"बस एक चान्स -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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इस बात का पता 'चंद लोगों' को ही था कि छोटे पहलवान दुनिया का सबसे अक़्लमंद लड़का है। इन 'चंद लोगों' में थे- एक तो छोटे पहलवान ख़ुद और बाक़ी उसके माता-पिता और परिवारी जन। बाहर की दुनिया से छोटे का ज़्यादा सम्पर्क हुआ नहीं था। इसी दौर में उसे यह भी महसूस होने लगा कि वह दुनिया का महानतम | इस बात का पता 'चंद लोगों' को ही था कि छोटे पहलवान दुनिया का सबसे अक़्लमंद लड़का है। इन 'चंद लोगों' में थे- एक तो छोटे पहलवान ख़ुद और बाक़ी उसके माता-पिता और परिवारी जन। बाहर की दुनिया से छोटे का ज़्यादा सम्पर्क हुआ नहीं था। इसी दौर में उसे यह भी महसूस होने लगा कि वह दुनिया का महानतम विद्वान् भी है। अपनी पहली किताब के छपते ही एक ज़बर्दस्त हंगामा होने का ख़याल लिए वो अपना वक़्त क्रिकेट और फ़ुटबॉल खेलने में बिताता था। बारातों में बच्चों को पैसे लूटते देखकर वो सोचता था कि उसकी किताब की भी ऐसी ही लूट मचेगी एक दिन, बस ज़रा लिखने भर की देर है। | ||
बड़ों ने नसीहत दी और कहा- | बड़ों ने नसीहत दी और कहा- | ||
"कुछ पढ़ भी लो... दो-चार किताबें... कहानियाँ... उपन्यास..." | "कुछ पढ़ भी लो... दो-चार किताबें... कहानियाँ... उपन्यास..." | ||
पंक्ति 15: | पंक्ति 15: | ||
एक बड़े ने पूछा- | एक बड़े ने पूछा- | ||
"अब क्या चलता है मन में ? छोटे !" | "अब क्या चलता है मन में ? छोटे !" | ||
"बात ये है कि पूरी तरह से ऐसा नहीं है कि दुनिया में हम ही सबसे ज़्यादा अक़्लमन्द हैं... | "बात ये है कि पूरी तरह से ऐसा नहीं है कि दुनिया में हम ही सबसे ज़्यादा अक़्लमन्द हैं... विद्वान् लोग और भी हैं... बहुत बढ़िया लिखते हैं... इन किताबों को पढ़ने के बाद लगा कि हम जो अपने मन में सोच रहे थे कि साहित्य की दुनिया के हम रुस्तमे-ज़मा गामा पहलवान हैं, असल में ऐसा नहीं है।" | ||
"कुछ किताबें और पढ़ लो... जैसे इतिहास और दर्शन पर... चाहो तो धर्मों के बारे में भी... " | "कुछ किताबें और पढ़ लो... जैसे इतिहास और दर्शन पर... चाहो तो धर्मों के बारे में भी... " | ||
इस बार ज़रा ज़्यादा लम्बा अन्तराल हो गया... चेहरे पर हल्की-हल्की मूछें भी शोभायमान थीं। | इस बार ज़रा ज़्यादा लम्बा अन्तराल हो गया... चेहरे पर हल्की-हल्की मूछें भी शोभायमान थीं। | ||
दूसरे बड़े ने पूछा- | दूसरे बड़े ने पूछा- | ||
"क्यों छोटे ! कितनी किताबें पढ़ चुके हो तुम... और अब क्या चलता है मन में ?" | "क्यों छोटे ! कितनी किताबें पढ़ चुके हो तुम... और अब क्या चलता है मन में ?" | ||
"बात ये है कि किताब तो अब चालीस-पचास पढ़ चुके हैं... लेकिन एक बात समझ में नहीं आ रही कि जितना ज़्यादा पढ़ते हैं उतना ही लगता है कि अभी तो कुछ भी नहीं पढ़ा... ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने से तो हमें ये महसूस होना चाहिए कि हम ज़्यादा अक़्लमंद हैं और | "बात ये है कि किताब तो अब चालीस-पचास पढ़ चुके हैं... लेकिन एक बात समझ में नहीं आ रही कि जितना ज़्यादा पढ़ते हैं उतना ही लगता है कि अभी तो कुछ भी नहीं पढ़ा... ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने से तो हमें ये महसूस होना चाहिए कि हम ज़्यादा अक़्लमंद हैं और विद्वान् हैं... उल्टा ही हो रहा है ?... हमको लगता है जैसे हम इस दुनिया के बहुत साधारण से हिस्से ही हैं, कोई विलक्षण प्रतिभा नहीं हैं..." | ||
"कोई बात नहीं, अब एक साल-भर और पढ़ लो फिर मत पढ़ना... इस बार विदेशी लेखकों और विचारकों को पढ़ो !" | "कोई बात नहीं, अब एक साल-भर और पढ़ लो फिर मत पढ़ना... इस बार विदेशी लेखकों और विचारकों को पढ़ो !" | ||
फिर एक साल बाद... | फिर एक साल बाद... | ||
पंक्ति 27: | पंक्ति 27: | ||
"बोलने को बचा क्या है जो बोलें... हमको अपनी बुद्धि पर तरस आता है... कहने को तो हम अब सैकड़ों किताब पढ़ चुके हैं... और एक-एक विषय पर घंटों व्याख्यान देने की क्षमता भी हमारे अंदर पैदा हो गई है... लेकिन अब हमको लगता है कि हमने तो अभी बिल्कुल ही कुछ भी नहीं पढ़ा है... जैसे एक नये-नये विद्यार्थी की हालत होती है, वही है हमारी अब... हमें पता चल चुका है कि हम एक ऐसे व्यक्ति हैं जिसमें न बुद्धि है और न कोई प्रतिभा... ना ही कोई कला...अब हमारी उम्र मतदान करने लायक़ हो गई है और सबसे पहला 'मत' हमने ख़ुद को ही दिया है और वो ये कि हम 'निरे अज्ञानी' हैं" | "बोलने को बचा क्या है जो बोलें... हमको अपनी बुद्धि पर तरस आता है... कहने को तो हम अब सैकड़ों किताब पढ़ चुके हैं... और एक-एक विषय पर घंटों व्याख्यान देने की क्षमता भी हमारे अंदर पैदा हो गई है... लेकिन अब हमको लगता है कि हमने तो अभी बिल्कुल ही कुछ भी नहीं पढ़ा है... जैसे एक नये-नये विद्यार्थी की हालत होती है, वही है हमारी अब... हमें पता चल चुका है कि हम एक ऐसे व्यक्ति हैं जिसमें न बुद्धि है और न कोई प्रतिभा... ना ही कोई कला...अब हमारी उम्र मतदान करने लायक़ हो गई है और सबसे पहला 'मत' हमने ख़ुद को ही दिया है और वो ये कि हम 'निरे अज्ञानी' हैं" | ||
यह सुनकर बड़े मुस्कुरा गए और बोले- | यह सुनकर बड़े मुस्कुरा गए और बोले- | ||
"बस बस बस... छोटे अब तुम बहुत बड़े हो गए हो... अब तुमको पढ़ने की नहीं बल्कि लिखने की ज़रूरत है... तुम विलक्षण बुद्धि वाले उद्भट | "बस बस बस... छोटे अब तुम बहुत बड़े हो गए हो... अब तुमको पढ़ने की नहीं बल्कि लिखने की ज़रूरत है... तुम विलक्षण बुद्धि वाले उद्भट विद्वान् हो... तुम्हारी यह विनम्रता ही विद्वत्ता का सबसे बड़ा प्रमाण है... जाओ लिखो... दुनिया को तुम्हारे जैसे ही विद्वानों की ज़रूरत है" | ||
आइए छोटे पहलवान को लिखता छोड़ कर ज़रा ये सोचें कि क्या ऐसा हम सब के साथ भी नहीं घटता ? क्या हमारे अंदर भी कभी न कभी एक छोटे पहलवान नहीं रहा होगा... या आज भी है ? | आइए छोटे पहलवान को लिखता छोड़ कर ज़रा ये सोचें कि क्या ऐसा हम सब के साथ भी नहीं घटता ? क्या हमारे अंदर भी कभी न कभी एक छोटे पहलवान नहीं रहा होगा... या आज भी है ? | ||
आइंस्टाइन ने कहा था "गणित तो मेरी भी समझ में नहीं आता।" सारी दुनिया को भौतिकी और गणित पढ़ाने वाले वैज्ञानिक का यह कथन अपने आप में एक पूरा ग्रंथ है जो कि सब कुछ कह रहा है। सब कुछ जान लेना या सब कुछ सीख लेना जैसी कोई स्थिति कभी नहीं होती। जब हम किसी विधा को सीखने के लिए आगे बढ़ते हैं तभी हमें उसकी सही जानकारी होती है। अधिकतर लोग बहुत आसानी से ख़ुद को 'विशेष प्रतिभाशाली' मान बैठते हैं लेकिन जब विद्वानों के बीच जाते हैं तभी असली परीक्षा होती है। | आइंस्टाइन ने कहा था "गणित तो मेरी भी समझ में नहीं आता।" सारी दुनिया को भौतिकी और गणित पढ़ाने वाले वैज्ञानिक का यह कथन अपने आप में एक पूरा ग्रंथ है जो कि सब कुछ कह रहा है। सब कुछ जान लेना या सब कुछ सीख लेना जैसी कोई स्थिति कभी नहीं होती। जब हम किसी विधा को सीखने के लिए आगे बढ़ते हैं तभी हमें उसकी सही जानकारी होती है। अधिकतर लोग बहुत आसानी से ख़ुद को 'विशेष प्रतिभाशाली' मान बैठते हैं लेकिन जब विद्वानों के बीच जाते हैं तभी असली परीक्षा होती है। |
14:36, 6 जुलाई 2017 का अवतरण
बस एक चान्स -आदित्य चौधरी इस बात का पता 'चंद लोगों' को ही था कि छोटे पहलवान दुनिया का सबसे अक़्लमंद लड़का है। इन 'चंद लोगों' में थे- एक तो छोटे पहलवान ख़ुद और बाक़ी उसके माता-पिता और परिवारी जन। बाहर की दुनिया से छोटे का ज़्यादा सम्पर्क हुआ नहीं था। इसी दौर में उसे यह भी महसूस होने लगा कि वह दुनिया का महानतम विद्वान् भी है। अपनी पहली किताब के छपते ही एक ज़बर्दस्त हंगामा होने का ख़याल लिए वो अपना वक़्त क्रिकेट और फ़ुटबॉल खेलने में बिताता था। बारातों में बच्चों को पैसे लूटते देखकर वो सोचता था कि उसकी किताब की भी ऐसी ही लूट मचेगी एक दिन, बस ज़रा लिखने भर की देर है।
सारी दुनिया में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो हमें बतलाते हैं कि हर एक सृजन के पीछे कड़ी मेहनत छुपी है। इसलिए ध्यान रखिए कि आलोचना करना आसान है लेकिन सृजन करना मुश्किल है, बहुत मुश्किल। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