"कहानी": अवतरणों में अंतर
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'''कहानी''' [[हिन्दी साहित्य]] में गद्य लेखन की एक विधा है। उन्नीसवीं सदी में गद्य साहित्य में एक नई विधा का विकास हुआ जिसे कहानी के नाम से जाना गया। [[बंगला भाषा|बंगला]] में इसे गल्प कहा जाता है। कहानी गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा [[उपन्यास]] से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। [[वेद|वेदों]], [[उपनिषद|उपनिषदों]] में वर्णित 'यम-यमी', 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार- नारद', '[[गंगावतरण]]', 'श्रृंग', '[[नहुष]]', '[[ययाति]]', '[[शकुन्तला]]', '[[नल-दमयन्ती]]' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं। | |चित्र=Sanskrit panchatantra 11.png | ||
== | |चित्र का नाम=संस्कृत में रचित 'पंचतंत्र' | ||
|विवरण='कहानी' गद्य लेखन की एक विधा है। यह गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा [[उपन्यास]] से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है। | |||
|शीर्षक 1=विकास | |||
|पाठ 1=[[1910]] से [[1960]] के बीच। | |||
|शीर्षक 2=महत्त्वपूर्ण तत्त्व | |||
|पाठ 2='कथावस्तु', 'पात्र' अथवा 'चरित्र-चित्रण', 'कथोपकथन' अथवा 'संवाद', 'देशकाल' अथवा 'वातावरण', 'भाषा-शैली' तथा 'उद्देश्य'। | |||
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|पाठ 10="कहानी वह [[ध्रुपद]] की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।" ([[प्रेमचंद]]) | |||
|संबंधित लेख= | |||
|अन्य जानकारी=यह कहना प्रामाणिक और उचित ही है कि [[भारत]] संसार का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ कथापीठ रहा है। यह देश कहानी की जन्मभूमि है। वैदिक कथा साहित्य के साथ ही भारत [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] और [[जैन धर्म|जैन]] कथाओं का भी आदि देश है। | |||
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}} | |||
'''कहानी''' [[हिन्दी साहित्य]] में गद्य लेखन की एक विधा है। उन्नीसवीं सदी में गद्य साहित्य में एक नई विधा का विकास हुआ, जिसे 'कहानी' के नाम से जाना गया। [[बंगला भाषा|बंगला]] में इसे 'गल्प' कहा जाता है। कहानी गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा [[उपन्यास]] से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। [[वेद|वेदों]], [[उपनिषद|उपनिषदों]] में वर्णित '[[यमराज|यम]]-यमी', '[[पुरुरवा]]-[[उर्वशी]]', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार-[[नारद]]', '[[गंगावतरण]]', 'श्रृंग', '[[नहुष]]', '[[ययाति]]', '[[शकुन्तला]]', '[[नल-दमयन्ती]]' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं। [[1910]] से [[1960]] के बीच [[हिन्दी]] कहानी का विकास जितनी गति के साथ हुआ, उतनी गति किसी अन्य साहित्यिक विधा के विकास में नहीं देखी जाती। सन [[1900]] से [[1915]] तक हिन्दी कहानी के विकास का पहला दौर था। | |||
==परिभाषा== | |||
[[अमेरिका]] के कवि-आलोचक-कथाकार 'एडगर एलिन पो' के अनुसार कहानी की परिभाषा इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है- | [[अमेरिका]] के कवि-आलोचक-कथाकार 'एडगर एलिन पो' के अनुसार कहानी की परिभाषा इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है- | ||
<blockquote>"कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बैठक में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो।"</blockquote> | <blockquote>"कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बैठक में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो।"</blockquote> | ||
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;[[भारत]] के उपन्यास सम्राट '[[प्रेमचन्द]]' ने कहानी के प्रमुख लक्षणों को बताते हुए उसकी परिभाषा की है। उन्होंने लिखा है: | ;[[भारत]] के उपन्यास सम्राट '[[प्रेमचन्द]]' ने कहानी के प्रमुख लक्षणों को बताते हुए उसकी परिभाषा की है। उन्होंने लिखा है: | ||
<blockquote>"कहानी वह [[ध्रुपद]] की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।"</blockquote> | <blockquote>"कहानी वह [[ध्रुपद]] की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।"</blockquote> | ||
