"ग़रीबी का दिमाग़ -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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दूसरा ग़रीब- "जो मिल जाय सो खा लेते हैं सरकार... वैसे रोटी-चटनी ज़्यादा खाते हैं सरकार!... अब तीन टाइम तो नहीं खाते हैं... कभी दो बार तो कभी एक बार... खेत में से भी कुछ साग-सब्ज़ी मिल जाती है तो पका लेते हैं।" | दूसरा ग़रीब- "जो मिल जाय सो खा लेते हैं सरकार... वैसे रोटी-चटनी ज़्यादा खाते हैं सरकार!... अब तीन टाइम तो नहीं खाते हैं... कभी दो बार तो कभी एक बार... खेत में से भी कुछ साग-सब्ज़ी मिल जाती है तो पका लेते हैं।" | ||
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{{दाँयाबक्सा|पाठ="ठीक कह रहे हैं बाबू जी ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..."|विचारक=}} | {{दाँयाबक्सा|पाठ="ठीक कह रहे हैं बाबू जी, ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..."|विचारक=}} | ||
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राजपुत्र- "डाइरेक्ट खेत से तो ऑरगेनिक फ़ूड मिलता होगा आपको?" | राजपुत्र- "डाइरेक्ट खेत से तो ऑरगेनिक फ़ूड मिलता होगा आपको?" | ||
दूसरा ग़रीब- "सरकार बथुआ, चौलाई, कुल्फा मिल जाता है, या फिर कभी मूली... और जब आलू की खुदाई चलती है तो आलू ख़ूब मिलते हैं वो भी बिल्कुल फिरी में..." | दूसरा ग़रीब- "सरकार बथुआ, चौलाई, कुल्फा मिल जाता है, या फिर कभी मूली... और जब आलू की खुदाई चलती है तो आलू ख़ूब मिलते हैं वो भी बिल्कुल फिरी में..." | ||
राजपुत्र | राजपुत्र, अधिकारी से- "आप सब कुछ नोट कर रहे हैं ना? मुझे पूरा डेटाबेस चाहिए..." | ||
अधिकारी- "यस सर! मैं नोट कर रहा हूँ।" | अधिकारी- "यस सर! मैं नोट कर रहा हूँ।" | ||
राजपुत्र- "फल कौन-कौन से खाते हैं आप लोग?" | राजपुत्र- "फल कौन-कौन से खाते हैं आप लोग?" | ||
पंक्ति 71: | पंक्ति 71: | ||
राजपुत्र- "देखिए आपके दिल्ली या बॉम्बे जाने से कुछ नहीं होगा... ग़रीबी आपके दिमाग़ में है... इट्स इन योर माइंड... जस्ट अ स्टेट ऑफ़ माइंड... आप सोचते हैं कि आप ग़रीब हैं तो आप ग़रीब हो जाते हैं... आप सोचोए मत कि आप ग़रीब हैं... यही सीक्रेट है... मैंने आपको सबसे अच्छा तरीक़ा बता दिया है... कुछ आया समझ में?" | राजपुत्र- "देखिए आपके दिल्ली या बॉम्बे जाने से कुछ नहीं होगा... ग़रीबी आपके दिमाग़ में है... इट्स इन योर माइंड... जस्ट अ स्टेट ऑफ़ माइंड... आप सोचते हैं कि आप ग़रीब हैं तो आप ग़रीब हो जाते हैं... आप सोचोए मत कि आप ग़रीब हैं... यही सीक्रेट है... मैंने आपको सबसे अच्छा तरीक़ा बता दिया है... कुछ आया समझ में?" | ||
तम्बू में सन्नाटा हो गया सब एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे। जब कोई कुछ नहीं बोला तो पहले ग़रीब की हाईस्कूल पास पत्नी अचानक बोल पड़ी- | तम्बू में सन्नाटा हो गया सब एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे। जब कोई कुछ नहीं बोला तो पहले ग़रीब की हाईस्कूल पास पत्नी अचानक बोल पड़ी- | ||
"ठीक कह रहे हैं बाबू जी ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..." | "ठीक कह रहे हैं बाबू जी, ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..." | ||
ये तो पता नहीं कि राजपुत्र पर इन बातों का कितना प्रभाव पड़ा और उसने क्या किया... तो आइए भारतकोश पर वापस चलते हैं।- | ये तो पता नहीं कि राजपुत्र पर इन बातों का कितना प्रभाव पड़ा और उसने क्या किया... तो आइए भारतकोश पर वापस चलते हैं।- | ||
देश में, बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे राजनैतिक मुद्दे हुआ करते थे। इन्हीं मुद्दों का बोलबाला चुनावों में भी होता था। धीरे-धीरे नेता (और शायद जनता भी) इन मुद्दों से 'बोर' हो गयी। मुद्दे बदलते चले गए और जनता भी अपनी मुख्य ज़रूरत को भूल कर टीवी, लॅपटॉप, इंटरनेट जैसे आकर्षक मुद्दों के प्रति अधिक गंभीर हो गई। कारण था कि ये सार्वजनक न होकर व्यक्तिगत मुद्दे थे। राजनैतिक दल भी मनुष्य की इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना सीख गए। नेताओं को समझ में आने लगा कि भाषणों में, सड़क बनवाने की बात करने से ज़्यादा लाभकारी है कर्ज़ा माफ़ करने की बात करना। जनता को भी लगने लगा कि सड़क तो 'सबके' लिए बनेगी लेकिन कर्ज़ा तो 'मेरा' माफ़ होगा। यहीं से व्यक्तिगत लाभ देने की राजनीति शुरू हो गई और सार्वजनिक समस्याएँ पिछड़ती चली गईं। | देश में, बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे राजनैतिक मुद्दे हुआ करते थे। इन्हीं मुद्दों का बोलबाला चुनावों में भी होता था। धीरे-धीरे नेता (और शायद जनता भी) इन मुद्दों से 'बोर' हो गयी। मुद्दे बदलते चले गए और जनता भी अपनी मुख्य ज़रूरत को भूल कर टीवी, लॅपटॉप, इंटरनेट जैसे आकर्षक मुद्दों के प्रति अधिक गंभीर हो गई। कारण था कि ये सार्वजनक न होकर व्यक्तिगत मुद्दे थे। राजनैतिक दल भी मनुष्य की इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना सीख गए। नेताओं को समझ में आने लगा कि भाषणों में, सड़क बनवाने की बात करने से ज़्यादा लाभकारी है कर्ज़ा माफ़ करने की बात करना। जनता को भी लगने लगा कि सड़क तो 'सबके' लिए बनेगी लेकिन कर्ज़ा तो 'मेरा' माफ़ होगा। यहीं से व्यक्तिगत लाभ देने की राजनीति शुरू हो गई और सार्वजनिक समस्याएँ पिछड़ती चली गईं। |
12:43, 11 अगस्त 2013 का अवतरण
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