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*दस्युओं के रहन-सहन के ढंग से भी आर्य उनके बैरी बन गए। ऐसा लगता है कि आर्यों का पशुपालन आधारित जनजातीय और अस्थायी जीवनक्रम देशीय संस्कृति के स्थायी एवं शहरी जीवन से बेमेल था।<ref>व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I पृ. 90-91.</ref> | *दस्युओं के रहन-सहन के ढंग से भी आर्य उनके बैरी बन गए। ऐसा लगता है कि आर्यों का पशुपालन आधारित जनजातीय और अस्थायी जीवनक्रम देशीय संस्कृति के स्थायी एवं शहरी जीवन से बेमेल था।<ref>व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I पृ. 90-91.</ref> | ||
*[[आर्य|आर्यों]] का जीवन प्रधानतया जनजातीय जीवन था, जो गण, सभा, समिति और विदथ जैसी विभिन्न सामुदायिक संस्थाओं के माध्यम से रूपायित हुआ है और जिसमें [[यज्ञ]] का बहुत | *[[आर्य|आर्यों]] का जीवन प्रधानतया जनजातीय जीवन था, जो गण, सभा, समिति और विदथ जैसी विभिन्न सामुदायिक संस्थाओं के माध्यम से रूपायित हुआ है और जिसमें [[यज्ञ]] का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था। किन्तु दस्युओं को यज्ञ से कोई सरोकार नहीं था। दासों के साथ भी यही बात थी, क्योंकि [[इन्द्र]] के बारे में बताया गया है कि वह दास और आर्य का विभेद करते हुए यज्ञस्थल में आता था।<ref>ऋग्वेद, X. 86.19; अथर्ववेद, XX. 126.19.</ref> | ||
*[[ऋग्वेद]] के सातवें मंडल का एक सम्पूर्ण सूक्त अक्रतुन, अश्रद्धान्, अयज्ञान् और अयज्वान: जैसे [[विशेषण|विशेषणों]] की श्रृंखला मात्र है। इनका प्रयोग दस्युओं के लिए पुरज़ोर तौर पर यह सिद्ध करने के लिए किया गया है कि उनको [[यज्ञ]] पसन्द नहीं था।<ref>ऋग्वेद, VII. 6.3. </ref> | *[[ऋग्वेद]] के सातवें मंडल का एक सम्पूर्ण सूक्त अक्रतुन, अश्रद्धान्, अयज्ञान् और अयज्वान: जैसे [[विशेषण|विशेषणों]] की श्रृंखला मात्र है। इनका प्रयोग दस्युओं के लिए पुरज़ोर तौर पर यह सिद्ध करने के लिए किया गया है कि उनको [[यज्ञ]] पसन्द नहीं था।<ref>ऋग्वेद, VII. 6.3. </ref> | ||
*[[इन्द्र]] से कहा गया है कि वे यज्ञपरायण [[आर्य]] और यज्ञविमुख दस्युओं के बीच अन्तर करें।<ref>ऋग्वेद, I. 51.8. </ref> ‘अनिंद्र’<ref> इन्द्र को न मानने वाला</ref> शब्द का प्रयोग भी कई स्थलों पर किया गया है, <ref>ऋग्वेद, I. 133.1; V. 2.3; VII. 1.8.16; X. 27.6; X. 48.7.</ref> और अनुमानत: इससे दस्युओं, दासों और सम्भवत: कुछ भिन्न मतावलम्बी आर्यों का बोध होता है। | *[[इन्द्र]] से कहा गया है कि वे यज्ञपरायण [[आर्य]] और यज्ञविमुख दस्युओं के बीच अन्तर करें।<ref>ऋग्वेद, I. 51.8. </ref> ‘अनिंद्र’<ref> इन्द्र को न मानने वाला</ref> शब्द का प्रयोग भी कई स्थलों पर किया गया है, <ref>ऋग्वेद, I. 133.1; V. 2.3; VII. 1.8.16; X. 27.6; X. 48.7.</ref> और अनुमानत: इससे दस्युओं, दासों और सम्भवत: कुछ भिन्न मतावलम्बी आर्यों का बोध होता है। | ||
