"ग़रीबी का दिमाग़ -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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शास्त्रों में तीन हठ गिनाए गए हैं। बाल हठ, त्रिया हठ और राज हठ। | शास्त्रों में तीन हठ गिनाए गए हैं। बाल हठ, त्रिया हठ और राज हठ। | ||
एक | एक राजपुत्र ने राज हठ किया- | ||
"मिश्रा जी! पंद्रह अगस्त आने वाला है। कुछ नया होना चाहिए..." | "मिश्रा जी! पंद्रह अगस्त आने वाला है। कुछ नया होना चाहिए..." | ||
"यस सर! आप पोलो मॅच के लिए कह रहे थे... उसका अरेंजमेन्ट करवा दें..." | "यस सर! आप पोलो मॅच के लिए कह रहे थे... उसका अरेंजमेन्ट करवा दें..." | ||
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"ओके सर! मैं समझ गया... अभी दो-चार ग़रीब बुलवाता हूँ... एक तो हमारा चपरासी ही काफ़ी ग़रीब है..." | "ओके सर! मैं समझ गया... अभी दो-चार ग़रीब बुलवाता हूँ... एक तो हमारा चपरासी ही काफ़ी ग़रीब है..." | ||
"नो नो नो हमको उनके पास जाना है। हमें गावों में जाना है।" यू फ़िक्स द टूर। हम जाएँगे।" | "नो नो नो हमको उनके पास जाना है। हमें गावों में जाना है।" यू फ़िक्स द टूर। हम जाएँगे।" | ||
एक गाँव तुरंत छांटा गया लेकिन ये गाँव | एक गाँव तुरंत छांटा गया लेकिन ये गाँव राजपुत्र ने नकार दिया, कारण था कि ये गाँव काफ़ी विकसित था। राजपुत्र को एक बेहद पिछड़ा गाँव देखना था। आख़िर झक मार कर अधिकारियों ने एक पिछड़ा गाँव छांट लिया। यात्रा शुरू हो गई। पहले चार्टर प्लेन फिर हॅलीकॉप्टर और उसके बाद कारों का क़ाफ़िला उस 'पिछड़े' गाँव में जा पहुँचा जहाँ 'ग़रीब' रहते थे। राजपुत्र के स्वागत के लिए दूर-दूर से लोग आए हुए थे। अफ़रातफ़री का माहौल था। भीड़-भाड़ देखकर राजपुत्र का 'मूड' ख़राब हो गया। | ||
"इनमें से जो ग़रीब हैं उन्हें मेरे कॅम्प में बुलवाइए।" | "इनमें से जो ग़रीब हैं उन्हें मेरे कॅम्प में बुलवाइए।" राजपुत्र ने सचिव को आदेश दिया। चार ग़रीब कॅम्प में बुलाए गए जिनमें दो पुरुष ग़रीब और दो महिला ग़रीब हैं। कॅम्प में ग़रीबों को ज़मीन पर बिछी दरी पर बिठाकर बातचीत शुरू हो गई। राजपुत्र भी कुर्सी छोड़कर नीचे ही बैठ गया। | ||
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{{दाँयाबक्सा|पाठ="इनको मालूम है सरकार कि हम कितने ग़रीब हैं... एकदम प्योर ग़रीब हैं सरकार!... क्यों सरकार हैं ना हम ग़रीब?" |विचारक=}} | {{दाँयाबक्सा|पाठ="इनको मालूम है सरकार कि हम कितने ग़रीब हैं... एकदम प्योर ग़रीब हैं सरकार!... क्यों सरकार हैं ना हम ग़रीब?" |विचारक=}} | ||
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"देख ले बेटा! मैंने कहा था चुनाव आ रहे हैं, इसीलिए तो ये नीचे बैठ गए..." | "देख ले बेटा! मैंने कहा था चुनाव आ रहे हैं, इसीलिए तो ये नीचे बैठ गए..." | ||
"सब चुप हो जाओ! जो पूछें उसका जवाब दो!" अधिकारी ने डांटा। | "सब चुप हो जाओ! जो पूछें उसका जवाब दो!" अधिकारी ने डांटा। | ||
