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| | 4 फ़रवरी, 2014 | | | 4 फ़रवरी, 2014 |
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| <poem>
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| राजा महाराजाओं के काल में तो यह कहा जाना सही रहा होगा-
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| "यथा राजा तथा प्रजा" याने जैसा राजा वैसी प्रजा।
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| लेकिन लोकतंत्र में तो अपना राजा, हम चुनते हैं।
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| अब तो इसका ठीक उल्टा याने
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| "यथा प्रजा तथा राजा" ही सही बैठता है।
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| नेता जैसे भी हैं, उनके आचरण के लिए,
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| वे नहीं, बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ हम ज़िम्मेदार हैं।
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| प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अयोग्य नेताओं को गाली देने का अर्थ है,
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| अपने आप को ही गाली देना।
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| कभी यह सोचने में भी समय लगाना चाहिए कि क्या कारण है कि नेता दिन ब दिन 'अनेता' होते जा रहे हैं ?
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| कहीं इसका कारण ये तो नहीं कि हम में ही कुछ गड़बड़ है ?
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| ज़रा हम अपने गरेबाँ में भी झांक कर देखें...
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| | 28 दिसम्बर, 2013
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| <poem>
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| यदि पड़ोस से रोते हुए बच्चे के रोने की आवाज़ से आपके ध्यान, पूजा या स्तुति जैसे कार्य में बाधा नहीं पड़ती और आपका ध्यान भंग नहीं होता, तो आप किसी संन्यासी, साधु, सन्त या धर्मात्मा की श्रेणी में नहीं बल्कि दुष्टात्मा की श्रेणी में आते हैं।
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| </poem>
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| | 28 दिसम्बर, 2013
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| प्रताप सिंह कैरों पचास के दशक में पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। उनके शासन का उदाहरण आज भी दिया जाता है और महान नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल से उनकी तुलना की जाती है। उस दौर में भी अनाज की कालाबाज़ारी ज़ोरों पर थी। देश नया-नया आज़ाद हुआ था। राज्य सरकारों के पास संसाधन कम थे। जमाख़ोरों और दलालों ने अनाज गोदामों में बंद किया हुआ था, मंहगाई आसमान को छूने लगी थी, जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाना चाहिए। कैरों ने एक गंभीर जनहितकारी चाल चली... केन्द्र सरकार और रेल मंत्रालय की सहायता से कई मालगाड़ियाँ रेलवे स्टेशनों पर जा पहुँची जिनके डब्बे सील बंद थे और उनपर विभिन्न अनाजों के नाम लिखे हुए थे। शहरों में आग की तरह से ये ख़बर फैल गयी कि सरकार ने 'बाहर' से अनाज मंगवा लिया है। इतना सुनना था कि जमाख़ोरो ने अपना अनाज बाज़ार में आनन-फानन में बेचना शुरू कर दिया। मंहगाई तुरंत क़ाबू में आ गई।
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| एक सप्ताह बाद मालगाड़ियाँ ज्यों की त्यों वापस लौट गईं क्योंकि वे ख़ाली थीं।... यदि सरकार ठान ले तो देश की तरक्की के लिए हज़ार-लाख तरीक़े निकाल सकती है लेकिन...
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| </poem>
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| | 14 दिसम्बर, 2013
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| माता, पिता, पुत्री और गुरु को हर जगह महिमा मंडित किया जाता है। पुत्र, शिष्य, पत्नी और पति को नहीं... ऐसा क्यों?
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| हो सकता है कि इसका कारण ये हो कि माल-मत्ता तो सब पुत्र, शिष्य, पत्नी और पति के हाथ पड़ता है...
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| अब बाक़ी बचे माता-िपता, पुत्री और गुरु तो इन बेचारों की प्रशंसा करते रहो तो 'सैट' रहेंगे... ऐसा है क्या ?
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| ये हो भी सकता है... और नहीं भी... !
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| एक नज़र इस नज़रिये पर भी-
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| पत्नी अपने पति को माँ से अधिक लाड़ और स्नेह, बहन से अधिक साथ, पुत्री से अधिक सम्मान और गुरु से अधिक शिक्षा देकर भी
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| अपने पति से सार्वजनिक प्रशंसा की चार लाइनों के लिए महरूम क्यों ? पति अपनी पत्नी को पिता से अधिक लाड़ और स्नेह, भाई से अधिक सुरक्षा, पुत्र से अधिक उसके ममत्व की संतृप्ति और गुरु से अधिक शिक्षा देकर भी अपनी पत्नी से सार्वजनिक प्रशंसा की चार लाइनों के लिए महरूम क्यों ? पति या पत्नी की प्रशंसा में लिखने में हमें क्या हिचक है ? कोई शर्म है क्या ?
