सातवाहन साम्राज्य

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मौर्य साम्राज्य की शक्ति के क्षीण होने पर प्रतिष्ठान (गोदावरी नदी के तट पर स्थित पैठन) को राजधानी बनाकर सातवाहन वंश ने अपनी शक्ति का उत्कर्ष प्रारम्भ किया था। इस वंश का प्रथम राजा सिमुक (श्रीमुख) था, जिसने 210 ई. पू. के लगभग अपने स्वतंत्र राज्य की नींव डाली थी। तीसरी सदी ई. पू. के अन्तिम चरण में प्रारम्भ होकर सातवाहनों का यह स्वतंत्र राज्य चार सदी के लगभग तक क़ायम रहा। भारत के इतिहास में लगभग अन्य कोई राजवंश इतने दीर्घकाल तक अबाधित रूप से शासन नहीं कर सका। इस सुदीर्घ समय में सातवाहन राजाओं ने न केवल दक्षिणापथ में स्थायी रूप से शासन किया, अपितु उत्तरापथ पर आक्रमण कर कुछ समय के लिए मगध को भी अपने अधीन कर लिया। यही कारण है, कि पौराणिक अनुश्रुति में काण्व वंश के पश्चात आन्ध्र वंश के शासन का उल्लेख किया गया है। सातवाहन वंश के अनेक प्रतापी सम्राटों ने विदेशी शक आक्रान्ताओं के विरुद्ध भी अनुपम सफलता प्राप्त की। दक्षिणापथ के इन राजाओं का वृत्तान्त न केवल उनके सिक्कों और शिलालेखों से जाना जाता है, अपितु अनेक ऐसे साहित्यिक ग्रंथ भी उपलब्ध हैं, जिनसे इस राजवंश के कतिपय राजाओं के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं।

उद्गम

इसका केन्द्र बिन्दु महाराष्ट्र में प्रतिष्ठान नामक स्थान था। इस राज्य को आंध्र सातवाहन राज्य भी कहा जाता है। जिसकी वजह से यह माना जाता है कि कदाचित इनका उदगम आंध्र प्रदेश से हुआ था, जहाँ से वे गोदावरी नदी के तट के साथ साथ पश्चिम की ओर बढ़े और मौर्य साम्राज्य के ह्रास का लाभ उठाते हुए स्वयं को वहाँ का शक्तिशाली बना लिया। किन्तु एक अन्य मत के अनुसार वे प्रारम्भ में पश्चिम दक्षिण के वासी थे तथा धीरे धीरे उन्होंने अपना प्रदेश पूर्वी तट तक विस्तृत कर लिया। अतः कालान्तर में उन्हें आंध्र कहा जाने लगा। सातवाहनों का प्राचीनतम अभिलेख पश्चिमी दक्षिण से प्राप्त हुआ, अतः यह मत भी उचित हो सकता है। सातवाहन वंश के शासकों को दक्षिणाधिपति कहा जाता है। 'दक्षिणापथ' शब्द का अभिप्राय सर्वदा एक ही भौगोलिक क्षेत्र से नहीं होता। कभी कभी इसका अर्थ विंध्य के दक्षिण का समग्र प्रदेश होता है, किन्तु अधिकतर इसका अभिप्राय वर्तमान महाराष्ट्र एवं इसके निकटवर्ती प्रदेशों से है। सातवाहन वंश के प्रारम्भिक शासकों के समय में दक्षिणापथ से सम्भवतः यही अर्थ ग्रहण किया जाता था। इस राजवंश के प्रारम्भिक शासकों के अभिलेख उत्तरी महाराष्ट्र में नासिक और नानाघाट में प्राप्त हुए हैं।

