"घूँघट से मरघट तक -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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<div style=text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;><font color=#003333 size=5>घूँघट से मरघट तक<small> -आदित्य चौधरी</small></font></div | <div style=text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;><font color=#003333 size=5>घूँघट से मरघट तक<small> -आदित्य चौधरी</small></font></div> | ||
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"बड़ी अम्माऽऽऽ,ओ बड़ी अम्माऽऽऽ ! फूफा जी रूठ गए हैं... कह रहे हैं कि मैं तो शादी छोड़ के वापस सहारनपुर जा रहा हूँ।..." | "बड़ी अम्माऽऽऽ, ओ बड़ी अम्माऽऽऽ ! फूफा जी रूठ गए हैं... कह रहे हैं कि मैं तो शादी छोड़ के वापस सहारनपुर जा रहा हूँ।..." | ||
"अरे बेटा ! तेरे फूफा तो हर शादी में रूठते हैं, तू अपने जयपुर वाले जीजा को देख कहीं वो भी ना रूठ गया हो... और अपने फूफा को मेरे पास भेज देना, मैंने उसके लिए खीर बनवाई है और लल्लो मल हलवाई से पंजाबी कलाकंद भी मंगवाया है... चल तू देख अपना काम... शादी का काम भी तो फैल रहा है... कौन देखेगा... ऐं ?" | "अरे बेटा ! तेरे फूफा तो हर शादी में रूठते हैं, तू अपने जयपुर वाले जीजा को देख कहीं वो भी ना रूठ गया हो... और अपने फूफा को मेरे पास भेज देना, मैंने उसके लिए खीर बनवाई है और लल्लो मल हलवाई से पंजाबी कलाकंद भी मंगवाया है... चल तू देख अपना काम... शादी का काम भी तो फैल रहा है... कौन देखेगा... ऐं ?" | ||
शादी का काम ज़ोर शोर से चल रहा है और वो शादी ही क्या जिसमें रूठना-मनाना न हो। वैसे भी जीजा और फूफा तो भगवान ने बनाए ही रूठने के लिए हैं। शादी-ब्याह और किसी न किसी त्योहार या किसी उत्सव की ताक में बैठे हुए ये मासूम और भोले-भाले फूफा और जीजा एकदम से 'कैकयी' का अवतार बन जाते हैं। इस शुभ अवसर पर इनके जो संवाद होते हैं वे ख़ास तौर से ललिता पवार और प्रेम चोपड़ा के लिए लिखे होते हैं। | शादी का काम ज़ोर शोर से चल रहा है और वो शादी ही क्या जिसमें रूठना-मनाना न हो। वैसे भी जीजा और फूफा तो भगवान ने बनाए ही रूठने के लिए हैं। शादी-ब्याह और किसी न किसी त्योहार या किसी उत्सव की ताक में बैठे हुए ये मासूम और भोले-भाले फूफा और जीजा एकदम से 'कैकयी' का अवतार बन जाते हैं। इस शुभ अवसर पर इनके जो संवाद होते हैं वे ख़ास तौर से ललिता पवार और प्रेम चोपड़ा के लिए लिखे होते हैं। | ||
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हलवाई: "एक किलो में ! अठारह निकाल रहा हूँ... क्यों क्या हो गया ?" हलवाई ने ऐसे व्यंग्यपूर्ण मुद्रा में आश्चर्य व्यक्त किया जैसे जहाज़ चलाते हुए पायलॅट से कोई साधारण यात्री कॉकपिट में जाकर हवाई जहाज़ चलाने के बारे में सवाल कर रहा हो।" | हलवाई: "एक किलो में ! अठारह निकाल रहा हूँ... क्यों क्या हो गया ?" हलवाई ने ऐसे व्यंग्यपूर्ण मुद्रा में आश्चर्य व्यक्त किया जैसे जहाज़ चलाते हुए पायलॅट से कोई साधारण यात्री कॉकपिट में जाकर हवाई जहाज़ चलाने के बारे में सवाल कर रहा हो।" | ||