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| एक बात और है जो लोग यारी-दोस्ती में ज़्यादा मशग़ूल रहते हैं। उनको शायद यह नहीं मालूम कि पति-पत्नी, आपस में सबसे बड़े राज़दार होते हैं। इसलिए सबसे बड़े दोस्त भी। ये दोस्ती ऐसी होती है जो कि रिश्ता ख़त्म होने पर भी एक-दूसरे के राज़ बनाए रखती है, खोलती नहीं।
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| वो बात अलग है कि जब ये उन राज़ों को खोलने पर आते हैं तो वो राज़ भी खुल जाते हैं जिनको हम भगवान से भी छुपाते हैं लेकिन सामान्यत: ऐसा होता नहीं है।
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| याद रखिए अपनी जान तो हमारे लिए कोई भी दे सकता है लेकिन अपना जीवन तो एक दूसरे को पति-पत्नी ही देते हैं।
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| यह सही है कि 'माता-पिता ही हमारे साक्षात् भगवान हैं'।
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| लेकिन यह भी मत भूलिए कि पति-पत्नी भी एक दूसरे के लिए
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| साक्षात न सही तो 'मिनी भगवान' हैं।
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| ऐसा नहीं है कि पति-पत्नी के रिश्ते का आधार केवल संतान है।
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| </poem>
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| | 14 दिसम्बर, 2013
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| 'पॉज़टिव थिंकिंग' याने सकारात्मक सोच के संबंध में कुछ लोग सिखाते हैं कि अपने प्रयत्न के अच्छे परिणाम के संबंध में आश्वस्थ रहना ही पॉज़िटिव थिंकिंग है। कुछ लोग इस शिक्षा को सीख भी जाते हैं। यह सकारात्मक सोच नहीं है बल्कि अति आशावादी होना है।
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| सकारात्मक सोच है परिणाम की प्रतीक्षा के प्रति सहज हो जाना। याने बिना बेचैनी के प्रतीक्षा करना। प्रतीक्षा में सहज होना ही सकारात्मक सोच है।
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| वैसे तो जीवन बहुत कुछ है लेकिन जीवन एक प्रतीक्षा भी है। सभी को किसी न किसी की प्रतीक्षा है और प्रतीक्षा करने में बेचैनी होना सामान्य बात है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो प्रतीक्षा करने में बेचैन नहीं होते। असल में हम जितने अधिक नासमझ होते हैं उतना ही प्रतीक्षा करने में बेचैन रहते हैं। बच्चों को यदि हम देखें तो आसानी से समझ सकते हैं कि किसी की प्रतीक्षा करने में बच्चे कितने अधीर होते हैं। धीरे-धीरे जब उम्र बढ़ती है तो यह अधीरता कम होती जाती है क्योंकि उनमें 'समझ' आ जाती है। इसी 'समझ' को समझना ज़रूरी है क्योंकि जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि हमारे जीवन में प्रतीक्षा का क्या महत्त्व है और इसका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव होता है तब तक हम सकारात्मक सोच नहीं समझ सकते।
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| सीधी सी बात है कि सकारात्मक सोच के व्यक्ति बहुत कम ही होते हैं। राजा हो या रंक इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। साधु-संत भी ईश्वर के दर्शन की या मोक्ष की प्रतीक्षा में रहते हैं। यहाँ समझने वाली बात ये है कि हम प्रतीक्षा कैसे कर रहे हैं। यदि कोई संत मोक्ष की प्रतीक्षा में है और वह सहज रूप से यह प्रतीक्षा नहीं कर रहा तो उसका मार्ग ही पूर्णतया अर्थहीन है। यदि और गहराई से देखें तो मोक्ष को 'प्राप्त' करने जैसा भी कुछ नहीं है। मोक्ष तो 'होता' और 'घटता' है, बस इसे समझना ज़रूरी है। जीवन में सहजता को प्राप्त हो जाना ही मोक्ष को प्राप्त हो जाना है।
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| प्रतीक्षा के प्रति सहज भाव हो जाना ही हमें सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति बनाता है। असल में प्रतीक्षा के प्रति निर्लिप्त हो जाना ही सकारात्मक सोच है। जो कि निश्चित रूप से कठिन है।
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| </poem>
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| | 13 दिसम्बर, 2013
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| <poem>
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| बहादुर उसे माना गया, जिसने अपने डर को प्रदर्शित नहीं होने दिया
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| सहिष्णु वह माना गया, जिसने अपनी ईर्ष्या को प्रदर्शित नहीं होने दिया
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| विनम्र वह माना गया, जिसने अपने अहंकार को प्रदर्शित नहीं होने दिया
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| सुन्दर वह माना गया, जिसने अपनी कुरूपता को प्रदर्शित नहीं होने दिया
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| चरित्रवान वह माना गया, जिसने अपने दुश्वरित्र को प्रदर्शित नहीं होने दिया
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| ईमानदार वह माना गया, जिसने अपनी बेईमानी को प्रदर्शित नहीं होने दिया
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| बुद्धिमान वह माना गया, जिसने अपनी मूर्खताओं को प्रदर्शित नहीं होने दिया
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| सफल शिक्षक वह माना गया, जिसने अपने अज्ञान को प्रदर्शित नहीं होने दिया
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| अहिंसक और दयालु वह माना गया, जिसने अपनी हिंसा को प्रदर्शित नहीं होने दिया
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| सफल प्रेमी/प्रेमिका, वे माने गए जिन्होंने अपनी पारस्परिक घृणा को प्रदर्शित नहीं होने दिया
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| किन्तु महान केवल वह ही है जिसने अपने 'उन कारणों' के पीछे छुपी कमज़ोरियों को भी नहीं छुपाया
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| 'जिन कारणों' के चलते वह प्रशंसनीय और सफल हुआ।
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| </poem>
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| | 13 दिसम्बर, 2013
