"ग़रीबी का दिमाग़ -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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अधिकारी- "नो सर!, नहीं मिलता।" | अधिकारी- "नो सर!, नहीं मिलता।" | ||
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{{दाँयाबक्सा|पाठ=सभी | {{दाँयाबक्सा|पाठ=सभी राजनीतिक दल, सार्वजनिक समस्याओं को हाशिए पर रखकर, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने की सोचते रहते हैं।|विचारक=}} | ||
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राजपुत्र- "पाँच रुपए में खाना तो बांग्ला देश और श्रीलंका में भी नहीं मिलता फिर ये चक्कर क्या है?" | राजपुत्र- "पाँच रुपए में खाना तो बांग्ला देश और श्रीलंका में भी नहीं मिलता फिर ये चक्कर क्या है?" | ||
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"ठीक कह रहे हैं बाबू जी, ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..." | "ठीक कह रहे हैं बाबू जी, ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..." | ||
ये तो पता नहीं कि राजपुत्र पर इन बातों का कितना प्रभाव पड़ा और उसने क्या किया... तो आइए भारतकोश पर वापस चलते हैं।- | ये तो पता नहीं कि राजपुत्र पर इन बातों का कितना प्रभाव पड़ा और उसने क्या किया... तो आइए भारतकोश पर वापस चलते हैं।- | ||
देश में, बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे | देश में, बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे राजनीतिक मुद्दे हुआ करते थे। इन्हीं मुद्दों का बोलबाला चुनावों में भी होता था। धीरे-धीरे नेता (और शायद जनता भी) इन मुद्दों से 'बोर' हो गयी। मुद्दे बदलते चले गए और जनता भी अपनी मुख्य ज़रूरत को भूल कर टीवी, लॅपटॉप, इंटरनेट जैसे आकर्षक मुद्दों के प्रति अधिक गंभीर हो गई। कारण था कि ये सार्वजनिक न होकर व्यक्तिगत मुद्दे थे। राजनीतिक दल भी मनुष्य की इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना सीख गए। नेताओं को समझ में आने लगा कि भाषणों में, सड़क बनवाने की बात करने से ज़्यादा लाभकारी है कर्ज़ा माफ़ करने की बात करना। जनता को भी लगने लगा कि सड़क तो 'सबके' लिए बनेगी लेकिन कर्ज़ा तो 'मेरा' माफ़ होगा। यहीं से व्यक्तिगत लाभ देने की राजनीति शुरू हो गई और सार्वजनिक समस्याएँ पिछड़ती चली गईं। | ||
अनेक योजनाओं के चलते गांवों में पानी की टंकियां बनीं लेकिन जनता का सारा ध्यान अपने घर के दरवाज़े पर हैण्ड पम्प लगवाने में रहा। टंकियों की हालत ख़राब होने लगी और ज़्यादातर टंकियां अब बेकार पड़ी हैं। ग्राम पंचायत, ज़िला पंचायत और विधायकों को मिलने वाले वोटों के पीछे जनता की व्यक्तिगत मांगों का दवाब बना रहता है। | अनेक योजनाओं के चलते गांवों में पानी की टंकियां बनीं लेकिन जनता का सारा ध्यान अपने घर के दरवाज़े पर हैण्ड पम्प लगवाने में रहा। टंकियों की हालत ख़राब होने लगी और ज़्यादातर टंकियां अब बेकार पड़ी हैं। ग्राम पंचायत, ज़िला पंचायत और विधायकों को मिलने वाले वोटों के पीछे जनता की व्यक्तिगत मांगों का दवाब बना रहता है। | ||