इतिहास

सातवाहन भारत का एक राजवंश था। जिसने केन्द्रीय दक्षिण भारत पर शासन किया। भारतीय परिवार, जो पुराणों (प्राचीन धार्मिक तथा किंवदंतियों का साहित्य) पर आधारित कुछ व्याख्याओं के अनुसार, आंध्र जाति (जनजाति) का था और दक्षिणापथ अर्थात दक्षिणी क्षेत्र में साम्राज्य की स्थापना करने वाला यह पहला दक्कनी वंश था। सातवाहन वंश के संस्थापक विभुक ने 60 ई.पू. से 37 ई.पू. तक राज्य किया। उसके बाद उसका भाई कृष्ण और फिर कृष्ण का पुत्र सातकर्णी प्रथम गद्दी पर बैठा। इसी के शासनकाल में सातवाहन वंश को सबसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। वह, खारवेल का समकालीन था। उसने गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठानगर को अपनी राजधानी बनाया। इस वंश में कुल 27 शासक हुए। ये हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। साथ ही इन्होंने बौद्ध और जैन विहारों को भी सहायता प्रदान की। यह मौर्य वंश के पतन के बाद शक्तिशाली हुआ 8 वीं सदी ईसा पूर्व में इनका उल्लेख मिलता है । अशोक की मृत्यु (सन् 232 ईसा पूर्व) के बाद सातवाहनों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। पौराणिक प्रमाणों के आधार पर सातवाहन वंश की उत्पति पहली शताब्दी ई.पू. के उत्तर काल में बताई जाती है, लेकिन कुछ विद्वान इस वंश को तीसरी शताब्दी ई.पू का भी बताते हैं। आरंभ में सातवाहन वंश का शासन पश्चिमी दक्कन के कुछ हिस्सों तक ही सीमित था। नानाघाट, नासिक, कार्ले और कन्हेरी की गुफ़ाओं में मिले अभिलेख आरंभिक शासकों सिमुक, कृष्णा और शतकर्णी 1 के स्मृति चिह्न हैं।


युद्ध

आरंभिक सातवाहन राज्य के समय से ही पश्चिमी तट के बंदरगाहों, जो उस काल में भारत-रोम व्यापार के कारण फल-फूल रहे थे, तक पहुँच और पश्चिमी क्षत्रपों के राज्य में लगे होने के कारण इन दो भारतीय राज्यों में युद्धों का सिलसिला लगभग लगतार चलता रहा। इस संघर्ष के पहले चरण में क्षत्रप नाहपण द्वारा नासिक और पश्चिमी दक्कन के अन्य इलाकों पर हमले से पता चलता है। इस वंश के महानतम शासक गौतमीपुत्र शतकर्णी (शासनकाल, लगभग 106-130 ई.) ने सातवाहनों की शक्ति को पुनर्जीवित किया। उन्होंने काफ़ी बड़े इलाके पर विजय प्राप्त की, जो पश्चिमोत्तर में राजस्थान से दक्षिण-पूर्व में आंध्र तक और पश्चिम में गुजरात से पूर्व में कलिंग तक फैला हुआ था। 150 ई. से पहले किसी समय क्षत्रपों ने इनमें से अधिकांश क्षेत्र सातवाहनों से वापस छिन लिए और उन्हें दो बार पराजित किया।

अभिलेख और सिक्के

अभिलेखों में जिन शासकों का उल्लेख है, सातवाहन के नाम से है। पुराणों में उन्हें आंध्रभृत्य कहकर भी सम्बोधित किया गया है। अतः कुछ विद्वानों ने इससे अर्थ निकाला कि वे आंध्र जो कभी किसी अन्य शक्ति के भृत्य अथवा सेवक थे। अन्य विद्वान इसी की व्याख्या 'आंध्रों के भृत्य' करते हैं अर्थात सातवाहन शासक पहले आंध्रवंशीय राजाओं के भृत्य थे। पुराणों के प्रमाण के अनुसार आंध्रों के उदय की तिथि लगभग ई. पू. 30 कही जा सकती है। प्रथम सातवाहन शासक सिमुक था। उसे शुंग एवं काण्व शक्ति का नायक कहा गया है और उसका शासनकाल ई. पू. प्रथम शताब्दी का तृतीय चरण कहा जाता है। उत्तरवर्त्ती शासकों का तिथिक्रम उनके पश्चिमी भारत के शक क्षत्रपों के साथ सम्बन्ध के आधार पर काफ़ी सन्तोषजनक ढंग से निश्चित किया गया है।