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| मुझे गर्व है कि मैं, चौधरी दिगम्बर सिंह जी का बेटा हूँ। आज 10 दिसम्बर को उनकी पुन्य तिथि है। पिताजी स्वतंत्रता सेनानी थे। 4 बार लोकसभा सांसद रहे (तीन बार मथुरा, एक बार एटा) और 25 वर्ष लगातार, मथुरा ज़ि. सहकारी बैंक के अध्यक्ष रहे । सादगी का जीवन जीते थे। कभी कोई नशा नहीं किया और आजीवन पूर्ण स्वस्थ रहे। राजनैतिक प्रतिद्वंदी ही उनके मित्र भी होते थे। उनकी व्यक्तिगत निकटता पं. नेहरू, लोहिया जी, शास्त्री जी, पंत जी, इंदिरा जी, चौ. चरण सिंह जी, अटल जी, चंद्रशेखर जी आदि से रही।
| |
| सभी विचारधारा के लोग उनकी मित्रता की सूची में थे चाहे वह जनसंघी हो या मार्क्सवादी। सभी धर्मों का अध्ययन उन्होंने किया था। जातिवाद से उनका कोई लेना-देना नहीं था। वे बेहद 'हैंडसम' थे। उन्हें पहली संसद 1952 में मिस्टर पार्लियामेन्ट का ख़िताब भी मिला। संसद में दिए उनके भाषणों को राजस्थान में सहकारी शिक्षा के पाठ्यक्रम में लिया गया। उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि जब वे संसद में बोलते थे तो अपनी पार्टी के लिए नहीं बल्कि निष्पक्ष रूप से किसानों के हित में बोलते थे। इस कारण उनको केन्द्रीय मंत्रिमंडल में लेने से नेता सकुचाते थे कि पता नहीं कब सरकार के ही ख़िलाफ़ बोल दें। �उन्होंने ज़मींदार परिवार से होने के बावजूद अपना खेत उन्हीं को दान कर दिए थे जो उन्हें जोत रहे थे। सांसद काल में उन्होंने राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रीवीपर्स के ख़िलाफ़ वोट दिया था जब कि उन्हें उस वक्त लाखों रुपये का लालच दिया गया था। उन जैसा नेता और इंसान होना अब मुमकिन नहीं है। वे मेरे हीरो थे, गुरु थे और मित्र थे। आज भारतकोश के कारण विश्व भर में मुझे पहचान और सम्मान मिल रहा है किंतु मेरी सबसे बड़ी पहचान यही है कि मैं उनका बेटा हूँ।
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| </poem>
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| | 10 दिसम्बर, 2013
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| <poem>
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| फाँसी ग़रीब का जन्मसिद्ध अधिकार है क्या ?
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| कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में शायद ही कोई भी अरबपति हो। शायद एक भी नहीं...
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| ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति फाँसी के योग्य अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध कारित करने वाले की है।
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| </poem>
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| | 6 दिसम्बर, 2013
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| <poem>
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| 'सन्यास' ही एकमात्र
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| ऐसा 'पलायन' है
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| जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है
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| | 24 नवम्बर, 2013
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| <poem>
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| भारत का सर्वोच्च पद्म सम्मान, भारतरत्न से सम्मानित व्यक्ति, सम्मान देने वालों को यदि मूर्ख बता रहा है तो और कुछ हो न हो यह तो निर्विवाद ही है कि जिस व्यक्ति को यह सम्मान दिया गया है वह इस सम्मान से बड़ा है। निश्चित ही वैज्ञानिक श्री राव की गंभीर प्रतिष्ठा को किसी पद्म पुरस्कार की अपेक्षा नहीं है।
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| कोई भी सम्मान या पुरस्कार यदि किसी कुपात्र को दिया जाता है तो उन व्यक्तियों की प्रतिष्ठा को बहुत धक्का पहुँचता है जिनको कि वास्तविक योग्यता के आधार पर पुरस्कृत या सम्मानित किया जाता है। यहाँ उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है पर सभी जानते हैं कि भारतरत्न मिलने वालों की सूची में कुछ नाम ऐसे भी हैं जो इस सम्मान के योग्य नहीं हैं।
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| सचिन तेन्दुलकर नि:संदेह हमारे देश की शान हैं। उनका क्रिकेट के मैदान में आना ही हमें स्फूर्ति से भर देता था। सचिन को सम्मानित या पुरस्कृत करना हम सभी के लिए अपार हर्ष का विषय है लेकिन हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद जी से सचिन की तुलना करना व्यर्थ है। मेजर ध्यानचंद को भारतरत्न सम्मान से सम्मानित किया जाना तो एक बहुत ही सामान्य सी बात है। सही मायने में तो मेजर ध्यानचंद की प्रतिमा, संसद, राजपथ, इंडियागेट आदि पर लगनी चाहिए।
| |
| द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सारी दुनिया हिटलर से दहशत खाती थी। जर्मनी में किसी की हिम्मत नहीं थी कि हिटलर का प्रस्ताव ठुकरा दे। जर्मनी में, हिटलर के सामने, हिटलर के प्रस्ताव को ठुकराने वाले मेजर ध्यानचंद ही थे?
| |
| ध्यानचंद जी भारत के एकमात्र खिलाड़ी हैं जो भारत में ही नहीं पूरे विश्व में, अपने जीवनकाल में ही किंवदन्ती ('मिथ') बन गए थे। यह सौभाग्य अभी तक किसी खिलाड़ी को प्राप्त नहीं है।
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| </poem>
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| | 24 नवम्बर, 2013
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| <poem>
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| मेरे एक पूर्व कथन पर पाठकों ने प्रश्न किए हैं कि कैसे पता चले किसी की नीयत का ?
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| मैंने लिखा था- "दोस्त का मूल्याँकन करना हो या जीवन साथी चुनना हो, तो... केवल और केवल उसकी 'नीयत' देखनी चाहिए। नीयत का स्थान सर्वोपरि है। बाक़ी सारी बातें तो महत्वहीन हैं। जैसे... रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि..."
| |
| मेरा उत्तर प्रस्तुत है:-
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| /) मेरा अभिप्राय केवल इतना था कि हम, रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि... के आधार पर ही चुनाव करते हैं। किसी को यदि चुन रहे हैं तो हमें उसकी नीयत को अनदेखा नहीं करना चाहिए। हम यह जानते हुए भी कि नीयत बुरी है, अनदेखा करते हैं जिसका कारण बहुत सीधा-सादा होता है। जब हम अपनी नीयत के बारे में सोचते हैं कि क्या हमारी नीयत अच्छी है? जो हम किसी की नीयत को बुरा समझें!
