"वेद और शूद्र": अवतरणों में अंतर
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*1847 ई. में रौथ ने संकेत किया था कि [[शूद्र]] [[आर्य|आर्यों]] के समाज से बाहर के रहे होंगे।<ref>आर. रौथ: शब्रह्म एंड डाइ ब्राह्मनेन साइटशिफ्ट डेर डोयूचेन मेर्गेनलेंडिशेन गेज़ेलशाफ्ट बर्लिन, 1 पृष्ठ 84</ref> उस समय से सामान्यतया यह विचारधारा चली आ रही है कि ब्राह्मणकालीन समाज का 'चौथा वर्ण' मुख्यतया आर्येतर लोगों का था, जिनकी वैसी स्थिति आर्य विजेताओं ने बना रखी थी।<ref>वैदिक इंडेक्स, 2, पृष्ठ 265,388; आर. सी. दत्त: ए हिस्ट्री ऑफ़ सिविलिजेशन इन एनशिएंट इण्डिया, 1, पृष्ठ 2; सोनार्ट: कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 83; एन. के. दत्त: ओरोजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 151-52; धुर्वे: कास्ट एण्ड क्लास, पृष्ठ 152-2, डी. आर. भंडारकर: सम आक्पेक्ट्स ऑफ़ एनशिएंट इण्डियन कल्चर, पृष्ठ 10</ref> | *1847 ई. में रौथ ने संकेत किया था कि [[शूद्र]] [[आर्य|आर्यों]] के समाज से बाहर के रहे होंगे।<ref>आर. रौथ: शब्रह्म एंड डाइ ब्राह्मनेन साइटशिफ्ट डेर डोयूचेन मेर्गेनलेंडिशेन गेज़ेलशाफ्ट बर्लिन, 1 पृष्ठ 84</ref> उस समय से सामान्यतया यह विचारधारा चली आ रही है कि ब्राह्मणकालीन समाज का 'चौथा वर्ण' मुख्यतया आर्येतर लोगों का था, जिनकी वैसी स्थिति आर्य विजेताओं ने बना रखी थी।<ref>वैदिक इंडेक्स, 2, पृष्ठ 265,388; आर. सी. दत्त: ए हिस्ट्री ऑफ़ सिविलिजेशन इन एनशिएंट इण्डिया, 1, पृष्ठ 2; सोनार्ट: कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 83; एन. के. दत्त: ओरोजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 151-52; धुर्वे: कास्ट एण्ड क्लास, पृष्ठ 152-2, डी. आर. भंडारकर: सम आक्पेक्ट्स ऑफ़ एनशिएंट इण्डियन कल्चर, पृष्ठ 10</ref> | ||
*[[यूरोप]] के 'गौरांग' और [[एशिया]] तथा [[अफ़्रीका]] के 'गौरांगेतर' लोगों के बीच हुए संघर्ष से साम्य के आधार पर इस विचारधारा की पुष्टि की जाती रही है। | *[[यूरोप]] के 'गौरांग' और [[एशिया]] तथा [[अफ़्रीका]] के 'गौरांगेतर' लोगों के बीच हुए संघर्ष से साम्य के आधार पर इस विचारधारा की पुष्टि की जाती रही है। | ||
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==आर्यों से संघर्ष== | ==आर्यों से संघर्ष== | ||
आर्यों और उनके शत्रुओं के बीच जो संघर्ष हुए, उनमें मुख्यत: शत्रुओं के क़िलों और दीवारों से घिरी बस्तियों को ध्वस्त किया गया। दासों और दस्युओं, दोनों ही के क़ब्ज़े में अनेक क़िलाबन्द बस्तियाँ थी<ref>ऋग्वेद, I. 103.3; II. 19.6; IV. 30.20; VI. 20.10, 31.4.</ref> जिनका सम्बन्ध भी सामान्यतया आर्यों के शत्रुओं के साथ जोड़ा जाता है।<ref>ऋग्वेद, I. 33.13, 53.8; VIII. 17.4. </ref> मालूम होता है कि घुम्मकड़ आर्यों की आँखें दुश्मनों की बस्तियों में संचित सम्पत्ति पर लगी हुई थी और उन्हें हड़पने के लिए दोनों में निरन्तर ही संघर्ष होता रहता था।<ref>ऋग्वेद, IV. 30.13; V. 40.6; X. 69.6.</ref> उपासक की कामना रहती थी कि सभी ऐसे लोगों को मार दिया जाए जो [[यज्ञ]], हवन आदि नहीं करते हैं और उन्हें मार देने के बाद उनकी सारी सम्पत्ति लोगों में बाँट दी जाए।<ref>ऋग्वेद, 176.4, 'अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदो हते'.</ref> दस्युओं को सम्पत्तिशाली<ref> धनिन:</ref> होने पर भी [[यज्ञ]] न करने वाला<ref> अक्रतु</ref> कहा गया है।<ref>ऋग्वेद, I. 33.4.</ref> दो ऐसे दास प्रमुखों का उल्लेख किया गया है जो धनलोलुप माने गए हैं।<ref>ऋग्वेद,VI. 47.21.