"शाप और प्रतिज्ञा -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) No edit summary |
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
---- | ---- | ||
<poem> | <poem> | ||
"आपका शाप मुझे तब तक हानि नहीं पहुँचा सकता माते! जब तक कि मैं उसे स्वीकार न कर लूँ। मैं साक्षात् ईश्वर हूँ और आप नश्वर, मृत्युलोक की शरीरधारी स्त्री मात्र, तदैव आपका शाप, द्वापर युग में अवतरित मेरे | "आपका शाप मुझे तब तक हानि नहीं पहुँचा सकता माते! जब तक कि मैं उसे स्वीकार न कर लूँ। मैं साक्षात् ईश्वर हूँ और आप नश्वर, मृत्युलोक की शरीरधारी स्त्री मात्र, तदैव आपका शाप, द्वापर युग में अवतरित मेरे सोलह अंशों के पूर्णावतार, अर्थात समस्त सोलह कलाओं से युक्त अवतार, 'कृष्ण' को प्रभावित करने में सक्षम नहीं होगा, फिर भी आप निश्चिंत रहें, मेरी कोई आयोजना ऐसी नहीं जिससे मैं अपनी उपस्थिति को एक माँ से श्रेष्ठ स्थापित करने का प्रयत्न करूँ। इसलिए माते! मैं आपके शाप को विनम्रता से स्वीकार करता हूँ। अब यदुकुल वंश का समूल नाश वैसे ही होना अवश्यंभावी है जैसा आपके शाप में संकल्पित है।" | ||
</poem> | </poem> | ||
[[चित्र:Krishn-title.jpg|right|300px]] | [[चित्र:Krishn-title.jpg|right|300px]] | ||
पंक्ति 16: | पंक्ति 16: | ||
शाप और प्रतिज्ञा के प्रसंग पौराणिक काल में अनेक बार आए हैं। [[महाभारत]] ग्रंथ में अनेक प्रतिज्ञाओं के प्रसंग हैं। कोई भी प्रतिज्ञा जब हम करते हैं, तो हम प्रतिज्ञाबद्ध हो जाते हैं। हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है हमारी की गयी प्रतिज्ञा। वरीयता क्रम में हम प्रत्येक इस प्रतिज्ञा से भिन्न तत्त्व के अस्तित्व को महत्त्वहीन कर देते हैं। इस बार हम पौराणिक काल विशेषकर महाभारतकालीन वचनों, प्रतिज्ञाओं, मर्यादाओं और शापों पर विचार करेंगे। प्रतिज्ञा कौन करता है ? और प्रतिज्ञा के क्या वही परिणाम होते हैं जो प्रत्यक्ष में दिखायी देते हैं ? अथवा इन प्रतिज्ञाओं के पीछे छुपे कुछ ऐसे भी परिणाम होते हैं, जो समाज के लिए अत्यंत हानिकारक भी सिद्ध होते हैं। | शाप और प्रतिज्ञा के प्रसंग पौराणिक काल में अनेक बार आए हैं। [[महाभारत]] ग्रंथ में अनेक प्रतिज्ञाओं के प्रसंग हैं। कोई भी प्रतिज्ञा जब हम करते हैं, तो हम प्रतिज्ञाबद्ध हो जाते हैं। हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है हमारी की गयी प्रतिज्ञा। वरीयता क्रम में हम प्रत्येक इस प्रतिज्ञा से भिन्न तत्त्व के अस्तित्व को महत्त्वहीन कर देते हैं। इस बार हम पौराणिक काल विशेषकर महाभारतकालीन वचनों, प्रतिज्ञाओं, मर्यादाओं और शापों पर विचार करेंगे। प्रतिज्ञा कौन करता है ? और प्रतिज्ञा के क्या वही परिणाम होते हैं जो प्रत्यक्ष में दिखायी देते हैं ? अथवा इन प्रतिज्ञाओं के पीछे छुपे कुछ ऐसे भी परिणाम होते हैं, जो समाज के लिए अत्यंत हानिकारक भी सिद्ध होते हैं। | ||
भीष्म प्रतिज्ञा सबसे अधिक प्रसिद्ध है, जिसमें गंगापुत्र देवव्रत, आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर एवं सिंहासन का त्याग कर देवव्रत से 'भीष्म' बन जाते हैं। यदि [[भीष्म]] ने यह प्रतिज्ञा न की होती तो [[हस्तिनापुर]] के राजसिंहासन पर पुत्र मोह से विवश नेत्रहीन [[धृतराष्ट्र]] न बैठता और महाभारत युद्ध के समीकरण बने ही न होते। प्रतिज्ञा करते समय भीष्म ने अपने पिता की अनुचित इच्छा पूर्ति को ही ध्यान में रखा, हस्तिनापुर की जनता के प्रति