| |
| /) हम मित्र या जीवन साथी को चुनते या मूल्याँकन करते समय नीयत के अलावा कुछ और ही देखते हैं। नीयत देखने से तो हम बचते हैं क्योंकि हम स्वयं ही नीयत के कौन से अच्छे होते हैं जो उसकी नीयत देखें... वैसे भी दूसरे कारण अधिक रुचिकर और आकर्षक होते हैं। अक्सर सुनने में आता है "मुझे कोई भाई साब टाइप का पति नहीं चाहिए" या "मुझे कोई बहन जी टाइप की पत्नी नहीं चाहिए।"
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| /) सीधी सी बात है भई! अच्छी नीयत वाला लड़का तो 'भाई साब टाइप' ही होगा और अच्छी नीयत वाली लड़की भी 'बहन जी टाइप' ही होगी। (मुझे मालूम है कि मैं इन पंक्तियों को लिखकर, बहुतों को नाराज़ कर रहा हूँ...)। इन 'भाई साब' और 'बहन जी' को बड़ी मुश्किल से दोस्त और जीवन साथी मिलते हैं। लेकिन ये बहुत सुखी और आनंदित जीवन जीते हैं।
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| /) क्या ये सच नहीं है कि यदि हमें बिल्कुल अपनी नीयत जैसा ही कोई व्यक्ति मिल जाय तो हम ही सबसे पहले उससे दूर भागेंगे क्योंकि हम अपनी नीयत की अस्लियत जानते हैं। यही सोचकर हम समझौता कर लेते हैं कि चलो हमसे तो अच्छी नीयत का ही होगा। दूसरे की नज़र में हम कितने भी अच्छी नीयत वाले बनें लेकिन हमें काफ़ी हद तक अपना तो पता होता है।
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| /) जिस क्षण हमारे मन में यह प्रश्न आता है कि फ़लाँ व्यक्ति सत्यनिष्ठ है या नहीं ? समझ लीजिए कि उसके सत्यनिष्ठ होने की संभावना डावांडोल है। किसी ईमानदार व्यक्ति की ईमानदारी पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं होता। जिस पर प्रश्न चिन्ह हो वह नीयत का साफ़ नहीं।
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| ... लेकिन ज़रूरत क्या पड़ी दूसरे की नीयत जाँचने की ? यदि हमारी नीयत साफ़ है तो सामने वाले की नीयत कैसी भी हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है ? अक्सर दूसरे की नीयत पर शक़ करने का अर्थ ही यह है कि हमारी नीयत में खोट है। जब बात लेन-देन की हो तो वह व्यापार की भाषा है, दोस्ती या प्यार की नहीं।
| |
| /) और अंत में एक बात और... कि यह सरासर झूठ होता है कि हमें फ़लां की ख़राब नीयत का पता नहीं था। असल में हम जानते हुए भी अनदेखा करते हैं।
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| </poem>
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| | 17 नवम्बर, 2013
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| <poem>
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| यूँ तो बहुत से कारण हैं, जिनसे मनुष्य, जानवरों से भिन्न है- जैसे कि हँसना, अँगूठे का प्रयोग, सोचने की क्षमता आदि... लेकिन वह कुछ और ही है जिसने मनुष्य को हज़ारों वर्ष तक चले, दो-दो हिम युगों को सफलता पूर्वक सहन करने की क्षमता प्रदान की।
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| प्रकृति की यह देन है 'पसीना'।
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| मनुष्य, जानवरों को भोजन बनाने की चाह में जानवरों से ज़्यादा दूरी तक भाग पाता था। पसीना बहते रहने के कारण मनुष्य का शारीरिक तापमान नियंत्रित रहता था। जानवर पसीना न बहने के कारण बहुत अधिक दूरी तक भाग नहीं पाते थे। पसीना न बहने से उनके शरीर का बढ़ता तापमान उनको रुकने पर मजबूर कर देता था और उन्हें हर हाल में लम्बे समय के लिए रुक जाना होता था।
| |
| जानवरों में मुख्य रूप से घोड़ा एक ऐसा जानवर है जो पसीना बहाने में लगभग मनुष्य की तरह ही है।
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| इसलिए शिकार करने में, घोड़ा मनुष्य का साथी भी बना और वाहन भी।
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| </poem>
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| | [[चित्र:Manushya-aur-jaanvar-facebook-post.jpg|250px|center]]
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| | 13 नवम्बर, 2013
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| <poem>
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| जब बुद्धि थी तब अनुभव नहीं था अब अनुभव है तो बुद्धि नहीं है।
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| जब विचार थे तब शब्द नहीं थे, अब शब्द हैं तो विचार नहीं हैं।
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| जब भूख थी तब भोजन नहीं था अब भोजन है तो भूख नहीं है।
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| जब नींद थी तब बिस्तर नहीं था अब बिस्तर है तो नींद नहीं है।
| |
| जब दोस्त थे तो समझ नहीं थी अब समझ है तो दोस्त नहीं हैं।
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| जब सपने थे तब रास्ते नहीं थे अब रास्ते हैं तो सपने नहीं हैं।
| |
| जब मन था तो धन नहीं था अब धन है तो मन नहीं है।
| |
| जब उम्र थी तो प्रेम नहीं था अब प्रेम है तो उम्र नहीं है।
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| एक पुरानी कहावत भी है न कि-
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| जब दांत थे तो चने नहीं थे अब चने हैं तो दांत नहीं हैं।
| |
| और अंत में-
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| जब फ़ुर्सत थी तो फ़ेसबुक नहीं था अब फ़ेसबुक है तो...