छोटे पहलवान: "अठारह ? ये क्या कर रहे हो यार ? एक किलो मैदा में अठारह कचौड़ी ?" छोटे पहलवान ने आश्चर्य व्यक्त किया और हलवाई को कचौड़ियों का गणित स्कूल के हैडमास्टर की तरह विस्तार से समझाया। | छोटे पहलवान: "अठारह ? ये क्या कर रहे हो यार ? एक किलो मैदा में अठारह कचौड़ी ?" छोटे पहलवान ने आश्चर्य व्यक्त किया और हलवाई को कचौड़ियों का गणित स्कूल के हैडमास्टर की तरह विस्तार से समझाया। | ||
छोटे पहलवान: "देखो गुरु ! ऐसा है कि आजकल इतनी 'हॅवी' कचौड़ी | छोटे पहलवान: "देखो गुरु ! ऐसा है कि आजकल इतनी 'हॅवी' कचौड़ी कोई नहीं खाता। मेरे दादा जी थे जो एक किलो में चौदह कचौड़ी बनवाते थे और एक बार में एक दर्जन कचौड़ी खेंच जाते थे लेकिन वो पाँच सौ दंड भी लगाते थे। आजकल किलो में अठारह कचौड़ी कोई नहीं खाता... भैया मेरे... लोग तो सारा दिन कंप्यूटर पर बैठे रहते हैं... दुनिया तो फ़ेसबुक पे पड़ी रहती है। कचौड़ी कौन पचाएगा... ऐं ? तो तुम तो किलो में बीस-बाईस कचौड़ी निकालो... समझे ?" | ||
हलवाई: "मुझे क्या है मैं तो पच्चीस निकाल दूँगा... मेरे बाप का क्या जा रहा है ?" | हलवाई: "मुझे क्या है मैं तो पच्चीस निकाल दूँगा... मेरे बाप का क्या जा रहा है ?" | ||
छोटे पहलवान: अरे तो क्या गोल गप्पे थोड़े ही बनाने हैं... एक किलो में बाईस कचौड़ी ठीक है...ओके ?" | छोटे पहलवान: अरे तो क्या गोल गप्पे थोड़े ही बनाने हैं... एक किलो में बाईस कचौड़ी ठीक है...ओके ?" | ||
पंक्ति 25: | पंक्ति 25: | ||
छोटे पहलवान: "ये सेठ जी किस को बोल रहे हो ? हम पहलवान हैं... पहलवान समझे..." | छोटे पहलवान: "ये सेठ जी किस को बोल रहे हो ? हम पहलवान हैं... पहलवान समझे..." | ||
हलवाई: "ठीक है पहलवान जी काली मिर्च ख़त्म हो गई है। मंगवा दीजिए" | हलवाई: "ठीक है पहलवान जी काली मिर्च ख़त्म हो गई है। मंगवा दीजिए" | ||
छोटे पहलवान: "मंगवाते हैं, ज़रा पहले | छोटे पहलवान: "मंगवाते हैं, ज़रा पहले बारातियों का सुबह का इंतज़ाम कर दें।" | ||
अब छोटे पहलवान लड़की के मामा के पास पहुँचे जहाँ पर सुबह के वक़्त बारातियों को नाश्ता कराने और रास्ते के लिए बस में खाना रखवाने की बात चल रही थी। | अब छोटे पहलवान लड़की के मामा के पास पहुँचे जहाँ पर सुबह के वक़्त बारातियों को नाश्ता कराने और रास्ते के लिए बस में खाना रखवाने की बात चल रही थी। | ||
मामा: "ऐसा है पहलवान नाश्ते का इंतज़ाम तो हो गया, अब बारातियों को रास्ते के लिए आलू मटर की सूखी सब्ज़ी और पूरी तैयार करवा देंगे, ठीक है कि नहीं...?" | मामा: "ऐसा है पहलवान नाश्ते का इंतज़ाम तो हो गया, अब बारातियों को रास्ते के लिए आलू मटर की सूखी सब्ज़ी और पूरी तैयार करवा देंगे, ठीक है कि नहीं...?" | ||
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छोटे पहलवान: "फिर क्या !.... सब्ज़ी होगी मटर की, और उस पर आलू के छींटे... !" ये कहकर पहलवान ने एक आँख दबाई और फिर प्रश्नवाचक मुद्रा बना ली और बोला " कुछ समझे...?" | छोटे पहलवान: "फिर क्या !.... सब्ज़ी होगी मटर की, और उस पर आलू के छींटे... !" ये कहकर पहलवान ने एक आँख दबाई और फिर प्रश्नवाचक मुद्रा बना ली और बोला " कुछ समझे...?" | ||
मामा: "नहीं समझे...?" | मामा: "नहीं समझे...?" | ||
छोटे पहलवान: "मतलब ये है मामा ! कि मटर की सब्ज़ी पर आलू के पतले-पतले टुकड़े डले होंगे जिससे कि हमारी रईसी का पता बारातियों को चले... अरे मामा ! आलू हैं दस रुपये किलो और मटर इस समय मंहगी है पूरे पचास रुपये किलो। तो फिर बाराती कहीं ये न समझें कि सस्ते आलू से टरका दिए... इसलिए सब्ज़ी मटर की होगी और आलू के तो बस छींटे...!" पहलवान ने अपनी बात में रहस्य पैदा करने के लिए आख़िरी शब्दों को फुसफुसा कर कहा। | छोटे पहलवान: "मतलब ये है मामा ! कि मटर की सब्ज़ी पर आलू के पतले-पतले टुकड़े डले होंगे जिससे कि हमारी रईसी का पता बारातियों को चले... अरे मामा ! आलू हैं दस रुपये किलो और मटर इस समय मंहगी है, पूरे पचास रुपये किलो। तो फिर बाराती कहीं ये न समझें कि सस्ते आलू से टरका दिए... इसलिए सब्ज़ी मटर की होगी और आलू के तो बस छींटे...!" पहलवान ने अपनी बात में रहस्य पैदा करने के लिए आख़िरी शब्दों को फुसफुसा कर कहा। | ||
मामा: "लेकिन पहलवान दो बस भर के बारात है और मटर तो मंहगी पड़ेगी...?" | मामा: "लेकिन पहलवान दो बस भर के बारात है और मटर तो मंहगी पड़ेगी...?" | ||
छोटे पहलवान: "न न न न आप चिंता ही मत करो... सारा पैसा पूरियों में वसूल हो जाएगा।" पहलवान ने अपना मुँह मामा के कान के पास ले जाकर कहा "देखो मामा ! अगर डालडा में पूरी बनाने से पहले थोड़ी सी लौंग डालकर गर्म कर लिया जाय तो घी जैसी ही ख़ुशबू आती है पूरियों में से... हाँऽऽऽ मैं पक्की बात बता रहा हूँ... बस आप चिंता ही मत करो... मेरे ऊपर छोड़ दो..." | छोटे पहलवान: "न न न न आप चिंता ही मत करो... सारा पैसा पूरियों में वसूल हो जाएगा।" पहलवान ने अपना मुँह मामा के कान के पास ले जाकर कहा "देखो मामा ! अगर डालडा में पूरी बनाने से पहले थोड़ी सी लौंग डालकर गर्म कर लिया जाय तो घी जैसी ही ख़ुशबू आती है पूरियों में से... हाँऽऽऽ मैं पक्की बात बता रहा हूँ... बस आप चिंता ही मत करो... मेरे ऊपर छोड़ दो..." | ||
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गांवों और छोटे शहरों के मध्य वर्गीय परिवारों में चलने वाली दहेज़ सूची- | गांवों और छोटे शहरों के मध्य वर्गीय परिवारों में चलने वाली दहेज़ सूची- | ||
बिजली की सुविधा से पहले- | बिजली की सुविधा से पहले- | ||