</ref> कामना की गई है कि इन्द्र<ref>ऋग्वेद, VIII. 40.6, 'वयं तदस्य सम्भृतं वसु इद्रेण विभजेमहि'.</ref> दासों की शक्ति को क्षीण करें और उनकी एकत्रित सम्पत्ति लोगों में बाँट दें। दस्युओं के पास [[स्वर्ण]] और [[हीरा]] - जवाहरात भी थे, जिनके चलते प्राय: आर्यों का मन और भी ललच गया।<ref>ऋग्वेद, I. 33.7-8.</ref> किन्तु आर्य जैसी पशुपालक जाति को मुख्यतया अपने दुश्मनों के पशुधन का अधिक लोभ था। तर्क दिया जाता है कि ‘कीकट’<ref> [[हरियाणा]] में रहने वाली एक जाति</ref> [[गाय]] को रखने के अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि वे [[यज्ञ]] में गव्य<ref> दुग्धोत्पादित वस्तुओं </ref> का उपयोग नहीं करते।<ref> ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्'</ref> दूसरी ओर यह भी सम्भव है कि आर्यों के शत्रु उनके घोड़ों और रथों को अधिक महत्व देते थे। '''ऋग्वेद''' में एक कथा आई है कि असुरों ने [[दधीचि|राजर्षि दधीचि]] के नगर पर क़ब्ज़ा कर लिया था, किन्तु जब असुर लौट रहे थे तो [[इन्द्र]] ने उन्हें घेरकर पराजित किया और उनसे मवेशी, घोड़े तथा रथ छीनकर राजर्षि को वापस कर दिए।<ref>ऋग्वेद, II. 15.4.</ref> | *आर्यों और उनके शत्रुओं के बीच जो संघर्ष हुए, उनमें मुख्यत: शत्रुओं के क़िलों और दीवारों से घिरी बस्तियों को ध्वस्त किया गया। दासों और दस्युओं, दोनों ही के क़ब्ज़े में अनेक क़िलाबन्द बस्तियाँ थी<ref>ऋग्वेद, I. 103.3; II. 19.6; IV. 30.20; VI. 20.10, 31.4.</ref> जिनका सम्बन्ध भी सामान्यतया आर्यों के शत्रुओं के साथ जोड़ा जाता है।<ref>ऋग्वेद, I. 33.13, 53.8; VIII. 17.4. </ref> | ||
*मालूम होता है कि घुम्मकड़ आर्यों की आँखें दुश्मनों की बस्तियों में संचित सम्पत्ति पर लगी हुई थी और उन्हें हड़पने के लिए दोनों में निरन्तर ही संघर्ष होता रहता था।<ref>ऋग्वेद, IV. 30.13; V. 40.6; X. 69.6.</ref> | |||
*उपासक की कामना रहती थी कि सभी ऐसे लोगों को मार दिया जाए जो [[यज्ञ]], हवन आदि नहीं करते हैं और उन्हें मार देने के बाद उनकी सारी सम्पत्ति लोगों में बाँट दी जाए।<ref>ऋग्वेद, 176.4, 'अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदो हते'.</ref> | |||
*दस्युओं को सम्पत्तिशाली<ref> धनिन:</ref> होने पर भी [[यज्ञ]] न करने वाला<ref> अक्रतु</ref> कहा गया है।<ref>ऋग्वेद, I. 33.4.</ref> दो ऐसे दास प्रमुखों का उल्लेख किया गया है जो धनलोलुप माने गए हैं।<ref>ऋग्वेद,VI. 47.21.</ref> कामना की गई है कि इन्द्र<ref>ऋग्वेद, VIII. 40.6, 'वयं तदस्य सम्भृतं वसु इद्रेण विभजेमहि'.</ref> दासों की शक्ति को क्षीण करें और उनकी एकत्रित सम्पत्ति लोगों में बाँट दें। | |||
*दस्युओं के पास [[स्वर्ण]] और [[हीरा]] - जवाहरात भी थे, जिनके चलते प्राय: आर्यों का मन और भी ललच गया।<ref>ऋग्वेद, I. 33.7-8.</ref> किन्तु आर्य जैसी पशुपालक जाति को मुख्यतया अपने दुश्मनों के पशुधन का अधिक लोभ था। तर्क दिया जाता है कि ‘कीकट’<ref> [[हरियाणा]] में रहने वाली एक जाति</ref> [[गाय]] को रखने के अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि वे [[यज्ञ]] में गव्य<ref> दुग्धोत्पादित वस्तुओं </ref> का उपयोग नहीं करते।<ref> ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्'</ref> | |||
*दूसरी ओर यह भी सम्भव है कि आर्यों के शत्रु उनके घोड़ों और रथों को अधिक महत्व देते थे। | |||
*'''ऋग्वेद''' में एक कथा आई है कि असुरों ने [[दधीचि|राजर्षि दधीचि]] के नगर पर क़ब्ज़ा कर लिया था, किन्तु जब असुर लौट रहे थे तो [[इन्द्र]] ने उन्हें घेरकर पराजित किया और उनसे मवेशी, घोड़े तथा रथ छीनकर राजर्षि को वापस कर दिए।<ref>ऋग्वेद, II. 15.4.</ref> | |||