गौतमीपुत्र के बेटे वशिष्ठपुत्र पुलुमावि (शासनकाल, लगभग 130-159 ई.) ने पश्चिम से शासन किया। उनकी प्रवृत्ति पूर्व और पूर्वोत्तर में विस्तार करने की प्रतीत होती है। वशिष्ठपुत्र पुलुमावि के अभिलेख और सिक्के आंध्र में भी पाए गए हैं और शिवश्री शतकर्णी (शासनकाल, लगभग 159-166 ई.) की जानकारी कृष्णा तथा गोदावरी ज़िलों में पाए गए सिक्कों से मिलती है। श्री यज्ञ शतकर्णी (शासनकाल, लगभग 17 4-203 ई.) के क्षेत्र के सिक्के कृष्ण और गोदावरी ज़िलों, मध्य प्रदेश के चंदा ज़िले, बरार, उत्तरी और सौराष्ट्र में भी पाए गए हैं।

अंतिम शासक

श्री यज्ञ सातवाहन वंश के इतिहास में अंतिम महत्त्वपूर्ण शासक थे। उन्होंने क्षत्रपों पर विजय प्राप्त की, लेकिन उनके उत्तराधिकारी, जिनके बारे में अधिकांश जानकारी पौराणिक वंशावलियों और सिक्कों से मिलती है, ने उनकी तुलना में सीमित क्षेत्र पर ही शासन किया बाद की मुद्राओं के जारी होने के स्थानीय स्वरूप और उनके पाए जाने वाले स्थानों से सातवाहन वंश के बाद के विखंडन का पता चलता है। आंध्र क्षेत्र पहले इक्ष्वाकु वंश के हाथों में और फिर पल्लव वंश के पास चला गया। पश्चिमी दक्कन के विभिन्न क्षेत्रों में नई स्थानीय शक्तियों, जैसे चुटु, अभीर और कुरू का उदय हुआ। बरार क्षेत्र में चौथी शताब्दी के आरंभ में वाकाटक वंश अपराजेय राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा। इस काल तक सातवाहन साम्राज्य का पुर्णतः विखंडन हो चुका था।

ऐतिहासिक काल

चौथी-तीसरी शताब्दी ई.पू. में दक्कन में उत्तरी मौर्यों की उपलब्धियों के बावजूद सातवाहनों के शासनकाल में ही इस क्षेत्र का वास्तविक ऐतिहासिक काल आरंभ हुआ। हालांकि इस बात के स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं कि वहाँ कोई केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली आ चुकी थी, लेकिन पूरे साम्राज्य में एक व्यापक मुद्रा-प्रणाली लागू की गई थी। इस काल में भारत-रोमन व्यापक अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था। इससे आई भौतिक समृद्धि की झलक बौद्ध और ब्राह्मणवादी समुदायों को दिए गए उदार संरक्षण से मिलती है, जो तत्कालीन अभिलेखों में वर्णित है।

