"शाप और प्रतिज्ञा -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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भीष्म की केवल पुरुषों से ही युद्ध करने और स्त्रियों पर अस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा भी राज-हित में नहीं थी और जिसका परिणाम हुआ भीष्म की मृत्यु और [[कौरव|कौरवों]] की हार। भीष्म यह क्यों भूल गए कि उनकी एक प्रतिज्ञा यह भी थी कि वे हस्तिनापुर की रक्षा करेंगे। इस हस्तिनापुर के सिंहासन की वफ़ादारी करने में उन्होंने [[द्रौपदी]] के भरी सभा में अपमान को भी अनदेखा कर दिया था। जबकि कृष्ण ने अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को अपने मित्र [[अर्जुन]] की रक्षा हेतु तोड़ दिया। कृष्ण ने अपने उद्देश्य की सफलता में प्रतिज्ञा को बाधक बनते देखा तो उन्होंने प्रतिज्ञा तोड़ दी। | भीष्म की केवल पुरुषों से ही युद्ध करने और स्त्रियों पर अस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा भी राज-हित में नहीं थी और जिसका परिणाम हुआ भीष्म की मृत्यु और [[कौरव|कौरवों]] की हार। भीष्म यह क्यों भूल गए कि उनकी एक प्रतिज्ञा यह भी थी कि वे हस्तिनापुर की रक्षा करेंगे। इस हस्तिनापुर के सिंहासन की वफ़ादारी करने में उन्होंने [[द्रौपदी]] के भरी सभा में अपमान को भी अनदेखा कर दिया था। जबकि कृष्ण ने अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को अपने मित्र [[अर्जुन]] की रक्षा हेतु तोड़ दिया। कृष्ण ने अपने उद्देश्य की सफलता में प्रतिज्ञा को बाधक बनते देखा तो उन्होंने प्रतिज्ञा तोड़ दी। | ||
[[द्रोणाचार्य]] की प्रतिज्ञा में पुत्र मोह की पराकाष्ठा थी, जो कि [[अश्वत्थामा]] के मरने के झूठे समाचार के कारण, उनके अस्त्र त्याग करने से, उनकी मृत्यु का कारण बनी। असल में अपनी प्रतिज्ञाओं को लेकर भीष्म और द्रोणाचार्य दोनों ही ऊहापोह की स्थिति में थे। द्रोणाचार्य का अश्वथामा की मृत्यु के समाचार मिलते ही युद्धभूमि में अस्त्र त्यागकर ध्यानस्थ हो जाना क्या एक युद्ध का सेनापतित्व करने वाले व्यक्ति के लिए ठीक था, जब कि युद्ध भी महाभारत का हो और प्रतिष्ठा हो हस्तिनापुर की। सरल सी बात है कि यह प्रतिज्ञा स्वार्थपूर्ण थी न कि कर्तव्यपूर्ण।</poem> | [[द्रोणाचार्य]] की प्रतिज्ञा में पुत्र मोह की पराकाष्ठा थी, जो कि [[अश्वत्थामा]] के मरने के झूठे समाचार के कारण, उनके अस्त्र त्याग करने से, उनकी मृत्यु का कारण बनी। असल में अपनी प्रतिज्ञाओं को लेकर भीष्म और द्रोणाचार्य दोनों ही ऊहापोह की स्थिति में थे। द्रोणाचार्य का अश्वथामा की मृत्यु के समाचार मिलते ही युद्धभूमि में अस्त्र त्यागकर ध्यानस्थ हो जाना क्या एक युद्ध का सेनापतित्व करने वाले व्यक्ति के लिए ठीक था, जब कि युद्ध भी महाभारत का हो और प्रतिष्ठा हो हस्तिनापुर की। सरल सी बात है कि यह प्रतिज्ञा स्वार्थपूर्ण थी न कि कर्तव्यपूर्ण।</poem> | ||
{{बाँयाबक्सा|पाठ=[[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत बड़ी | {{बाँयाबक्सा|पाठ=[[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत बड़ी राजनीतिक रणनीति की शिक्षा मिलती है। शिशुपाल कोई छोटा-मोटा राजा नहीं था जिसे मारना और मारकर शांत बैठ पाना आसान हो। निन्यानवे अपराध क्षमा करना कृष्ण की एक सोची समझी रणनीति थी जिसमें छिपे हुए संदेश को समझना बहुत आवश्यक है।|विचारक=}} | ||