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14:09, 27 मार्च 2015 के समय का अवतरण
वेद और शूद्र
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विवरण | शूद्र भारतीय समाज व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण या जाति है। |
उत्पत्ति | शूद्र शब्द मूलत: विदेशी है और संभवत: एक पराजित अनार्य जाति का मूल नाम था। |
पौराणिक संदर्भ | वायु पुराण का कथन है कि शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र हैं। भविष्यपुराण में श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए।[1] |
वैदिक परंपरा | अथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था।[2] परंपरा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था। किंतु बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया। |
ऐतिहासिक संदर्भ | शूद्र जनजाति का उल्लेख डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेन त्सांग भी करते हैं। |
आर्थिक स्थिति | उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं[3] इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था। |
मध्य काल | कबीर, रैदास, पीपा इस काल के प्रसिद्ध शूद्र संत हैं। असम के शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित मत, पंजाब का सिक्ख संप्रदाय और महाराष्ट्र के बारकरी संप्रदाय ने शूद्र महत्त्व धार्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित किया। |
आधुनिक काल | वेबर, भीमराव आम्बेडकर, ज़िमर और रामशरण शर्मा क्रमश: शूद्रों को मूलत: भारतवर्ष में प्रथमागत आर्यस्कंध, क्षत्रिय, ब्राहुई भाषी और आभीर संबद्ध मानते हैं। |
संबंधित लेख | वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, चर्मकार, मीणा, कुम्हार, दास, भील, बंजारा |
अन्य जानकारी | पद से उत्पन्न होने के कारण पदपरिचर्या शूद्रों का विशिष्ट व्यवसाय है। द्विजों के साथ आसन, शयन वाक और पथ में समता की इच्छा रखने वाला शूद्र दंड्य है।[4] |
- 1847 ई. में रौथ ने संकेत किया था कि शूद्र आर्यों के समाज से बाहर के रहे होंगे।[5] उस समय से सामान्यतया यह विचारधारा चली आ रही है कि ब्राह्मणकालीन समाज का 'चौथा वर्ण' मुख्यतया आर्येतर लोगों का था, जिनकी वैसी स्थिति आर्य विजेताओं ने बना रखी थी।[6]
- यूरोप के 'गौरांग' और एशिया तथा अफ़्रीका के 'गौरांगेतर' लोगों के बीच हुए संघर्ष से साम्य के आधार पर इस विचारधारा की पुष्टि की जाती रही है।
वेदों में शूद्र
- यदि दास और दस्यु दोनों आर्येत्तर भाषा बोलने वाले भारत के मूल निवासी हों[7], तो उपर्युक्त विचारधारा के पक्ष में ऋग्वेद से प्रमाण प्रस्तुत करना सम्भव है।
- इस ग्रन्थ के अनेक सूक्तों में, जिन्हें अथर्ववेद में भी दुहराया गया है, आर्यों के देवता इन्द्र को दासों के विजेता के रूप में चित्रित किया गया है।
- ऐसा प्रतीत होता है कि ये दास मनुष्य ही रहे होंगे। वेदों में कहा गया है कि, इन्द्र ने अधम दास वर्ण को गुफाओं में रहने को बाध्य कर दिया था।[8]
- विश्व-नियंता की हैसियत से दासों को पराधीन बनाने का भार उनके ऊपर है[9], और उनसे यह अनुरोध भी किया जाता है कि वे इन दासों का विनाश करने के लिए तैयार रहें।[10]
- ऋग्वैदिक स्तुतियों में बार-बार इन्द्र से अनुरोध किया गया है कि वे 'दास जनजाति'[11] का विध्वंस करें।[12]
- इन्द्र के बारे में यह भी कहा गया है कि उसने दस्युओं को सभी अच्छे गुणों से वंचित रखा है और दासों को अपने वश में किया है।[13]
दस्यु और दास