[[हिन्दी]] के लेखकों में प्रेमचंद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने तीन लेखों में कहानी के सम्बंध में अपने विचार व्यक्त किए- "कहानी (गल्प) एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी [[शैली]], उसका कथा-विन्यास, सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं। [[उपन्यास]] की भाँति उसमें मानव-जीवन का संपूर्ण तथा बृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता। वह ऐसा रमणीय उद्यान नहीं, जिसमें भाँति-भाँति के [[फूल]], बेल-बूटे सजे हुए हैं, बल्कि एक गमला है, जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है।" | |||
कहानी की और भी परिभाषाएँ उद्धृत की जा सकती हैं। पर किसी भी साहित्यिक विधा को वैज्ञानिक परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता, क्योंकि [[साहित्य]] में [[विज्ञान]] की सुनिश्चितता नहीं होती। इसलिए उसकी जो भी परिभाषा दी जाएगी, वह अधूरी होगी। | |||
==महत्त्वपूर्ण तत्त्व== | |||
कहानियों में निम्नलिखित तत्त्व महत्त्वपूर्ण माने गए हैं- | |||
#'कथावस्तु' | |||
#'पात्र' अथवा 'चरित्र-चित्रण' | |||
#'कथोपकथन' अथवा 'संवाद' | |||
#'देशकाल' अथवा 'वातावरण' | |||
#'भाषा-शैली' | |||
#'उद्देश्य' | |||
कहानी के ढाँचे को कथानक अथवा कथावस्तु कहा जाता है। प्रत्येक कहानी के लिये कथावस्तु का होना अनिवार्य है, क्योंकि इसके अभाव में कहानी की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कथानक के चार अंग माने जाते हैं- 'आरम्भ', 'आरोह', 'चरम स्थिति' एवं 'अवरोह'। | |||
==सर्वश्रेष्ठ कथापीठ 'भारत'== | |||
यह कहना प्रामाणिक और उचित ही है कि [[भारत]] संसार का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ कथापीठ रहा है। यह देश कहानी की जन्मभूमि है। वैसे यह कहना अनुचित नहीं होगा कि विश्व की समस्त अर्वाचीन, लुप्त-विलुप्त और प्राचीनतम सभ्यताओं के नीचे से यदि कहानियों के आधार स्तम्भ हटा दिये जाएँ तो सारी सभ्यताएँ भरभराकर कच्ची [[मिट्टी]] की तरह गिर पड़ेंगी। सभ्यताओं के अस्तित्व और उनकी संरचना की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत भी कहानियाँ ही हैं। कहानी के बिना बड़ी से बड़ी मानव सभ्यता के [[इतिहास]] के शुभारम्भ को नहीं जाना जा सकता। यहाँ कि तक संसार के आदि ग्रन्थों की सारी संरचना, कहानियों पर ही टिकी हुई है। वैदिक संहिताएँ ([[ऋग्वेद]], [[यजुर्वेद]], [[सामवेद]] और [[अथर्ववेद]]) विश्व-साहित्य के प्राचीनतम [[ग्रन्थ]] हैं। इनके दौर में भी कथाओं, किंवदन्तियों, मिथक प्रसंगों और आख्यानों की कमी नहीं है। प्रत्येक वैदिक देवता कहानी से ही जन्मता है। वह किसी न किसी कहानी की ही देन है। सभी सभ्यताओं का यह सत्य है। वह चाहे अमेरिकी आदिवासियों की अजटेक-माया सभ्यता रही हो या [[चीन]] की, [[मिस्र]] की, सुमेरी या अक्कादी। भारतीय सभ्यता तो [[वेद]], ब्राह्मण, [[पुराण]], [[उपनिषद]], [[महाभारत]], [[रामायण]] आदि की असंख्य कहानियों का खजाना है, जिसके द्वारा लौकिक और अलौकिक जीवन के तथ्यों और सत्यों को रूपायित किया गया। धर्मग्रन्थों के जितने भी अलौकिक प्रसंग या विवरण हैं, वे तो कहानी के बिना पूरे ही नहीं हो पाते, यहाँ तक कि अध्यात्म और [[दर्शन]] में भी [[कथा]] दृष्टान्तों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बनी ही रहती है।<ref name="aa">{{cite web |url= http://archive.today/wXaJV|title= कथा संस्कृति|accessmonthday= 08 नवम्बर|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= आर्चिव टुडे|language= हिन्दी}}</ref> | |||
====लोक-कथापीठ==== | |||
भारत में आज भी लोक-कथापीठों की कमी नहीं है। यह लोककथाएँ ही साहित्य में भी पहुँचीं, क्योंकि कहानियों का मूल स्रोत लोकधर्मी कथा प्रतिभा ही है। वैदिक कथा साहित्य के साथ ही भारत [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] और [[जैन धर्म|जैन]] कथाओं का भी आदि देश है। [[जातक कथा|जातक कथाएँ]] तो आज भी [[श्रीलंका]], [[कम्बोडिया]], [[म्यांमार]] आदि देशों में बेहद लोकप्रिय हैं और भगवान [[बुद्ध|गौतम बुद्ध]] के पूर्वजन्मों के वे विवरण रात-रातभर बैठकर सुने और सुनाये जाते हैं। यह [[रामायण|रामकथा]] की ही तरह घर-घर में प्रचलित हैं। इसके अलावा जातक कथाओं का यह खजाना दुनिया भर में कहानियों का सबसे बड़ा कोष है। '[[पंचतंत्र]]' की पशु-पक्षी कथाएँ तो संसार भर में बेमिसाल हैं ही। यह कहानियाँ मात्र लोक स्मृति में ही मौजूद नहीं हैं बल्कि इनके दृश्य [[साँची]] और [[भरहुत]] आदि के [[स्तूप|बौद्ध स्तूपों]] पर भी अंकित हैं। | |||