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| </poem>
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| | 11 नवम्बर, 2013
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| <poem>
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| 'प्रेम' व्यक्ति से होता है और उसकी यथास्थिति में ही होता है
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| जबकि 'श्रद्धा' किसी की प्रतिष्ठा के प्रति होती है
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| जो कि प्रतिष्ठा का क्षय होने से समाप्त हो जाती है
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| इसीलिए प्रेम शाश्वत और सर्वश्रेष्ठ है
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| श्रद्धा क्षणभंगुर है
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| और निश्चित ही, प्रेम की भांति
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| परम पद प्राप्त नहीं कर सकती
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| इसलिए किसी व्यक्ति से या ईश्वर से 'प्रेम' करने वाले
| |
| सदैव तृप्त और मस्त रहते हैं
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| जबकि 'श्रद्धा' रखने वाले
| |
| सदैव सशंकित और असमंजस से घिरे हुए...
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| </poem>
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| | [[चित्र:Shraddha-facebook-post.jpg|250px|center]]
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| | 6 नवम्बर, 2013
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| <poem>
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| दोस्ती 'हो' जाती
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| और
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| दुश्मनी 'की' जाती है
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| </poem>
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| | [[चित्र:Dosti-dushmani-facebook-post.jpg|250px|center]]
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| | 6 नवम्बर, 2013
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| <poem>
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| अक्सर सुनने में आता है-
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| असफलता और विपरीत परिस्थिति उसी व्यक्ति को अधिक मिलती है, जिसमें इनका का सामना करने की क्षमता होती है।
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| इसका अर्थ क्या है? क्या ऐसा होने में भाग्य या नियति की कोई भूमिका है?
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| नहीं ऐसा नहीं है।
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| इसका कारण सीधा-सादा है-
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| बुद्धिमान, योग्य, प्रतिभावान, समर्थ और सक्षम व्यक्ति अधिकतर अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं। जिससे, असफलता और संघर्ष का सामना होना सामान्य सी प्रक्रिया है।
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| शेष तो "संतोषी सदा सुखी" मंत्र को अपनाकर सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं।
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| </poem>
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| | 6 नवम्बर, 2013
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| <poem>
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| मनुष्य को सभ्यता की शिक्षा दी जाती है क्योंकि समाज को मात्र 'सभ्य' लोग चाहिए।
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| वे 'भद्र' हैं या नहीं, इससे समाज को कोई लेना-देना नहीं है। जबकि भद्र होना ही सही मायने में इंसान होना है। 'सभ्य' होना आसान है लेकिन 'भद्र' होना मुश्किल है। हम अभ्यास से सभ्य हो सकते हैं भद्र तो विरले ही होते हैं।
| |
| सभ्य जन वे हैं जो समाज के सामने सभ्यता से पेश आते हैं, सधा और सीखा हुआ एक ऐसा व्यवहार करते हैं, जिससे यह मान लिया जाता है कि 'हाँ यह व्यक्ति सभ्य है'।
| |
| 'भद्र' वह है, जो एकान्त में भी सभ्य है, जो शक्तिशाली होने पर भी सभ्य है, जो आपातकाल में भी सभ्य है, जो अभाव में भी सभ्य है, जो भूख में भी सभ्य है, जो कृपा करते हुए भी सभ्य है, जो अपमानित होने पर भी सभ्य है, जो विद्वान होने पर भी सभ्य है, जो निरक्षर होने पर भी सभ्य है...
| |
| जिस तरह धर्म और जाति किसी दूसरे की उपस्थिति में ही अस्तित्व में आते हैं उसी तरह सभ्यता भी किसी दूसरे के आने पर ही जन्म लेती है। भद्रता के लिए किसी की उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है।
| |
| अभद्रता वह स्थिति है जहाँ हम सोचते हैं- 'यहाँ कौन देख रहा है मुझे... ऐसा करने में क्या बुराई है?' जैसे ही हम ऐसा सोचते हैं, वैसे ही हम अभद्र हो जाते हैं।
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| </poem>
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| | 5 नवम्बर, 2013
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| <poem>
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| प्रत्येक धर्म के अनुयायी, ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।
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| यह भी चाहते हैं कि ईश्वर उनकी प्रार्थना सुने तो फिर
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| ईश्वर से प्रार्थना भी ऐसी ही करनी चाहिए जिसे कि ईश्वर सुने...
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| राज़ की बात ये है कि केवल एक ही प्रार्थना ऐसी है जिसे वह सुनता है-
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| "हे ईश्वर ! सभी का कल्याण कर।"
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| इसके अलावा बहुत सी प्रार्थनाएँ ऐसी हैं जो ईश्वर ने कभी नहीं सुनी और न ही कभी सुनेगा, जैसे कि-
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| "हे ईश्वर मेरा भला कर।" या फिर "उसका बुरा कर" आदि-आदि।
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| कारण सीधा सा है-
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| ईश्वर पक्षपाती नहीं हो सकता और जो पक्षपाती है वह ईश्वर कैसे हो सकता है?