- वेदों में दासों की अपेक्षा दस्युओं के विनाश और उन्हें पराधीन बनाने की चर्चा अधिक है। कहा गया है कि दस्युओं को मारकर इन्द्र ने आर्य वर्ण की रक्षा की है।[14]
- स्तुतियों में उससे अनुरोध किया गया है कि वह दस्युओं से युद्ध करे, ताकि आर्यों की शक्ति बढ़ सके।[15]
- महत्व की बात है कि दस्युओं की हत्या की चर्चा कम से कम बारह जगहों पर हुई है, जिनमें से अधिकांश हत्याएँ इन्द्र के द्वारा ही बताई गई हैं।[16]
- इसके विपरीत यद्यपि दासों की हत्या के अलग-अलग प्रसंग भी आए हैं, किन्तु ‘दासहत्या’ शब्द कहीं पर भी नहीं मिलता है।
- इससे पता चलता है कि 'दास' और 'दस्यु' पर्यायवाची नहीं थे और आर्य दस्युओं का विनाश निर्ममतापूर्वक करते थे, पर दासों के प्रति उनकी नीति नरम थी।
आर्यों से संघर्ष
- आर्यों और उनके शत्रुओं के बीच जो संघर्ष हुए, उनमें मुख्यत: शत्रुओं के क़िलों और दीवारों से घिरी बस्तियों को ध्वस्त किया गया। दासों और दस्युओं, दोनों ही के क़ब्ज़े में अनेक क़िलाबन्द बस्तियाँ थी[17] जिनका सम्बन्ध भी सामान्यतया आर्यों के शत्रुओं के साथ जोड़ा जाता है।[18]
- मालूम होता है कि घुम्मकड़ आर्यों की आँखें दुश्मनों की बस्तियों में संचित सम्पत्ति पर लगी हुई थी और उन्हें हड़पने के लिए दोनों में निरन्तर ही संघर्ष होता रहता था।[19]
- उपासक की कामना रहती थी कि सभी ऐसे लोगों को मार दिया जाए जो यज्ञ, हवन आदि नहीं करते हैं और उन्हें मार देने के बाद उनकी सारी सम्पत्ति लोगों में बाँट दी जाए।[20]
- दस्युओं को सम्पत्तिशाली[21] होने पर भी यज्ञ न करने वाला[22] कहा गया है।[23] दो ऐसे दास प्रमुखों का उल्लेख किया गया है जो धनलोलुप माने गए हैं।[24] कामना की गई है कि इन्द्र[25] दासों की शक्ति को क्षीण करें और उनकी एकत्रित सम्पत्ति लोगों में बाँट दें।
- दस्युओं के पास स्वर्ण और हीरा - जवाहरात भी थे, जिनके चलते प्राय: आर्यों का मन और भी ललच गया।[26] किन्तु आर्य जैसी पशुपालक जाति को मुख्यतया अपने दुश्मनों के पशुधन का अधिक लोभ था। तर्क दिया जाता है कि ‘कीकट’[27] गाय को रखने के अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि वे यज्ञ में गव्य[28] का उपयोग नहीं करते।[29]
- दूसरी ओर यह भी सम्भव है कि आर्यों के शत्रु उनके घोड़ों और रथों को अधिक महत्व देते थे।
- ऋग्वेद में एक कथा आई है कि असुरों ने राजर्षि दधीचि के नगर पर क़ब्ज़ा कर लिया था, किन्तु जब असुर लौट रहे थे तो इन्द्र ने उन्हें घेरकर पराजित किया और उनसे मवेशी, घोड़े तथा रथ छीनकर राजर्षि को वापस कर दिए।[30]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेदांतसूत्र- 1, 44, 33
- ↑ अथर्ववेद 19, 32, 8
- ↑ रामशरण शर्मा पृ. 163-164
- ↑ गौतम धर्मसूत्र 12, 5
- ↑ आर. रौथ: शब्रह्म एंड डाइ ब्राह्मनेन साइटशिफ्ट डेर डोयूचेन मेर्गेनलेंडिशेन गेज़ेलशाफ्ट बर्लिन, 1 पृष्ठ 84
- ↑ वैदिक इंडेक्स, 2, पृष्ठ 265,388; आर. सी. दत्त: ए हिस्ट्री ऑफ़ सिविलिजेशन इन एनशिएंट इण्डिया, 1, पृष्ठ 2; सोनार्ट: कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 83; एन. के. दत्त: ओरोजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 151-52; धुर्वे: कास्ट एण्ड क्लास, पृष्ठ 152-2, डी. आर. भंडारकर: सम आक्पेक्ट्स ऑफ़ एनशिएंट इण्डियन कल्चर, पृष्ठ 10
- ↑ जे. म्यूर: ‘ओरिजिनल संस्कृत टेक्ट्स’, 2, पृष्ठ 387. म्यूर का विचार है कि यह बताने के लिए कोई प्रमाण नहीं है कि वे आर्यों से भिन्न थे।
- ↑ ऋग्वेद, II, 12. 4. ‘येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि, यो दासं वर्णमधरं गुहाक:’ अथर्ववेद, XX, 34. 4.