[[चित्र:Mansarovar-Part-1.jpg|thumb|मानसरोवर, [[प्रेमचंद की कहानियाँ|प्रेमचंद की कहानियों]] का संकलन]] | [[चित्र:Mansarovar-Part-1.jpg|thumb|मानसरोवर, [[प्रेमचंद की कहानियाँ|प्रेमचंद की कहानियों]] का संकलन]] | ||
==वैदिक कथाएँ== | |||
वैदिक कथाएँ तो बहुत प्राचीन हैं ही। अभी तक पुराण-कथाओं, [[महाभारत]] और [[रामायण]] के रचना समय का अन्तिम निर्धारण नहीं हो पाया है, पर बौद्ध-कथाओं का समय ईसा के जन्म से पाँच सदी पहले से लेकर ईसा के बाद की पहली और दूसरी सदी तक फैला हुआ है। [[महावीर|महावीर स्वामी]] और [[गौतम बुद्ध]] समकालीन हैं। जैन श्रमण साहित्य भी कहानियों से आप्लावित है, पर जैन-कालीन [[प्राकृत भाषा]] के कथा ग्रन्थ सुरक्षित नहीं रहे, जबकि बौद्धकालीन [[पाली भाषा]] के धम्म और कथा ग्रन्थ आज भी काफी-कुछ सुरक्षित हैं। वैदिक, बौद्ध और जैन कथाओं का आदान-प्रदान, लेन-देन और संवर्धन भी चलता रहा है। बौद्ध विद्वान् भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने जातक ग्रन्थों की जो [[टीका]] लिखी है, उसमें उन्होंने लिखा है कि "प्राचीन बौद्ध कथाओं में से कई एक कहानियाँ अपने विकसित रूप में महाभारत और रामायण में मिलती हैं।" वैसे कौसल्यायन जी की स्थापना को वाद-विवाद का विषय नहीं बनना चाहिए, पर यह सहज ही माना जा सकता है कि कहानियों का लेन-देन लगातार जारी रहा है। यह मात्र [[संस्कृत]], पाली और प्राकृत भाषाओं के बीच ही जारी नहीं रहा है, बल्कि क्षेत्रीय और जनपदीय बोलियों और भाषाओं में तो लोक-कथाओं का लेन-देन जारी था।<ref name="aa"/> | |||
====धर्म प्रचार में भूमिका==== | |||
बौद्ध और जैन कथाओं ने [[धर्म]] के प्रचार में बड़ी भूमिका अदा की है। यह कहानियाँ अधिकांशतः उस समय की हैं, जब वैदिक संस्कृत का लोप हो रहा था। यह पाली, प्राकृत और [[अपभ्रंश]] भाषाओं और साहित्य का उदय काल था। वैदिक संस्कृत लौकिक संस्कृत में पर्यवसित हो चुकी थी और ब्राह्मणवादी [[वैदिक धर्म]] के प्रति जन-साधारण वीतराग हो चुका था या हो रहा था। लौकिक संस्कृत विकसित होती पाली और प्राकृत के सामने नहीं टिक पायी। वैदिक समाज वर्णवादी ब्राह्मणों के हाथों में चला गया, अतः उसकी सामाजिक संरचना और कार्यश्रेणी विभाजन आम जनता को रास नहीं आ रहा था। उनके पौराणिक प्रवचन और आध्यात्मिक विमर्श लोगों के सांसारिक जीवन और उसकी समस्याओं से विरक्त थे। आर्य-आध्यात्मिकता और अपने-अपने परा-जीवन, ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व के प्रश्न समाज की सामूहिकता को नकार कर व्यक्ति की निजी व्यक्तिवादिता को प्रश्रय दे रहे थे...वर्णवाद ने जो श्रम-विभाजन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था, वह समाज में श्रम करने और जीने के अधिकार के नियमों से अधिक वर्ण-विशेष की वर्चस्वता और श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता था, अतः जन-साधारण की बहुसंख्या वैदिक पुराण, जन्मगत सामाजिक शोषण के सिद्धान्त, पाखण्ड और पुरोहितवाद से ऊबकर ब्राह्मणवादी आर्य व्यवस्था की विरोधी हो रही थी। | |||
==वैदिक संस्कृत का अवसान काल== | |||
[[संस्कृत]], जिसे देव और दैवी भाषा माना जाता था, वह लोगों के मन से उतर गयी थी। यह वैदिक संस्कृत का अवसान काल था। इस समय बोलचाल की बड़ी सशक्त भाषाएँ पाली, प्राकृत और अपभ्रंश पनप रही थीं। लगभग समस्त [[बौद्ध साहित्य]] और [[भिक्कु|भिक्षुओं]] के आपसी व्यवहार की भाषा पाली थी और [[जैन धर्म]] और श्रमणों की भाषा प्राकृत! यही कारण है कि भारतीय कथा कथन और कथा रचना की भाषा भी मुख्यतः पाली और प्राकृत हो गयी। पाली में बौद्धों का लगभग समस्त साहित्य रचा गया और प्राकृत में जैन तथा अन्य साहित्य। बौद्धों का पाली में लिखित साहित्य की तरह जैन सम्प्रदाय का धार्मिक और कथा साहित्य प्राकृत में लिखा गया। इसमें भी कहानियों का विपुल भण्डार है। बौद्ध भिक्षुओं की तरह जैन साधु भी अपने धर्म-प्रचार के लिए दूर-दूर देशों में भ्रमण करते थे। उनके लिए यह आवश्यक भी था। धर्मों में संहिताओं और धार्मिक आदेशों के नियम मौजूद हैं। जैनियों के ऐसे ही एक ग्रन्थ ‘बृहत्कल्पभाष्य’ में बताया गया है कि जैन साधु को आत्मशुद्धि के लिए तथा दूसरों को धर्म में स्थिर करने के लिए लगातार जनपद विहार करना चाहिए तथा जनपद विहार करने वाले [[साधु]] को [[मगध]], [[मालवा]], [[महाराष्ट्र]], [[कर्नाटक]], [[गौड़]], द्रविड़, [[विदर्भ]] आदि देशों की भाषा में जनसाधारण को उपदेश देना चाहिए। उसे देश-देश के रीति-रिवाजों और आचार-विचार का ज्ञान होना चाहिए, जिससे उसे हास्यभाजन न बनना पड़े। जाहिर है कि इन यात्राओं से क्षेत्रीय बोलियों का निश्चय ही आदान-प्रदान हुआ और एक-एक क्षेत्र की लोकोक्तियों और लोककथाओं की आपसी सामाजिकता भी निश्चय ही स्थापित हुई होगी।<ref name="aa"/> | |||