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| </poem>
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| | [[चित्र:Dharm-ke-anuyayi-facebook-post.jpg|250px|center]]
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| | 5 नवम्बर, 2013
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| कल श्री सुनील आचार्य (Sunil Acharya) मुझसे मिलने मेरे घर आए थे। वे स्टेट बैंक में कार्यरत हैं और मेरे स्कूल के समय से परिचित हैं। स्कूल में वे मेरे सीनियर थे, शायद 3-4 वर्ष।
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| वे उस सादगी और सहजता से जीवन जीते हैं जिसे प्राप्त करने के लिए मेरे जैसे कूढ़-मगज तरसते रहते हैं। हमने लगभग 2 घन्टे बातें की। पारिवारिक बातों के अलावा हमने कुछ और चर्चा भी कीं, जैसे कि दर्शन आदि। मैंने अपनी विद्वता झाड़ने की आदत पर काफ़ी लगाम रखते हुए उनसे बातें करने का प्रयास किया। वे सभी बातें बहुत सावधानी से सुनते रहे। यह उनका गुण है।
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| मैं एक वर्ष तक गाँव में पेड़ के नीचे झोंपड़ी बनाकर और मात्र दो वस्त्र पहन कर रहा लेकिन फिर भी अपने भीतर के ज़मीदार, सामंत और सूडो-विद्वान का पूरी तरह वध करने में असफल हुआ... (ये अभी भी, कभी-कभी मेरे पास आकर, मुझे डराते रहते हैं)।
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| सुनील जी से मेरी मुलाक़ात लम्बे-लम्बे अंतरालों के बाद होती है, जैसे कि 5 वर्ष 10 वर्ष। उनसे मिलकर हमेशा अच्छा लगता है। मेरे जैसे लोग न जाने कितने पूर्वाग्रह, कुण्ठा, और हीन-श्रेष्ठ भावनाओं से ग्रसित रहते हैं और सुनील जी जैसे लोग सहजता की प्रेरणा बने रहते हैं।
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| मेरे मित्रों की सूची में पूर्व प्रधानमंत्रियों का नाम भी है लेकिन मुझे जिन लोगों का मित्र होने में गर्व है उनमें से एक सुनील जी हैं। कुछ और नाम अगर लूँ तो मेरे बचपन के सहपाठी, आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi) का नाम तुरंत ही मन में कौंधता है...ख़ैर...
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| सुनील जी तो अपना स्कूटर स्टार्ट करके चले गए...
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| लेकिन, हे आदित्य चौधरी ! तुम कब सुधरोगे, कब ???
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| | 31 अक्तूबर, 2013
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| विकसित होने के क्रम में हमने बहुत कुछ पाया पर कुछ खोया भी...
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| ज्ञानी बढ़ रहे हैं, विचारक कम हो रहे हैं
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| व्यापारी बढ़ रहे हैं, उद्यमी कम हो रहे हैं
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| कलाविज्ञ बढ़ रहे हैं, कलाकार कम हो रहे हैं
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| परिवार बढ़ रहे हैं, समाज कम हो रहे हैं
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| विज्ञ बढ़ रहे हैं, वैज्ञानिक कम हो रहे हैं
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| सम्प्रदायी बढ़ रहे हैं, धार्मिक कम हो रहे हैं
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| मनुष्य बढ़ रहे हैं, इंसान कम हो रहे हैं
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| | 29 अक्तूबर, 2013
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| महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइस्टाइन ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही थी-
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| "आगे आने वाले समय में, प्रत्येक विषय विज्ञान हो जाएगा"
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| याने इसे यूँ कहें कि प्रत्येक विषय के प्रश्न का उत्तर, विज्ञान ही देगा और प्रत्येक विषय के अध्ययन का माध्यम भी विज्ञान ही होगा । हम किसी भी विषय का अध्ययन करेंगे तो विज्ञान तक जा पहुँचेंगे ।
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| बात तो बहुत सही कही उन्होंने लेकिन हुआ कुछ और ही...
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| आज के समय में प्रत्येक विषय 'व्यापार' हो गया है
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| | 26 अक्तूबर, 2013
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| आग का उपयोग सीखने के बाद मनुष्य ने, नर-नारी के बीच, कार्य की प्रकृति के अनुसार बँटवारा किया। नर ने भोजन की तलाश को चुना तो नारी ने भोजन पकाना, संग्रहीत करना और निवास को सुविधाजनक बनाना। नारी के, नौ महीने बच्चे को गर्भ में रखने के दायित्व के चलते, यह बँटवारा एक सामान्य नियम बनने लगा।
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| इस बँटवारे से नर-नारी में कार्य और दायित्व की आवश्यकता के अनुसार शारीरिक भेद भी विकसित होने लगे। नर, बलिष्ठ तो नारी सुन्दर और कोमल होने लगी। इससे पहले अन्य प्रजातियों की तरह ही नर-नारी भी समान रूप से सक्रिय होने के कारण शारीरिक रूप से भी लगभग समान शक्तिशाली ही थे और भोजन की तलाश में व्यस्त रहते थे। बँटवारे से दोनों के पास अतिरिक्त समय भी होने लगा। जिसका उपयोग नर-नारी ने अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार किया।
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| बच्चों को बोलना सिखाने के कारण नारी की भाषा सीखने-सिखाने क्षमता नर से अधिक हो गयी। नर के अधिक घूमने फिरने के कारण वह गणित, दर्शन और विज्ञान में उलझ गया।
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| यह एक मुख्य कारण था जिसके कारण मनुष्य अन्य प्रजातियों के मुक़ाबले में बेहतर और सभ्य हो सका जबकि अन्य प्रजातियाँ आज भी नर-मादा में कार्य का बँटवारा करने में अक्षम हैं और विकास क्रम की धारा से वंचित।
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| | 26 अक्तूबर, 2013
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| सुख की तलाश न होती तो कोई ईश्वर की तलाश भी न करता
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| सुख की तलाश में ही ईश्वर की स्तुति की जाती है यदि सभी सुखी होते तो भला ईश्वर को कौन याद करता,
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| लगता है कि इसीलिए ईश्वर ने सबको सुखी नहीं बनाया कि कम से कम उसे याद तो करें।
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| | 24 अक्तूबर, 2013
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| समय-समय पर समाज सुधारक, विभिन्न धर्मों के कुछ ऐसे संस्कारों का विरोध करते रहे हैं, जो संस्कार, नारी और समाज के प्रति किसी भी अर्थ में उचित नहीं थे जैसे कि सती प्रथा। ये विरोध, समाज में बहुत से अच्छे परिवर्तनों का कारण भी रहे हैं।
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| मैंने अक्सर यह अनुभव किया है कि आधुनिकता, नारी मुक्ति, नर-नारी समान अधिकार, मानवता वाद आदि जैसे मसलों के चलते कुछ अति उत्साही जन, विभिन्न धर्मों से संबंधित कुछ संस्कारों का विरोध करते रहते हैं जिसकी कोई आवश्यकता शायद नहीं है। ऐसा ही एक संस्कार करवा चौथ है।
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| अनेक अन्य धर्मों की तरह ही हिन्दू धर्म में भी बहुत से संस्कार काफ़ी हद तक वैज्ञानिक और समाज हितैषी हैं।
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| कुछ समय पहले तक भारत में सम्मिलित परिवारों का प्रचलन था (वैसे कुछ आज-कल भी है)। किसी भी परिवार में घर की बहू को विशेष महत्व देने के लिए ही यह करवा चौथ का व्रत प्रचलन में आया। कम से कम वर्ष में एक दिन पूरे परिवार का ध्यान बहू पर ही होता है, कि उसने भोजन किया या नहीं या पानी पिया या नहीं कि उसके पास ज़ेवर-नये कपड़े हैं या नहीं...