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*इन्द्र का असुरों की काली चमड़ी उधेड़ते हुए चित्रण किया गया है।<ref>ऋग्वेद, I. 130.8.</ref> इन्द्र का एक वीरतापूर्ण कार्य, जिसका कुछ ऐतिहासिक आधार हो सकता है, [[कृष्ण]] नामक योद्धा के साथ उनका युद्ध है। | *इन्द्र का असुरों की काली चमड़ी उधेड़ते हुए चित्रण किया गया है।<ref>ऋग्वेद, I. 130.8.</ref> इन्द्र का एक वीरतापूर्ण कार्य, जिसका कुछ ऐतिहासिक आधार हो सकता है, [[कृष्ण]] नामक योद्धा के साथ उनका युद्ध है। | ||
==कृष्ण और इंद्र== | ==कृष्ण और इंद्र== | ||
*कहा जाता है कि जब [[कृष्ण]] ने अपनी दस हज़ार सेना के साथ अंशुमती या [[यमुना]] पर | *कहा जाता है कि जब [[कृष्ण]] ने अपनी दस हज़ार सेना के साथ अंशुमती या [[यमुना]] पर ख़ैमा गिराया तब [[इन्द्र]] ने मरुतों<ref> आर्यविश्</ref> को संगठित किया और पुरोहित देव [[बृहस्पति]] की सहायता से अदेवी: विश: के साथ युद्ध किया।<ref>ऋग्वेद, VIII, 96.13-15. ‘अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे धारयतल्वम्, तित्विषाण:; विशो अदेविर्भ्या चरन्तिर् बृहस्पतिना युजेन्द्र: ससाहे’.</ref> | ||
*अदेवी: विश: का अर्थ [[सायण]] ने काले रंग का असुर बताया है।<ref> कृष्णरूपा: असुरसेना:।</ref> कृष्ण को श्याम वर्ण का आर्येतर योद्धा बताया गया है, जो यादव जाति का था।<ref>कोसंबी : ‘जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी’, बम्बई, न्यू सीरीज, XXVII, 43.</ref> यह सम्भव मालूम पड़ता है, क्योंकि परवर्ती अनुश्रुति है कि इन्द्र और कृष्ण में बड़ी शत्रुता थी। ऐसा प्रसंग आया है जिसमें कृष्णगर्भा के मारे जाने की चर्चा है, जिसका अर्थ संशयपूर्वक सायण ने कृष्ण नामक असुर की गर्भवती पत्नियाँ बताया है।<ref>ऋग्वेद, I. 101.1. ‘य: कृष्णगर्भनिरहन्नृजिश्वाना’.</ref> | *अदेवी: विश: का अर्थ [[सायण]] ने काले रंग का असुर बताया है।<ref> कृष्णरूपा: असुरसेना:।</ref> कृष्ण को श्याम वर्ण का आर्येतर योद्धा बताया गया है, जो यादव जाति का था।<ref>कोसंबी : ‘जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी’, बम्बई, न्यू सीरीज, XXVII, 43.</ref> यह सम्भव मालूम पड़ता है, क्योंकि परवर्ती अनुश्रुति है कि इन्द्र और कृष्ण में बड़ी शत्रुता थी। ऐसा प्रसंग आया है जिसमें कृष्णगर्भा के मारे जाने की चर्चा है, जिसका अर्थ संशयपूर्वक सायण ने कृष्ण नामक असुर की गर्भवती पत्नियाँ बताया है।<ref>ऋग्वेद, I. 101.1. ‘य: कृष्णगर्भनिरहन्नृजिश्वाना’.</ref> | ||
*इसी प्रकार से इन्द्र द्वारा कृष्णयोनि: दासी: के विनाश का भी उल्लेख है।<ref>ऋग्वेद, 20.7. ‘सवृत्रहेन्द्र: कृष्णयोनि: पुरन्दर ओदासीरैर्याद्वि’....सायण की टीका.। किन्तु गेल्डनर का सुझाव है कि दासों में पुर: अंतर्निहित है और कवि गर्भाधान की बात सोचता है।</ref> सायण की उर्वर कल्पना ने उन्हें निकृष्ट जाति की आसुरी सेना<ref> निकृष्ट जाती:.....