"उसके सुख का दु:ख -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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आइए वापस लौट आएँ और ये सोचें कि हम कहीं दूसरे के सुख से दुखी तो नहीं होते... जैसे कि अपने पड़ोसी का सुख या अपने किसी पहचान वाले का सुख हमें परेशान तो नहीं करता...? | आइए वापस लौट आएँ और ये सोचें कि हम कहीं दूसरे के सुख से दुखी तो नहीं होते... जैसे कि अपने पड़ोसी का सुख या अपने किसी पहचान वाले का सुख हमें परेशान तो नहीं करता...? | ||
निश्चित रूप से कर सकता है। तो इसका इलाज क्या है ? कैसे हमारा स्वभाव ऐसा हो सकता है कि हम ईर्ष्या न करें और दूसरों के सुख से हमारी की गयी ईर्ष्या हमारे सुख को | निश्चित रूप से कर सकता है। तो इसका इलाज क्या है ? कैसे हमारा स्वभाव ऐसा हो सकता है कि हम ईर्ष्या न करें और दूसरों के सुख से हमारी की गयी ईर्ष्या हमारे सुख को दु:ख में ना बदल दे। | ||
ईर्ष्या हमेशा से उपदेशकों का प्रिय विषय रहा है, जैसे- काम, क्रोध, मद, लोभ आदि। विशेषकर धार्मिक उपदेशक इस तरह के बड़े बड़े चित्र अपने अपने धार्मिक स्थानों पर दीवारों पर सजाते हैं। बड़े बड़े चार्ट, कलैंण्डर बाज़ार में बिकते रहे हैं जिनमें मनुष्य के उक्त सभी आचरणों को पाप की संज्ञा दी जाती है। निश्चित ही पापियों की अपने अपने धर्मों | ईर्ष्या हमेशा से उपदेशकों का प्रिय विषय रहा है, जैसे- काम, क्रोध, मद, लोभ आदि। विशेषकर धार्मिक उपदेशक इस तरह के बड़े बड़े चित्र अपने अपने धार्मिक स्थानों पर दीवारों पर सजाते हैं। बड़े बड़े चार्ट, कलैंण्डर बाज़ार में बिकते रहे हैं जिनमें मनुष्य के उक्त सभी आचरणों को पाप की संज्ञा दी जाती है। निश्चित ही पापियों की अपने अपने धर्मों केनरकमें स्वत: ही एडवांस बुकिंग हो जाती है। उपदेशों का हमारे ऊपर कितना असर होता है इस बात का पता इससे चलता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी हम उपदेश सुनते चले आ रहे हैं पर उपदेश ख़त्म होने का नाम नहीं लेते। ख़त्म होना तो बहुत बड़ी बात है एकाध उपदेश कम भी नहीं होता। यदि समाज पर उपदेशों का असर हुआ होता तो उपदेश अब तक समाप्त हो चुके होते और उपदेशक अपने मंचों को छोड़कर किसी प्राइमरी स्कूल में हैडमास्टरी कर रहे होते। | ||
ईर्ष्या के बारे में सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि ईर्ष्या 'की' नहीं जाती ईर्ष्या 'हो' जाती है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता जो सोच समझकर ईर्ष्या कर पाये। ईर्ष्या मानव के सहज स्वभाव के मूल में निहित है। यह प्रकृति की देन है। इसी तरह ईर्ष्या सामाजिक शिक्षा या संस्था नहीं है, जिसके लिए किसी को प्रशिक्षित किया जा सके। हमने अक्सर सुना और पढ़ा है कि अमुक व्यक्ति ईर्ष्यालु स्वभाव का है, जबकि यह सम्भव नहीं है। सच्चाई यह होती है कि वह 'ईर्ष्यालु' व्यक्ति इतना बुद्धिमान और अनुभवी नहीं होता कि अपनी ईर्ष्या को छुपा सके और सहज रूप से प्रदर्शित ना होने दे। | ईर्ष्या के बारे में सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि ईर्ष्या 'की' नहीं जाती ईर्ष्या 'हो' जाती है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता जो सोच समझकर ईर्ष्या कर पाये। ईर्ष्या मानव के सहज स्वभाव के मूल में निहित है। यह प्रकृति की देन है। इसी तरह ईर्ष्या सामाजिक शिक्षा या संस्था नहीं है, जिसके लिए किसी को प्रशिक्षित किया जा सके। हमने अक्सर सुना और पढ़ा है कि अमुक व्यक्ति ईर्ष्यालु स्वभाव का है, जबकि यह सम्भव नहीं है। सच्चाई यह होती है कि वह 'ईर्ष्यालु' व्यक्ति इतना बुद्धिमान और अनुभवी नहीं होता कि अपनी ईर्ष्या को छुपा सके और सहज रूप से प्रदर्शित ना होने दे। | ||
