कभी ख़ुशी कभी ग़म -आदित्य चौधरी

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:32, 8 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{| width="100%" class="headbg37" style="border:thin groove #003333; margin-left:5px; border-radius:5px; padding:10px;" |- | [[चित...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश
फ़ेसबुक पर आदित्य चौधरी आदित्य चौधरी

कभी ख़ुशी कभी ग़म -आदित्य चौधरी


"छोटे पहलवान! क्या बात है इतने उदास क्यों हो यार?"
"चलो छोड़ो जाने दो... मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो..." छोटे पहलवान ने ठंडी सांस के साथ कहा और टिकिट कटे नेता जैसा मुँह बना कर शून्य में ताकने लगा।
"बता तो सही मेरे यार बात क्या है?"
थोड़ी देर और ना नुकुर करने के बाद छोटे पहलवान ने अपनी दास्तान-ए-उदासी सुनाई-
"जब मैं छोटा था तो बोलता नहीं था। लोगों को ताकता रहता था"
लोगों ने कहा "इतना बड़ा हो गया बोलता नहीं है, गूँगा है क्या?"
"जब मैंने बोलना शुरू किया तो बहुत ज़्यादा बोलने लगा। लोग मुझे ताकते रहते थे"
लोगों ने कहा "क्यों जी आपका बच्चा बहुत ज़्यादा बोलता है, इसे चुप रहना भी सिखाइए।"
"मैंने बोलना कम करके खेलना ज़्यादा शुरू कर दिया।"
लोगों ने कहा "खेलता ही रहेगा या पढ़ेगा भी?"
"मैंने पढ़ना शुरु किया तो बहुत ज़्यादा पढ़ने लगा"
लोगों ने कहा "सारा दिन सारी रात पढ़ेगा ही कुछ घर का काम भी देखेगा?"
"मैंने घर का काम देखना शुरू कर दिया"
लोगों ने कहा "सारा दिन घर में ही घुसा रहेगा या बाहर की दुनिया भी देखेगा? घर घुस्सू कहीं का"
"मैंने बाहर जाकर संगीत सीखना और कसरत करना शुरू कर दिया।"
लोगों ने कहा "संगीत से या कसरत से क्या पैसा आ जाएगा।"
"मैंने पैसा कमाना शुरू कर दिया।"
लोगों ने कहा "पैसा तो तिकड़मबाज़ी और बेईमानी से ही आता है, किया होगा कोई घपला।"
"मैंने पैसा कमाना छोड़ कर मंदिर जाना शुरू कर दिया, सुबह शाम घन्टों मंदिर में गुज़ारने लगा।"
लोगों ने कहा "मंदिर में जाने का ढोंग करने की क्या ज़रूरत है, भगवान तो समाज सेवा से मिलता है।"
"मैंने सामाजिक कामों में रुचि ली राजनैतिक मुद्दे उठाए।"
लोगों ने कहा "हमें तो पहले ही पता था कि तिकड़मबाज़ है, तभी तो राजनीति में आगे बढ़ गया।"
"मैंने राजनीति छोड़ दी, एक आश्रम जाकर संन्यास ग्रहण कर लिया।"
लोगों ने कहा "नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को चली"
"अब बताओ क्या करूँ ? बस इसीलिए मैं दुखी हूँ...मुझे लगता है कि इस समस्या का कोई इलाज नहीं है..."
          दोस्त बड़ा समझदार था, उसने छोटे पहलवान को समझाया- "मेरे भोले मित्र! अगर तुम उस समस्या से दु:खी हो जिसका कोई समाधान नहीं है तो तुम्हारा दु:खी होना बेकार है क्योंकि जिस समस्या का समाधान न हो वह समस्या नहीं होती। समस्या केवल वही होती है जिसका कोई न कोई समाधान हो। इसलिए दोनों ही स्थितियों में दु:खी होना बेकार ही हुआ न? लेकिन तेरी समस्या का मेरे पास एक समाधान है। अब तू मेरी मान पहलवान! तू इस शहर को छोड़कर दूसरे शहर में चला जा, वहाँ तू जो कुछ भी करेगा, तेरे सामने ये लोगों के कहने-सुनने वाली दिक़्क़त नहीं आएगी"
वास्तव में छोटे पहलवान ने ऐसा ही किया और वह एक पूर्णत: सफल व्यक्ति कहलाया।
          अनेक समस्याओं के कारण हमारे देश में दु:ख और अवसाद (डिप्रेशन) की समस्या तेज़ी से बढ़ रही है। यह कहा जा रहा है कि हर तीसरा भारतीय नागरिक अवसाद ग्रसित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत दुनिया का पहला देश है जहाँ सबसे ज़्यादा लोग अवसाद के मरीज़ बन रहे हैं। भारत में 36 प्रतिशत लोग अवसाद के एक गंभीर रूप (मेजर डिप्रेसिव एपिसोड) के शिकार हैं। ये अवस्था का परिणाम आत्महत्या भी हो सकता है। एक अनुमान के अनुसार अवसाद के 15 प्रतिशत रोगी आत्महत्या कर लेते हैं।
भारत में दु:खी लोगों के आँकड़े बहुत चौंकाने वाले हैं। इन आँकड़ों पर आप यूँ ही विश्वास कर लें तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि आँकड़े अलग-अलग परिस्थिति में और अलग-अलग एजेंसियों द्वारा इकट्ठे किए जाते हैं जो बदलते रहते हैं फिर भी एक नज़र डालें...