आसुरी: सेना:</ref> माना है, किन्तु विल्सन कृष्ण को श्याम वर्ण का द्योतक मानते हैं। यदि विल्सन का अर्थ सही माना जाए तो यह स्पष्ट है कि दास काले रंग के होते थे। किन्तु हो सकता है कि उन्हें उसी प्रकार काले रंग का कहा गया हो, जिस प्रकार दस्युओं और आर्यों के अन्य शत्रुओं को कहा गया है। | *इसी प्रकार से इन्द्र द्वारा कृष्णयोनि: दासी: के विनाश का भी उल्लेख है।<ref>ऋग्वेद, 20.7. ‘सवृत्रहेन्द्र: कृष्णयोनि: पुरन्दर ओदासीरैर्याद्वि’....सायण की टीका.। किन्तु गेल्डनर का सुझाव है कि दासों में पुर: अंतर्निहित है और कवि गर्भाधान की बात सोचता है।</ref> सायण की उर्वर कल्पना ने उन्हें निकृष्ट जाति की आसुरी सेना<ref> निकृष्ट जाती:.....आसुरी: सेना:</ref> माना है, किन्तु विल्सन कृष्ण को श्याम वर्ण का द्योतक मानते हैं। यदि विल्सन का अर्थ सही माना जाए तो यह स्पष्ट है कि दास काले रंग के होते थे। किन्तु हो सकता है कि उन्हें उसी प्रकार काले रंग का कहा गया हो, जिस प्रकार दस्युओं और आर्यों के अन्य शत्रुओं को कहा गया है। | ||
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*[[ऋग्वेद]] में ‘मृध्रवाक’ शब्द का प्रयोग विभिन्न रूप में छ: स्थलों पर हुआ है, <ref>ऋग्वेद, I. 174.2; V. 29.10, 32.8; VII. 6.3, 18.13. चार स्थानों पर नहीं, जैसा कि ‘हू वेयर द शूद्राज़’, पृष्ठ 71 में है।</ref> जिससे पता चलता है कि आर्यों और उनके शत्रुओं में बोलचाल की रीति भिन्न थी। यह दो स्थलों पर दस्युओं का [[विशेषण]] है।<ref>ऋग्वेद, V. 29.10; VII. 6.3.</ref> [[सायण]] ने इसका अर्थ ‘विद्वेषपूर्ण वचन’ वाला किया है, और गेल्डनर ने इसे ‘झूठ बोलने वाले’ का पर्याय माना है।<ref>ऋग्वेद, I. 174.2.</ref> इससे पता चलता है कि आर्यों और दस्युओं में कोई भाषाजन्य अन्तर था और दस्यु अपनी अनुचित वाणी से आर्यों की भावना को चोट पहुँचाते थे। अत: आर्यों और उनके दुश्मनों के बीच युद्ध में यद्यपि मुख्य प्रश्न पशु, रथ और अन्य प्रकार की सम्पत्ति को दख़ल करने का रहता था, फिर भी जाति, धर्म और बोलचाल की रीति में अन्तर होने के कारण भी उनके सम्बन्ध कटु बने रहते थे। | *[[ऋग्वेद]] में ‘मृध्रवाक’ शब्द का प्रयोग विभिन्न रूप में छ: स्थलों पर हुआ है, <ref>ऋग्वेद, I. 174.2; V. 29.10, 32.8; VII. 6.3, 18.13. चार स्थानों पर नहीं, जैसा कि ‘हू वेयर द शूद्राज़’, पृष्ठ 71 में है।</ref> जिससे पता चलता है कि आर्यों और उनके शत्रुओं में बोलचाल की रीति भिन्न थी। यह दो स्थलों पर दस्युओं का [[विशेषण]] है।<ref>ऋग्वेद, V. 29.10; VII. 6.3.</ref> [[सायण]] ने इसका अर्थ ‘विद्वेषपूर्ण वचन’ वाला किया है, और गेल्डनर ने इसे ‘झूठ बोलने वाले’ का पर्याय माना है।<ref>ऋग्वेद, I. 174.2.</ref> इससे पता चलता है कि आर्यों और दस्युओं में कोई भाषाजन्य अन्तर था और दस्यु अपनी अनुचित वाणी से आर्यों की भावना को चोट पहुँचाते थे। अत: आर्यों और उनके दुश्मनों के बीच युद्ध में यद्यपि मुख्य प्रश्न पशु, रथ और अन्य प्रकार की सम्पत्ति को दख़ल करने का रहता था, फिर भी जाति, धर्म और बोलचाल की रीति में अन्तर होने के कारण भी उनके सम्बन्ध कटु बने रहते थे। | ||