उत्तरदायित्व को वे भूल गए। | भीष्म प्रतिज्ञा सबसे अधिक प्रसिद्ध है, जिसमें गंगापुत्र देवव्रत, आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर एवं सिंहासन का त्याग कर देवव्रत से 'भीष्म' बन जाते हैं। यदि [[भीष्म]] ने यह प्रतिज्ञा न की होती तो [[हस्तिनापुर]] के राजसिंहासन पर पुत्र मोह से विवश नेत्रहीन [[धृतराष्ट्र]] न बैठता और महाभारत युद्ध के समीकरण बने ही न होते। प्रतिज्ञा करते समय भीष्म ने अपने पिता की अनुचित इच्छा पूर्ति को ही ध्यान में रखा, हस्तिनापुर की जनता के प्रति उत्तरदायित्व को वे भूल गए। | ||
भीष्म | भीष्म की केवल पुरुषों से ही युद्ध करने और स्त्रियों पर अस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा भी राज-हित में नहीं थी और जिसका परिणाम हुआ भीष्म की मृत्यु और [[कौरव|कौरवों]] की हार। भीष्म यह क्यों भूल गए कि उनकी एक प्रतिज्ञा यह भी थी कि वे हस्तिनापुर की रक्षा करेंगे। इस हस्तिनापुर के सिंहासन की वफ़ादारी करने में उन्होंने [[द्रौपदी]] के भरी सभा में अपमान को भी अनदेखा कर दिया था। जबकि कृष्ण ने अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को अपने मित्र [[अर्जुन]] की रक्षा हेतु तोड़ दिया। कृष्ण ने अपने उद्देश्य की सफलता में प्रतिज्ञा को बाधक बनते देखा तो उन्होंने प्रतिज्ञा तोड़ दी। | ||
[[द्रोणाचार्य]] की प्रतिज्ञा में पुत्र मोह की पराकाष्ठा थी, जो कि [[अश्वत्थामा]] के मरने के झूठे समाचार के कारण, उनके अस्त्र त्याग करने से, उनकी मृत्यु का कारण बनी। असल में अपनी प्रतिज्ञाओं को लेकर भीष्म और द्रोणाचार्य दोनों ही ऊहापोह की स्थिति में थे। द्रोणाचार्य का अश्वथामा की मृत्यु के समाचार मिलते ही युद्धभूमि में अस्त्र त्यागकर ध्यानस्थ हो जाना क्या एक युद्ध का सेनापतित्व करने वाले व्यक्ति के लिए ठीक था, जब कि युद्ध भी महाभारत का हो और प्रतिष्ठा हो हस्तिनापुर की। सरल सी बात है कि यह प्रतिज्ञा स्वार्थपूर्ण थी न कि कर्तव्यपूर्ण।</poem> | [[द्रोणाचार्य]] की प्रतिज्ञा में पुत्र मोह की पराकाष्ठा थी, जो कि [[अश्वत्थामा]] के मरने के झूठे समाचार के कारण, उनके अस्त्र त्याग करने से, उनकी मृत्यु का कारण बनी। असल में अपनी प्रतिज्ञाओं को लेकर भीष्म और द्रोणाचार्य दोनों ही ऊहापोह की स्थिति में थे। द्रोणाचार्य का अश्वथामा की मृत्यु के समाचार मिलते ही युद्धभूमि में अस्त्र त्यागकर ध्यानस्थ हो जाना क्या एक युद्ध का सेनापतित्व करने वाले व्यक्ति के लिए ठीक था, जब कि युद्ध भी महाभारत का हो और प्रतिष्ठा हो हस्तिनापुर की। सरल सी बात है कि यह प्रतिज्ञा स्वार्थपूर्ण थी न कि कर्तव्यपूर्ण।</poem> | ||
{{बाँयाबक्सा|पाठ=[[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत बड़ी राजनैतिक रणनीति की शिक्षा मिलती है। शिशुपाल कोई छोटा-मोटा राजा नहीं था जिसे मारना और मारकर शांत बैठ पाना आसान हो। निन्यानवे अपराध क्षमा करना कृष्ण की एक सोची समझी रणनीति थी जिसमें छिपे हुए संदेश को समझना बहुत आवश्यक है।|विचारक=}} | {{बाँयाबक्सा|पाठ=[[शिशुपाल]] को मारने में भी कृष्ण ने एक ऐसा संदेश दिया जिससे बहुत बड़ी राजनैतिक रणनीति की शिक्षा मिलती है। शिशुपाल कोई छोटा-मोटा राजा नहीं था जिसे मारना और मारकर शांत बैठ पाना आसान हो। निन्यानवे अपराध क्षमा करना कृष्ण की एक सोची समझी रणनीति थी जिसमें छिपे हुए संदेश को समझना बहुत आवश्यक है।|विचारक=}} |
07:04, 6 सितम्बर 2012 का अवतरण
|
|