जन प्रतिनिधि होने का अर्थ, काफ़ी हद तक यह हो चुका है कि प्रतिनिधि हर समय, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकता के लिए भागदौड़ करे। थाने, तहसील, डी.ऍम., ऍस.पी. के पास सच्चे झूठे मुद्दे और मुक़दमों की सिफ़ारिश करे। इस प्रक्रिया में जन प्रतिनिधि में अपना-पराया की भावना बहुत प्रबल हो जाती है। किसने वोट दिया और किसने नहीं, इस बात को लेकर जनता के कार्यों की वरीयता निश्चित की जाती है। | जन प्रतिनिधि होने का अर्थ, काफ़ी हद तक यह हो चुका है कि प्रतिनिधि हर समय, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकता के लिए भागदौड़ करे। थाने, तहसील, डी.ऍम., ऍस.पी. के पास सच्चे झूठे मुद्दे और मुक़दमों की सिफ़ारिश करे। इस प्रक्रिया में जन प्रतिनिधि में अपना-पराया की भावना बहुत प्रबल हो जाती है। किसने वोट दिया और किसने नहीं, इस बात को लेकर जनता के कार्यों की वरीयता निश्चित की जाती है। | ||
हमको यह सोचना और जानना ही होगा कि इन सारी असमानता बढ़ाने वाली नीतियों के पीछे कौन सी सोच काम कर रही है। क्यों सभी | हमको यह सोचना और जानना ही होगा कि इन सारी असमानता बढ़ाने वाली नीतियों के पीछे कौन सी सोच काम कर रही है। क्यों सभी राजनीतिक दल, सार्वजनिक समस्याओं को हाशिए पर रखकर, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने की सोचते रहते हैं। | ||
इसके लिए केवल एक ही कारण है। हमारे देश में | इसके लिए केवल एक ही कारण है। हमारे देश में राजनीतिक दलों की संख्या का अनियंत्रित होना। किसी भी देश के प्रजातांत्रिक ढांचे में देश के समग्र विकास के लिए विचारधाराओं के आधार पर ही राजनीतिक दलों का गठन होना चाहिए। ये विचारधाराएं दो या अधिकतम तीन ही हो सकती हैं, इससे अधिक होने का सीधा अर्थ है कि नए राजनीतिक दल के गठन के पीछे कोई न कोई धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र का मुद्दा है। | ||
सामान्यत: जनता के मन में तीन प्रकार की सोच ही समायी रहती हैं; दक्षिणपंथी, वामपंथी और मध्यमार्गी। इन तीन विचारधाराओं से दीगर कोई और सोच कभी भी समग्र समाज का प्रतिनिधित्व नही करती। दक्षिणपंथी विचारधारा में; परम्परा, धर्म, पूंजीवाद आदि समाहित रहते हैं। वामपंथी विचारधारा में प्रगति, धर्म निरपेक्षता और समाजवाद समाहित होते हैं। मध्यमार्गी विचारधारा इन दोनों के बीच की सोच है जिसमें विकास, सर्व धर्म समभाव और पूंजीवाद-समाजवाद का सम्मिश्रण समाहित होते हैं। | सामान्यत: जनता के मन में तीन प्रकार की सोच ही समायी रहती हैं; दक्षिणपंथी, वामपंथी और मध्यमार्गी। इन तीन विचारधाराओं से दीगर कोई और सोच कभी भी समग्र समाज का प्रतिनिधित्व नही करती। दक्षिणपंथी विचारधारा में; परम्परा, धर्म, पूंजीवाद आदि समाहित रहते हैं। वामपंथी विचारधारा में प्रगति, धर्म निरपेक्षता और समाजवाद समाहित होते हैं। मध्यमार्गी विचारधारा इन दोनों के बीच की सोच है जिसमें विकास, सर्व धर्म समभाव और पूंजीवाद-समाजवाद का सम्मिश्रण समाहित होते हैं। | ||
भारत में | भारत में राजनीतिक दल बनाना कोई फ़र्म या कम्पनी बनाने जितना आसान है। 2-4 विधायक या सांसदों को लेकर किसी सरकार में शामिल हो जाना एक खेल बन गया है। जब किसी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो अनेक राजनीतिक दल मिलकर एक गुट बनाते हैं। ज़ाहिर है कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री किसी ऐसे व्यक्ति को चुना जाता है जो अपेक्षाकृत कम प्रभावशाली हो क्योंकि राजनीतिक प्रभाव वाले व्यक्ति से सभी दल डरते हैं कि 'कहीं ये हमारे विधायकों या सांसदों को अपनी ओर 'तोड़' न ले'। | ||
इस प्रक्रिया के चलते भारत ने कई कठपुतली प्रधानमंत्रियों को झेला है। इसी तरह परिवारवाद भी राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है और अनेक बार हमारे देश और राज्यों का शासन ऐसे ही अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथों में रहा है। इस प्रक्रिया के बचाव में एक सामान्य सा उदाहरण दिया जाता है कि व्यापारी का वंशज व्यापारी, अभिनेता का वंशज अभिनेता, खिलाड़ी का वंशज खिलाड़ी तो फिर नेता का वंशज नेता क्यों नहीं? सीधी-साधी जनता इस मूर्खतापूर्ण तर्क को सहज ही मान लेती है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। व्यापार, खेल और फ़िल्मी दुनिया की उपलब्धियाँ, व्यक्तिगत हितों को आधार बना कर ही की जातीं हैं, जिसमें जनता का कोई लेना-देना या भागीदारी सामान्यत: नहीं होती। राजनीति की सीढ़ियाँ तो स्पष्ट रूप से जनता की भागीदारी से ही निर्मित होती हैं, जिन पर किसी का व्यक्तिगत अधिकार जमाना पूर्णत: अनैतिक है। यह तो ठीक वैसे ही हुआ जैसे कि कोई सेनाधिकारी अपने वंशज को अपना पद बिना किसी प्रतियोगिता के देना चाहे। जिस प्रकार देश की सेना देश के लिए जवाबदेह है उसी प्रकार | इस प्रक्रिया के चलते भारत ने कई कठपुतली प्रधानमंत्रियों को झेला है। इसी तरह परिवारवाद भी राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है और अनेक बार हमारे देश और राज्यों का शासन ऐसे ही अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथों में रहा है। इस प्रक्रिया के बचाव में एक सामान्य सा उदाहरण दिया जाता है कि व्यापारी का वंशज व्यापारी, अभिनेता का वंशज अभिनेता, खिलाड़ी का वंशज खिलाड़ी तो फिर नेता का वंशज नेता क्यों नहीं? सीधी-साधी जनता इस मूर्खतापूर्ण तर्क को सहज ही मान लेती है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। व्यापार, खेल और फ़िल्मी दुनिया की उपलब्धियाँ, व्यक्तिगत हितों को आधार बना कर ही की जातीं हैं, जिसमें जनता का कोई लेना-देना या भागीदारी सामान्यत: नहीं होती। राजनीति की सीढ़ियाँ तो स्पष्ट रूप से जनता की भागीदारी से ही निर्मित होती हैं, जिन पर किसी का व्यक्तिगत अधिकार जमाना पूर्णत: अनैतिक है। यह तो ठीक वैसे ही हुआ जैसे कि कोई सेनाधिकारी अपने वंशज को अपना पद बिना किसी प्रतियोगिता के देना चाहे। जिस प्रकार देश की सेना देश के लिए जवाबदेह है उसी प्रकार राजनीतिक नेता भी। ज़रा सोचिए जिन गुणों, संघर्षों, बलिदानों को ध्यान में रखते हुए जनता ने किसी को नेता माना हो और वह नेता अपने वंशज को अपना पद देना चाहे तो क्या समझदार जनता को इसे स्वीकारना चाहिए? | ||
भारत में यही होता आया है। इस वंशवाद के कारण राजनीति में सबसे अधिक ठेस गुरु-शिष्य परंपरा को लगी है। आज के समय में राजनीति में कर्तव्यनिष्ठ शिष्य होना असंभव जैसा हो गया है। यदि हमारे देश में दो या तीन | भारत में यही होता आया है। इस वंशवाद के कारण राजनीति में सबसे अधिक ठेस गुरु-शिष्य परंपरा को लगी है। आज के समय में राजनीति में कर्तव्यनिष्ठ शिष्य होना असंभव जैसा हो गया है। यदि हमारे देश में दो या तीन राजनीतिक दलों का नियम लागू नहीं किया गया और वंशवाद पर लगाम न कसी गई तो देश का विकास होना असंभव ही है। | ||
इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और... | इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और... |
12:25, 2 सितम्बर 2013 का अवतरण
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