- ↑ ऋग्वेद, V. 34.6-‘यशावशं नयति दासमार्य:’
- ↑ ऋग्वेद, II. 13.8.-‘दासवेशाय चाव:’ सायण ने इसकी टीका दासों के विनाश के रूप में की है, किन्तु वैदिक इंडेक्स, I, 358, इसे दास का नाम मानता है।
- ↑ विशु
- ↑ ऋग्वेद, II. 11.4; VI. 25.2; और X. 148.2
- ↑ ऋग्वेद, IV. 28.4
- ↑ ऋग्वेद, III. 34.9- हत्वी दस्यून प्रार्यं वर्णमावत; अथर्ववेद, XX. 11.9 (पिप्पलाद संस्करण में नहीं)
- ↑ ऋग्वेद, I, अथर्ववेद XX. 20.4
- ↑ ऋग्वेद, I. 51.5-6, 103.4; X.95.7, 99.7 में 'दस्यता' शब्द आया है, दस्युधुन शब्द ऋग्वेद, VI. 16.10 में, दस्युहन शब्द ऋग्वेद, X. 47.4 में दस्युहंतम् शब्द ऋग्वेद, IV. 16.15, VIII. 39.8 में आया है और वाजसनेयी संहिता, XI. 34 में उसकी पुनरावृत्ति की गई है। आर्यों और दस्युओं में शत्रुता के कई प्रसंग आए हैं, यथा, ऋग्वेद, V. 7.10, VII. 5.6 आदि। ऋग्वेद, 1.100. 12, VI. 45.24; VIII. 76.11, 77.3 में इंद्र को 'दस्युहा' कहा गया है। इंद्र द्वारा दस्युओं की हत्या के ऐसे ही कई प्रसंग अथर्ववेद III. 10-12; VIII. 8.5, 7; IX. 2.17 और 18; X. 3. 11; XIX. 46.2, XX. 11.6; 21.4, 29.4, 34.10, 37.4, 42.2, 64.3, 78.3 में आए हैं और अग्नि द्वारा दस्युओं की हत्या के प्रसंग अथर्ववेद में I. 7. 1. XI. 1.2 में आए हैं। अथर्ववेद, VI. 32.3 में 'मन्यु' को 'दस्युहा' कहा गया है।
- ↑ ऋग्वेद, I. 103.3; II. 19.6; IV. 30.20; VI. 20.10, 31.4.
- ↑ ऋग्वेद, I. 33.13, 53.8; VIII. 17.4.
- ↑ ऋग्वेद, IV. 30.13; V. 40.6; X. 69.6.
- ↑ ऋग्वेद, 176.4, 'अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदो हते'.
- ↑ धनिन:
- ↑ अक्रतु
- ↑ ऋग्वेद, I. 33.4.
- ↑ ऋग्वेद,VI. 47.21.
- ↑ ऋग्वेद, VIII. 40.6, 'वयं तदस्य सम्भृतं वसु इद्रेण विभजेमहि'.
- ↑ ऋग्वेद, I. 33.7-8.
- ↑ हरियाणा में रहने वाली एक जाति
- ↑ दुग्धोत्पादित वस्तुओं
- ↑ ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्'
- ↑ ऋग्वेद, II. 15.4.
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