राजपुत्र- "तोऽऽऽ... आप लोग ग़रीब हैं?" राजपुत्र ने अपने चेहरे से मंदबुद्धि दर्शाने वाली मासूमियत को छुपाने के प्रयास में, अपने चेहरे पर गम्भीरता ओढ़ते हुए सवाल किया। ये सवाल ऐसा ही होता है जैसा कि अदालत में गवाह या अपराधी का नाम पता अच्छी तरह जानते हुए भी वकील उस व्यक्ति का नाम वग़ैरा पूछते हैं। | |||
पहला ग़रीब- "हाँ सरकार! बहुत ग़रीब हैं।" इस ग़रीब ने अति उत्साह में काफ़ी तेज़ आवाज़ में 'हाँ सरकार' कहा लेकिन जब पास खड़े अधिकारी ने उसे अर्थ सहित घूरा तो फिर 'बहुत ग़रीब हैं' को बहुत धीमी आवाज़ में कहा जो कि लगभग फुसफुसाहट में बदल गई। | पहला ग़रीब- "हाँ सरकार! बहुत ग़रीब हैं।" इस ग़रीब ने अति उत्साह में काफ़ी तेज़ आवाज़ में 'हाँ सरकार' कहा लेकिन जब पास खड़े अधिकारी ने उसे अर्थ सहित घूरा तो फिर 'बहुत ग़रीब हैं' को बहुत धीमी आवाज़ में कहा जो कि लगभग फुसफुसाहट में बदल गई। | ||
राजपुत्र- "अच्छाऽऽऽ! लेकिन कितने ग़रीब?" राजपुत्र ने जैसे कोई रहस्य जानने की कोशिश की। | |||
दूसरा ग़रीब- "बहुत ज़्यादा सरकार!... मतलब कि एकदम से पूरे के पूरे ग़रीब।" दूसरे ग़रीब ने पास खड़े अधिकारी की तरफ़ इशारा किया और ज़रा रुककर कहा- | दूसरा ग़रीब- "बहुत ज़्यादा सरकार!... मतलब कि एकदम से पूरे के पूरे ग़रीब।" दूसरे ग़रीब ने पास खड़े अधिकारी की तरफ़ इशारा किया और ज़रा रुककर कहा- | ||
"इनको मालूम है सरकार कि हम कितने ग़रीब हैं... एकदम प्योर ग़रीब हैं सरकार!... क्यों सरकार हैं ना हम ग़रीब?" इस पर अधिकारी ने खिसाहट भरे आश्चर्य से | "इनको मालूम है सरकार कि हम कितने ग़रीब हैं... एकदम प्योर ग़रीब हैं सरकार!... क्यों सरकार हैं ना हम ग़रीब?" इस पर अधिकारी ने खिसाहट भरे आश्चर्य से राजपुत्र की तरफ़ देखकर अपने अनुभवी अधिकारी होने का फ़र्ज अदा किया। | ||
राजपुत्र- "क्या खाते हैं आप लोग? मतलब कि ब्रेकफ़ास्ट... लंच... डिनर में क्या लेते हैं?" राजपुत्र ने बड़े घरेलू अंदाज़ में पूछताछ आगे बढ़ाई। | |||
अधिकारी- "सर पूछ रहे हैं कि सुबह, दोपहर और रात के खाने में क्या खाते हो?" | अधिकारी- "सर पूछ रहे हैं कि सुबह, दोपहर और रात के खाने में क्या खाते हो?" | ||
पहला ग़रीब- "आप जो खिलाएँगे खा लेंगे सरकार!..." बेचारे ने सोचा कि शायद कुछ खिलाने-पिलाने की बात चल रही है तो फ़ौरन मेहमान वाले अंदाज़ में शरमा कर कहा। | पहला ग़रीब- "आप जो खिलाएँगे खा लेंगे सरकार!..." बेचारे ने सोचा कि शायद कुछ खिलाने-पिलाने की बात चल रही है तो फ़ौरन मेहमान वाले अंदाज़ में शरमा कर कहा। | ||
राजपुत्र- "वो तो ठीक है... आप लोगों के खाने का इंतज़ाम भी है... लेकिन मैं ये जानना चाहता हूँ कि आप खाते क्या हैं मतलब कि आपका रोज़ाना का खाना क्या होता है?" | |||