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इन्हीं प्रतिज्ञाओं के सिलसिले में अर्जुन ने भी एक ऐसी प्रतिज्ञा की जिससे महाभारत युद्ध का परिणाम कौरवों के पक्ष में जा सकता था। [[अभिमन्यु]] के अमानवीय वध के उपरांत अर्जुन ने सूर्यास्त से पहले ही जयद्रथ को मारने का संकल्प लिया अन्यथा अपने प्राण त्यागने की प्रतिज्ञा की। पूरा दिन निकल जाने पर भी जब [[जयद्रथ]] नहीं मिला तो कृष्ण ने [[सूर्य]] को बादलों के पीछे ढक कर रात का आभास करा दिया और अर्जुन की आत्मबलि देखने के लिए जयद्रथ भी आ पहुँचा। कृष्ण ने सूर्य के सामने से बादल हटा दिए और जयद्रथ का वध करके अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। ज़रा सोचिए कि अपनी प्रतिज्ञा न पूरी कर पाने के कारण अर्जुन मारा जाता तो ? महाभारत का परिणाम क्या होता! पुत्र मोह में अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरा समीकरण बदल सकती थी। यह प्रतिज्ञा भी स्वार्थ से वशीभूत थी। | इन्हीं प्रतिज्ञाओं के सिलसिले में अर्जुन ने भी एक ऐसी प्रतिज्ञा की जिससे महाभारत युद्ध का परिणाम कौरवों के पक्ष में जा सकता था। [[अभिमन्यु]] के अमानवीय वध के उपरांत अर्जुन ने सूर्यास्त से पहले ही जयद्रथ को मारने का संकल्प लिया अन्यथा अपने प्राण त्यागने की प्रतिज्ञा की। पूरा दिन निकल जाने पर भी जब [[जयद्रथ]] नहीं मिला तो कृष्ण ने [[सूर्य]] को बादलों के पीछे ढक कर रात का आभास करा दिया और अर्जुन की आत्मबलि देखने के लिए जयद्रथ भी आ पहुँचा। कृष्ण ने सूर्य के सामने से बादल हटा दिए और जयद्रथ का वध करके अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। ज़रा सोचिए कि अपनी प्रतिज्ञा न पूरी कर पाने के कारण अर्जुन मारा जाता तो ? महाभारत का परिणाम क्या होता! पुत्र मोह में अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरा समीकरण बदल सकती थी। यह प्रतिज्ञा भी स्वार्थ से वशीभूत थी। | ||
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ये प्रतिज्ञाएँ क्यों होती थीं ? क्या मानसिकता कार्य करती थी इनके पीछे ? क्या ऐसा नहीं लगता कि जब हमें अपने ऊपर किसी कार्य को कर पाने का विश्वास नहीं होता, तभी प्रतिज्ञा की जाती है। यदि महाभारत के प्रसंगों को ही देखें तो पता चलता है कि कृष्ण ने कोई प्रतिज्ञा नहीं की और एक की भी थी तो वह भी भीष्म ने युद्ध में अस्त्र उठवाकर तुड़वा दी थी। सहज रूप से जीवन जीने वाले कृष्ण को किसी प्रतिज्ञा की आवश्यकता थी भी नहीं। यहाँ तक कि कृष्ण ने जो महाभारत में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी वह भी किसी निजी स्वार्थ के चलते नहीं की थी। | ये प्रतिज्ञाएँ क्यों होती थीं ? क्या मानसिकता कार्य करती थी इनके पीछे ? क्या ऐसा नहीं लगता कि जब हमें अपने ऊपर किसी कार्य को कर पाने का विश्वास नहीं होता, तभी प्रतिज्ञा की जाती है। यदि महाभारत के प्रसंगों को ही देखें तो पता चलता है कि कृष्ण ने कोई प्रतिज्ञा नहीं की और एक की भी थी तो वह भी भीष्म ने युद्ध में अस्त्र उठवाकर तुड़वा दी थी। सहज रूप से जीवन जीने वाले कृष्ण को किसी प्रतिज्ञा की आवश्यकता थी भी नहीं। यहाँ तक कि कृष्ण ने जो महाभारत में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी वह भी किसी निजी स्वार्थ के चलते नहीं की थी। | ||
[[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत | [[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत बड़ी राजनीतिक रणनीति की शिक्षा मिलती है। शिशुपाल कोई छोटा-मोटा राजा नहीं था जिसे मारना और मारकर शांत बैठ पाना आसान हो। निन्यानवे अपराध क्षमा करना कृष्ण की एक सोची समझी रणनीति थी जिसमें छिपे हुए संदेश को समझना बहुत आवश्यक है। निन्यानवे अपराधों तक कृष्ण ने शक्ति और समर्थन की प्रतीक्षा की और जब सभी यह चाहने लगे कि अब तो शिशुपाल ने अति कर दी है, तब कृष्ण ने उसे मारा। शिशुपाल के वध को सभी ने सही माना। इसीलिए शिशुपाल वध को मृत्युदण्ड की मान्यता मिली। | ||
