"अरे, शंकर चौधरी ! ओ शंकर चौधरी !"
"अबे क्या है बे परसादी ! क्यों रैंक रहा है ?"
"ओ भैयाऽऽऽ ! तुम्हारे खेत में तो रास्ता बन गया है।" परसादी ने बताया
"कैसा रास्ता ? क्या मतलब ?" शंकर चौधरी ने पूछा
"अरेऽऽऽ! तुम्हारा खेत है ना सडक़ के किनारे वाला... तो जब आने-जाने वाले सड़क पर मुड़ते हैं तो चौराहे तक नहीं जाते, सीधे ही तुम्हारे खेत में होकर निकल जाते हैं... मतलब कि 'सॉट कट' मारके... तुम्हारे खेत की तो फसल खराब हुई जा रही है... बीच खेत में तिरछा रास्ता बन गया है... सब गेहूँ खराब हो रहे हैं और तुम्हें तास खेलने से फुर्सत नहीं है...?" परसादी ने उलाहना दिया।
"उनकी इतनी हिम्मत ! अपने बाप का खेत समझ रखा है क्या? मैं अभी जाकर देखता हूँ" शंकर को ताव आ गया
"शंकर भैया! एक बीड़ी के बंडल और माचिस के पैसे तो देदो ?" परसादी ने अपनी 'रिपोर्टिंग फ़ीस' तुरंत मांग ली।
शंकर अपने खेत की मेंड़ पर जाकर बैठ गया और खेत के बीच से होकर जाने वालों को रोकने लगा। लोगों को सबक़ सिखाने के लिए, उन्हें खेत में घुसने से पहले ही नहीं रोकता था बल्कि पहले तो राहगीर को आधे रास्ते तक चला जाने देता था फिर उसे आवाज़ देकर वापस बुलाता और कान पकड़वा कर उठक-बैठक करवाता और हिदायत देता-
"अब समझ में आया कि मेरे खेत में से होकर जाने का क्या मतलब है... खबरदार जो कभी मेरे खेत में पैर रखा तो हाँऽऽऽ । चल भाग..."
गाँव के लोग शंकर से डरते थे, इसलिए चुपचाप सज़ा भुगत कर और गालियाँ सुनकर चले जाते।
कुछ देर बाद शंकर ने देखा कि गाँव का नाई 'मदारी' उधर से जा रहा है। शंकर ने आवाज़ लगाई-
"मदारीऽऽऽओ मदारीऽऽऽ"
"आया सरकार! क्या खितमत करूँ चौधरी साब, बाल बनवाने हैं?"
"हाँ मेरे बाल बना दे। सफाचट्ट करदे मेरा सर। मुझे अब चांद गंजी रखनी है। वो कहते हैं ना कि-
मूंड मुडाए तीन गुन, सिर की मिट जाय खाज ।
खाने को लड्डू मिलें, लोग कहें महाराज ।।"
"जी सरकार!"
इतना कहकर मदारी, उस्तरे से, शंकर के बाल साफ़ करने लगा।
उस्तरे से सिर के बाल सफ़ाचट करने के लिए गाँवों में एक प्रचलित पद्धति है कि पहले तो सामने से आधे सिर के बाल साफ़ किए जाते हैं और बाद में पिछले सिर के। जब 'फ़र्स्ट हाफ़' चल रहा होता है तो बाल कटवाने वाले का सिर झुका रहता है।
ठीक वही हालत शंकर की थी। जब आगे के सिर के बाल साफ़ हो गये तो शंकर ने सिर उठाया तो देखता है कि एक घुड़सवार उसके खेत से होकर जा रहा है। उसे देखकर शंकर ने आवाज़ लगाई-
"अबे ओऽऽऽ! रुक जा! तेरे बाप का खेत है क्या? चल वापस लौट... जल्दी लौट...।
घुड़सवार आधे रास्ते तक पहुँच चुका था, उसने घोड़ा रोक कर आवाज़ देकर शंकर को बताया-
"चौधरी साहब ! मैं आधे खेत को तो पार कर चुका हूँ। अब यहीं से घोड़ा वापस लौटाउँगा तो घोड़े की वजह से आपकी फ़सल और ख़राब होगी, इससे अच्छा है कि मैं सीधा ही निकल जाऊँ, आगे से ध्यान रखूँगा और इधर से नहीं आऊँगा...?"