दूसरा ग़रीब- "जो मिल जाय सो खा लेते हैं सरकार... वैसे रोटी-चटनी ज़्यादा खाते हैं सरकार!... अब तीन टाइम तो नहीं खाते हैं... कभी दो बार तो कभी एक बार... खेत में से भी कुछ साग-सब्ज़ी मिल जाती है तो पका लेते हैं।" | दूसरा ग़रीब- "जो मिल जाय सो खा लेते हैं सरकार... वैसे रोटी-चटनी ज़्यादा खाते हैं सरकार!... अब तीन टाइम तो नहीं खाते हैं... कभी दो बार तो कभी एक बार... खेत में से भी कुछ साग-सब्ज़ी मिल जाती है तो पका लेते हैं।" | ||
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{{दाँयाबक्सा|पाठ="ठीक कह रहे हैं बाबू जी, ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..."|विचारक=}} | {{दाँयाबक्सा|पाठ="ठीक कह रहे हैं बाबू जी, ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..."|विचारक=}} | ||
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राजपुत्र- "डाइरेक्ट खेत से तो ऑरगेनिक फ़ूड मिलता होगा आपको?" | |||
दूसरा ग़रीब- "सरकार बथुआ, चौलाई, कुल्फा मिल जाता है, या फिर कभी मूली... और जब आलू की खुदाई चलती है तो आलू ख़ूब मिलते हैं वो भी बिल्कुल फिरी में..." | दूसरा ग़रीब- "सरकार बथुआ, चौलाई, कुल्फा मिल जाता है, या फिर कभी मूली... और जब आलू की खुदाई चलती है तो आलू ख़ूब मिलते हैं वो भी बिल्कुल फिरी में..." | ||
राजपुत्र, अधिकारी से- "आप सब कुछ नोट कर रहे हैं ना? मुझे पूरा डेटाबेस चाहिए..." | |||
अधिकारी- "यस सर! मैं नोट कर रहा हूँ।" | अधिकारी- "यस सर! मैं नोट कर रहा हूँ।" | ||
राजपुत्र- "फल कौन-कौन से खाते हैं आप लोग?" | |||
पहला ग़रीब- "बेर खा लेते हैं सरकार!... और भी बहुत सी चीज़ें हैं सरकार आप नहीं जानते होंगे" | पहला ग़रीब- "बेर खा लेते हैं सरकार!... और भी बहुत सी चीज़ें हैं सरकार आप नहीं जानते होंगे" | ||
राजपुत्र- "जैसे?" | |||
पहला ग़रीब- "जैसे सेंद, फूट, ककड़ी..." | पहला ग़रीब- "जैसे सेंद, फूट, ककड़ी..." | ||
राजपुत्र- "ये क्या हैं?" | |||
अधिकारी "सर वाइल्ड फ़्रूट हैं, एक तरह से स्वीट मिलोन और ककुम्बर की तरह..." | अधिकारी "सर वाइल्ड फ़्रूट हैं, एक तरह से स्वीट मिलोन और ककुम्बर की तरह..." | ||
राजपुत्र- "ओ.के. ... ये आपके साथ जो लेडीज़ हैं...?" | |||
पहला ग़रीब- "ये हमारी घरवाली है सरकार और ये इसकी घरवाली है। वाइफ़ है सरकार वाइफ़। मेरी घरवाली पढ़ी लिक्खी है सरकार हाईस्कूल पास..." | पहला ग़रीब- "ये हमारी घरवाली है सरकार और ये इसकी घरवाली है। वाइफ़ है सरकार वाइफ़। मेरी घरवाली पढ़ी लिक्खी है सरकार हाईस्कूल पास..." | ||
राजपुत्र- "अच्छा! वॅरी गुड! आप लोगों का ख़र्चा कितना होता है खाने के ऊपर?" | |||
दोनों 'ग़रीबों' ने एक दूसरे की तरफ़ देखा... अधिकारी की तरफ़ देखा... अपनी बीवियों से कानाफूसी की और फिर बड़े सोच-समझ कर पहले ग़रीब ने जवाब दिया- | दोनों 'ग़रीबों' ने एक दूसरे की तरफ़ देखा... अधिकारी की तरफ़ देखा... अपनी बीवियों से कानाफूसी की और फिर बड़े सोच-समझ कर पहले ग़रीब ने जवाब दिया- | ||
पहला ग़रीब- "सरकार एक बार का खाना पौने पाँच रुपये में हो जाता है और दिन भर का पूरा ख़र्चा आता है छब्बीस रुपये!..." | पहला ग़रीब- "सरकार एक बार का खाना पौने पाँच रुपये में हो जाता है और दिन भर का पूरा ख़र्चा आता है छब्बीस रुपये!..." | ||
राजपुत्र- "बस इतना ही...? इससे ज़्यादा नहीं? | |||
दूसरा ग़रीब- "हाँ सरकार! इतने में ही खाना पड़ता है वरना हमको ग़रीब कौन मानेगा... अगर पाँच रुपये से ज़्यादा का खाएँगे तो ग़रीबी की रेखा से ऊपर चले जाएँगे... फिर तो राशन भी नहीं मिलेगा... मिट्टी का तेल वगैरा कुछ भी नहीं मिलेगा... बीपीऐल कार्ड भी छिन जाएगा सरकार! ..." | दूसरा ग़रीब- "हाँ सरकार! इतने में ही खाना पड़ता है वरना हमको ग़रीब कौन मानेगा... अगर पाँच रुपये से ज़्यादा का खाएँगे तो ग़रीबी की रेखा से ऊपर चले जाएँगे... फिर तो राशन भी नहीं मिलेगा... मिट्टी का तेल वगैरा कुछ भी नहीं मिलेगा... बीपीऐल कार्ड भी छिन जाएगा सरकार! ..." | ||
राजपुत्र ने अधिकारी से पूछा- | |||
राजपुत्र- "क्या बस स्टॅन्ड पर खाना पाँच रुपए में मिल जाता है?" | |||
अधिकारी- "नो सर!, नहीं मिलता।" | अधिकारी- "नो सर!, नहीं मिलता।" | ||
राजपुत्र- "रेलवे स्टेशन पर मिलता होगा?" | |||
अधिकारी- "नो सर!, नहीं मिलता।" | अधिकारी- "नो सर!, नहीं मिलता।" | ||
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{{दाँयाबक्सा|पाठ=सभी राजनीतिक दल, सार्वजनिक समस्याओं को हाशिए पर रखकर, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने की सोचते रहते हैं।|विचारक=}} | {{दाँयाबक्सा|पाठ=सभी राजनीतिक दल, सार्वजनिक समस्याओं को हाशिए पर रखकर, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने की सोचते रहते हैं।|विचारक=}} | ||
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राजपुत्र- "पाँच रुपए में खाना तो बांग्ला देश और श्रीलंका में भी नहीं मिलता फिर ये चक्कर क्या है?" | |||
पहला ग़रीब- "नहीं सरकार! दिल्ली और बम्बई में पाँच-दस रुपये में खाना मिल जाता है, बड़े-बड़े नेता यही बता रहे हैं, वहाँ इतना सस्ता खाना है तो हमको भी वहीं ले चलिए सरकार..." | पहला ग़रीब- "नहीं सरकार! दिल्ली और बम्बई में पाँच-दस रुपये में खाना मिल जाता है, बड़े-बड़े नेता यही बता रहे हैं, वहाँ इतना सस्ता खाना है तो हमको भी वहीं ले चलिए सरकार..." | ||
राजपुत्र- "देखिए आपके दिल्ली या बॉम्बे जाने से कुछ नहीं होगा... ग़रीबी आपके दिमाग़ में है... इट्स इन योर माइंड... जस्ट अ स्टेट ऑफ़ माइंड... आप सोचते हैं कि आप ग़रीब हैं तो आप ग़रीब हो जाते हैं... आप सोचो मत कि आप ग़रीब हैं... यही सीक्रेट है... मैंने आपको सबसे अच्छा तरीक़ा बता दिया है... कुछ आया समझ में?" | |||
तम्बू में सन्नाटा हो गया, सब एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे। जब कोई कुछ नहीं बोला तो पहले ग़रीब की हाईस्कूल पास पत्नी अचानक बोल पड़ी- | तम्बू में सन्नाटा हो गया, सब एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे। जब कोई कुछ नहीं बोला तो पहले ग़रीब की हाईस्कूल पास पत्नी अचानक बोल पड़ी- | ||