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{{बाँयाबक्सा|पाठ=शाप देना भी जैसे ख़ुद ही शापित हो जाना है। पौराणिक कथाओं में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जब शाप देने वाले को शाप देते ही तुरंत पछतावा हुआ और उसने अपने शाप से मुक्त होने का उपाय भी उसी क्षण बता दिया।|विचारक=}} | {{बाँयाबक्सा|पाठ=शाप देना भी जैसे ख़ुद ही शापित हो जाना है। पौराणिक कथाओं में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जब शाप देने वाले को शाप देते ही तुरंत पछतावा हुआ और उसने अपने शाप से मुक्त होने का उपाय भी उसी क्षण बता दिया।|विचारक=}} | ||
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प्रतिज्ञा, शपथ, वचन आदि सारी बातें मनुष्य के कमज़ोर पक्ष को उजागर करती हैं। कहीं सुना है कि किसी | प्रतिज्ञा, शपथ, वचन आदि सारी बातें मनुष्य के कमज़ोर पक्ष को उजागर करती हैं। कहीं सुना है कि किसी माँ को यह प्रतिज्ञा दिलाई जाती हो कि वह अपने बच्चे को अवश्य पालेगी ? ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं होती क्योंकि यह प्रकृति की एक सामान्य प्रक्रिया है। वचनों की प्रक्रिया तो मनुष्य निर्मित नियमों को मानने में लागू होती है, जैसे विवाह संस्था, नौकरी, न्यायप्रक्रिया आदि। हिन्दू विवाह में पति पत्नी द्वारा सात वचन निभाने की प्रक्रिया होती है क्योंकि यह उतना अटूट रिश्ता नहीं है जितना माता और संतान का। इसलिए वचन निबाहने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। | ||
वास्तविक स्थिति यह है कि जब हम कहते हैं कि यह मेरा निश्चय है या ऐसा मैंने तय किया है तो हम स्वयं को विश्वास दिला रहे होते हैं कि हम 'यह' कर सकते हैं। ये सारे निश्चय होते हैं- पढ़ने, डाइटिंग, कसरत, आदि जैसे किसी ऐसे कार्य के लिए जो सामान्यत: हमारी रुचि के नहीं है। निश्चय ही असामान्य परिस्थितियों के लिए बनी हैं ये प्रतिज्ञाएँ। | वास्तविक स्थिति यह है कि जब हम कहते हैं कि यह मेरा निश्चय है या ऐसा मैंने तय किया है तो हम स्वयं को विश्वास दिला रहे होते हैं कि हम 'यह' कर सकते हैं। ये सारे निश्चय होते हैं- पढ़ने, डाइटिंग, कसरत, आदि जैसे किसी ऐसे कार्य के लिए जो सामान्यत: हमारी रुचि के नहीं है। निश्चय ही असामान्य परिस्थितियों के लिए बनी हैं ये प्रतिज्ञाएँ। | ||
शाप देना भी जैसे ख़ुद ही शापित हो जाना है। पौराणिक कथाओं में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जब शाप देने वाले को शाप देते ही तुरंत पछतावा हुआ और उसने अपने शाप से मुक्त होने का उपाय भी उसी क्षण बता दिया। किसी भी कमज़ोर व्यक्ति के आकस्मिक क्रोध की परिणति ही शाप है। शाप देने वाले की मानसिकता भी लगभग वही है जो प्रतिज्ञा करने वाले की। शाप वही देता है जो प्रत्यक्ष रूप से प्रतिशोध लेने में सक्षम नहीं होता। जो सक्षम होगा वह तो तुरंत ही बदला ले लेगा। | शाप देना भी जैसे ख़ुद ही शापित हो जाना है। पौराणिक कथाओं में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जब शाप देने वाले को शाप देते ही तुरंत पछतावा हुआ और उसने अपने शाप से मुक्त होने का उपाय भी उसी क्षण बता दिया। किसी भी कमज़ोर व्यक्ति के आकस्मिक क्रोध की परिणति ही शाप है। शाप देने वाले की मानसिकता भी लगभग वही है जो प्रतिज्ञा करने वाले की। शाप वही देता है जो प्रत्यक्ष रूप से प्रतिशोध लेने में सक्षम नहीं होता। जो सक्षम होगा वह तो तुरंत ही बदला ले लेगा। | ||