लेकिन शंकर को तो बात जमी नहीं और वो भाग कर घुड़सवार के पास पहुँचा और उसने 'तू ऐसे नहीं मानेगा' कहते हुए घुड़सवार का पैर पकड़ कर उसे घोड़े से गिराना चाहा, लेकिन घुड़सवार ने घोड़े पर बैठे-बैठे ही शंकर के सीने में एक ज़ोरदार लात मारी, जिससे शंकर गिर गया। इसके बाद घुड़सवार ने नीचे उतर कर शंकर के पैर हवा में करके उसका मुँह ज़मीन में रगड़ दिया और 'तू क्या समझता है ? तू ही चौधरी है... मैं भी तो चौधरी हूँ...' कहता हुआ चला गया।
शंकर के सिर और चेहरे पर खेत का सूखा रेत बुरी तरह से चिपक गया था, सिर सामने की तरफ़ से साफ़ था और पीछे के आधे सिर पर बाल थे। शंकर अपना मुँह साफ़ करता हुआ वापस मदारी के पास पहुँचा।
मदारी ने ऐसा व्यवहार किया जैसे कि उसने पूरा घटना क्रम देखा ही न हो।
"क्या बात हो गई चौधरी साब ! क्या कह रहा था वो?"
"अबे यार मदारी! ये तो कोई गँवार निकला..."शंकर धूल झाड़ते हुए बैठ गया और मदारी उसके बचे हुए बाल साफ़ करने लगा।
"ठीक कह रहे हैं सरकार, दुनिया गँवारों से भरी पड़ी है।..."
आइए वापस चलें-
एक पुरानी कहावत है कि
"आमदनी कम, ख़र्चा ज्यादा,
भागोगे...
ताक़त कम, ग़ुस्सा ज्यादा,
पिटोगे..."
जब तक शंकर से कमज़ोर लोग सज़ा पा रहे थे, तब तक तो सब कुछ ठीक था, जब शंकर की पिटाई हुई तो शंकर को वह आदमी अनपढ़ और असभ्य लगा। जिस तरह कि हम जंगली जानवरों को पिंजरे में रखकर अपना मनोरंजन करते हैं तो वह हमारी मनुष्यता है ! और वही जानवर जब अपनी भूख मिटाने या अपनी रक्षा करने के लिए हमारे ऊपर हमला करता है तो हमें वह पशुता लगती है! जबकि जानवरों को पिंजरे में रखना, जानवर की पशुता से अधिक पशुता है।
हम कितना भी छिपाएँ लेकिन हमारे अंदर अनेक रूप छिपे रहते हैं जो देश, काल और परिस्थिति की आवश्यकतानुसार प्रकट और अंतरधान होते रहते हैं। हम सभी बहुरूपिए हैं और जो जितना बड़ा बहुरूपिया है, वह इस समाज में उतना ही अधिक सफल और उपयोगी है।
समाज को मात्र 'सभ्य' लोग चाहिए। वे 'भद्र' हैं या नहीं, इससे समाज को कोई लेना-देना नहीं है। जबकि भद्र होना ही सही मायने में इंसान होना है। 'सभ्य' होना आसान है लेकिन 'भद्र' होना मुश्किल है। सभ्य जन वे हैं जो समाज के सामने सभ्यता से पेश आते हैं और 'भद्र जन' ? भद्रता क्या है, कौन होता है भद्र ? हमें सभ्य होना चाहिए या भद्र भी? क्या केवल सभ्य होने से काम नहीं चल सकता?
आइए इस पर चर्चा करते हैं-
जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि 'सभ्य' तो वे हैं जो समाज में, सधा हुआ-सीखा हुआ एक ऐसा व्यवहार करते हैं, जिससे यह मान लिया जाता है कि 'हाँ यह व्यक्ति सभ्य है... समाज में रहने के लायक़ है... इसे समाज में उठना-बैठना आता है'।
'भद्र' वह है, जो एकान्त में भी सभ्य है, जो शक्तिशाली होने पर भी सभ्य है, जो आपातकाल में भी सभ्य है, जो अभाव में भी सभ्य है, जो भूख में भी सभ्य है, जो कृपा करते हुए भी सभ्य है, जो अपमानित होने पर भी सभ्य है, जो विद्वान होने पर भी सभ्य है, जो निरक्षर होने पर भी सभ्य है...
