"दीक्षा डागर": अवतरणों में अंतर
No edit summary |
No edit summary |
||
पंक्ति 49: | पंक्ति 49: | ||
[[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]][[Category:मैदानी स्पर्धा]][[Category:खेलकूद कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]] | [[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]][[Category:मैदानी स्पर्धा]][[Category:खेलकूद कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ |
07:57, 20 जनवरी 2021 के समय का अवतरण
दीक्षा डागर
| |
पूरा नाम | दीक्षा डागर |
जन्म | 14 दिसंबर, 2000 |
जन्म भूमि | झज्जर, हरियाणा |
अभिभावक | पिता- कर्नल नरेंद्र डागर |
कर्म भूमि | भारत |
खेल-क्षेत्र | गोल्फ़ |
प्रसिद्धि | महिला यूरोपीय टूर का खिताब जीतने वाली दूसरी भारतीय महिला गोल्फ़र |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | दीक्षा डागर ने कॅरियर का सबसे पहला मैच 12 साल की उम्र में इंडियन गोल्फ़़ यूनियन नेशनल सब जूनियर सर्किट में खेला था। देश के बाहर उनका पहला टूर्नामेंट सिंगापुर में हुआ। |
दीक्षा डागर (अंग्रेज़ी: Diksha Dagar, जन्म- 14 दिसंबर, 2000, झज्जर, हरियाणा) भारत उभरती हुई गोल्फ़ खिलाड़ी हैं। वे जन्म से ही सुन नहीं सकतीं। सुनने के लिए उन्हें अपने कानों में एक मशीन लगानी पड़ती है जिसकी मदद से वह 60 से 70 फ़ीसदी सुन पाती हैं; लेकिन उनकी ये शारीरिक अक्षमता उन्हें जीतने और आगे बढ़ने से रोक नहीं सकी। दीक्षा डागर ने इनवेस्टेक दक्षिण अफ्रीकी ओपन खिताब जीतकर इतिहास रचा। वह महिला यूरोपीय टूर का खिताब जीतने वाली दूसरी भारतीय महिला गोल्फ़र हैं। उनसे पहले अदिति अशोक ने 2016 में महिला यूरोपीय टूर का खिताब जीता था।
परिचय
तीन साल तक नंबर वन एमेच्योर गोल्फ़़र रह चुकीं दीक्षा डागर से देश को बहुत उम्मीद है। उनकी तामाम उपलब्धियां उनकी काबीलियत की तस्दीक करती हैं। दीक्षा जन्म से ही सुन नहीं सकतीं। सुनने के लिए उन्हें अपने कानों में एक मशीन लगानी पड़ती है जिसकी मदद से वो 60 से 70 फ़ीसदी सुन पाती हैं लेकिन उनकी ये शारीरिक अक्षमता उन्हें जीतने और आगे बढ़ने से रोक नहीं सकी। दीक्षा के बड़े भाई योगेश भी सुनने में अक्षम हैं, इसलिए जन्म से पहले ही दीक्षा को लेकर भी माता-पिता को आशंका थी। दीक्षा के जन्म से पहले उन्होंने तमाम मन्नतें मांगी। लेकिन दीक्षा के जन्म के तीन साल बाद हुए टेस्ट में वे सुनने में अक्षम पाई गईं।
दीक्षा डागर के पिता कर्नल नरेंद्र डागर के अनुसार, "ये जानकर पूरा परिवार बहुत परेशान हो गया था। लेकिन दीक्षा की मां और मैंने फ़ैसला किया कि इस समस्या को बच्चों की कमज़ोरी नहीं बनने देंगे"। कर्नल नरेंद्र डागर ख़ुद भी गोल्फ़ खिलाड़ी रहे चुके हैं। सेना में रहते हुए उन्होंने इस खेल के गुर सीखे। अपने पिता को खेलता देख दीक्षा को भी गोल्फ़़ से प्यार हो गया। छह साल की उम्र में उन्होंने पहली बार गोल्फ़़ स्टिक उठाई। उनके पिता ने ही उन्हें प्रशिक्षण दिया।
इस बीच ऑपरेशन की मदद से दीक्षा का कोक्लियर इम्पलांट हुआ। इस ऑपरेशन के ज़रिए उनके कान में एक मशीन लगा दी गई जिसकी मदद से दीक्षा अब 60 से 70 फ़ीसदी सुन सकती थीं। दीक्षा ने स्पीच थेरेपी की मदद से बोलना सीखा।
कॅरियर
दीक्षा डागर ने अपनी शारीरिक चुनौती को कभी अपनी कमी नहीं बनने दिया। उन्होंने हमेशा शारीरिक रूप से सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाई की और गोल्फ़़ भी सामान्य लोगों के साथ खेला। कॅरियर का सबसे पहला मैच उन्होंने 12 साल की उम्र में इंडियन गोल्फ़़ यूनियन नेशनल सब जूनियर सर्किट में खेला था।
इसके बाद उनके कॅरियर की गाड़ी फ़ुल स्पीड में दौड़ी। गोल्फ़़ में शानदार प्रदर्शन के दम पर वो अंडर-15 और अंडर-18 स्तर पर नंबर वन एमेच्योर गोल्फ़़र बन गईं। लेड़ीज़ एमेच्योर गोल्फ़़र की सूची में वो साल 2015 से लगातार पहले पायदान पर रही हैं।
घरेलू टूर्नामेंट के अलावा दीक्षा डागर ने कई अंतराष्ट्रीय टूर्नामेंट भी खेले। देश के बाहर उनका पहला टूर्नामेंट सिंगापुर में हुआ। यहां लेडीज़ एमेच्योर ओपन गोल्फ़़ प्रतियोगिता में भारतीय महिला गोल्फ़ टीम ने जीत हासिल की थी और एकल मुकाबले में भी दीक्षा अव्वल रहीं। किसी अंतरराष्ट्रीय गोल्फ़़ मैदान पर भारतीय महिला गोल्फ़ टीम की यह पहली जीत थी। दो मुकाबलों को छोड़ अब तक के सारे मुकाबले दीक्षा ने शारीरिक रूप से सामान्य लोगों के साथ खेले हैं। तुर्की में खेले गए डेफ़ ओलंपिक में उन्होंने देश को रजत पदक दिलाया था। दीक्षा डागर 'यूएस प्रोफ़ेशनल ओपन गोल्फ़़र्स प्ले ऑफ़' के फ़ाइनल तक पहुंचीं। मलेशिया लेडीज़ ओपन में वो तीसरे नंबर पर रहीं, जबकि टीम के साथ उन्होंने पहला स्थान हासिल किया।
गोल्फ़ से प्यार
दीक्षा डागर टेनिस, बैडमिंटन और तैराकी जैसे खेल भी खेलती हैं। लेकिन गोल्फ़़ से उन्हें ख़ास प्यार है। यही वजह है कि उन्होंने कॅरियर के तौर पर भी गोल्फ़़ को ही चुना। वो गोल्फ़़ से अपने प्यार को कुछ यूं बयां करती हैं, "गोल्फ़़ शांति का खेल है और दिमाग़ से खेला जाता है। इसलिए मुझे ये बेहद पसंद है। दूर-दूर तक फ़ैले गोल्फ़़ के हरे मैदान मुझे बहुत भाते हैं। जब गेम में ज़्यादा चैलेंज होता है तो मुझे और ज़्यादा मज़ा आता है।"
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख