"ज़माना -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
आदित्य चौधरी (वार्ता | योगदान) No edit summary |
कात्या सिंह (वार्ता | योगदान) No edit summary |
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ज़रा सोचिए कि जिस पल हम कहते हैं कि अब तो ज़माना ख़राब आ गया तो सहसा हम इस ज़माने के कटे होने की बात ही कह रहे होते हैं और ख़ुद को इस मौजूदा वक़्त से तालमेल न बैठा पाने वाला व्यक्ति घोषित कर रहे होते हैं। यह पूरी तरह नकारात्मक सोच है। निश्चित रूप से यह सोच नई पीढ़ी को हतोत्साहित करने वाली सोच है। हमको नई पीढ़ी को यह कहकर डराना नहीं चाहिए कि जिस 'समय' में वे जी रहे हैं वह पिछले गुज़रे हुए समय से बेकार है बल्कि उनको तो यह बताया जाना चाहिए कि यह समय अब तक के सभी समयों में सबसे अच्छा समय है क्योंकि ये वास्तव में ही सर्वश्रेष्ठ समय है। | ज़रा सोचिए कि जिस पल हम कहते हैं कि अब तो ज़माना ख़राब आ गया तो सहसा हम इस ज़माने के कटे होने की बात ही कह रहे होते हैं और ख़ुद को इस मौजूदा वक़्त से तालमेल न बैठा पाने वाला व्यक्ति घोषित कर रहे होते हैं। यह पूरी तरह नकारात्मक सोच है। निश्चित रूप से यह सोच नई पीढ़ी को हतोत्साहित करने वाली सोच है। हमको नई पीढ़ी को यह कहकर डराना नहीं चाहिए कि जिस 'समय' में वे जी रहे हैं वह पिछले गुज़रे हुए समय से बेकार है बल्कि उनको तो यह बताया जाना चाहिए कि यह समय अब तक के सभी समयों में सबसे अच्छा समय है क्योंकि ये वास्तव में ही सर्वश्रेष्ठ समय है। | ||
असल में हमारा समाज आदिकाल से ही निरंतर विकासक्रम में है और यह निश्चित ही पूर्ण रूप से सकारात्मक सोच का नतीजा है न कि विध्वंसक सोच का। विकसित समाज में अनेक 'संस्थाओं' ने निरंतर विकास किया है जैसे कि 'विवाह संस्था'। विवाह संस्था आज जितने परिपक्व रूप में है उतनी पहले कभी नहीं थी। गुज़रे समय में अनेक बंधनों के चलते स्त्री ने विवाह को अपने लिए हर हाल में एक घाटे का सौदा ही माना, यहाँ तक कि पति के लिए चिता में सती भी होना पड़ा, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। पढ़े-लिखे और काम-काजी पति-पत्नी गृहस्थ जीवन में लगभग प्रत्येक कोण पर पति-पत्नी समान अधिकारों का आनंद उठाने लगे हैं। | असल में हमारा समाज आदिकाल से ही निरंतर विकासक्रम में है और यह निश्चित ही पूर्ण रूप से सकारात्मक सोच का नतीजा है न कि विध्वंसक सोच का। विकसित समाज में अनेक 'संस्थाओं' ने निरंतर विकास किया है जैसे कि 'विवाह संस्था'। विवाह संस्था आज जितने परिपक्व रूप में है उतनी पहले कभी नहीं थी। गुज़रे समय में अनेक बंधनों के चलते स्त्री ने विवाह को अपने लिए हर हाल में एक घाटे का सौदा ही माना, यहाँ तक कि पति के लिए चिता में सती भी होना पड़ा, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। पढ़े-लिखे और काम-काजी पति-पत्नी गृहस्थ जीवन में लगभग प्रत्येक कोण पर पति-पत्नी समान अधिकारों का आनंद उठाने लगे हैं। | ||
हम अक़्सर अच्छे-बुरे ज़माने को प्रमाण-पत्र देने वाले मठाधीश बनकर अनेक हास्यास्पद उपक्रम और पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यवहार करने लगते हैं। जिससे नई पीढ़ी हमें 'आउट डेटेड' घोषित कर देती है और हम एक ऐसी दवाई बन जाते हैं जिसकी 'एक्सपाइरी डेट' भी निकल | हम अक़्सर अच्छे-बुरे ज़माने को प्रमाण-पत्र देने वाले मठाधीश बनकर अनेक हास्यास्पद उपक्रम और पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यवहार करने लगते हैं। जिससे नई पीढ़ी हमें 'आउट डेटेड' घोषित कर देती है और हम एक ऐसी दवाई बन जाते हैं जिसकी 'एक्सपाइरी डेट' भी निकल चुकी हो। | ||
ये तीन हानिकारक वाक्य- "महंगाई बहुत बढ़ गई है", "ज़माना बहुत ख़राब आ गया है", "आजकल के लड़के-लड़कियों में शर्म-लिहाज़ नहीं है" असल में पूरी तरह से नकारात्मक दृष्टिकोण वाले हैं और 'विकासवादी' सोच के विपरीत हैं। मैंने 'प्रगतिवादी' के स्थान पर 'विकासवादी' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका कारण मेरा 'प्रगति' की अपेक्षा 'विकास' में अधिक विश्वास करना है। 'प्रगति' किसी भी दिशा में हो सकती है लेकिन क्रमिक-विकास सामाजिक-व्यवस्था के सुव्यवस्थित सम्पोषण के लिए ही होता है। प्रगति एक इकाई है तो विकास एक संस्था और वैसे भी विकास, प्रगति की तरह अचानक नहीं होता और क्रमिक-विकास निश्चित रूप से 'प्रगति' से अधिक प्रभावकारी और सुव्यवस्थित प्रजातांत्रिक व्यवस्था का सबसे सहज अंग है। | ये तीन हानिकारक वाक्य- "महंगाई बहुत बढ़ गई है", "ज़माना बहुत ख़राब आ गया है", "आजकल के लड़के-लड़कियों में शर्म-लिहाज़ नहीं है" असल में पूरी तरह से नकारात्मक दृष्टिकोण वाले हैं और 'विकासवादी' सोच के विपरीत हैं। मैंने 'प्रगतिवादी' के स्थान पर 'विकासवादी' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका कारण मेरा 'प्रगति' की अपेक्षा 'विकास' में अधिक विश्वास करना है। 'प्रगति' किसी भी दिशा में हो सकती है लेकिन क्रमिक-विकास सामाजिक-व्यवस्था के सुव्यवस्थित सम्पोषण के लिए ही होता है। प्रगति एक इकाई है तो विकास एक संस्था और वैसे भी विकास, प्रगति की तरह अचानक नहीं होता और क्रमिक-विकास निश्चित रूप से 'प्रगति' से अधिक प्रभावकारी और सुव्यवस्थित प्रजातांत्रिक व्यवस्था का सबसे सहज अंग है। | ||
इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और... | इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और... |
16:03, 17 मार्च 2012 का अवतरण
'ज़माना' -आदित्य चौधरी
--"आप मोबाइल पर ही बात करते रहेंगे या मेरी भी बात सुनेंगे ?" दहेज़ की कुप्रथा ख़त्म नहीं हुई तो यही हाल होना है दूल्हे राजाओं का... ख़ैर ये 'मॅम' तो बजट आने से पहले ही अपना 'डीलक्स पति' ले कर चली गईं। -आदित्य चौधरी प्रशासक एवं प्रधान सम्पादक |
टीका टिप्पणी और संदर्भ