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भारत की जाति-वर्ण व्यवस्था -आदित्य चौधरी


        भारतीय प्राचीन, ब्राह्मण-सनातन-हिन्दू धर्म-संस्कृति और पौराणिक ग्रंथों पर, जातिवादी वर्ण व्यवस्था के कारण अनेक आरोप लगाए जाते हैं। विशेषकर मनुस्मृति को सबसे अधिक लांछित किया जाता है। स्वयं मैं भी जाति और धार्मिक भेदभाव को बहुत नापसंद करता हूँ किन्तु क्या यह पूर्णत: सही है? 
मैं एक उदाहरण दे रहा हूँ। इस कथा को ध्यान से पूरा पढ़ें और स्वयं निर्णय लें। यह कथा उत्तर वैदिककालीन है। सामान्यत: यूँ कहा जाए कि उपनिषदों के लेखन काल की। पं. जवाहरलाल नेहरू ने इसका ज़िक्र अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में किया है।
ताम्रलिप्ति कथासरित् (१२.२.१२५) में एक कथा का उल्लेख है।
        एक राजा जिसका नाम चंद्रप्रभा था, पिंडदान करने नदी के किनारे पहुँचा। पिंड को हाथ में लेकर वह नदी में प्रवाहित करने को ही था कि नदी से तीन हाथ पिंड लेने को निकले। (ऐसी मान्यता थी कि पिंड लेने के लिए पिता का हाथ आता है)।
राजा आश्चर्य में पड़ गया। ब्राह्मण ने कहा:
राजन! इन तीन हाथों में से एक हाथ किसी सूली पर चढ़ाए व्यक्ति का है क्योंकि उसकी कलाई पर रस्सी से बांधने का चिह्न बना है, दूसरा हाथ किसी ब्राह्मण का है क्योंकि उसके हाथ में दूब (घास) है और तीसरा किसी राजा का है क्योंकि उसका हाथ राजसी प्रतीत होता है साथ ही उसकी उंगली में राजमुद्रिका है।”
राजा ने कहा: “तो ठीक है फिर तो राजा का हाथ ही मेरे पिता का हाथ होगा”
ब्राह्मण: “नहीं राजन! यह उचित नहीं है।" 
राजा बिना पिंडदान किए ही लौटने लगा तो राह में एक वृद्धा मिली।
वृद्ध स्त्री- हे राजन! तुम तीन हाथों वाली कथा नहीं सुनोगे। जो केवल मुझे मालूम है।
ब्राह्मण-  औरत! तू क्या जानती है? वह सब तो ब्राह्मणों का काम है कि पता लगाएँ।
वृद्ध स्त्री- पहले मेरी कथा सुन लो फिर ब्राह्मणों को निर्णय करने दो कि क्या करना चाहिए।
वृद्ध स्त्री ने कहा-
ताम्रलिप्ति के समुद्र तट पर बसे नगर में एक वैश्य व्यापारी रहा करता था, जिसका नाम था धनपाल। वह धनिकों में भी धनिक था और अपने छोटे-से परिवार में बहुत सुखी था। उसकी पत्नी का नाम था शीलवती और बेटी का नाम था धनवती, जो विवाह योग्य थी। एक दिन अचानक ताम्रलिप्ति के राजा जनासंघ ने उनके यहाँ राजकीय सेवक भेजा और कहलाया कि धनपाल तुरंत राजकीय वस्त्रों के व्यापार के लिए समन्दर पार चला जाए। 
        उस समय वैश्य वर्ण में किसान, चारवाहे, दस्तकार और वणिक यानी व्यापारी भी शामिल थे। वैश्य ही मुख्य करदाता थे, जिनके करों, चुंगी और उपहारों के आधार पर ही ब्राह्मण और क्षत्रिय अपनी गुजर-बसर करते थे। व्यापारी कभी-कभी राजा की तरफ़ से भी व्यापार किया करते थे, जैसे कि हमारी कहानी का व्यापारी धनपाल।
धनवती ने कहा-
धनवती: माँ ! पिताजी के लिए बन्दरगाह से दूत आया है, जल्दी करने के लिए कहा है। 
शीलवती: शोर मत करो, तुम्हारे पिताजी अंदर हवन के लिए तैयारी कर रहे हैं। चलो हम भी चलकर प्रार्थना करते हैं, जिससे उनकी यात्रा सफल हो जाए।
प्रार्थना करते हैं:

इंद्र है
आओ विनती है नायक बन आओ 
पथिक लुटेरों, जानवरों को हमारे पथ से हटाओ
हमको धन दिलाओ, धन दिलाओ
धरती आसमान के बीच बिछे पंथों पर दूध और घी की नदियाँ बहाओ 
वणिज का लाभ दिलाओ, लाभ दिलाओ
हमें मूल धन पर विपुल लाभ हो, लाभ हो कर में, विक्रम में भी लाभ हो
धन कभी न्यून नहीं हो, प्रतियोगिता भी लाभकर हो
हे अग्ने! ये हवन सिद्ध हो, हमारे लाभ नाशकों का नाश हो, नाश हो विनाश हो

