"शाप और प्रतिज्ञा -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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"आपका शाप मुझे तब तक हानि नहीं पहुँचा सकता माते! जब तक कि मैं उसे स्वीकार न कर लूँ। मैं साक्षात् ईश्वर हूँ और आप नश्वर, मृत्युलोक की शरीरधारी स्त्री मात्र, क्योंकि आपका शाप, द्वापर युग में अवतरित मेरे आठों अंश के पूर्णावतार, अर्थात समस्त आठों कलाओं से युक्त अवतार, 'कृष्ण' को प्रभावित करने में सक्षम नहीं होगा, फिर भी आप निश्चिंत रहें, मेरी कोई आयोजना ऐसी नहीं जिससे मैं अपनी उपस्थिति को एक माँ से श्रेष्ठ स्थापित करने का | "आपका शाप मुझे तब तक हानि नहीं पहुँचा सकता माते! जब तक कि मैं उसे स्वीकार न कर लूँ। मैं साक्षात् ईश्वर हूँ और आप नश्वर, मृत्युलोक की शरीरधारी स्त्री मात्र, क्योंकि आपका शाप, द्वापर युग में अवतरित मेरे आठों अंश के पूर्णावतार, अर्थात समस्त आठों कलाओं से युक्त अवतार, 'कृष्ण' को प्रभावित करने में सक्षम नहीं होगा, फिर भी आप निश्चिंत रहें, मेरी कोई आयोजना ऐसी नहीं जिससे मैं अपनी उपस्थिति को एक माँ से श्रेष्ठ स्थापित करने का प्रयत्न करूँ। इसलिए माते! मैं आपके शाप को विनम्रता से स्वीकार करता हूँ। अब यदुकुल वंश का समूल नाश वैसे ही होना अवश्यंभावी है जैसा आपके शाप में संकल्पित है।" | ||
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"जब तक मैं [[दु:शासन]] के लहू से अपने केश नहीं धो लूँगी तब तक अपने केश खुले रखूँगी" यह प्रतिज्ञा द्रौपदी ने की थी और यह उसने किया भी। अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पाँच पुत्रों को सोते हुए ही जलाकर मार डाला। इसके उपरांत भी द्रौपदी ने अश्वत्थामा का वध होने से रोका और उसे क्षमा कर दिया। जिन श्रेष्ठ कृत्यों का महाभारत में उल्लेख है उनमें से द्रौपदी की क्षमा को मैं सर्वोपरि मानता हूँ। | "जब तक मैं [[दु:शासन]] के लहू से अपने केश नहीं धो लूँगी तब तक अपने केश खुले रखूँगी" यह प्रतिज्ञा द्रौपदी ने की थी और यह उसने किया भी। अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पाँच पुत्रों को सोते हुए ही जलाकर मार डाला। इसके उपरांत भी द्रौपदी ने अश्वत्थामा का वध होने से रोका और उसे क्षमा कर दिया। जिन श्रेष्ठ कृत्यों का महाभारत में उल्लेख है उनमें से द्रौपदी की क्षमा को मैं सर्वोपरि मानता हूँ। | ||
[[कर्ण]] के जन्म का भेद उसे बताने वाली उसकी माँ [[कुंती]] कर्ण से महाभारत युद्ध से पहले ही यह वचन ले गयी कि कर्ण अर्जुन के अलावा किसी [[पाण्डव]] का वध नहीं करेगा। युद्ध में कर्ण का [[युधिष्ठिर]] को बंदी बनाकर फिर जीवित छोड़ देना, कर्ण के लिए अपने वचन को निभाने के लिए भले ही आवश्यक हो लेकिन [[दुर्योधन]] के मित्र और कौरवों की सेना का सेनापति होने के नाते कहाँ उचित था ? यदि कर्ण ने उसी समय युधिष्ठिर को मार दिया होता तो महाभारत युद्ध का निर्णय कौरवों के पक्ष में हो जाता क्योंकि युधिष्ठिर ही राजा था और राजा ही यदि मारा जाता तो युद्ध समाप्त हो जाता। युधिष्ठिर को द्यूत क्रीड़ा (जुआ) की मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करना था इसलिए उसने [[शकुनि]] का निमंत्रण स्वीकार किया और द्यूत में अपने भाइयों और द्रौपदी को दाँव पर लगा दिया। द्यूत एक बार नहीं दोबारा फिर हुआ। | [[कर्ण]] के जन्म का भेद उसे बताने वाली उसकी माँ [[कुंती]] कर्ण से महाभारत युद्ध से पहले ही यह वचन ले गयी कि कर्ण अर्जुन के अलावा किसी [[पाण्डव]] का वध नहीं करेगा। युद्ध में कर्ण का [[युधिष्ठिर]] को बंदी बनाकर फिर जीवित छोड़ देना, कर्ण के लिए अपने वचन को निभाने के लिए भले ही आवश्यक हो लेकिन [[दुर्योधन]] के मित्र और कौरवों की सेना का सेनापति होने के नाते कहाँ उचित था ? यदि कर्ण ने उसी समय युधिष्ठिर को मार दिया होता तो महाभारत युद्ध का निर्णय कौरवों के पक्ष में हो जाता क्योंकि युधिष्ठिर ही राजा था और राजा ही यदि मारा जाता तो युद्ध समाप्त हो जाता। युधिष्ठिर को द्यूत क्रीड़ा (जुआ) की मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करना था इसलिए उसने [[शकुनि]] का निमंत्रण स्वीकार किया और द्यूत में अपने भाइयों और द्रौपदी को दाँव पर लगा दिया। द्यूत एक बार नहीं दोबारा फिर हुआ। | ||
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{{दाँयाबक्सा|पाठ=अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पाँच पुत्रों को सोते हुए ही जलाकर मार डाला। इसके उपरांत भी द्रौपदी ने अश्वत्थामा का वध होने से रोका और उसे क्षमा कर दिया। जिन श्रेष्ठ कृत्यों का महाभारत में उल्लेख है उनमें से द्रौपदी की क्षमा को मैं सर्वोपरि मानता हूँ।|विचारक=}} | |||
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ये प्रतिज्ञाएँ क्यों होती थीं ? क्या मानसिकता कार्य करती थी इनके पीछे ? क्या ऐसा नहीं लगता कि जब हमें अपने ऊपर किसी कार्य को कर पाने का विश्वास नहीं होता, तभी प्रतिज्ञा की जाती है। यदि महाभारत के प्रसंगों को ही देखें तो पता चलता है कि कृष्ण ने कोई प्रतिज्ञा नहीं की और एक की भी थी तो वह भी भीष्म ने युद्ध में अस्त्र उठवाकर तुड़वा दी थी। सहज रूप से जीवन जीने वाले कृष्ण को किसी प्रतिज्ञा की आवश्यकता थी भी नहीं। यहाँ तक कि कृष्ण ने जो महाभारत में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी वह भी किसी निजी स्वार्थ के चलते नहीं की थी। | ये प्रतिज्ञाएँ क्यों होती थीं ? क्या मानसिकता कार्य करती थी इनके पीछे ? क्या ऐसा नहीं लगता कि जब हमें अपने ऊपर किसी कार्य को कर पाने का विश्वास नहीं होता, तभी प्रतिज्ञा की जाती है। यदि महाभारत के प्रसंगों को ही देखें तो पता चलता है कि कृष्ण ने कोई प्रतिज्ञा नहीं की और एक की भी थी तो वह भी भीष्म ने युद्ध में अस्त्र उठवाकर तुड़वा दी थी। सहज रूप से जीवन जीने वाले कृष्ण को किसी प्रतिज्ञा की आवश्यकता थी भी नहीं। यहाँ तक कि कृष्ण ने जो महाभारत में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी वह भी किसी निजी स्वार्थ के चलते नहीं की थी। | ||
