन्य भाषाओं में नाटक बहुत कम मिलते हैं। इस्लाम में अनुकरण को कुफ्र मानने के कारण नाटक लेखक एवं मंचन को राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ। रंगमंच के अत्यधिक व्यय साध्य होने एवं राज्याश्रय के अभाव में उस युग में नाटक बहुत कम लिखे गए और जो लिखे गए वे भी बड़े बड़े पुस्तकालयों के भस्म होने के कारण नष्ट हो गए। किंतु लोक नाटकों की परंपरा बनी रही। उत्तर भारत में रामलीला एवं कृष्णलीला के रूप में एवं दक्षिण भारत में यक्षगान के रूप में इस प्रकार के नाटकों की समृद्ध परंपरा है। डाॅ. दशरथ ओझा ने अपनी पुस्तक प्राचीनभाषा नाटक में ऐसे दर्जनों नाटकों का उल्लेख किया है, जो मध्ययुग में अहिन्दी भाषाभाषी क्षेत्रों में लिख गए। मुस्लिम आक्रमण के समय हिन्दी भाषाभाषी क्षेत्र के बहुत में लिख गए। मुस्लिम आक्रमण के समय हिन्दी भाषाभाषी क्षेत्र के बहुत से व्यक्ति भागकर नेपाल, आसाम और बंगाल में बस गए। उनके द्वारा देवघरों में जो नाटक खेले जाते थे, उनकी स्थानीय भाषा मिश्रित हिन्दी है।
देश के अन्य क्षेत्रों में भी मध्ययुग में लोकनाटकों की रचना हुुई। तंजौर के राजा श्री शाहजी ने सन् 1674 से 1711 में ‘विश्वातीत विलास’ और ‘राधा वंशीधर विलास’ नाम से दो नाटकों की रचना की। यक्षगान शैली पर लिखे गए इन हिन्दी नाटकों का तंजोर में कई बार अभिनय किया गया। अहिन्दी क्षेत्र में लिख गए इस युग के अन्य नाटकों में गुरु गोविन्दसिंह रचित ‘विचित्र नाटक’ और महाराज भूपतीद्रमल्ल रचित ‘विद्या विलास’ नाम के नाटक विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ये दोनों नाटक सन् 1700 के आसपास लिख गए।
‘आंध्र नाट्य प्रकाशिका’ नाम के गंथ से ज्ञात होता है कि उन्नीसवाी शताब्दी में आंध्र प्रदेश में बहुत से ऐसे नाटक समाज में थे जो हिन्दी नाटकों का मंचन करते थे। श्री रामाचंद्रराव, जो भीम मुन्पिट्नम के निवासी थे, उन्होंने भक्तिपरक नाटकों के मंचन के लिए ‘भक्ति विलासिनी’ समाज की स्थापना की। उन्हीं दिनों विशाखापट्टनम और एलूर में क्रमशः जगन्मित्र समाज और ‘आर्यानंद हिन्दूसमाज’ नाम से दो नाट्य संस्थाओं का संगठन हुआ। एलूर के वामनभट्ट जोशी ने कई हिन्दी नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन किया। काकिनाडा के शेषगिरिराव ने ‘शिवाजी चरित्र और ‘पेशवानारायण वध’ नाम से दो हिन्दी नाटकों की रचना की। उसी समय मछलीपट्टनम के पुरुषोत्तम कवि ने 32 हिन्दी नाटकों का प्रणयन किया।
इन नाटकों ने देश की मिली जुली संस्कृति की अभिव्यक्ति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें सुप्रसिद्ध पौराणिक या ऐतिहासिक पात्रों के चरित्र को स्थनीय परिस्थितियों के परिवेश में प्रस्तुत किया गया। भाषा एवं लिपि की दृष्टि से इन नाटकों में व्यापक प्रयोग है। हिन्दी नाटक कोश के संपादक डाॅ. दशरथ ओझा ने नेपाल एवं आसाम में लिखित ऐसे हिन्दी नाटकों का उल्लेख किया है, जो बांग्ला या असमिया लिपि में लिख गए और जिनकी भाषा स्थानीय भाषाओं के शब्द भंडार से संपुटित है। आंध्र प्रदेश के पुरुषोत्तम कवि के हिन्दी नाटकों की लिपि तेलुगू है। इनकी भाषा में संस्कृत, फारसी एवं तेलुगु के शब्दों का प्रयोग उदारतापूर्वक किया गया है।
उन्नीसवीं शताब्दी के हिन्दी क्षेत्र के नाटककारों ने उस संस्कृति की अभिव्यक्ति का प्रयास किया, जिसका जन्म हिन्दू मुसलमानों में मेलजोल के फलस्वरूप मध्ययुग में हुआ था। कवि अमानत कृत ‘इन्द्रसभा’ और भारतेंदु कुत ‘ अंधेर नगरी’ सदृश नाटकों ने हिन्दी उर्दू मिश्रित भाषा में नाट्य रचना को प्रोत्साहन दिया। इन नाटककारों ने हिन्दू जनता को अरब और फारस की संस्कृति एवं विचारधारा का परिचय कराया। इन्होंने गुलबकावली और गुलिस्ताँ बोस्ताँ की कहानियाँ, लैला मजनूं, शीरी फरहाद का आदर्श प्रेम, एवं रुस्तम सोहराब की वीरता भारतीयों के सामने रखी। इसी प्रकार उन्होंने विक्रमादित्य के न्याय, हरिश्चन्द्र की सत्यप्रियता, सावित्री का पातिव्रत, श्रवण कुमार की पितृ भक्ति और राम एवं कृष्ण की जीवन लीला के प्रसंगों को अंकित करके मुसलमानों के मन में भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग उत्पन्न करने का प्रयत्न किया।
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