====आगम साहित्य==== | |||
[[जैन साहित्य]] की प्राचीनतम [[कथा]] सम्पदा '[[आगम|आगम साहित्य]]' के नाम से पहचानी जाती है। यह कथाएँ [[पैशाची भाषा|पैशाची]]-[[प्राकृत भाषा]] में लिखी गयीं। [[पाली भाषा|पाली]], प्राकृत और लौकिक संस्कृत के सम्मिश्रण से बनती [[अपभ्रंश]] भी तब मौजूद थी और इन भाषाओं का जनसाधारण में बहुत प्रचलन था। वैदिक संस्कृत जनसाधारण की भाषा नहीं रह गयी थी। स्वयं वैदिक ब्राह्मण रचना तो वैदिक संस्कृत में करते थे, पर उनकी बोलचाल की भाषा पाली या प्राकृत ही थी। वैदिक संस्कृत को लेकर जनसाधारण में भाषायी अरुचि उत्पन्न हो चुकी थी। इसका एक दृष्टान्त [[मराठी भाषा|मराठी]] शोधकर्ता डॉ. माधव मुरलीधर देशपाण्डे और [[हिन्दी]] विद्वान् डॉ. राजमल बोरा ने पेश किया है- | |||
"एक राजपूत्र पेड़ के नीचे बैठा हुआ था। उस समय उसने एक सम्भाषण<ref>आपस की बातचीत</ref> सुना। वह उक्त [[भाषा]] के सम्बन्ध में तर्क करने लगा। प्रथम तो वह कहता है कि सम्भाषण [[संस्कृत]] में नहीं है, क्योंकि संस्कृत तो अत्यन्त दुर्बोध भाषा है और कठिन भी है, दुर्जनों के [[हृदय]] सदृश कठोर है। यह सम्भाषण प्राकृत में भी नहीं है, क्योंकि प्राकृत सज्जनों के हृदय की तरह सुखद रहती है और उसमें प्रकृति का सुन्दर वर्णन रहता है और प्राकृत शब्द संस्कृत जैसे एक-दूसरे से सन्धि से युक्त नहीं रहते। यह सम्भाषण अपभ्रंश में भी नहीं है, क्योंकि अपभ्रंश में शुद्ध-अशुद्ध संस्कृत और प्राकृत का मिश्रण रहता है। वह तो बाढ़ आने वाले पानी सदृश अनियन्त्रित रहती है किन्तु यह सम्भाषण तो प्रेमी और प्रेमिका की बातों के सदृश सुन्दर है। ये सम्भाषण इन तीनों प्रकार की भाषाओं में ठीक से बैठता नहीं इसलिए इसे पैशाची कहना अधिक ठीक होगा। राजपूत्र का निर्णय था कि यह सम्भाषण पैशाची में होगा।" | |||
यदि भारतीय प्राकृत को पैशाची मान लिया जाए तो [[पैशाची भाषा|पैशाची]] का भौगोलिक विस्तार चीनी तुर्किस्तान तक मानना पड़ता है। दूसरी ओर [[सिन्धु नदी]] के तट तक तो उसका विस्तार था ही। सिन्धु नदी के पूर्व में जमुना तक [[शौरसेनी भाषा|शौरसेनी]] का विस्तार था। इस तरह पैशाची, शौरसेनी का संस्कार प्राप्त कर रही थी। [[उड़ीसा]] के विद्वान् भाषाविद् मार्कण्डेय के अनुसार पैशाची के तीन प्रधान भेद बतलाए गये हैं, उनमें कैकेय के बाद दूसरा भेद शौरसेनी पैशाची का है। तीसरा भेद पांचाल पैशाची का है। पैशाची को संस्कृत ही नहीं, प्राकृतों के रूपों से सम्बद्ध मानने का प्रयत्न व्याकरण-ग्रन्थों में क्यों हुए, इसके कारण भाषा-समुदायों के आपसी सम्बन्धों में खोजने होंगे। ईसा की आठवीं सदी में जैन साहित्यकार उद्योतन सूरि ने ‘कुवलयमाला’ ग्रन्थ में प्राकृत की कथा दी है। उस [[कथा]] का संक्षिप्त विवरण डॉ. माधव मुरलीधर देशपाण्डे ने ‘संस्कृत आणि प्राकृत भाषा’ (मराठी ग्रन्थ) में दिया है। उसमें एक कथा संकलित है, जिसमें पैशाची का विशद उल्लेख है। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि पैशाची को अन्य भाषाओं से अलग बतलाया गया है। [[गुणाढ्य]] की पैशाची को इसी तरह अलग माना गया है। प्राकृतों में उसकी गणना नहीं है।<ref name="aa"/> | |||
[[प्राकृत भाषा|प्राकृत]] के रूपों का जैसा सम्मान हुआ है, वह सम्मान भी पैशाची को नहीं मिला। [[पेशावर]], चीनी तुर्किस्तान, [[ईरान]] में जो सम्मान पैशाची को मिला, वह सम्मान पैशाची को [[भारत]] में नहीं मिला। विशेष रूप से गुणाढ्य के काल में उसे सम्मान नहीं मिला। बाद में विद्वान् भूल गये कि पैशाची [[कैकेय]] की भाषा है। वे उसे [[विन्ध्याचल पर्वत|विन्ध्याचल]] के पास की भाषा मानने लगे। पिशाच भाषा कहने लगे। [[राजशेखर]] ने तो उसे ‘भूत-भाषा’ कह दिया है। यह सब क्यों हुआ? जिस पैशाची भाषा के माध्यम से [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] और [[जैन धर्म]] का विस्तार [[मध्य एशिया]] के देशों एवं भाषा में हुआ, उस भाषा को भारत में अनदेखा कर दिया गया। | |||
==उपन्यास और कहानी== | ==उपन्यास और कहानी== | ||