एकान्त की सभ्यता क्या होगी? जिस तरह धर्म और जाति किसी दूसरे की उपस्थिति में ही अस्तित्व में आते हैं उसी तरह सभ्यता भी किसी दूसरे के आने पर ही जन्म लेती है। एकान्त की सभ्यता क्या हो सकती है? यह वह स्थिति है जहाँ हम सोचते हैं- 'यहाँ कौन देख रहा है मुझे... ऐसा करने में क्या बुराई है?' जैसे ही हम ऐसा सोचते हैं, वैसे ही हम अभद्र हो जाते हैं।
एक उदाहरण-
जिस तरह श्रीमद्भगवत् गीता है, अष्टावक्र गीता है, वैसे ही एक 'रक्तगीता' भी है-
एक साधु जंगल में कुटिया बना कर अकेला रहता था। एक बार शाम के समय एक नवविवाहित जोड़ा वहाँ रास्ता भटक कर आ गया और साधु से रात गुज़ारने की आज्ञा मांगी।
साधु ने कहा-
"तुम यहाँ रात तो गुज़ार लो, लेकिन कुटिया का दरवाज़ा अंदर से बंद कर लो। मैं यहाँ से जा रहा हूँ रात को लौटूँगा नहीं। तुम किसी के लिए दरवाज़ा मत खोलना... रात में यदि मैं भी दरवाज़ा खुलवाऊँ तो मेरे लिए भी नहीं..."
"आप के लिए भी नहीं, लेकिन आप के लिए क्यों नहीं?" यात्री ने पूछा।
"हाँ मेरे लिए भी मत खोलना... क्यों कि इस जंगल में एक मायावी राक्षस रहता है, वह किसी का भी भेस बदल लेता है और आवाज़ बना लेता है, यदि वह यहाँ आएगा तो मेरे ही चेहरे और आवाज़ के साथ आएगा, वह बहुत ख़तरनाक है, लेकिन चिन्ता मत करो, वह इस मज़बूत दरवाज़े को नहीं तोड़ पाएगा, इसलिए तुम सुरक्षित हो, जब तक कि तुम दरवाज़ा बंद रखते हो।" इतना कहकर साधु जंगल की ओर चला गया। दम्पत्ति ने दरवाज़ा बंद कर लिया और सो गए।
साधु बहुत समझदार और अनुभवी था। वह जानता था कि बुद्धि भ्रष्ट होने पर क्या भयंकर परिणाम हो सकते हैं। ऐसा नहीं है कि उसे अपने संयम पर भरोसा न था, लेकिन वह किसी प्रकार का कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता था। वह जानता था कि अपने ऊपर भरोसा करने से अच्छा है किसी भी विपरीत परिस्थिति को बनने से पहले ही रोक दिया जाय।
साधु को जिस बात का डर था, हुआ भी वही। रात में साधु का संयम टूट गया और उसके मन में नवविवाहिता का सुंदर चेहरा घूमने लगा। उसने कई बार दरवाज़ा खटखटाया और उसे खुलवाने की विनती की लेकिन नवविवाहित जोड़े ने दरवाज़ा नहीं खोला। हार कर साधु ने कहा-
"यहाँ कोई राक्षस नहीं है, यह मैंने झूठ-मूठ को कह दिया था, यह तो मैं ही हूँ, दरवाज़ा खोलो....!"
"हम दरवाज़ा नहीं खोलेंगे क्योंकि साधु महाराज ने मना किया है... तुम चले जाओ।"
जब दरवाज़ा नहीं खुला तो साधु ने उसे तोड़ने की कोशिश की लेकिन वह टूटा नहीं। इसके बाद साधु छत पर चढ़ गया और खपरैल में छेद करके अंदर कूदा। इस प्रक्रिया में साधु के जांघ में खपरैल की छत का नुकीला बांस घुस गया और गहरे घाव से ख़ून बहने लगा। गहरे ज़ख़्म और भयंकर पीड़ा के कारण साधु का आवेग समाप्त हो गया। उसने दम्पत्ति से क्षमा याचना की और अपने रक्त (ख़ून) से ही यह पूरा घटना क्रम लिखा। इसीलिए इसका नाम रक्त गीता पड़ा।
रक्त गीता का साधु दोनों ही पक्षों में खरा उतरता है। वह सभ्य भी था और भद्र भी। सभ्य इसलिए कि उसने दम्पत्ति को रात गुज़ारने का आसरा दिया और भद्र इसलिए कि अपने एकान्त के 'असाधु' से उन्हें बचाने के उपाय बताए और बचाया भी।
हमारे भीतर न जाने कितने रूप छिपे होते हैं, जो समय-समय पर अपनी भूमिका निभाते हैं। एक व्यक्ति, बेटा या बेटी के रूप में कुछ और ही है और उसी व्यक्ति को जब पिता या माँ के रूप में देखते हैं तो कुछ और ही पाते हैं। सामान्यत: आदमी अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में तब होता है जब वह 'पिता' हो और औरत के लिए यह रूप 'मां' का है।