"ठीक कह रहे हैं बाबू जी, ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..." | "ठीक कह रहे हैं बाबू जी, ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..." | ||
ये तो पता नहीं कि | ये तो पता नहीं कि राजपुत्र पर इन बातों का कितना प्रभाव पड़ा और उसने क्या किया... तो आइए भारतकोश पर वापस चलते हैं।- | ||
देश में, बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे राजनीतिक मुद्दे हुआ करते थे। इन्हीं मुद्दों का बोलबाला चुनावों में भी होता था। धीरे-धीरे नेता (और शायद जनता भी) इन मुद्दों से 'बोर' हो गयी। मुद्दे बदलते चले गए और जनता भी अपनी मुख्य ज़रूरत को भूल कर टीवी, लॅपटॉप, इंटरनेट जैसे आकर्षक मुद्दों के प्रति अधिक गंभीर हो गई। कारण था कि ये सार्वजनिक न होकर व्यक्तिगत मुद्दे थे। राजनीतिक दल भी मनुष्य की इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना सीख गए। नेताओं को समझ में आने लगा कि भाषणों में, सड़क बनवाने की बात करने से ज़्यादा लाभकारी है कर्ज़ा माफ़ करने की बात करना। जनता को भी लगने लगा कि सड़क तो 'सबके' लिए बनेगी लेकिन कर्ज़ा तो 'मेरा' माफ़ होगा। यहीं से व्यक्तिगत लाभ देने की राजनीति शुरू हो गई और सार्वजनिक समस्याएँ पिछड़ती चली गईं। | देश में, बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे राजनीतिक मुद्दे हुआ करते थे। इन्हीं मुद्दों का बोलबाला चुनावों में भी होता था। धीरे-धीरे नेता (और शायद जनता भी) इन मुद्दों से 'बोर' हो गयी। मुद्दे बदलते चले गए और जनता भी अपनी मुख्य ज़रूरत को भूल कर टीवी, लॅपटॉप, इंटरनेट जैसे आकर्षक मुद्दों के प्रति अधिक गंभीर हो गई। कारण था कि ये सार्वजनिक न होकर व्यक्तिगत मुद्दे थे। राजनीतिक दल भी मनुष्य की इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना सीख गए। नेताओं को समझ में आने लगा कि भाषणों में, सड़क बनवाने की बात करने से ज़्यादा लाभकारी है कर्ज़ा माफ़ करने की बात करना। जनता को भी लगने लगा कि सड़क तो 'सबके' लिए बनेगी लेकिन कर्ज़ा तो 'मेरा' माफ़ होगा। यहीं से व्यक्तिगत लाभ देने की राजनीति शुरू हो गई और सार्वजनिक समस्याएँ पिछड़ती चली गईं। | ||
अनेक योजनाओं के चलते गांवों में पानी की टंकियां बनीं लेकिन जनता का सारा ध्यान अपने घर के दरवाज़े पर हैण्ड पम्प लगवाने में रहा। टंकियों की हालत ख़राब होने लगी और ज़्यादातर टंकियां अब बेकार पड़ी हैं। ग्राम पंचायत, ज़िला पंचायत और विधायकों को मिलने वाले वोटों के पीछे जनता की व्यक्तिगत मांगों का दवाब बना रहता है। | अनेक योजनाओं के चलते गांवों में पानी की टंकियां बनीं लेकिन जनता का सारा ध्यान अपने घर के दरवाज़े पर हैण्ड पम्प लगवाने में रहा। टंकियों की हालत ख़राब होने लगी और ज़्यादातर टंकियां अब बेकार पड़ी हैं। ग्राम पंचायत, ज़िला पंचायत और विधायकों को मिलने वाले वोटों के पीछे जनता की व्यक्तिगत मांगों का दवाब बना रहता है। |
11:17, 1 मई 2020 के समय का अवतरण
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