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इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और... | इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और... | ||
-आदित्य चौधरी | -आदित्य चौधरी | ||
<small> | <small>संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक</small> | ||
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14:10, 2 जून 2017 के समय का अवतरण
शाप और प्रतिज्ञा -आदित्य चौधरी "आपका शाप मुझे तब तक हानि नहीं पहुँचा सकता माते! जब तक कि मैं उसे स्वीकार न कर लूँ। मैं साक्षात् ईश्वर हूँ और आप नश्वर, मृत्युलोक की शरीरधारी स्त्री मात्र, तदैव आपका शाप, द्वापर युग में अवतरित मेरे सोलह अंशों के पूर्णावतार, अर्थात समस्त सोलह कलाओं से युक्त अवतार, 'कृष्ण' को प्रभावित करने में सक्षम नहीं होगा, फिर भी आप निश्चिंत रहें, मेरी कोई आयोजना ऐसी नहीं जिससे मैं अपनी उपस्थिति को एक माँ से श्रेष्ठ स्थापित करने का प्रयत्न करूँ। इसलिए माते! मैं आपके शाप को विनम्रता से स्वीकार करता हूँ। अब यदुकुल वंश का समूल नाश वैसे ही होना अवश्यंभावी है जैसा आपके शाप में संकल्पित है।" गांधारी ने अपने सभी पुत्रों के मारे जाने पर कृष्ण को शाप दिया कि उनके कुल-वंश का समूल नाश हो जाएगा और पौराणिक संदर्भ और मान्यताएँ ऐसा ही कहती हैं कि कालांतर में ऐसा ही हुआ।
इन्हीं प्रतिज्ञाओं के सिलसिले में अर्जुन ने भी एक ऐसी प्रतिज्ञा की जिससे महाभारत युद्ध का परिणाम कौरवों के पक्ष में जा सकता था। अभिमन्यु के अमानवीय वध के उपरांत अर्जुन ने सूर्यास्त से पहले ही जयद्रथ को मारने का संकल्प लिया अन्यथा अपने प्राण त्यागने की प्रतिज्ञा की। पूरा दिन निकल जाने पर भी जब जयद्रथ नहीं मिला तो कृष्ण ने सूर्य को बादलों के पीछे ढक कर रात का आभास करा दिया और अर्जुन की आत्मबलि देखने के लिए जयद्रथ भी आ पहुँचा। कृष्ण ने सूर्य के सामने से बादल हटा दिए और जयद्रथ का वध करके अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। ज़रा सोचिए कि अपनी प्रतिज्ञा न पूरी कर पाने के कारण अर्जुन मारा जाता तो ? महाभारत का परिणाम क्या होता! पुत्र मोह में अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरा समीकरण बदल सकती थी। यह प्रतिज्ञा भी स्वार्थ से वशीभूत थी। ये प्रतिज्ञाएँ क्यों होती थीं ? क्या मानसिकता कार्य करती थी इनके पीछे ? क्या ऐसा नहीं लगता कि जब हमें अपने ऊपर किसी कार्य को कर पाने का विश्वास नहीं होता, तभी प्रतिज्ञा की जाती है। यदि महाभारत के प्रसंगों को ही देखें तो पता चलता है कि कृष्ण ने कोई प्रतिज्ञा नहीं की और एक की भी थी तो वह भी भीष्म ने युद्ध में अस्त्र उठवाकर तुड़वा दी थी। सहज रूप से जीवन जीने वाले कृष्ण को किसी प्रतिज्ञा की आवश्यकता थी भी नहीं। यहाँ तक कि कृष्ण ने जो महाभारत में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी वह भी किसी निजी स्वार्थ के चलते नहीं की थी।
प्रतिज्ञा, शपथ, वचन आदि सारी बातें मनुष्य के कमज़ोर पक्ष को उजागर करती हैं। कहीं सुना है कि किसी माँ को यह प्रतिज्ञा दिलाई जाती हो कि वह अपने बच्चे को अवश्य पालेगी ? ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं होती क्योंकि यह प्रकृति की एक सामान्य प्रक्रिया है। वचनों की प्रक्रिया तो मनुष्य निर्मित नियमों को मानने में लागू होती है, जैसे विवाह संस्था, नौकरी, न्यायप्रक्रिया आदि। हिन्दू विवाह में पति पत्नी द्वारा सात वचन निभाने की प्रक्रिया होती है क्योंकि यह उतना अटूट रिश्ता नहीं है जितना माता और संतान का। इसलिए वचन निबाहने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। |
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