कहानी आकार में [[उपन्यास]] से छोटी होती है, लेकिन आकार में छोटा होना भर कहानी को कहानी नहीं बना सकता। उपन्यास का कोई अध्याय कहानी नहीं हो सकता और न कहानी उपन्यास का कोई अध्याय। अत: कहानी उपन्यास की जाति की होते हुए भी स्वतंत्र विधा है। उसके छोटे होने के कारण लेखक की प्रेरणा और ग्रहण की गई जीवन की सामग्री में निहित संभावना होती है। उपन्यास में जहाँ जीवन की सम्पूर्णता लेखक का सरोकार है वहाँ कहानी में कोई एक भाव, घटना या चरित्र का कोई एक मार्मिक प्रसंग का वर्णन होता है। उपन्यास की तरह जीवन के विभिन्न प्रसंगों को खोलते-गूँथते हुए विस्तार करने की स्वतंत्रता कहानी में नहीं होती। कहानी की मूलभूत | कहानी आकार में [[उपन्यास]] से छोटी होती है, लेकिन आकार में छोटा होना भर कहानी को कहानी नहीं बना सकता। उपन्यास का कोई अध्याय कहानी नहीं हो सकता और न कहानी उपन्यास का कोई अध्याय। अत: कहानी उपन्यास की जाति की होते हुए भी स्वतंत्र विधा है। उसके छोटे होने के कारण लेखक की प्रेरणा और ग्रहण की गई जीवन की सामग्री में निहित संभावना होती है। उपन्यास में जहाँ जीवन की सम्पूर्णता लेखक का सरोकार है वहाँ कहानी में कोई एक भाव, घटना या चरित्र का कोई एक मार्मिक प्रसंग का वर्णन होता है। उपन्यास की तरह जीवन के विभिन्न प्रसंगों को खोलते-गूँथते हुए विस्तार करने की स्वतंत्रता कहानी में नहीं होती। कहानी की मूलभूत | ||
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<blockquote>जब तक वे किसी घटना या चरित्र में कोई ड्रामाई पहलू नहीं पहचान लेते तब तक कहानी नहीं लिखते।<ref>{{cite web |url=http://saahityaalochan.blogspot.in/2008/09/blog-post_199.html |title=उपन्यास और कहानी |accessmonthday=25 फ़रवरी |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=साहित्यालोचन |language=हिंदी }}</ref></blockquote> | <blockquote>जब तक वे किसी घटना या चरित्र में कोई ड्रामाई पहलू नहीं पहचान लेते तब तक कहानी नहीं लिखते।<ref>{{cite web |url=http://saahityaalochan.blogspot.in/2008/09/blog-post_199.html |title=उपन्यास और कहानी |accessmonthday=25 फ़रवरी |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=साहित्यालोचन |language=हिंदी }}</ref></blockquote> | ||
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==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
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12:42, 1 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण
कहानी
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विवरण | 'कहानी' गद्य लेखन की एक विधा है। यह गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा उपन्यास से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है। |
विकास | 1910 से 1960 के बीच। |
महत्त्वपूर्ण तत्त्व | 'कथावस्तु', 'पात्र' अथवा 'चरित्र-चित्रण', 'कथोपकथन' अथवा 'संवाद', 'देशकाल' अथवा 'वातावरण', 'भाषा-शैली' तथा 'उद्देश्य'। |
परिभाषा | "कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।" (प्रेमचंद) |
अन्य जानकारी | यह कहना प्रामाणिक और उचित ही है कि भारत संसार का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ कथापीठ रहा है। यह देश कहानी की जन्मभूमि है। वैदिक कथा साहित्य के साथ ही भारत बौद्ध और जैन कथाओं का भी आदि देश है। |
कहानी हिन्दी साहित्य में गद्य लेखन की एक विधा है। उन्नीसवीं सदी में गद्य साहित्य में एक नई विधा का विकास हुआ, जिसे 'कहानी' के नाम से जाना गया। बंगला में इसे 'गल्प' कहा जाता है। कहानी गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा उपन्यास से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। वेदों, उपनिषदों में वर्णित 'यम-यमी', 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार-नारद', 'गंगावतरण', 'श्रृंग', 'नहुष', 'ययाति', 'शकुन्तला', 'नल-दमयन्ती' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं। 1910 से 1960 के बीच हिन्दी कहानी का विकास जितनी गति के साथ हुआ, उतनी गति किसी अन्य साहित्यिक विधा के विकास में नहीं देखी जाती। सन 1900 से 1915 तक हिन्दी कहानी के विकास का पहला दौर था।
परिभाषा
अमेरिका के कवि-आलोचक-कथाकार 'एडगर एलिन पो' के अनुसार कहानी की परिभाषा इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-
"कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बैठक में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो।"