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आर्य और दस्यु
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विवरण | शूद्र भारतीय समाज व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण या जाति है। |
उत्पत्ति | शूद्र शब्द मूलत: विदेशी है और संभवत: एक पराजित अनार्य जाति का मूल नाम था। |
पौराणिक संदर्भ | वायु पुराण का कथन है कि शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र हैं। भविष्यपुराण में श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए।[1] |
वैदिक परंपरा | अथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था।[2] परंपरा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था। किंतु बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया। |
ऐतिहासिक संदर्भ | शूद्र जनजाति का उल्लेख डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेन त्सांग भी करते हैं। |
आर्थिक स्थिति | उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं[3] इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था। |
मध्य काल | कबीर, रैदास, पीपा इस काल के प्रसिद्ध शूद्र संत हैं। असम के शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित मत, पंजाब का सिक्ख संप्रदाय और महाराष्ट्र के बारकरी संप्रदाय ने शूद्र महत्त्व धार्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित किया। |
आधुनिक काल | वेबर, भीमराव आम्बेडकर, ज़िमर और रामशरण शर्मा क्रमश: शूद्रों को मूलत: भारतवर्ष में प्रथमागत आर्यस्कंध, क्षत्रिय, ब्राहुई भाषी और आभीर संबद्ध मानते हैं। |
संबंधित लेख | वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, चर्मकार, मीणा, कुम्हार, दास, भील, बंजारा |
अन्य जानकारी | पद से उत्पन्न होने के कारण पदपरिचर्या शूद्रों का विशिष्ट व्यवसाय है। द्विजों के साथ आसन, शयन वाक और पथ में समता की इच्छा रखने वाला शूद्र दंड्य है।[4] |
- दस्युओं के रहन-सहन के ढंग से भी आर्य उनके बैरी बन गए। ऐसा लगता है कि आर्यों का पशुपालन आधारित जनजातीय और अस्थायी जीवनक्रम देशीय संस्कृति के स्थायी एवं शहरी जीवन से बेमेल था।[5]
- आर्यों का जीवन प्रधानतया जनजातीय जीवन था, जो गण, सभा, समिति और विदथ जैसी विभिन्न सामुदायिक संस्थाओं के माध्यम से रूपायित हुआ है और जिसमें यज्ञ का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था। किन्तु दस्युओं को यज्ञ से कोई सरोकार नहीं था। दासों के साथ भी यही बात थी, क्योंकि इन्द्र के बारे में बताया गया है कि वह दास और आर्य का विभेद करते हुए यज्ञस्थल में आता था।[6]
- ऋग्वेद के सातवें मंडल का एक सम्पूर्ण सूक्त अक्रतुन, अश्रद्धान्, अयज्ञान् और अयज्वान: जैसे विशेषणों की श्रृंखला मात्र है। इनका प्रयोग दस्युओं के लिए पुरज़ोर तौर पर यह सिद्ध करने के लिए किया गया है कि उनको यज्ञ पसन्द नहीं था।[7]