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| आज कल तो नये जोड़ो में पति-पत्नी दोनों ही व्रत रखने लगे हैं। यदि गृहस्थ आश्रम के महत्व को हम मानते हैं और विवाह को आवश्यक, तो इससे जुड़े उत्सव को मनाने में बुराई क्या है। हाँ इतना ज़रूर करें कि अपनी समझ से इन त्योहारों में कुछ अच्छे फेर-बदल कर लें जैसे कि हमारे घर में 'अहोई अष्टमी' का व्रत बेटे के लिए ही नहीं बल्कि बेटी के लिए भी रखा जाता है। पता नहीं कि आप क्या सोचते हैं लेकिन मुझे तो करवा चौथ प्रेम का त्योहार लगता है, नारी ग़ुलामी का तो कहीं से नहीं...
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| ...ये बंधन तो प्यार का बंधन है...
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| | 23 अक्तूबर, 2013
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| महान दार्शनिक श्री जे. कृष्णमूर्ति से किसी ने पूछा "मैं अपने माता पिता को अहसास दिलाना चाहता हूँ कि
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| मैं उनका सम्मान करता हूँ, मुझे क्या करना चाहिए ?"
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| कृष्णमूर्ति ने उत्तर दिया "सिर्फ़ इतना करें कि आप अपने माता पिता का अपमान करना बंद कर दें,
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| वे हमेशा अपने आप को सम्मानित ही महसूस करेंगे।"
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| | 20 अक्तूबर, 2013
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| जब प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक, कुमार गंधर्व जी से कहा
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| गया कि शास्त्रीय संगीत के सुनने वाले धीरे-धीरे कम
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| होते जा रहे हैं लेकिन आपके गायन की लगन में कोई
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| कमी नहीं आ रही, ऐसा कैसे ? तो उन्होंने उत्तर दिया
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| कि मैं तो अंतिम बचे हुए एक श्रोता के लिए भी ऐसे ही
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| गाऊँगा क्योंकि एक अंतिम श्रोता तो अवश्य ही रहेगा
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| और वही मेरा सबसे पहला श्रोता भी है, मेरा ईश्वर
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| | 19 अक्तूबर, 2013
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| जिसका आदर हम दिल से करते हैं , गुरु केवल वही होता है । जिसका हम आदर नहीं करते , वह गुरु कैसे हो सकता है ? इसलिए जगह-जगह यह लिखना कि-
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| "गुरु का आदर करना चाहिए"
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| कितना अर्थहीन है !
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| ठीक इसी तरह ‘ममतामयी’ मां अथवा ‘आज्ञाकारी’ पुत्र आदि विशेषण युक्त शब्दों का भी कोई अर्थ नहीं है। यदि मां होगी तो ममतामयी तो होगी ही अन्यथा कुमाता होगी, पुत्र तो वही है जो आज्ञाकारी हो, अन्यथा तो कुपुत्र ही होगा।
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| | 17 अक्तूबर, 2013
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| यदि आप ‘कुछ अंतराल’ के लिए ख़ुद को व्यस्त बताते हैं, तब तो ठीक है...
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| यदि आप, अपनी अनवरत व्यस्तता के संबंध में एक व्यापक घोषणा करते रहते हैं
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| कि आप व्यस्त हैं तो आज के समय में आप उपहास के ही पात्र हैं क्योंकि आज के समय में तो सभी व्यस्त हैं। व्यस्तता तो अब अप्रासंगिक हो गई है।
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| | 6 अक्तूबर, 2013
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| कुछ दिन पहले गाँधी जी के लेख को लेकर कुछ मुद्दे उठे थे। आज प्रसंग वश मैं इस संबंध में कुछ बातें बता रहा हूँ।...
