"जनतंत्र की जाति -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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कुछ वर्ष पहले की बात है कि एक राजनैतिक दल ने कुछ दलितों का धर्म परिवर्तन कराने का अभियान चलाया। इन दलितों ने हिंदू धर्म को त्याग कर एक अन्य धर्म अपना लिया था। यह तय किया गया कि दलितों के पैर धोए जाएंगे और उन्हें यह भरोसा दिलाया जाएगा कि ज़ात-पात का पक्षपात अब हिंन्दू धर्म में नहीं होता। सोचा यह गया कि दलित तो संकोच के कारण उच्च जाति के लोगों से पैर नहीं धुलवाएंगे इसलिए सचमुच पैर धोने की नौबत नहीं आएगी। हुआ कुछ अलग ही- सभी दलितों ने अपने पैर धुलवाने के लिए आगे कर दिए और जनेऊ पहने हुए लोगों ने जब यह कार्यक्रम संपन्न किया तो उसके बाद वहाँ से लगभग भागकर स्नान करने गए और तीन दिन बाद गंगा स्नान करके स्वयं को शुद्ध करने के लिए हरिद्वार चले गए। जिन्होंने अपना धर्म बदला था उनमें से बहुत से साल भर के भीतर ही वापस उसी धर्म में चले गए। सीधा-साधा सा सवाल है कि कौन सा धर्म हमें अधिक सुविधा दे रहा है और कौन से धर्म को निबाहने में हमें परेशानी हो रही है। निश्चित रूप से ही आर्थिक और सामाजिक रूप से अति पिछड़ों की यह समस्या शाश्वत है। | कुछ वर्ष पहले की बात है कि एक राजनैतिक दल ने कुछ दलितों का धर्म परिवर्तन कराने का अभियान चलाया। इन दलितों ने हिंदू धर्म को त्याग कर एक अन्य धर्म अपना लिया था। यह तय किया गया कि दलितों के पैर धोए जाएंगे और उन्हें यह भरोसा दिलाया जाएगा कि ज़ात-पात का पक्षपात अब हिंन्दू धर्म में नहीं होता। सोचा यह गया कि दलित तो संकोच के कारण उच्च जाति के लोगों से पैर नहीं धुलवाएंगे इसलिए सचमुच पैर धोने की नौबत नहीं आएगी। हुआ कुछ अलग ही- सभी दलितों ने अपने पैर धुलवाने के लिए आगे कर दिए और जनेऊ पहने हुए लोगों ने जब यह कार्यक्रम संपन्न किया तो उसके बाद वहाँ से लगभग भागकर स्नान करने गए और तीन दिन बाद गंगा स्नान करके स्वयं को शुद्ध करने के लिए हरिद्वार चले गए। जिन्होंने अपना धर्म बदला था उनमें से बहुत से साल भर के भीतर ही वापस उसी धर्म में चले गए। सीधा-साधा सा सवाल है कि कौन सा धर्म हमें अधिक सुविधा दे रहा है और कौन से धर्म को निबाहने में हमें परेशानी हो रही है। निश्चित रूप से ही आर्थिक और सामाजिक रूप से अति पिछड़ों की यह समस्या शाश्वत है। | ||
एक और संस्मरण- | एक और संस्मरण- | ||
एक प्रथम श्रेणी के उच्च पद पर आसीन सरकारी अधिकारी को सपरिवार मेरे यहाँ खाने पर आना था। जब वह नहीं | एक प्रथम श्रेणी के उच्च पद पर आसीन सरकारी अधिकारी को सपरिवार मेरे यहाँ खाने पर आना था। जब वह नहीं आये तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। सामान्यत: मैं किसी अधिकारी को इस प्रकार निमंत्रित नहीं करता लेकिन वह मुझे बड़ा भाई मानते थे तो मैंने उन्हें बुलाया। पूछने पर उन्होंने न आने का जो कारण मुझे बताया तो मुझे बहुत हैरानी और दुख: हुआ। उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी ने कहा कि शायद भाई साब को इस बात का पता नहीं है कि हम वाल्मीकि हैं, उन्हें हमारी जाति का पता नहीं है, इसीलिए खाने पर बुलाया है, हमें नहीं जाना चाहिए। ज़रा सोचिए कि पति उच्च अधिकारी और वह स्वयं डॉक्टर इसके बाद भी उसका ऐसा संकोच... मुझे लगा कि हे ईश्वर यह धरती फट जाए और मैं इसमें समा जाऊँ। इसके बाद मेरी ज़िद पर हमने एक थाली में ही खाना खाया। | ||
राजतंत्र में वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ है और जनतंत्र में इसका अंतिम संस्कार होना चाहिए था पर हुआ नहीं... | राजतंत्र में वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ है और जनतंत्र में इसका अंतिम संस्कार होना चाहिए था पर हुआ नहीं... | ||
मेरी समझ में नहीं आता कि जिस सवर्ण जाति के कर्मचारी को दलित अधिकारी के जूठे बर्तन उठाने में संकोच नहीं होता उसी कर्मचारी को किसी दलित मज़दूर को एक गिलास पानी देने में क्यों संकोच होने लगता है। | मेरी समझ में नहीं आता कि जिस सवर्ण जाति के कर्मचारी को दलित अधिकारी के जूठे बर्तन उठाने में संकोच नहीं होता उसी कर्मचारी को किसी दलित मज़दूर को एक गिलास पानी देने में क्यों संकोच होने लगता है। |
13:10, 3 जून 2014 का अवतरण
जनतंत्र की जाति -आदित्य चौधरी खेल भावना से राजनीति करना एक स्वस्थ मस्तिष्क के विवेक पूर्ण होने की पहचान है लेकिन राजनीति को खेल समझना मस्तिष्क की अपरिपक्वता और विवेक हीनता का द्योतक है। राजनीति को खेल समझने वाला नेता मतदाता को खिलौना और लोकतंत्र को जुआ खेलने की मेज़ समझता है। |
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