अगस्त्य

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महर्षि अगस्त्य की यज्ञ के समय प्रतिज्ञा

महर्षि अगस्त्य वैदिक ॠषि थे। ये वशिष्ठ मुनि के बड़े भाई थे। उनका जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी (तदनुसार 3000 ई.पू.) को काशी में हुआ था। वर्तमान में यह स्थान अगस्त्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थीं। अगस्त्य को सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की और बाद में वहीं बस गये थे। ब्रह्मतेज के मूर्तिमान स्वरूप महामुनि अगस्त्य जी का पावन चरित्र अत्यन्त उदात्त तथा दिव्य है। वेदों में उनका वर्णन आया है।

  • ऋग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक वेदताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव हुआ-

"सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥"

इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है-

"ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥"


इस प्रकार कुंभ से अगस्त्य तथा महर्षि वसिष्ठ का प्रादुर्भाव हुआ।


  • एक यज्ञ सत्र में उर्वशी भी सम्मिलित हुई थी। मित्र वरुण ने उसकी ओर देखा तो इतने आसक्त हुए कि अपने वीर्य को रोक नहीं पाये। उर्वशी ने उपहासात्मक मुस्कराहट बिखेर दी। मित्र वरुण बहुत लज्जित हुए। कुंभ का स्थान, जल तथा कुंभ, सब ही अत्यंत पवित्र थे। यज्ञ के अंतराल में ही कुंभ में स्खलित वीर्य के कारण कुंभ से अगस्त्य, स्थल में वसष्टि तथा जक में मत्स्य का जन्म हुआ। उर्वशी इन तीनों की मानस जननी मानी गयी।[1]
  • पुराणों में यह कथा आयी है कि महर्षि अगस्त्य (पुलस्त्य) की पत्नी महान् पतिव्रता तथा श्री विद्या की आचार्य हैं, जो 'लोपामुद्रा' के नाम से विख्यात हैं। आगम-ग्रन्थों में इन दम्पत्ति की देवी साधना का विस्तार से वर्णन आया है।
  • महर्षि अगस्त्य महातेजा तथा महातपा ऋषि थे। समुद्रस्थ राक्षसों के अत्याचार से घबराकर देवता लोग इनकी शरण में गये और अपना दु:ख कह सुनाया। फल यह हुआ कि ये सारा समुद्र पी गये, जिससे सभी राक्षसों का विनाश हो गया। इसी प्रकार इल्वल तथा वातापि नामक दुष्ट दैत्यों द्वारा हो रहे ऋषि-संहार को इन्होंने बंद किया और लोक का महान् कल्याण हुआ।
  • एक बार विन्ध्याचल सूर्य का मार्ग रोककर खड़ा हो गया, जिससे सूर्य का आवागमन ही बंद हो गया। सूर्य इनकी शरण में आये, तब इन्होंने विन्ध्य पर्वत को स्थिर कर दिया और कहा- "जब तक मैं दक्षिण देश से न लौटूँ, तब तक तुम ऐसे ही निम्न बनकर रुके रहो।" ऐसा ही हुआ । विन्ध्याचल नीचे हो गया, फिर अगस्त्य जी लौटे नहीं, अत: विन्ध्य पर्वत उसी प्रकार निम्न रूप में स्थिर रह गया और भगवान सूर्य का सदा के लिये मार्ग प्रशस्त हो गया।

एक बार विन्ध्याचल सूर्य का मार्ग रोककर खड़ा हो गया, जिससे सूर्य का आवागमन ही बंद हो गया। सूर्य इनकी शरण में आये, तब इन्होंने विन्ध्य पर्वत को स्थिर कर दिया और कहा- 'जब तक मैं दक्षिण देश से न लौटूँ, तब तक तुम ऐसे ही निम्न बनकर रुके रहो।' ऐसा ही हुआ ।


  • इस प्रकार के अनेक असम्भव कार्य महर्षि अगस्त्य ने अपनी मन्त्र शक्ति से सहज ही कर दिखाया और लोगों का कल्याण किया। भगवान श्रीराम वनगमन के समय इनके आश्रम पर पधारे थे। भगवान ने उनका ऋषि-जीवन कृतार्थ किया। भक्ति की प्रेम मूर्ति महामुनि सुतीक्ष्ण इन्हीं अगस्त्य जी के शिष्य थे। अगस्त्य संहिता आदि अनेक ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया, जो तान्त्रिक साधकों के लिये महान् उपादेय है।
  • सबसे महत्त्व की बात यह है कि महर्षि अगस्त्य ने अपनी तपस्या से अनेक ऋचाओं के स्वरूपों का दर्शन किया था, इसलिये ये मन्त्र द्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। ऋग्वेद के अनेक मन्त्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों के द्रष्टा ऋषि महर्षि अगस्त्य जी हैं। साथ ही इनके पुत्र दृढच्युत तथा दृढच्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मण्डल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं। महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा आज भी पूज्य और वन्द्य हैं, नक्षत्र-मण्डल में ये विद्यमान हैं। दूर्वाष्टमी आदि व्रतोपवासों में इन दम्पति की आराधना-उपासना की जाती है।
महर्षि अगस्त्य का समुंद्र पान

इल्वल और वातापि

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने गया से प्रस्थान किया और अगस्त्याश्रम में जाकर दुर्जय मणिमती नगरी में निवास किया। वहीं वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने महर्षि लोमश से पूछा- "ब्रह्मन्! अगस्त्य जी ने यहाँ वातापि को किसलिये नष्ट किया? मनुष्यों का विनाश करने वाले उस दैत्य का प्रभाव कैसा था? और महात्मा अगस्त्यजी के मन में क्रोध का उदय कैसे हुआ।"

लोमश जी ने कहा- पांडुनन्दन! पूर्वकाल की बात है, इस मणिमती नगरी में इल्वल नामक दैत्य रहता था वातापि उसी का छोटा भाई था। एक दिन दितिनन्दन इल्वल ने एक तपस्वी ब्राह्मण से कहा- "भगवन! आप मुझे ऐसा पुत्र दें, जो इन्द्र के समान पराक्रमी हो।" उन ब्राह्मण देवता ने इल्वल को इन्द्र के समान पुत्र नहीं दिया। इससे वह असुर उन ब्राह्मण देवता पर बहुत कुपित हो उठा। राजन! तभी से इल्वल दैत्य क्रोध में भरकर ब्राह्मणों की हत्या करने लगा।

वह मायावी अपने भाई वातापि को माया से बकरा बना देता था। वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ था! अत: वह क्षणभर में मेंड़ा और बकरा बन जाता था। फिर इल्वल उस भेड़ या बकरे को पकाकर उसका मांस राँधता और किसी ब्राह्मण को खिला देता था। इसके बाद वह ब्राह्मण को मारने की इच्छा करता था। इल्वल में यह शक्ति थी कि वह जिस किसी भी यमलोक में गये हुए प्राणी को उसका नाम लेकर बुलाता, वह पुन: शरीर धारण करके जीवित दिखायी देने लगता था। उस दिन वातापि दैत्य को बकरा बनाकर इल्वल ने उसके मांस का संस्कार किया और उन ब्राह्मण देव को वह मांस खिलाकर पुन: अपने भाई को पुकारा। राजन! इल्वल के द्वारा उच्च स्वर से बोली हुई वाणी सुनकर वह अत्यन्त मायावी ब्राह्मणशत्रु बलवान महादैत्य वातापि उस ब्राह्मण की पसली को फाड़कर हँसता हुआ निकल आया। राजन! इस प्रकार दुष्टहृदय इल्वल दैत्य बार-बार ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपने भाई द्वारा उनकी हिंसा करा देता था।