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| कुछ लोग गाँधी जी को ही प्रत्येक नकारात्मक घटना के लिए दोषी ठहरा रहे हैं। मैं कुछ बातें बिन्दुवार लिख रहा हूँ।
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| /).गाँधी जी देश के बँटवारे के ख़िलाफ़ थे। उन्होंने तो यहाँ तक कहा था कि चाहे मेरे शरीर के दो टुकड़े हो जाएँ पर देश के दो टुकड़े नहीं होंगे। इसके लिए उन्होंने चाहा कि जिन्हा को ही प्रधानमंत्री बना दिया जाय। इसके लिए नेहरू जी ने अपना विरोध, पटेल जी के मुख से कहलवाया। पटेल जी ने गाँधी जी को राज़ी किया। यदि गाँधी जी अपनी बात पर अड़े रहते तब भी कांग्रेसी नेता उनकी एक न चलने देते। बहुत कम ही पाठक इस तथ्य को जानते होंगे कि भारत के धार्मिक आधार पर बँटवारे के मुद्दे पर जिन्हा के साथ सारवकर जी भी सहमत थे।
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| /). जब जिन्हा एक वर्ष में ही चल बसे तब नेहरू जी ने कहा कि मुझे क्या पता था कि ऐसा होगा वरना मैं तो जिन्हा को ही प्रधानमंत्री बनने देता।
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| /). गाँधी जी की अहिंसा में कहीं कोई कायरता जैसी बात नहीं थी। कश्मीर के लिए उन्होंने कहा कि कश्मीर को बचाने के लिए भारत का बच्चा बच्चा क़ुर्बान हो जाए तब भी मुझे दु:ख नहीं होगा। जबकि पटेल जी ने कहा कश्मीर को पाकिस्तान को देदो। (दोनों ही अपनी-अपनी जगह ठीक थे)।
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| /). नेताजी सुभाष कांग्रेस में पट्टाभि सीता रमैया (गाँधी जी के उम्मीदवार) को हराकर अध्यक्ष बने। उनकी और गाँधी जी के वैचारिक और नीतिगत मतभेद मूल रूप से थे। गाँधी जी ने सीताभिरमैया की हार को अपनी हार बताया। नेताजी ने इस्तीफ़ा दे दिया। अपना राजनैतिक अस्तित्व बचाने के लिए तो भगवान राम ने सीता को वनवास दे दिया वे सीता के साथ वन नहीं गए जबकि सीता महल के आराम को छोड़कर राम के साथ वनवास गई थी।
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| /). काँग्रेस में, जिन्हा को बढ़ाने का काम भी गाँधी जी ने किया क्यों कि सर सैयद, अंग्रेज़ों के समर्थन में थे। अंंग्रेज़ों के समर्थक तो गोखले जी भी थे जो कि गाँधी जी के गुरु भी थे। गोपाल कृष्ण गोखले अँग्रेज़ो को विश्व की सर्वश्रेष्ठ जाति मानते थे किन्तु गाँधी जी ने विश्व मंच पर अंग्रेज़ों की इस छवि को धूल-धूसरित कर दिया।
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| /). किसी भी देश के किसी भी हिंसक आंदोलन को वैश्विक पटल पर समर्थन मिलना मुश्किल होता है। यह बात गाँधी जी अच्छी तरह समझ गए थे। इसीलिए अहिंसक आंदोलन चलाए गये। जैसे कि थॉरो से प्रेरित सविनय अवज्ञा। 1857 में क्राँति की जो असफल कोशिश हुई उसका प्रभाव गाँधी जी पर और सभी तत्कालीन विचारकों पर गहरा था। हमारे हिंसक आंदोलन इतनी ताक़त नहीं रखते थे कि क्रांति हो जाती।
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| /). चौरी-चौरा काण्ड सन 1922 में हुआ। चौरी-चौरा का समय इंग्लॅन्ड में जॉर्ज पंचम के शासन का समय था, उस समय इंग्लॅन्ड में लिबरल पार्टी का प्रधानमंत्री डेविड लॉयड जॉर्ज था और वॉयसरॉय था लॉर्ड रीडिंग (रफ़स आइज़क)। प्रधानमंत्री जॉर्ज भारत और कनाडा को आज़ाद करने के पक्ष में था लेकिन जॉर्ज पंचम तो पक्के तौर पर भारत में अंग्रेज़ी शासन की नींव को जमा रहा था। इसीलिए राजधानी कोलकाता से दिल्ली कर दी गई थी। वॉयसरॉय कोई प्रभावशाली व्यक्ति नहीं था और प्रधानमंत्री को भी इंग्लॅन्ड में विरोधों का सामना करना पड़ रहा था। यह क्रांति के लिए सही समय नहीं था।
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| /). द्वितीय विश्व युद्ध को कन्जरवेटिव पार्टी के प्रधानमंत्री चर्चिल ने जीत तो लिया लेकिन चुनाव हार गया। इसके बाद लेबर पार्टी का एटिली प्रधानमंत्री बना। यह भारत के लिए बहुत अच्छा रहा। एटिली भारत की आज़ादी के पक्ष में था। यह सही समय था।
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| /). सन् बयालीस में जब अंग्रज़ों के ख़िलाफ़ गाँधी जी ने भारत छोड़ो और करो या मरो आंदोलन शुरू किया तो हिन्दू महासभा, मार्क्सवादी पार्टी और जिन्हा की मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया। जिन्हा ने अंग्रेज़ों से समझौता करके फ़ौज में बड़े पैमाने पर मुस्लिमों की भर्ती कराई। भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध के कई अलग-अलग कारण थे जिनमें से कोई भी देश हित में नहीं था। जैसे कि छोटी बड़ी रियासतों के राजा अपने राज्य के जाने के भय से इस आंदोलन का विरोध किया।
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| /). आज जब हम 70-80 साल बाद, स्वतंत्रता आंदोलन को सामान्य रूप से देखते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि उस समय सभी नेता केवल देश हित में लगे थे लेकिन जब बहुत गहराई से जानने का प्रयास करते हैं तो ये जानकर बड़ा सदमा लगता है कि भारत की आज़ादी से अधिक रुचि इस बात में थी कि आज़ाद भारत के शासन में हमारा हिस्सा क्या होगा। जैसे आज़ादी न हुई कोई लूटी हुई जायदाद हो गयी।
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| | 2 अक्तूबर, 2013
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