जो लोग जितना अधिक यह कहते हैं कि उन्हें किसी से ईर्ष्या नहीं होती वे कितना सत्य बोलते हैं इसका पता तब चलता है जब उनका आचरण कहीं ना कहीं उनकी सावधानी से छुपायी गयी उनकी ईर्ष्या की भावना को प्रकट कर देता है। कोई व्यक्ति शिक्षित है या अशिक्षित इस बात से ईर्ष्या के स्वभाव पर कोई असर नहीं पड़ता। समान कार्यक्षेत्र के लोग आपस में सहज ही ईर्ष्या करने लगते हैं। जो कथावाचक और उपदेशक संत ज्ञान और वैराग्य के महाकाव्य गाते रहते हैं, उनकी भी ईर्ष्यालु | जो लोग जितना अधिक यह कहते हैं कि उन्हें किसी से ईर्ष्या नहीं होती वे कितना सत्य बोलते हैं इसका पता तब चलता है जब उनका आचरण कहीं ना कहीं उनकी सावधानी से छुपायी गयी उनकी ईर्ष्या की भावना को प्रकट कर देता है। कोई व्यक्ति शिक्षित है या अशिक्षित इस बात से ईर्ष्या के स्वभाव पर कोई असर नहीं पड़ता। समान कार्यक्षेत्र के लोग आपस में सहज ही ईर्ष्या करने लगते हैं। जो कथावाचक और उपदेशक संत ज्ञान और वैराग्य के महाकाव्य गाते रहते हैं, उनकी भी ईर्ष्यालु प्रवृत्ति जब छुपाये नहीं छुपती तब हमको अत्यधिक आश्चर्य होता है जबकि यह आश्चर्य का विषय ही नहीं है। | ||
स्कूलों से लेकर बड़ी बड़ी कम्पनियों में स्पर्धा की भावना को बढ़ावा दिया जाता है। माता पिता अपने बच्चों को परीक्षा में अधिक अंक लाने के लिए उन तरीक़ों को अपनाने के लिए भी कहते हैं जो कि बच्चे की वास्तविक और स्वाभाविक शिक्षा का अंग नहीं हैं। इसी तरह कम्पनियों में अपने कर्मचारियों में स्वस्थ स्पर्धा से कहीं हटकर गलाकाट ईर्ष्या पैदा की जाती है जो आगे चलकर स्वयं जीतने की इच्छा को बदलकर दूसरे को हराने की इच्छा में अपना द्वेषपूर्ण रूप ले लेती है। | स्कूलों से लेकर बड़ी बड़ी कम्पनियों में स्पर्धा की भावना को बढ़ावा दिया जाता है। माता पिता अपने बच्चों को परीक्षा में अधिक अंक लाने के लिए उन तरीक़ों को अपनाने के लिए भी कहते हैं जो कि बच्चे की वास्तविक और स्वाभाविक शिक्षा का अंग नहीं हैं। इसी तरह कम्पनियों में अपने कर्मचारियों में स्वस्थ स्पर्धा से कहीं हटकर गलाकाट ईर्ष्या पैदा की जाती है जो आगे चलकर स्वयं जीतने की इच्छा को बदलकर दूसरे को हराने की इच्छा में अपना द्वेषपूर्ण रूप ले लेती है। | ||
आख़िर इस ईर्ष्या के असली मायने क्या हैं? यदि समाज के विभिन्न स्तरों पर देखें तो ये ईर्ष्या किसी के लिए प्रेरणा भी बन जाती है और उसकी सफलता का राज़ भी। तो फिर ईर्ष्या को अच्छा माना जाए या बुरा? निश्चित रूप से ईर्ष्या को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है। एक ईर्ष्या वो है जिसका परिणाम नकारात्मक होता है और दूसरी निश्चित रूप से सकारात्मक परिणाम सामने लाती है जिसे हम 'स्वस्थ स्पर्धा की भावना' भी कहते है। स्पर्धा की भावना हमारी प्रगति के लिए एक अनिवार्य ऊर्जा है। | आख़िर इस ईर्ष्या के असली मायने क्या हैं? यदि समाज के विभिन्न स्तरों पर देखें तो ये ईर्ष्या किसी के लिए प्रेरणा भी बन जाती है और उसकी सफलता का राज़ भी। तो फिर ईर्ष्या को अच्छा माना जाए या बुरा? निश्चित रूप से ईर्ष्या को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है। एक ईर्ष्या वो है जिसका परिणाम नकारात्मक होता है और दूसरी निश्चित रूप से सकारात्मक परिणाम सामने लाती है जिसे हम 'स्वस्थ स्पर्धा की भावना' भी कहते है। स्पर्धा की भावना हमारी प्रगति के लिए एक अनिवार्य ऊर्जा है। |
10:53, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
उसके सुख का दु:ख -आदित्य चौधरी एक गांव में एक ज़मींदार रहता था। ज़मींदार को अपनी हवेली की छत पर बैठ कर हुक़्क़ा पीने की आदत थी। शाम के समय मूढ़े पर बैठकर जब वो हुक़्क़ा पी रहा होता तो उसका कारिंदा उसके पैर दबाता रहता। ज़मींदार की मूछें बड़ी-बड़ी थीं। हुक़्क़ा पीते समय मूछों पर लगातार ताव देते रहना ज़मींदार की आदत थी। उसकी हवेली के सामने एक व्यापारी सेठ भी रहता था। ज़मींदार की हवेली तीन मंज़िल की थी और सेठ की दो मंज़िल की। सेठ ने भी अपनी हवेली तीन मंज़िल की करवा ली। ज़मींदार के सामने वाली हवेली की छत पर अब सेठ भी ठीक उसी तरह बैठने लगा जैसे ज़मींदार बैठता था और उसने ज़मींदार से भी लम्बी मूछें बढ़ा लीं और मूढ़े पर बैठ कर मूछों को ताव देने लगा। दोनों हवेलियों की छत इतनी क़रीब हो गयी थी कि आराम से आपस में बातें की जा सकती थीं। ज़मींदार ने सेठ से कहा - आइए वापस लौट आएँ और ये सोचें कि हम कहीं दूसरे के सुख से दुखी तो नहीं होते... जैसे कि अपने पड़ोसी का सुख या अपने किसी पहचान वाले का सुख हमें परेशान तो नहीं करता...?
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