विवाह

एक बार अगस्त्य मुनि कहीं चले जा रहे थे। उन्होंने एक जगह अपने पितरों को देखा, जो एक गड्ढे में नीचे मुँह किये लटक रहे थे। तब उन लटकते हुए पितरों से अगस्त्य जी ने पूछा- "आप लोग यहाँ किसलिये नीचे मुँह किये काँपते हुए से लटक रहे है।" यह सुनकर उन वेदवादी पितरों ने उत्तर दिया- "संतान परम्परा के लोप की सम्भावना के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है।" अपने पितरों की यह दुर्दशा देखने के बाद अगस्त्य मुनि ने विवाह करने का निश्चय किया। अगस्त्य ने एक अनुपम शिशु की रचना की और उन्हीं दिनों विदर्भ-नरेश भी सन्तान-प्राप्ति के लिए कठिन तपस्या करने में लीन थे। मैंने जिस शिशु की रचना की है, वही इस नरेश की पुत्री के रूप में जन्म लेगी। छ: महीनों बाद रानी ने एक कन्या को जन्म दिया। राजा की खुशी का ठिकना न रहा। ब्राह्मण श्रेष्ठ! मेरी तपस्या सफल हुई। मुझे एक कन्या-रत्न की प्राप्ति हुई है।

बालिका का सौन्दर्य देखकर ब्राह्मणगण मुग्ध रह गये। यह बालिका लोपामुद्रा के नाम से प्रसिद्ध हुई। लोपामुद्रा बड़ी होकर अद्वितीय सुन्दरी और परम चरित्रवती के रूप में विकसित हुई। अगस्त्य मुनि राजा के पास पहुँचे और उन्होंने कहा कि मैं आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हूँ। राजा ये बात सुनकर चिन्ता में डूब गए। उसी समय लोपामुद्रा राजा के पास आयी और बोली- "पिता जी, आप दुविधा में क्यों पड़ गये? मैं ॠषिवर से विवाह करने के लिए प्रस्तुत हूँ।" लोपामुद्रा और अगस्त्य मुनि का विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह के पश्चात् अगस्त्य मुनि ने लोपामुद्रा से कहा कि- "तुम्हारे ये राजकीय वस्त्र ऋषि-पत्नी को शोभा नहीं देते। इनका परित्याग कर दो।" लोपामुद्रा ने कहा- "जो आज्ञा, स्वामी! अब से मैं छाल, चर्म और वल्कल ही धारण करूँगी।" कुछ समय बाद लोपामुद्रा ने कहा- "स्वामी मेरी एक इच्छा है।" ऋषि बोले- "कहो, क्या इच्छा है तुम्हारी?" लोपामुद्रा ने कहा- "हम ठहरे गृहस्थ! हमारे लिए धन से सम्पन्न होना कोई अपराध न होगा। प्रभु, मै उसी तरह रहना चाहती हूँ, जैसे अपने पिता के घर रहती थी।" ऋषि बोले- "अच्छा तो मैं धन-प्राप्ति के लिए जाता हूँ। तुम यहीं मेरी प्रतीक्षा करना।" अगस्त्य चल पड़े। मैं राजा श्रुतर्वा के पास चलूँ। कहते हैं, वे अत्यन्त समृद्ध हैं।