        प्रार्थना करके व्यापारी सुदूर यात्रा पर चला गया। यह समुद्री यात्रा असफल सिद्ध हुई और राज्य का पूरा माल डूब गया। दुष्ट राजा ने उस व्यापारी धनपाल की समस्त संपत्ति का अधिग्रहण करने और पुत्री को अपनी सेवा के लिए बलपूर्वक बुलाने के लिए आदेश दिया। जिससे कि राज्य के नुक़सान की भरपाई हो सके। शीलवती के पड़ोसी को इसकी भनक लग गई, उसने शीलवती से कहा “यहाँ का राजा अत्यंत दुष्ट है, वह मेरी कोई बात नहीं सुनेगा, तुम अपनी पुत्री को लेकर यह राज्य छोड़कर चली जाओ। मेरी मृत्यु तो अवश्यंभावी है।” किसी तरह जान बचाकर दोनों मां-बेटी राज्य छोड़ भागीं।
        व्यापारी की पत्नी और उसकी युवा पुत्री राज्य छोड़कर भागने लगे। जब राज्य की सीमाओं के निकट पहुँचे तो उन्होंने देखा कि जंगल में एक युवक को मृत्युदंड देकर, सूली पर लटकाया गया है। वह युवक अंतिम सांसें ले रहा था। उस युवक ने पुकार कर मां-पुत्री को अपने पास बुलाया तो शीलवती ने पूछा-
शीलवती- अरे... भईया, ओ भईया..., तुम्हारी ऐसी दशा कैसे हुई? 
विद्रोही- मुझे देशद्रोह के आरोप में इस राज्य के नीच राजा ने यह दण्ड दिया है। जबकि मैं सच्चाई के लिए लड़ रहा था। मैंने शूद्र श्रमिकों के एक दल का नेतृत्व किया। वो लोग इस बात के लिए लड़ रहे थे कि उनके साथ पशुओं जैसा व्यवहार न किया जाए। इस सूली पर भी मेरी आत्मा मुझे मुक्ति नहीं दे रही है। अब भी मुझमें बदला लेने की प्रबल इच्छा है। ऐसा लगता है जैसे भगवान ने तुम्हें मेरी सहायता के लिए ही भेजा है। 
शीलवती: हम? हम तुम्हारी सहायता कैसे कर सकते हैं? हम तो स्वयं राजा के लोभ के शिकार हैं। 
विद्रोही: मेरी माँ! मेरी प्रार्थना सुन। अपनी अविवाहित कन्या मुझे सौंप दे। 
शीलवती: ये तुम क्या कह रहे हो। मैं अपनी कन्या को कैसे सौंप सकती हूँ? ये तुम्हारे किस काम आयेगी?
विद्रोही: मेरे मरते समय कोई पुत्र नहीं है। बिना पुत्र के मैं परलोक नहीं जा सकता। न ही मुझ पर लगाए गए आरोपों का बदला लिया जा सकता है। ये ‘नियोग' से एक संतान को जन्म दे सकती है। इसके गर्भ से जो संतान होगी, वो मेरी संतान कहलायेगी। बस यही विनती है। जैसा मैं कहता हूँ वैसा ही करो।
(‘नियोग’ एक प्रथा थी जिसमें स्त्री, पति के अलावा किसी दूसरे पुरुष से संतान उत्पन्न कर सकती थी। इस संतान का पिता पति ही माना जाता था।)
शीलवती: मैं बड़े असमंजस में हूँ। मैं कैसे इसके यौवन को वैधव्य के लिए बलिदान कर दूँ। 
विद्रोही: दूर उस पेड़ को देखो। वहाँ जाकर खुदाई करो। वहाँ उस पत्थर के नीचे तुम्हें तीन मणियाँ मिलेंगी। अमूल्य मणियाँ। उनमें से एक तुम्हारे लिए है। दूसरी उस आदमी के लिए होगी, जिससे मेरी स्त्री गर्भ धारण करेगी, तीसरी उसके लिए जो मेरे पुत्र को युद्ध कला सिखाकर क्षत्रिय के रूप में बड़ा करेगा। तभी इस धरती को उस शापित राजा से मुक्ति मिल सकेगी। 
शीलवती: लगता है भगवान ने मुझे सचमुच तुम्हारी ही सहायता के लिए भेजा है। मैं स्वयं उस नीच, लोभी राजा जनासंघ से बदला लेना चाहती हूँ। मैं तुम्हें वचन देती हूँ, जैसा तुमने कहा है वैसा ही करूँगी। मैं अपनी कुँवारी कन्या को तुम्हें सौंपती हूँ। 
विद्रोही: अब मैं शांति से अपने पूर्वजों के पास जा सकता हूँ।