पुराणों के अनुसार

  • पुराणों के अनुसार सिमुक का उत्तराधिकारी उसका भाई कृष्ण था, जिसने 18 वर्ष तक राज्य किया।
  • अगला उत्तराधिकारी शातकर्णी था और इसका राज्यकाल भी 18 वर्ष का था।
  • क्षयरात वंश के शक क्षत्रपों ने सातवाहनों को पश्चिमी दक्कन से निष्कासित कर दिया।
  • शक क्षत्रप नहपान के जो सिक्के एवं अभिलेख नासिक प्रदेश के आसपास पाए गए हैं, वे प्रथम शताब्दी के अन्त अथवा दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ में इस क्षेत्र पर शक आधिपत्य प्रकट करते हैं, किन्तु सातवाहनों ने अपने महानतम शासक गौतमीपुत्र श्री शातकर्णी के नेतृत्व में पुनः अपनी प्रतिष्ठा स्थापित कर ली।
  • गौतमीपुत्र ने शकों, यवनों, पहलवों तथा क्षहरातों का नाश कर सातवाहन कुल के गौरव की पुनःस्थापना की। उसने नहपान को हराकर उसके चाँदी के सिक्कों पर अपना नाम अंकित कराया। नासिक ज़िले में जोगलथेम्बी में सिक्कों का ढेर मिला है। इस एक ढेर में चाँदी के ऐसे बहुत से सिक्के हैं जो नहपान ने चलाए थे और जो दुबारा गौतमीपुत्र की मुद्रा से अंकित हैं। शकों से उत्तरी महाराष्ट्र और कोंकण, नर्मदा की घाटी और सुराष्ट्र, मालवा और पश्चिमी राजपूताना छीन लिए। उसका राज्य सम्भवतः उत्तर में मालवा और दक्षिण में कनारा प्रदेश तक फैला हुआ था।
  • गौतमी वलश्री के नासिक अभिलेख में लिखा है कि उसके पुत्र के घोड़े तीन समुद्रों का पानी पीते थे। गौतमीपुत्र शातकर्णी से कुछ सिक्के भी आंध्र प्रदेश में मिले हैं। वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि अभिलेख ही सातवाहन राजाओं के अभिलेखों में सबसे प्राचीन है, किन्तु उनमें यह नहीं लिखा है कि इस प्रदेश को पुलुमावि ने जीतकर स्वयं सातवाहन साम्राज्य में मिलाया था। उक्त आधार पर कई विद्वानों का यह मत है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी ने ही आंध्र प्रदेश को जीतकर अपने राज्य में मिलाया।
  • गौतमीपुत्र के बाद उसका पुत्र वाशिष्ठीपुत्र श्री पुलुमावि राजा बना। उसके अभिलेख नासिक, कार्ले और अमरावती में मिले हैं। गौतमीपुत्र श्री शातकर्णी के बाद सातवाहन राजाओं का शकों के दूसरे वंश काटर्टमक से संघर्ष हुआ, जिसने वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि को पराजित करके सातवाहन साम्राज्य के अनेक प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। कन्हेरी अभिलेख के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि शिवश्री शातकर्णी (पुलुमावि का उत्तराधिकारी) ने महाक्षत्रप रुद्रदामा की पुत्री से विवाह किया। रुद्रदामा के गिरनार अभिलेख में भी लिखा है कि उक्त शक शासक ने दक्षिणापथपति शातकर्णी को दो बार पराजित किया था, किन्तु निकट सम्बन्धी होने के कारण उसका विनाश नहीं किया। रुद्रदामा की मृत्यु के बाद सातवाहन शासकों ने शक प्रदेशों पर सफलतापूर्वक आक्रमण किया एवं अपने कुछ खोए हुए प्रदेशों को पुनः जीत लिया। द्वितीय शताब्दी के अन्त में सातवाहन पश्चिम में काठियावाड़, कृष्णा डेल्टा और दक्षिण पूर्व में तमिलनाडु पर राज्य कर रहे थे। सातवाहन संस्कृत के मुख्य केन्द्र प्रतिष्ठान, गोवर्धन (आधुनिक नासिक) एवं वैजयन्ती (उत्तरी कनाड़ा) थे।
  • किन्तु तीसरी शताब्दी में उनकी शक्ति क्रमशः क्षीण होने लगी और स्थानीय शासक स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने लगे। आभीरों ने उनसे महाराष्ट्र छीन लिया। उत्तरी कनाड़ा ज़िला और मैसूर के भाग में कुन्तल और चुटु एवं उसके बाद कदंब शक्तिशाली हो गए। आंध्र प्रदेश में इक्ष्वाकुओं ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली। दक्षिण पूर्वी क्षेत्रों में पल्लवों ने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तथा छठी शताब्दी के मध्य तक एक महान शक्ति बन गए। विदर्भ में वाकाटकों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली।


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