- इन्द्र से कहा गया है कि वे यज्ञपरायण आर्य और यज्ञविमुख दस्युओं के बीच अन्तर करें।[8] ‘अनिंद्र’[9] शब्द का प्रयोग भी कई स्थलों पर किया गया है, [10] और अनुमानत: इससे दस्युओं, दासों और सम्भवत: कुछ भिन्न मतावलम्बी आर्यों का बोध होता है।
- आर्यों के कथनानुसार दस्यु तिलस्मी जादू करते थे।[11] ऐसा मत अथर्ववेद में विशेष रूप से व्यक्त किया गया है। यहाँ दस्युओं को भूत - पिशाच के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उन्हें यज्ञ - स्थल से भगाने की चेष्टा की गई है।[12]
- कहा जाता है कि ‘अंगिरस’ मुनि के पास एक परम शक्तिशाली रक्षा कवच[13] था, जिससे वह दस्युओं के क़िले को ध्वस्त कर सकते थे।[14] ऋग्वैदिक काल में उन्होंने जो लड़ाइयाँ लड़ी थीं, उनके कारण ही अथर्ववेद में दस्युओं को दुष्टात्मा के रूप में चित्रित किया गया है।
- अथर्ववेद में कहा गया है कि ईश्वर के निन्दक दस्युओं को बलि वेदी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए।[15] ऐसा विश्वास था कि दस्यु विश्वासघाती होते हैं, वे आर्यों की तरह धर्म-कर्म नहीं करते और उनमें मानवता नहीं होती।[16]
आर्यों और दस्युओं के रहन-सहन में अन्तर
- आर्यों और दस्युओं के रहन-सहन में जो अन्तर है, उससे आर्यों के व्रत, जिसका अर्थ सामान्यत: जीवन का सुनिश्चित ढंग होता है, के प्रति दस्युओं की क्या दृष्टि थी, इसका पता चलता है।[17]
- यदि व्रत और 'व्रात', जिसका अर्थ जनजातीय दल या समूह होता है, के बीच सम्बन्ध स्थापित करना सम्भव हो तो यह कहा जा सकता है कि व्रत शब्द का अर्थ जनजातीय क़ानून या प्रथा है। दस्युओं को साधारणत: अव्रत[18] और अन्यव्रत[19] कहा गया है।
- ‘अपव्रत’ शब्द का प्रयोग दो स्थलों पर हुआ है, जो प्राय: दस्युओं और भिन्न मत रखने वाले आर्यों के लिए है।[20] ध्यान देने की बात है कि दासों के लिए इस प्रकार के विशेषणों का प्रयोग नहीं हुआ है, जिससे मालूम होता है कि वे दस्युओं की अपेक्षा आर्यों के तौर-तरीक़े अधिक पसन्द करते थे।
रंग भेद
- ऐसा लगता है कि आर्यों और उनके शत्रुओं में रंग का अन्तर था। आर्य, जो मानव[21] कहे जाते थे और अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे, कभी-कभी काले रंग वाले मनुष्यों[22] की बस्तियों में आग लगा देते थे और वे लोग संघर्ष किए बिना ही अपना सर्वस्व छोड़कर भाग खड़े होते थे।[23]
- आर्य देवता सोम को काले वर्ण के लोगों का हिंसक कहा गया है, जो दस्यु होते थे।[24]
- इन्द्र को भी काले रंग के राक्षसों[25] से संघर्ष करना पड़ा था, [26] और एक स्थल पर उन्हें पचास हज़ार काले वर्ण वालों[27] की हत्या का श्रेय दिया गया है, जिन्हें काले वर्ण का राक्षस मानते हैं।[28]
- इन्द्र का असुरों की काली चमड़ी उधेड़ते हुए चित्रण किया गया है।[29] इन्द्र का एक वीरतापूर्ण कार्य, जिसका कुछ ऐतिहासिक आधार हो सकता है, कृष्ण नामक योद्धा के साथ उनका युद्ध है।
कृष्ण और इंद्र