गाय-भैंस, बैल-बकरी, खाट (चारपाई), मथानी (छाछ चलाने के लिए), दरी, बीजना ( हाथ के पंखे जिन्हें संस्कृत में व्यजनम कहते हैं), सूप और छलना, खोर (बिना रुई की रज़ाई), मिट्टी, कांसे और पीतल के बर्तन, लोहे का बक्सा | गाय-भैंस, बैल-बकरी, खाट (चारपाई), मथानी (छाछ चलाने के लिए), दरी, बीजना (हाथ के पंखे जिन्हें संस्कृत में व्यजनम कहते हैं), सूप और छलना, खोर (बिना रुई की रज़ाई), मिट्टी, कांसे और पीतल के बर्तन, लोहे का बक्सा आदि। | ||
बिजली की सुविधा के बाद- | बिजली की सुविधा के बाद- | ||
साइकिल, टेबल फ़ैन, पलंग, अलमारी, रेडियो, टिन का बक्सा, चमडे़ का सूटकेस, बिस्तरबंद (हॉल डॉल), स्टेनलॅस स्टील के बर्तन | साइकिल, टेबल फ़ैन, पलंग, अलमारी, रेडियो, टिन का बक्सा, चमडे़ का सूटकेस, बिस्तरबंद (हॉल डॉल), स्टेनलॅस स्टील के बर्तन आदि। | ||
प्लास्टिक और इलॅक्ट्रॉनिक्स के बाद- | प्लास्टिक और इलॅक्ट्रॉनिक्स के बाद- | ||
टी.वी., फ्रिज़, मोटर साइकिल या स्कूटर, प्लास्टिक का सूटकेस, ट्रांज़िस्टर, प्लास्टिक सामान आदि | टी.वी., फ्रिज़, मोटर साइकिल या स्कूटर, प्लास्टिक का सूटकेस, ट्रांज़िस्टर, प्लास्टिक सामान आदि | ||
वर्तमान युग के दहेज़ तो हम रोज़ाना देखते ही हैं। यदि गहराई से देखें तो भारत की जनता की अर्थव्यवस्था का मर्म दहेज़ में निहित है। मध्यवर्गीय परिवारों की पहुँच वाले बाज़ार का अध्ययन करें ऐसा लगता है जैसे दहेज़ के सामान से अटे पड़े हैं। यदि इन दुकानदारों से कह दिया जाय कि दहेज़ का रिवाज़ ख़त्म हो रहा है तो कुछ को बेहोशी छा जाएगी। | वर्तमान युग के दहेज़ तो हम रोज़ाना देखते ही हैं। यदि गहराई से देखें तो भारत की जनता की अर्थव्यवस्था का मर्म दहेज़ में निहित है। मध्यवर्गीय परिवारों की पहुँच वाले बाज़ार का अध्ययन करें तो ऐसा लगता है जैसे दहेज़ के सामान से अटे पड़े हैं। यदि इन दुकानदारों से कह दिया जाय कि दहेज़ का रिवाज़ ख़त्म हो रहा है तो कुछ को बेहोशी छा जाएगी। | ||
ज़रा सोचिए किसी मध्यवर्गीय दम्पति के बारे में जिसकी दो-तीन बेटियां हों। इनकी शादियों के बाद इस दम्पति पर अपने बुढ़ापे के लिए क्या बच पाएगा। यदि बेटियां अपने पैरों पर खड़ी होती हैं तभी कुछ संभावना है कि अपने अभिभावकों के लिए कुछ कर | ज़रा सोचिए किसी मध्यवर्गीय दम्पति के बारे में जिसकी दो-तीन बेटियां हों। इनकी शादियों के बाद इस दम्पति पर अपने बुढ़ापे के लिए क्या बच पाएगा। यदि बेटियां अपने पैरों पर खड़ी होती हैं तभी कुछ संभावना है कि अपने अभिभावकों के लिए कुछ कर पाएँ। | ||
उत्तर भारत में, विशेषकर उत्तरप्रदेश में दो गालियों का प्रचलन रहा है, एक तो है 'बेटी के बाप' और दूसरी है 'भांजी के मामा। ज़रा सोचिए इस निकृष्ट मानसिकता के बारे में जहाँ इस प्रकार की गालियाँ चलती रही हैं और कहीं-कहीं अब भी चल रही हैं। बेटी का बाप होना या मामा होना गाली क्यों है। किसी के बेटी पैदा होना क्या इतना बुरा है ? इसका सबसे बड़ा कारण है 'दहेज़ प्रथा' और दहेज़ प्रथा