"ज़माना -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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"आजकल के लड़के-लड़कियों में शर्म-लिहाज़ नहीं है" | "आजकल के लड़के-लड़कियों में शर्म-लिहाज़ नहीं है" | ||
ऊपर लिखे संवाद हमारी फ़िल्मों में ही सदाबहार रहे हों ऐसा नहीं है। हमारे समाज में चारों ओर यही बातें रोज़ाना चलती रहती हैं। ये तीन महावाक्य | ऊपर लिखे संवाद हमारी फ़िल्मों में ही सदाबहार रहे हों ऐसा नहीं है। हमारे समाज में चारों ओर यही बातें रोज़ाना चलती रहती हैं। ये तीन महावाक्य वे हैं जो हमारे समाज में किसी को भी ज़िम्मेदार या परिपक्व होने का प्रमाणपत्र देते हैं। जब तक लड़के- लड़की बड़े हो कर इन तीनों मंत्रों को अक़्सर दोहराना शुरू नहीं करते तब तक उन्हें 'बच्चा' और 'ग़ैरज़िम्मेदार' माना जाता है। दो हज़ार पाँच सौ साल पहले प्लॅटो ने एथेंस की अव्यवस्था और प्रजातंत्र पर कटाक्ष किया है- | ||
"सभी ओर प्रजातंत्र का ज़ोर है, बेटा पिता का कहना नहीं मानता; पत्नी पति का कहना नहीं मानती सड़कों पर गधों के झुंड घूमते रहते हैं जैसे कि ऊपर ही चढ़े चले आयेंगे। ज़माना कितना ख़राब आ गया है।" कमाल है ढाई हज़ार साल पहले भी यही समस्या ? | "सभी ओर प्रजातंत्र का ज़ोर है, बेटा पिता का कहना नहीं मानता; पत्नी पति का कहना नहीं मानती सड़कों पर गधों के झुंड घूमते रहते हैं जैसे कि ऊपर ही चढ़े चले आयेंगे। ज़माना कितना ख़राब आ गया है।" कमाल है ढाई हज़ार साल पहले भी यही समस्या ? |
15:37, 17 मार्च 2012 का अवतरण
टीका टिप्पणी और संदर्भ