"कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
('{| width="100%" style="background:#fbf8df; border:thin groove #003333; border-radius:5px; padding:8px;" |- | <noinclude>[[चित्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
 
(इसी सदस्य द्वारा किए गए बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
| style="width:35%"|
| style="width:35%"|
<poem style="color=#003333">
<poem style="color=#003333">
कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ


उसने देखे थे यहाँ ख़ाब कई
उसने देखे थे यहाँ ख़ाब कई
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
सर्द फ़ुटपाथ पर पड़ी थी जहाँ बेसुध वो
सर्द फ़ुटपाथ पर पड़ी थी जहाँ बेसुध वो
वहीं छितरे हुए थे अहसास कई
वहीं छितरे हुए थे अहसास कई
लेकिन अब वो ख़्वाब नहीं सदमे थे
लेकिन अब वो ख़ाब नहीं सदमे थे


इक तरफ़ कुचला हुआ वो घूँघट था
इक तरफ़ कुचला हुआ वो घूँघट था
जिसे उठना था किसी ख़ास रात
जिसे उठना था किसी ख़ास रात
मगर वो रात अब न आएगी कभी
मगर वो रात अब न आएगी कभी
न शहनाई,न बाबुल, न सेहरा गाएगी कभी
न शहनाई, न सेहरा, न बाबुल गाएगी कभी


लेकिन मुझे तो काम थे बहुत 
लेकिन मुझे तो काम थे बहुत 
पंक्ति 28: पंक्ति 28:
उसे उठाने के लिए तो सारा ज़माना था
उसे उठाने के लिए तो सारा ज़माना था
यूँ ही गिरी पड़ी रही बेसुध वो
यूँ ही गिरी पड़ी रही बेसुध वो
मगर मैं रूक न सका पल भर को
मगर मैं रुक न सका पल भर को


कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
</poem>
</poem>
| style="width:30%"|
| style="width:30%"|

12:35, 18 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ -आदित्य चौधरी

कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ

उसने देखे थे यहाँ ख़ाब कई
उसके छाँटे हुए कुछ लम्हे थे
सर्द फ़ुटपाथ पर पड़ी थी जहाँ बेसुध वो
वहीं छितरे हुए थे अहसास कई
लेकिन अब वो ख़ाब नहीं सदमे थे

इक तरफ़ कुचला हुआ वो घूँघट था
जिसे उठना था किसी ख़ास रात
मगर वो रात अब न आएगी कभी
न शहनाई, न सेहरा, न बाबुल गाएगी कभी

लेकिन मुझे तो काम थे बहुत 
जिनसे जाना था
उसे उठाने के लिए तो सारा ज़माना था
यूँ ही गिरी पड़ी रही बेसुध वो
मगर मैं रुक न सका पल भर को

कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