का मुख्य कारण है लड़कियों का आत्म निर्भर न होना। हम अक्सर देखते हैं कि लड़के वालों की ओर से घरेलू लड़की की मांग होती है। बड़ी अजीब बात है कि लड़की पढ़ी-लिखी भी होनी चाहिए और आधुनिक भी लेकिन कोई नौकरी या व्यापार न करे केवल घर की शोभा ही बनी रहे। | उत्तर भारत में, विशेषकर उत्तरप्रदेश में दो गालियों का प्रचलन रहा है, एक तो है 'बेटी के बाप' और दूसरी है 'भांजी के मामा। ज़रा सोचिए इस निकृष्ट मानसिकता के बारे में जहाँ इस प्रकार की गालियाँ चलती रही हैं और कहीं-कहीं अब भी चल रही हैं। बेटी का बाप होना या मामा होना गाली क्यों है। किसी के बेटी पैदा होना क्या इतना बुरा है ? इसका सबसे बड़ा कारण है 'दहेज़ प्रथा' और दहेज़ प्रथा का मुख्य कारण है लड़कियों का आत्म निर्भर न होना। हम अक्सर देखते हैं कि लड़के वालों की ओर से घरेलू लड़की की मांग होती है। बड़ी अजीब बात है कि लड़की पढ़ी-लिखी भी होनी चाहिए और आधुनिक भी लेकिन कोई नौकरी या व्यापार न करे केवल घर की शोभा ही बनी रहे। | ||
अधिकतर स्त्रियों का विचार अपनी बेटी के बारे में तो यह रहता है कि 'जो मुझे नहीं मिल पाया, वह मेरी बेटी को मिलना चाहिए लेकिन बहू के बारे में सोच दूसरी ही रहती है कि 'जो मुझे नहीं मिला वह मेरी बहू को कैसे मिलने दूँगी !'। सास बहुओं के विवाद के विषय को लेकर फ़िल्में बनती हैं, धारावाहिक बनते हैं। कहते हैं ज़माना बदल गया... बदल तो गया लेकिन ज़रा मध्यवर्गीय परिवारों के हालात देखिये तो कुछ भी नहीं बदला... वही है सब-कुछ... बहुओं की ज़िन्दगी घूँघट से शुरू होकर मरघट तक ख़त्म होने के बीच में कब-कहाँ उसका व्यक्तिगत जीवन होता है ये पता लगाना मुश्किल है। | अधिकतर स्त्रियों का विचार अपनी बेटी के बारे में तो यह रहता है कि 'जो मुझे नहीं मिल पाया, वह मेरी बेटी को मिलना चाहिए लेकिन बहू के बारे में सोच दूसरी ही रहती है कि 'जो मुझे नहीं मिला वह मेरी बहू को कैसे मिलने दूँगी !'। सास बहुओं के विवाद के विषय को लेकर फ़िल्में बनती हैं, धारावाहिक बनते हैं। कहते हैं ज़माना बदल गया... बदल तो गया लेकिन ज़रा मध्यवर्गीय परिवारों के हालात देखिये तो कुछ भी नहीं बदला... वही है सब-कुछ... बहुओं की ज़िन्दगी घूँघट से शुरू होकर मरघट तक ख़त्म होने के बीच में कब-कहाँ उसका व्यक्तिगत जीवन होता है ये पता लगाना मुश्किल है। | ||
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इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और... | इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और... | ||
-आदित्य चौधरी | -आदित्य चौधरी | ||
<small> | <small>संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक</small> | ||
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14:28, 6 सितम्बर 2016 के समय का अवतरण
घूँघट से मरघट तक -आदित्य चौधरी
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