- कहा जाता है कि जब कृष्ण ने अपनी दस हज़ार सेना के साथ अंशुमती या यमुना पर ख़ैमा गिराया तब इन्द्र ने मरुतों[30] को संगठित किया और पुरोहित देव बृहस्पति की सहायता से अदेवी: विश: के साथ युद्ध किया।[31]
- अदेवी: विश: का अर्थ सायण ने काले रंग का असुर बताया है।[32] कृष्ण को श्याम वर्ण का आर्येतर योद्धा बताया गया है, जो यादव जाति का था।[33] यह सम्भव मालूम पड़ता है, क्योंकि परवर्ती अनुश्रुति है कि इन्द्र और कृष्ण में बड़ी शत्रुता थी। ऐसा प्रसंग आया है जिसमें कृष्णगर्भा के मारे जाने की चर्चा है, जिसका अर्थ संशयपूर्वक सायण ने कृष्ण नामक असुर की गर्भवती पत्नियाँ बताया है।[34]
- इसी प्रकार से इन्द्र द्वारा कृष्णयोनि: दासी: के विनाश का भी उल्लेख है।[35] सायण की उर्वर कल्पना ने उन्हें निकृष्ट जाति की आसुरी सेना[36] माना है, किन्तु विल्सन कृष्ण को श्याम वर्ण का द्योतक मानते हैं। यदि विल्सन का अर्थ सही माना जाए तो यह स्पष्ट है कि दास काले रंग के होते थे। किन्तु हो सकता है कि उन्हें उसी प्रकार काले रंग का कहा गया हो, जिस प्रकार दस्युओं और आर्यों के अन्य शत्रुओं को कहा गया है।
- उपर्युक्त प्रसंगों से निस्संदेह यह स्पष्ट होता है कि अग्नि और सोम के उपासक आर्यों को भारत के काले लोगों से युद्ध करना पड़ा था। ऋग्वेद में एक प्रसंग आया है, जिसमें ‘पुरुकुत्स’ का पुत्र ‘त्रसदस्यु’ नामक वैदिक योद्धा काले रंग के लोगों के नेता के रूप मे वर्णित है।[37] इससे यह स्पष्ट होता है कि उसने उन लोगों पर अपनी धाक जमा रखी थी।
- यदि दस्युओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त अनास[38] शब्द का अर्थ नासाविहीन या चिपटी नाकवाला किया जाए और दासों के प्रसंग में प्रयुक्त वृषशिप्र शब्द[39] का अर्थ ‘वृषभ ओष्ठवाला’ या उभरे ओठोंवाला माना जाए तो यह मालूम पड़ेगा कि मुखाकृतियों की दृष्टि से आर्यों के शत्रु उनसे भिन्न प्रकार के थे।
बोलचाल की भिन्नता
*ऋग्वेद में ‘मृध्रवाक’ शब्द का प्रयोग विभिन्न रूप में छ: स्थलों पर हुआ है, [40] जिससे पता चलता है कि आर्यों और उनके शत्रुओं में बोलचाल की रीति भिन्न थी। यह दो स्थलों पर दस्युओं का विशेषण है।[41] सायण ने इसका अर्थ ‘विद्वेषपूर्ण वचन’ वाला किया है, और गेल्डनर ने इसे ‘झूठ बोलने वाले’ का पर्याय माना है।[42] इससे पता चलता है कि आर्यों और दस्युओं में कोई भाषाजन्य अन्तर था और दस्यु अपनी अनुचित वाणी से आर्यों की भावना को चोट पहुँचाते थे। अत: आर्यों और उनके दुश्मनों के बीच युद्ध में यद्यपि मुख्य प्रश्न पशु, रथ और अन्य प्रकार की सम्पत्ति को दख़ल करने का रहता था, फिर भी जाति, धर्म और बोलचाल की रीति में अन्तर होने के कारण भी उनके सम्बन्ध कटु बने रहते थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेदांतसूत्र- 1, 44, 33
- ↑ अथर्ववेद 19, 32, 8
- ↑ रामशरण शर्मा पृ. 163-164
- ↑ गौतम धर्मसूत्र 12, 5
- ↑ व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I पृ. 90-91.