[[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत बड़ी राजनैतिक रणनीति की शिक्षा मिलती है। शिशुपाल कोई छोटा-मोटा राजा नहीं था जिसे मारना और मारकर शांत बैठ पाना आसान हो। निन्यानवे अपराध क्षमा करना कृष्ण की एक सोची समझी रणनीति थी जिसमें छिपे हुए संदेश को समझना बहुत आवश्यक है। निन्यानवे अपराधों तक कृष्ण ने शक्ति और समर्थन की प्रतीक्षा की और जब सभी यह चाहने लगे कि अब तो शिशुपाल ने अति कर दी है, तब कृष्ण ने उसे मारा। शिशुपाल के वध को सभी ने सही माना। इसीलिए शिशुपाल वध को मृत्युदण्ड की मान्यता मिली। | [[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत बड़ी राजनैतिक रणनीति की शिक्षा मिलती है। शिशुपाल कोई छोटा-मोटा राजा नहीं था जिसे मारना और मारकर शांत बैठ पाना आसान हो। निन्यानवे अपराध क्षमा करना कृष्ण की एक सोची समझी रणनीति थी जिसमें छिपे हुए संदेश को समझना बहुत आवश्यक है। निन्यानवे अपराधों तक कृष्ण ने शक्ति और समर्थन की प्रतीक्षा की और जब सभी यह चाहने लगे कि अब तो शिशुपाल ने अति कर दी है, तब कृष्ण ने उसे मारा। शिशुपाल के वध को सभी ने सही माना। इसीलिए शिशुपाल वध को मृत्युदण्ड की मान्यता मिली। | ||
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{{ | {{बाँयाबक्सा|पाठ=शाप देना भी जैसे ख़ुद ही शापित हो जाना है। पौराणिक कथाओं में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जब शाप देने वाले को शाप देते ही तुरंत पछतावा हुआ और उसने अपने शाप से मुक्त होने का उपाय भी उसी क्षण बता दिया।|विचारक=}} | ||
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प्रतिज्ञा, शपथ, वचन आदि सारी बातें मनुष्य के कमज़ोर पक्ष को उजागर करती हैं। कहीं सुना है कि किसी मां को यह प्रतिज्ञा दिलाई जाती हो कि वह अपने बच्चे को अवश्य पालेगी ? ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं होती क्योंकि यह प्रकृति की एक सामान्य प्रक्रिया है। वचनों की प्रक्रिया तो मनुष्य निर्मित नियमों को मानने में लागू होती है, जैसे विवाह संस्था, नौकरी, न्यायप्रक्रिया आदि। हिन्दू विवाह में पति पत्नी द्वारा सात वचन निभाने की प्रक्रिया होती है क्योंकि यह उतना अटूट रिश्ता नहीं है जितना माता और संतान का। इसलिए वचन निबाहने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। | प्रतिज्ञा, शपथ, वचन आदि सारी बातें मनुष्य के कमज़ोर पक्ष को उजागर करती हैं। कहीं सुना है कि किसी मां को यह प्रतिज्ञा दिलाई जाती हो कि वह अपने बच्चे को अवश्य पालेगी ? ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं होती क्योंकि यह प्रकृति की एक सामान्य प्रक्रिया है। वचनों की प्रक्रिया तो मनुष्य निर्मित नियमों को मानने में लागू होती है, जैसे विवाह संस्था, नौकरी, न्यायप्रक्रिया आदि। हिन्दू विवाह में पति पत्नी द्वारा सात वचन निभाने की प्रक्रिया होती है क्योंकि यह उतना अटूट रिश्ता नहीं है जितना माता और संतान का। इसलिए वचन निबाहने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। |
13:37, 4 सितम्बर 2012 का अवतरण
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