- भारत के उपन्यास सम्राट 'प्रेमचन्द' ने कहानी के प्रमुख लक्षणों को बताते हुए उसकी परिभाषा की है। उन्होंने लिखा है
"कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।"
हिन्दी के लेखकों में प्रेमचंद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने तीन लेखों में कहानी के सम्बंध में अपने विचार व्यक्त किए- "कहानी (गल्प) एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा-विन्यास, सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं। उपन्यास की भाँति उसमें मानव-जीवन का संपूर्ण तथा बृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता। वह ऐसा रमणीय उद्यान नहीं, जिसमें भाँति-भाँति के फूल, बेल-बूटे सजे हुए हैं, बल्कि एक गमला है, जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है।"
कहानी की और भी परिभाषाएँ उद्धृत की जा सकती हैं। पर किसी भी साहित्यिक विधा को वैज्ञानिक परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता, क्योंकि साहित्य में विज्ञान की सुनिश्चितता नहीं होती। इसलिए उसकी जो भी परिभाषा दी जाएगी, वह अधूरी होगी।
महत्त्वपूर्ण तत्त्व
कहानियों में निम्नलिखित तत्त्व महत्त्वपूर्ण माने गए हैं-
- 'कथावस्तु'
- 'पात्र' अथवा 'चरित्र-चित्रण'
- 'कथोपकथन' अथवा 'संवाद'
- 'देशकाल' अथवा 'वातावरण'
- 'भाषा-शैली'
- 'उद्देश्य'
कहानी के ढाँचे को कथानक अथवा कथावस्तु कहा जाता है। प्रत्येक कहानी के लिये कथावस्तु का होना अनिवार्य है, क्योंकि इसके अभाव में कहानी की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कथानक के चार अंग माने जाते हैं- 'आरम्भ', 'आरोह', 'चरम स्थिति' एवं 'अवरोह'।
सर्वश्रेष्ठ कथापीठ 'भारत'
यह कहना प्रामाणिक और उचित ही है कि भारत संसार का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ कथापीठ रहा है। यह देश कहानी की जन्मभूमि है। वैसे यह कहना अनुचित नहीं होगा कि विश्व की समस्त अर्वाचीन, लुप्त-विलुप्त और प्राचीनतम सभ्यताओं के नीचे से यदि कहानियों के आधार स्तम्भ हटा दिये जाएँ तो सारी सभ्यताएँ भरभराकर कच्ची मिट्टी की तरह गिर पड़ेंगी। सभ्यताओं के अस्तित्व और उनकी संरचना की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत भी कहानियाँ ही हैं। कहानी के बिना बड़ी से बड़ी मानव सभ्यता के इतिहास के शुभारम्भ को नहीं जाना जा सकता। यहाँ कि तक संसार के आदि ग्रन्थों की सारी संरचना, कहानियों पर ही टिकी हुई है। वैदिक संहिताएँ (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) विश्व-साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इनके दौर में भी कथाओं, किंवदन्तियों, मिथक प्रसंगों और आख्यानों की कमी नहीं है। प्रत्येक वैदिक देवता कहानी से ही जन्मता है। वह किसी न किसी कहानी की ही देन है। सभी सभ्यताओं का यह सत्य है। वह चाहे अमेरिकी आदिवासियों की अजटेक-माया सभ्यता रही हो या चीन की, मिस्र की, सुमेरी या अक्कादी। भारतीय सभ्यता तो वेद, ब्राह्मण, पुराण, उपनिषद, महाभारत, रामायण आदि की असंख्य कहानियों का खजाना है, जिसके द्वारा लौकिक और अलौकिक जीवन के तथ्यों और सत्यों को रूपायित किया गया। धर्मग्रन्थों के जितने भी अलौकिक प्रसंग या विवरण हैं, वे तो कहानी के बिना पूरे ही नहीं हो पाते, यहाँ तक कि अध्यात्म और दर्शन में भी कथा दृष्टान्तों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बनी ही रहती है।[1]
लोक-कथापीठ
भारत में आज भी लोक-कथापीठों की कमी नहीं है। यह लोककथाएँ ही साहित्य में भी पहुँचीं, क्योंकि कहानियों का मूल स्रोत लोकधर्मी कथा प्रतिभा ही है। वैदिक कथा साहित्य के साथ ही भारत बौद्ध और जैन कथाओं का भी आदि देश है। जातक कथाएँ तो आज भी श्रीलंका, कम्बोडिया, म्यांमार आदि देशों में बेहद लोकप्रिय हैं और भगवान गौतम बुद्ध के पूर्वजन्मों के वे विवरण रात-रातभर बैठकर सुने और सुनाये जाते हैं। यह रामकथा की ही तरह घर-घर में प्रचलित हैं। इसके अलावा जातक कथाओं का यह खजाना दुनिया भर में कहानियों का सबसे बड़ा कोष है। 'पंचतंत्र' की पशु-पक्षी कथाएँ तो संसार भर में बेमिसाल हैं ही। यह कहानियाँ मात्र लोक स्मृति में ही मौजूद नहीं हैं बल्कि इनके दृश्य साँची और भरहुत आदि के बौद्ध स्तूपों पर भी अंकित हैं।
वैदिक कथाएँ