फिर शीलवती और धनवती किसी तरह से वक्रलोक पहुँच गईं। वक्रलोक पहुँच कर वासुदत्त नामक एक ब्राह्मण के यहाँ रहने लगीं। कई दिन बीत गए। अचानक शीलवती को उस वचन की याद आई जो उसने अपनी पुत्री के पति को दिया था, यानि उस विद्रोही को, जिसे सूली पर चढ़ा दिया गया था। अब शीलवती दिन-रात उस दिए हुए वचन को पूरा करने के बारे में सोचने लगी। वासुदत्त ने सुझाया कि विष्णुस्वामिन नाम के आचार्य के पास मनस्वामिन नामक एक ब्राह्मण छात्र है।
मनस्वामिन तैयार हो गया। पुत्र भी पैदा हो गया लेकिन समय के साथ शीलवती की पुत्री और उसके पति का मन बच्चे के मोह में फंस गया। शीलवती अपने वचन पर दृढ़ थी अत: उसने वासुदत्त से सलाह ली।
वासुदत्त: ठीक है, तुम अपना हृदय कठोर कर एक कार्य करो। सभी जानते हैं हमारे महाराज सूर्यप्रभा को पुत्र रत्न की लालसा है और महाराज प्रतिदिन नगर के पूर्वी घाट पर स्नान करने जाते हैं। तुम इस बालक को वहाँ छोड़ दो। महाराज की दृष्टि अवश्य बालक पर पड़ेगी। आगे प्रभु की इच्छा।
राजा सूर्यप्रभा को जब बालक मिला तो राजा ने कहा-
सूर्यप्रभा: कितना सुंदर है यह बालक। दण्ड, छत्र और पताका जैसे शुभ चिन्हों के साथ इसके सभी लक्षण इसके चक्रवर्ती होने की भविष्यवाणी करते हैं। ऐसा लगता है जैसे भगवान शिव ने स्वयं ही मुझे योग्य पुत्र दे दिया है।
यह कथा सुनने के बाद राजा सूर्यप्रभा के उत्तराधिकारी राजा चंद्रप्रभा ने उस वृद्धा से पूछा- 
राजा चंद्रप्रभा: तुम ये सब कैसे जानती हो? कौन हो तुम?
वृद्ध स्त्री: बेटा! मैं तुम्हारी नानी शीलवती हूँ और ये जो तुमने मणि पहनी है, वह सूली पर चढ़ने वाले, तुम्हारे पिता ने ही तुमको दी थी।
राजा चंद्रप्रभा: वो विद्रोही, वह मेरा पिता कैसे हो सकता है? मुझे जन्म देने वाला तो वह ब्राह्मण था और महाराज सूर्यप्रभा ने बड़े लाड़-प्यार से मेरा पालन-पोषण किया। मुझे शिक्षित किया। फिर मैं उस विद्रोही को कैसे अपना पिता मान सकता हूँ?
वृद्ध स्त्री- ऐसा मत कहो बेटा। वही तुम्हारे पिता हैं, क्योंकि उन्होंने तुम्हें जीने का एक उद्देश्य दिया है। उनकी इच्छा पूरी करो। ताम्रलिप्ति के दुष्ट राजा जनासंघ का नाश, यही तुम्हारे जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए। इसलिए तुमको पिंड उस विद्रोही के हाथ में ही रखना चाहिए।
आइए अब भारतकोश पर चलते हैं-
        इस कथा में उत्तर वैदिक काल की मान्यताओं की झलक मिलती है। एक स्त्री के द्वारा वचन निबाहने की पराकाष्ठा और एक शूद्रों के विद्रोही नेता, जिसकी जाति का पता नहीं, एक वैश्य स्त्री से विवाह करता है। उस स्त्री को एक ब्राह्मण से बेटा होता है, जिसे एक क्षत्रिय राजा गोद लेता है। इससे जाति के उतार-चढ़ाव का पता चलता है। चंद्रप्रभा के पिता के रूप में विद्रोही के अधिकार को ही मान्यता दी जाती है, न कि ब्राह्मण या क्षत्रिय के अधिकार को। व्यक्ति के अधिकार के संदर्भ में जाति को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। 
मैं मात्र इतना कहना चाहता हूँ कि हिन्दू धर्म ही नहीं अपितु किसी भी धर्म अथवा संस्कृति की आलोचना से पहले, हमारा गहराई से अध्ययन करना अति आवश्यक है। मैं न तो अंधविश्वास की बात कर रहा हूँ और न ही यह कह रहा हूँ कि धर्म को विज्ञान की कसौटी पर न परखा जाय वरन् मेरा आशय मात्र इतना है कि किसी पौराणिक व्यवस्था का विवेचन देश-काल-परिस्थिति को दृष्टिगत रखकर होना चाहिए। 

इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक

टीका टिप्पणी और संदर्भ