जब अगस्त्य राजा श्रुतर्वा के दरबार में पहुँचे तो महाराज श्रुतर्वा ने पूछा- "महात्मन, बताइये मैं आपकी क्या सेवा करूँ?" अगस्त्य बोले- "मैं तुमसे कुछ धन माँगने आया हूँ। तुम अपनी सामर्थ्य के अनुसार मुझे धन प्रदान करो।" राजा ने कहा- "मेरे पास देने को अतिरिक्त धन नहीं है। फिर भी जो है, उसमें से आप इच्छानुसार ले सकते हैं।" अगस्त्य ऋषि नीतिवान थे। अगर मैं इस राजा से कुछ लेता हूँ, तो दूसरों को उससे वंचित होना पड़ेगा। उन्होंने श्रुतर्वा से कहा- "मैं तुमसे कुछ नहीं ले सकता। आओ, हम राजा बृहदस्थ के पास चलें।" लेकिन रजा बृहदस्थ के पास भी देने लायक़ अतिरिक्त धन नहीं था। ऋषि अगस्त्य ने कहा- "शायद, राजा त्रसदस्यु मेरी कुछ सहायता कर सकें। आओ, हम सब उनके पास चलें।" लेकिन जब वे लोग राजा त्रसदस्यु के यहाँ पहुँचे तो राजा त्रसदस्यु भी उनको धन देने में असमर्थ रहे। तीनों राजा एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। अन्त में उन्होंने समवेत स्वर में कहा- "यहाँ इल्वल नामक एक असुर रहता है, जिसके पास अथाह धन है। आइये, हम उसके पास चलें।" इल्वल महाधूर्त राक्षस था। उसका एक भाई भी था, जिसका नाम वातापि था। वे दोनों ही ब्राह्मणों से घृणा करते थे और ब्राह्मणों की हत्या का उन्होंने संकल्प ले रखा था। जब अगस्त्य तीनों राजाओं के साथ इल्वल के साम्राज्य में पहुँचे, वह उनके स्वागत के लिए तैयार बैठा था। उनके वहाँ पहुँचते ही उसने कहा- "आइये, आप सबका स्वागत है। मैंने आपके लिए विशेष भोजन तैयार करवाया है।" तीनों राजाओं को आशंका हुई। हमें अगस्त्य मुनि को सावधान कर देना चाहिए। जब उन्होंने ऋषि को बताया तो ऋषि ने कहा- "चिन्ता मत करो। मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा।" अगस्त्य ने भोजन शुरू किया। सचमुच ऐसा स्वादिष्ट भोजन पहली बार खाने को मिला।

जब ऋषि अगस्त्य ने अन्तिम कौर ग्रहण किया तो इल्वल ने वातापि को आवाज़ दी। वातापि बाहर आओ। इल्वल क्रोध से पागल हो उठा। अगस्त्य बोले- "अब वह कैसे बाहर आ सकता है? मैं तो उसे खाकर पचा भी गया।" इल्वल ने अपनी हार स्वीकार कर ली। उसने अगस्त्य से कहा- "आपका किस उद्देश्य से आना हुआ? मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?" अगस्त्य बोले- "हमें पता है कि तुम बड़े धनवान हो। इन राजाओं को और मुझे धन चाहिए। औरों को वंचित किए बिना जो भी दे सकते हो हमें दे दो।" इल्वल पल-भर को चुप रहा। फिर उसने कहा कि- "मैं हर एक राजा को दस-दस हज़ार गायें और उतनी ही मुहरें दूँगा और अगस्त्य ऋषि को बीस हज़ार गायें और उतनी ही मुहरें दूँगा, इसके अलावा मैं उनकी सेवा में अपना सोने का रथ और घोड़े भी अर्पित कर दूँगा। आप ये सारी वस्तुएँ स्वीकार करें।" इल्वल के घोड़े धरती पर वायु-वेग से दौड़ते हैं। वे लोग पल-भर में ही ऋषि अगस्त्य के आश्रम पहुँच गये। अब राजाओं ने ऋषि अगस्त्य से जाने की आज्ञा माँगी और ऋषि ने उन्हें जाने की आज्ञा दे दी। उन लोगों के जाने के बाद ऋषि अगस्त्य लोपामुद्रा के पास गये और कहा कि- "लोपामुद्रा, जो तुम चाहती थीं वह मैं ले आया। अब हम तुम्हारी इच्छानुसार जीवन बिताएँगे।" कई वर्षों बाद लोपामुद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार ऋषि अगस्त्य ने अपने पितरों को दिया हुआ वचन पूरा किया।


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