"कल आज और कल -आदित्य चौधरी": अवतरणों में अंतर
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खोज और रचना में क्या अंतर है? जो पहले से उपस्थित हो लेकिन उसकी जानकारी न हो और उसकी जानकारी हमें किसी साधन से हो जाय तो उसे 'खोज' कहते हैं। जो पहले से उपस्थित नहीं है लेकिन पहले से उपस्थित साधनों द्वारा जिसे बनाया जाय उसे 'रचना' कहते हैं। समय कोई मोटरकार या रेलगाड़ी नहीं है जो किसी रेखा में या वर्तुल में चलेगा। समय की कोई खोज नहीं की गई बल्कि इसे तो मनुष्य ने अपनी सुविधानुसार परिभाषित किया है जो [[अल्बर्ट आइंसटाइन|आइंसटाइन]] के 'सापेक्षता के सिद्धांत' पर आधारित है। एक तरह से कह सकते हैं कि विज्ञान के बहुत से प्रश्नों के हल के लिए, समय को बनाया गया है रचा गया है। ब्रह्माण्ड में समय, आकार और गति की परिभाषा करने के लिए जो नियम और वैज्ञानिक-तथ्य इस्तेमाल किए गए हैं, वे निश्चित रूप से अपूर्ण ही हैं लेकिन फिर भी हम समय को परिभाषित तो करते ही हैं। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि समय की परिभाषा विज्ञान के पास न होने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि हम धर्म ग्रंथों को खंगालना प्रारम्भ कर दें और किसी अव्यावहारिक से नतीजे से संतुष्ट हो कर बैठ जाएँ। | खोज और रचना में क्या अंतर है? जो पहले से उपस्थित हो लेकिन उसकी जानकारी न हो और उसकी जानकारी हमें किसी साधन से हो जाय तो उसे 'खोज' कहते हैं। जो पहले से उपस्थित नहीं है लेकिन पहले से उपस्थित साधनों द्वारा जिसे बनाया जाय उसे 'रचना' कहते हैं। समय कोई मोटरकार या रेलगाड़ी नहीं है जो किसी रेखा में या वर्तुल में चलेगा। समय की कोई खोज नहीं की गई बल्कि इसे तो मनुष्य ने अपनी सुविधानुसार परिभाषित किया है जो [[अल्बर्ट आइंसटाइन|आइंसटाइन]] के 'सापेक्षता के सिद्धांत' पर आधारित है। एक तरह से कह सकते हैं कि विज्ञान के बहुत से प्रश्नों के हल के लिए, समय को बनाया गया है रचा गया है। ब्रह्माण्ड में समय, आकार और गति की परिभाषा करने के लिए जो नियम और वैज्ञानिक-तथ्य इस्तेमाल किए गए हैं, वे निश्चित रूप से अपूर्ण ही हैं लेकिन फिर भी हम समय को परिभाषित तो करते ही हैं। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि समय की परिभाषा विज्ञान के पास न होने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि हम धर्म ग्रंथों को खंगालना प्रारम्भ कर दें और किसी अव्यावहारिक से नतीजे से संतुष्ट हो कर बैठ जाएँ। | ||
धर्म-ग्रंथों में युगों का चक्रीय सिद्धांत समय की वर्तुल चाल वाली सोच पर आधारित है। मनुष्य का बार-बार जन्म लेना और विभिन्न योनियों को भोगना भी इसी सिद्धांत को दर्शाता है। जो युग बीत गया वह फिर आएगा, अगले जन्म में कर्मों का फल मिलेगा, ईश्वर के अंश वाले अवतार फिर होंगे आदि। ये बातें किसी | धर्म-ग्रंथों में युगों का चक्रीय सिद्धांत समय की वर्तुल चाल वाली सोच पर आधारित है। मनुष्य का बार-बार जन्म लेना और विभिन्न योनियों को भोगना भी इसी सिद्धांत को दर्शाता है। जो युग बीत गया वह फिर आएगा, अगले जन्म में कर्मों का फल मिलेगा, ईश्वर के अंश वाले अवतार फिर होंगे आदि। ये बातें किसी संन्यासी के लिए तो ठीक हैं लेकिन प्रगति और विकास के पथ पर जाने वाले नागरिकों और देश के लिए इनका कोई अर्थ नहीं है। | ||
अपने देश, संस्कृति, धर्म, जाति की सकारात्मक विकासवादी संरचना पर तो सभी को गर्व करना चाहिए लेकिन आने वाले कल को फलित-ज्योतिष के पन्नों में और गुज़रे हुए कल को धार्मिक ग्रंथों में तलाशने के बजाय गुज़रे हुए कल को इतिहास के पन्नों में और आने वाले कल को विज्ञान की पुस्तकों में तलाशना ही [[भारत]] को और भारतवासियों को प्रगति पथ पर ले जाएगा। | अपने देश, संस्कृति, धर्म, जाति की सकारात्मक विकासवादी संरचना पर तो सभी को गर्व करना चाहिए लेकिन आने वाले कल को फलित-ज्योतिष के पन्नों में और गुज़रे हुए कल को धार्मिक ग्रंथों में तलाशने के बजाय गुज़रे हुए कल को इतिहास के पन्नों में और आने वाले कल को विज्ञान की पुस्तकों में तलाशना ही [[भारत]] को और भारतवासियों को प्रगति पथ पर ले जाएगा। | ||
11:44, 3 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
कल आज और कल -आदित्य चौधरी हमारी भाषा हिन्दी में गुज़रे हुए कल और आने वाले कल के लिए एक ही शब्द है 'कल'। ऐसा क्यों है और क्या यह सही है या फिर इसके पीछे हमारी कौन सी सोच या मानसिकता काम करती है, इस पर चर्चा करते हैं लेकिन पहले नारद जी क्या पूछ रहे हैं वह भी देखें-
इन पंक्तियों में छिपे हुए अर्थ बड़े ही अन्यायपूर्ण हैं। बिचारे कौओं की क्या ग़लती है जो उन्हें कलियुग से पहले के युगों में दाना-तिनका ही खाने को मिलता था और हंस में ऐसी क्या ख़ास बात थी कि वह बेशक़ीमती मोती ही खाता था। क्या इसका उत्तर है, गोरा रंग और सुंदरता, जो हंस में थी और कौओं में नहीं। इसे तो नस्ली पक्षपात की मानसिकता ही कहेंगे। ईश्वर ने तो सबको समान ही बनाया है। बाढ़ आती है तो गोरे को भी डुबोती है और काले को भी, सुंदर को भी और असुंदर को भी... तो फिर ये भेद-भाव भी ईश्वर ने तो नहीं किया होगा। ये तो मनुष्य के दिमाग़ की उपज है।
ऊपर की तालिका में हिन्दी के अलावा सभी भाषाओं के पास गुज़रे और आने वाले दोनों कल के लिए अलग-अलग शब्द हैं। जिसका अर्थ है कि जो कल बीत गया वह उस कल से भिन्न है जो कि अगले दिन आएगा। समय को सीधे रेखा की तरह मान लिया गया। जो कि विकास और प्रगतिवादी दृष्टिकोण हुआ। लेकिन हिन्दी की सोच भिन्न जा रही है और यह संदेश देती है कि समय सीधे रेखा में गतिमान नहीं है, यह वर्तुलाकार पथ पर गतिमान है। जो घट गया वही फिर घटेगा और जो घटेगा वह पहले भी घट चुका है। इसलिए आने वाला कल वही है जो बीता हुआ कल था। यह सोच हमें किस तरह प्रगति और विकास की ओर ले जाएगी ? कहना मुश्किल है। खोज और रचना में क्या अंतर है? जो पहले से उपस्थित हो लेकिन उसकी जानकारी न हो और उसकी जानकारी हमें किसी साधन से हो जाय तो उसे 'खोज' कहते हैं। जो पहले से उपस्थित नहीं है लेकिन पहले से उपस्थित साधनों द्वारा जिसे बनाया जाय उसे 'रचना' कहते हैं। समय कोई मोटरकार या रेलगाड़ी नहीं है जो किसी रेखा में या वर्तुल में चलेगा। समय की कोई खोज नहीं की गई बल्कि इसे तो मनुष्य ने अपनी सुविधानुसार परिभाषित किया है जो आइंसटाइन के 'सापेक्षता के सिद्धांत' पर आधारित है। एक तरह से कह सकते हैं कि विज्ञान के बहुत से प्रश्नों के हल के लिए, समय को बनाया गया है रचा गया है। ब्रह्माण्ड में समय, आकार और गति की परिभाषा करने के लिए जो नियम और वैज्ञानिक-तथ्य इस्तेमाल किए गए हैं, वे निश्चित रूप से अपूर्ण ही हैं लेकिन फिर भी हम समय को परिभाषित तो करते ही हैं। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि समय की परिभाषा विज्ञान के पास न होने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि हम धर्म ग्रंथों को खंगालना प्रारम्भ कर दें और किसी अव्यावहारिक से नतीजे से संतुष्ट हो कर बैठ जाएँ। |
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