अपने प्रेमी या प्रेमिका के लिए हम किसी भी अन्य रूप से एकदम छलांग लगा कर भोले-भाले और मासूम बन जाते हैं। यदि एक रिंग मास्टर जो सर्कस में जानवरों पर कोड़े बरसा रहा हो और तभी उसकी प्रेमिका आ जाय तो... ? एकदम से रिंगमास्टर के चेहरे पर कोमलता के भाव आ जायेंगे और वह कोड़े बरसाने में सहज नहीं रह पाएगा। सारा दिन दुकान पर झूठ-सच बोलने वाला कोई दुकानदार जब अपने बच्चों के लिए चॉकलेट लेकर घर पहुँचता है तो कोई अंदाज़ा भी नहीं कर सकता कि ये वही आदमी है जो बेहद चालाक़ी से अपनी दुकान पर सामान बेचता है।
बछड़ों की गर्दन पर चाक़ू चलाने वाला क़साई जब प्यार से अपने बेटे-बेटी की गर्दन सहलाता है तो उसे ध्यान भी नहीं आता कि कितनी गर्दन वो रोज़ाना काटता है क्योंकि उस समय वो किसी दूसरी भूमिका में होता है।
लोग अपने वास्तविक जीवन में अनेक भूमिकाएँ करते रहते हैं, उनके वास्तविक रूप को पहचान पाना बड़ा ही मुश्किल है, लगभग असंभव... लेकिन ऐसा क्यों है ? कभी किसी जानवर को पहचान पाना तो मुश्किल नहीं होता। एक प्रजाति के सभी जानवर एक जैसा ही व्यवहार करते हैं, बहुत कम अंतर होता है उनके व्यवहार में। बिल्लियाँ सब एक जैसी हैं, कुत्ते सब एक जैसे हैं, गाय सब एक जैसी हैं... तो फिर मनुष्य ही ऐसे हैं क्या, जो एक जैसे नहीं हैं!
असल बात यह है कि, हैं तो मनुष्य भी सब एक जैसे ही लेकिन उनकी सभ्यता का माप अलग है। मनुष्य के मस्तिष्क ने अलग-अलग तरह से विकसित और पोषित होकर मनुष्य को 'पशुता' से भिन्न बना दिया है। किसी मनुष्य को क्या सिखाया गया, यह महत्व नहीं रखता बल्कि उसने क्या सीखा, महत्त्वपूर्ण यह है। हम दो बच्चों को एक ही कक्षा में, एक ही शिक्षा देते हैं, लेकिन परिणाम भिन्न पाते हैं। किसी अनुशासन का असर भी बच्चों पर भिन्न ही होता है और यह असर समय-समय पर बदलता भी रहता है।
आपको इस तरह की बात कहते लोग अक्सर मिल जाएँगे-
- "मेरे मां-बाप ने मुझे बेहद लाड़-प्यार से पाला, जिसके कारण मैं बरबाद हो गया।"
- "मेरी माँ या पिता ने मुझे कठोर अनुशासन में रखा। इसी कारण मैं आज एक सफल व्यक्ति हूँ।"
- "मेरे टीचर का वो चाँटा मुझे अब तक याद है और उस चाँटे ने मेरी ज़िन्दगी बदल दी और मैंने ख़ूब पढ़ाई की और सफल हुआ।"
- "मेरे टीचर ने मुझे चाँटा मारा और फिर मैं कभी स्कूल नहीं गया।"
- "मेरे पिता को शराब ने बरबाद किया, इसलिए मैं शराब नहीं पीता।"
- "मेरे पिता भी शराब से ही बरबाद हुए और मैं भी।"
अजीब बात है? हर एक घटना प्रत्येक व्यक्ति पर अलग असर डालती है और कभी-कभी तो एक ही व्यक्ति पर एक ही घटना अलग-अलग समय पर अलग असर डालती है।
सभ्यता का और भद्रता का भी वही मसला है। इसे हम ऐसे कह सकते हैं कि सभ्यता ओढ़ी जाती है और भद्रता धारण की जाती है। सभ्यता दिमाग़ में होती है और भद्रता मन में। सभ्यता व्यवहार में होती है और भद्रता स्वभाव में। सभ्यता चेतना में ही रहती है और भद्रता अचेतन में भी। सभ्यता समाज में होती है और भद्रता स्वयं में।
मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली साहब की की दो पंक्तियां देखिए
हर आदमी में होते हैं, दस-बीस आदमी
जब भी किसी को देखना कई बार देखना...
इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक