"जीवन संगिनी -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर

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   वो विस्तार अपना छुपाता हो शायद
   वो विस्तार अपना छुपाता हो शायद


उसे सारी दुनियाँ दिखा दो तो क्या है
उसे सारी दुनिया दिखा दो तो क्या है
   तुम्हें आइना वो दिखाता हो शायद
   तुम्हें आइना वो दिखाता हो शायद


ये दुनियाँ तुम्हारी औ तुम इसके सूरज
ये दुनिया तुम्हारी औ तुम इसके सूरज
   तुम्हें रात को वो सुलाता हो शायद
   तुम्हें रात को वो सुलाता हो शायद



10:12, 8 जुलाई 2012 का अवतरण

जीवन संगिनी -आदित्य चौधरी

क़ीमत चुकाई, तो मालूम होगा
   जो यूँ ही मिला है, फ़रिश्ता हो शायद

तुम पर ख़ुदा की मेहरबानियाँ हैं
   ये जलवा उसी का करिश्मा हो शायद

जिसे तुम मुहब्बत को तरसा रहे हो
   वो ख़ुद को ख़ुशी से सताता हो शायद

हरदम कसौटी पे क्यूँ कस रहे हो
   कहीं तुम जो पीतल, वो सोना हो शायद

तुम अपने मंदिर के भगवान होगे
   वो विस्तार अपना छुपाता हो शायद

उसे सारी दुनिया दिखा दो तो क्या है
   तुम्हें आइना वो दिखाता हो शायद

ये दुनिया तुम्हारी औ तुम इसके सूरज
   तुम्हें रात को वो सुलाता हो शायद

-आदित्य चौधरी