वैदिक कथाएँ तो बहुत प्राचीन हैं ही। अभी तक पुराण-कथाओं, महाभारत और रामायण के रचना समय का अन्तिम निर्धारण नहीं हो पाया है, पर बौद्ध-कथाओं का समय ईसा के जन्म से पाँच सदी पहले से लेकर ईसा के बाद की पहली और दूसरी सदी तक फैला हुआ है। महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध समकालीन हैं। जैन श्रमण साहित्य भी कहानियों से आप्लावित है, पर जैन-कालीन प्राकृत भाषा के कथा ग्रन्थ सुरक्षित नहीं रहे, जबकि बौद्धकालीन पाली भाषा के धम्म और कथा ग्रन्थ आज भी काफी-कुछ सुरक्षित हैं। वैदिक, बौद्ध और जैन कथाओं का आदान-प्रदान, लेन-देन और संवर्धन भी चलता रहा है। बौद्ध विद्वान् भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने जातक ग्रन्थों की जो टीका लिखी है, उसमें उन्होंने लिखा है कि "प्राचीन बौद्ध कथाओं में से कई एक कहानियाँ अपने विकसित रूप में महाभारत और रामायण में मिलती हैं।" वैसे कौसल्यायन जी की स्थापना को वाद-विवाद का विषय नहीं बनना चाहिए, पर यह सहज ही माना जा सकता है कि कहानियों का लेन-देन लगातार जारी रहा है। यह मात्र संस्कृत, पाली और प्राकृत भाषाओं के बीच ही जारी नहीं रहा है, बल्कि क्षेत्रीय और जनपदीय बोलियों और भाषाओं में तो लोक-कथाओं का लेन-देन जारी था।[1]
धर्म प्रचार में भूमिका
बौद्ध और जैन कथाओं ने धर्म के प्रचार में बड़ी भूमिका अदा की है। यह कहानियाँ अधिकांशतः उस समय की हैं, जब वैदिक संस्कृत का लोप हो रहा था। यह पाली, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं और साहित्य का उदय काल था। वैदिक संस्कृत लौकिक संस्कृत में पर्यवसित हो चुकी थी और ब्राह्मणवादी वैदिक धर्म के प्रति जन-साधारण वीतराग हो चुका था या हो रहा था। लौकिक संस्कृत विकसित होती पाली और प्राकृत के सामने नहीं टिक पायी। वैदिक समाज वर्णवादी ब्राह्मणों के हाथों में चला गया, अतः उसकी सामाजिक संरचना और कार्यश्रेणी विभाजन आम जनता को रास नहीं आ रहा था। उनके पौराणिक प्रवचन और आध्यात्मिक विमर्श लोगों के सांसारिक जीवन और उसकी समस्याओं से विरक्त थे। आर्य-आध्यात्मिकता और अपने-अपने परा-जीवन, ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व के प्रश्न समाज की सामूहिकता को नकार कर व्यक्ति की निजी व्यक्तिवादिता को प्रश्रय दे रहे थे...वर्णवाद ने जो श्रम-विभाजन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था, वह समाज में श्रम करने और जीने के अधिकार के नियमों से अधिक वर्ण-विशेष की वर्चस्वता और श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता था, अतः जन-साधारण की बहुसंख्या वैदिक पुराण, जन्मगत सामाजिक शोषण के सिद्धान्त, पाखण्ड और पुरोहितवाद से ऊबकर ब्राह्मणवादी आर्य व्यवस्था की विरोधी हो रही थी।
वैदिक संस्कृत का अवसान काल
संस्कृत, जिसे देव और दैवी भाषा माना जाता था, वह लोगों के मन से उतर गयी थी। यह वैदिक संस्कृत का अवसान काल था। इस समय बोलचाल की बड़ी सशक्त भाषाएँ पाली, प्राकृत और अपभ्रंश पनप रही थीं। लगभग समस्त बौद्ध साहित्य और भिक्षुओं के आपसी व्यवहार की भाषा पाली थी और जैन धर्म और श्रमणों की भाषा प्राकृत! यही कारण है कि भारतीय कथा कथन और कथा रचना की भाषा भी मुख्यतः पाली और प्राकृत हो गयी। पाली में बौद्धों का लगभग समस्त साहित्य रचा गया और प्राकृत में जैन तथा अन्य साहित्य। बौद्धों का पाली में लिखित साहित्य की तरह जैन सम्प्रदाय का धार्मिक और कथा साहित्य प्राकृत में लिखा गया। इसमें भी कहानियों का विपुल भण्डार है। बौद्ध भिक्षुओं की तरह जैन साधु भी अपने धर्म-प्रचार के लिए दूर-दूर देशों में भ्रमण करते थे। उनके लिए यह आवश्यक भी था। धर्मों में संहिताओं और धार्मिक आदेशों के नियम मौजूद हैं। जैनियों के ऐसे ही एक ग्रन्थ ‘बृहत्कल्पभाष्य’ में बताया गया है कि जैन साधु को आत्मशुद्धि के लिए तथा दूसरों को धर्म में स्थिर करने के लिए लगातार जनपद विहार करना चाहिए तथा जनपद विहार करने वाले साधु को मगध, मालवा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गौड़, द्रविड़, विदर्भ आदि देशों की भाषा में जनसाधारण को उपदेश देना चाहिए। उसे देश-देश के रीति-रिवाजों और आचार-विचार का ज्ञान होना चाहिए, जिससे उसे हास्यभाजन न बनना पड़े। जाहिर है कि इन यात्राओं से क्षेत्रीय बोलियों का निश्चय ही आदान-प्रदान हुआ और एक-एक क्षेत्र की लोकोक्तियों और लोककथाओं की आपसी सामाजिकता भी निश्चय ही स्थापित हुई होगी।[1]
आगम साहित्य