- ↑ ऋग्वेद, X. 86.19; अथर्ववेद, XX. 126.19.
- ↑ ऋग्वेद, VII. 6.3.
- ↑ ऋग्वेद, I. 51.8.
- ↑ इन्द्र को न मानने वाला
- ↑ ऋग्वेद, I. 133.1; V. 2.3; VII. 1.8.16; X. 27.6; X. 48.7.
- ↑ ऋग्वेद, IV. 16.9.
- ↑ अथर्ववेद, II. 14.5.
- ↑ ताबीज
- ↑ अथर्ववेद, X. 6.20.
- ↑ अथर्ववेद, XII. 1.37.
- ↑ ऋग्वेद, X. 22.8.
- ↑ पी. वी. काणे : ‘द वर्ड व्रत इन द ऋग्वेद’, जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, न्यू सीरीज, XXIX. पृ. 12.
- ↑ ऋग्वेद, I. 51.8-9; I. 101.2; I. 175.3; VI. 14.3; IX. 41.2. किन्तु ‘अव्रत’ शब्द का प्रयोग कहीं पर भी दास के लिए नहीं किया गया है।
- ↑ ऋग्वेद, VIII. 70.11; X. 22.8.
- ↑ ऋग्वेद, V. 42.9; V. 40.6 में ‘अपव्रत’ शब्द का अर्थ काला माना गया है।
- ↑ मानुषी प्रजा
- ↑ असिक्नीविश:
- ↑ ऋग्वेद, VII. 5.2-3.। गेल्डर का अनुवाद; बी. लाल : ‘एनशियंट इण्डिया’, 9, पृ. 88. राणा घुंडई III. में हड़प्पा संस्कृति का अन्त भीषण अग्निकांड में हुआ।
- ↑ ऋग्वेद, IX, 41.1-2. ‘ध्नन्त: कृष्णं आप त्वचं....साह्वाम्से दास्युमव्रतम्’.
- ↑ त्वचमसिक्नीम्
- ↑ ऋग्वेद, IX. 73.5.
- ↑ कृष्ण
- ↑ ऋग्वेद, IV. 16.13. किन्तु गेल्डनर ने इस सन्दर्भ में राक्षस का ज़िक्र नहीं किया है।
- ↑ ऋग्वेद, I. 130.8.
- ↑ आर्यविश्
- ↑ ऋग्वेद, VIII, 96.13-15. ‘अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे धारयतल्वम्, तित्विषाण:; विशो अदेविर्भ्या चरन्तिर् बृहस्पतिना युजेन्द्र: ससाहे’.
- ↑ कृष्णरूपा: असुरसेना:।
- ↑ कोसंबी : ‘जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी’, बम्बई, न्यू सीरीज, XXVII, 43.
- ↑ ऋग्वेद, I. 101.1. ‘य: कृष्णगर्भनिरहन्नृजिश्वाना’.
- ↑ ऋग्वेद, 20.7. ‘सवृत्रहेन्द्र: कृष्णयोनि: पुरन्दर ओदासीरैर्याद्वि’....सायण की टीका.। किन्तु गेल्डनर का सुझाव है कि दासों में पुर: अंतर्निहित है और कवि गर्भाधान की बात सोचता है।
- ↑ निकृष्ट जाती:.....आसुरी: सेना:
- ↑ ऋग्वेद, VIII. 19.36-37.
- ↑ ऋग्वेद, V. 29.10. सायण अनास की व्याख्या वाणीविहीन (आस्यरहित) के अर्थ में करते हैं।
- ↑ ऋग्वेद, VII 99.4.
- ↑ ऋग्वेद, I. 174.2; V. 29.10, 32.8; VII. 6.3, 18.13. चार स्थानों पर नहीं, जैसा कि ‘हू वेयर द शूद्राज़’, पृष्ठ 71 में है।
- ↑ ऋग्वेद, V. 29.10; VII. 6.3.
- ↑ ऋग्वेद, I. 174.2.
बाहरी कड़ियाँ
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