जैन साहित्य की प्राचीनतम कथा सम्पदा 'आगम साहित्य' के नाम से पहचानी जाती है। यह कथाएँ पैशाची-प्राकृत भाषा में लिखी गयीं। पाली, प्राकृत और लौकिक संस्कृत के सम्मिश्रण से बनती अपभ्रंश भी तब मौजूद थी और इन भाषाओं का जनसाधारण में बहुत प्रचलन था। वैदिक संस्कृत जनसाधारण की भाषा नहीं रह गयी थी। स्वयं वैदिक ब्राह्मण रचना तो वैदिक संस्कृत में करते थे, पर उनकी बोलचाल की भाषा पाली या प्राकृत ही थी। वैदिक संस्कृत को लेकर जनसाधारण में भाषायी अरुचि उत्पन्न हो चुकी थी। इसका एक दृष्टान्त मराठी शोधकर्ता डॉ. माधव मुरलीधर देशपाण्डे और हिन्दी विद्वान् डॉ. राजमल बोरा ने पेश किया है-
"एक राजपूत्र पेड़ के नीचे बैठा हुआ था। उस समय उसने एक सम्भाषण[2] सुना। वह उक्त भाषा के सम्बन्ध में तर्क करने लगा। प्रथम तो वह कहता है कि सम्भाषण संस्कृत में नहीं है, क्योंकि संस्कृत तो अत्यन्त दुर्बोध भाषा है और कठिन भी है, दुर्जनों के हृदय सदृश कठोर है। यह सम्भाषण प्राकृत में भी नहीं है, क्योंकि प्राकृत सज्जनों के हृदय की तरह सुखद रहती है और उसमें प्रकृति का सुन्दर वर्णन रहता है और प्राकृत शब्द संस्कृत जैसे एक-दूसरे से सन्धि से युक्त नहीं रहते। यह सम्भाषण अपभ्रंश में भी नहीं है, क्योंकि अपभ्रंश में शुद्ध-अशुद्ध संस्कृत और प्राकृत का मिश्रण रहता है। वह तो बाढ़ आने वाले पानी सदृश अनियन्त्रित रहती है किन्तु यह सम्भाषण तो प्रेमी और प्रेमिका की बातों के सदृश सुन्दर है। ये सम्भाषण इन तीनों प्रकार की भाषाओं में ठीक से बैठता नहीं इसलिए इसे पैशाची कहना अधिक ठीक होगा। राजपूत्र का निर्णय था कि यह सम्भाषण पैशाची में होगा।"
यदि भारतीय प्राकृत को पैशाची मान लिया जाए तो पैशाची का भौगोलिक विस्तार चीनी तुर्किस्तान तक मानना पड़ता है। दूसरी ओर सिन्धु नदी के तट तक तो उसका विस्तार था ही। सिन्धु नदी के पूर्व में जमुना तक शौरसेनी का विस्तार था। इस तरह पैशाची, शौरसेनी का संस्कार प्राप्त कर रही थी। उड़ीसा के विद्वान् भाषाविद् मार्कण्डेय के अनुसार पैशाची के तीन प्रधान भेद बतलाए गये हैं, उनमें कैकेय के बाद दूसरा भेद शौरसेनी पैशाची का है। तीसरा भेद पांचाल पैशाची का है। पैशाची को संस्कृत ही नहीं, प्राकृतों के रूपों से सम्बद्ध मानने का प्रयत्न व्याकरण-ग्रन्थों में क्यों हुए, इसके कारण भाषा-समुदायों के आपसी सम्बन्धों में खोजने होंगे। ईसा की आठवीं सदी में जैन साहित्यकार उद्योतन सूरि ने ‘कुवलयमाला’ ग्रन्थ में प्राकृत की कथा दी है। उस कथा का संक्षिप्त विवरण डॉ. माधव मुरलीधर देशपाण्डे ने ‘संस्कृत आणि प्राकृत भाषा’ (मराठी ग्रन्थ) में दिया है। उसमें एक कथा संकलित है, जिसमें पैशाची का विशद उल्लेख है। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि पैशाची को अन्य भाषाओं से अलग बतलाया गया है। गुणाढ्य की पैशाची को इसी तरह अलग माना गया है। प्राकृतों में उसकी गणना नहीं है।[1]
प्राकृत के रूपों का जैसा सम्मान हुआ है, वह सम्मान भी पैशाची को नहीं मिला। पेशावर, चीनी तुर्किस्तान, ईरान में जो सम्मान पैशाची को मिला, वह सम्मान पैशाची को भारत में नहीं मिला। विशेष रूप से गुणाढ्य के काल में उसे सम्मान नहीं मिला। बाद में विद्वान् भूल गये कि पैशाची कैकेय की भाषा है। वे उसे विन्ध्याचल के पास की भाषा मानने लगे। पिशाच भाषा कहने लगे। राजशेखर ने तो उसे ‘भूत-भाषा’ कह दिया है। यह सब क्यों हुआ? जिस पैशाची भाषा के माध्यम से बौद्ध और जैन धर्म का विस्तार मध्य एशिया के देशों एवं भाषा में हुआ, उस भाषा को भारत में अनदेखा कर दिया गया।
उपन्यास और कहानी
कहानी आकार में उपन्यास से छोटी होती है, लेकिन आकार में छोटा होना भर कहानी को कहानी नहीं बना सकता। उपन्यास का कोई अध्याय कहानी नहीं हो सकता और न कहानी उपन्यास का कोई अध्याय। अत: कहानी उपन्यास की जाति की होते हुए भी स्वतंत्र विधा है। उसके छोटे होने के कारण लेखक की प्रेरणा और ग्रहण की गई जीवन की सामग्री में निहित संभावना होती है। उपन्यास में जहाँ जीवन की सम्पूर्णता लेखक का सरोकार है वहाँ कहानी में कोई एक भाव, घटना या चरित्र का कोई एक मार्मिक प्रसंग का वर्णन होता है। उपन्यास की तरह जीवन के विभिन्न प्रसंगों को खोलते-गूँथते हुए विस्तार करने की स्वतंत्रता कहानी में नहीं होती। कहानी की मूलभूत विशेषता को प्रेमचंद ने बताया है। उनका कहना है कि-
जब तक वे किसी घटना या चरित्र में कोई ड्रामाई पहलू नहीं पहचान लेते तब तक कहानी नहीं लिखते।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 कथा संस्कृति (हिन्दी) आर्चिव टुडे। अभिगमन तिथि: 08 नवम्बर, 2014।
- ↑ आपस की बातचीत
- ↑ उपन्यास और कहानी (हिंदी) साहित्यालोचन। अभिगमन तिथि: 25 फ़रवरी, 2013।
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