बढ़ते दुखी लोग (आँकड़े प्रतिशत में)
वर्ष दुखी संघर्षरत सफल
2007 09 75 16
2008 07 74 19
2009 21 69 10
2010 19 64 17
2011 24 66 11
2012 31 56 13
विभिन्न क्षेत्र वर्ष 2011 वर्ष 2012
व्हाइट कॉलर जॉब वाले 15 17
ब्लू कॉलर जॉब वाले 26 29
कृषि मजदूर 31 38
कम पढ़े ज़्यादा दुखी
दसवीं तक पढ़े 26 प्रतिशत
स्नातक से नीचे 14 प्रतिशत
प्रोफेशनल डिग्रीधारी 06 प्रतिशत

          आंकड़े कह रहे हैं कि दुखी बढ़ रहे हैं या यह कहें कि सुखी कम हो रहे हैं। वैसे दोनों बातें एक ही हैं। लेकिन एक प्रश्न है 'सुख को बढ़ाने से दु:ख कम होगा या दु:ख को घटाने से सुख बढ़ेगा ? इन दोनों में से कौन सी बात सही है? असल में मनुष्य का दु:ख कम करने के लिए उसे सुखी करना आवश्यक है। इसलिए सुखी करने के उपाय करना ही अर्थपूर्ण है न कि दु:ख कम करने का। दु:ख कम करने के लिए कोई उपाय नहीं है। सारी दुनिया में सभी व्यक्ति सुख की तलाश में रहते हैं शायद ईश्वर से भी ज़्यादा किसी की तलाश यदि की गई है तो वह है सुख। वैसे यदि ये कहें कि सुख प्राप्ति के लिए ही ईश्वर की तलाश की जाती है तो कुछ ग़लत नहीं होगा।
दु:ख और अवसाद के अनेक-अनेक कारण हो सकते हैं। कुछ कारणों पर चर्चा कर रहा हूँ-
दु:ख और अवसाद का कारण 'ग़रीबी'-
आपको एक पुराना नारा याद है क्या ? 'ग़रीबी हटाओ'... बहुत प्रसिद्ध हुआ था ये नारा। वो बात अलग है कि न तो ग़रीबी हटी और न ही इस नारे का मतलब किसी के समझ में आया लेकिन नारे ने अपना काम कर दिया, चुनाव जिता कर। इस नारे की बजाय यदि नारा 'अमीरी बढ़ाओ' हो, तो यह अधिक सार्थक हो सकता है और इसके लिए प्रयास भी सुनियोजित ढंग से किए जा सकते हैं। क्योंकि ग़रीबी हटाओ को ग़रीब हटाओ में बदलना बड़ा आसान है जैसे कि ग़रीबों को हाईवे से हटाओ, फ़ुटपाथ से हटाओ, महानगरों से हटाओ, शॉपिंग मॉल से हटाओ, राजनीति से हटाओ, व्यापार से हटाओ आदि-आदि तो फिर वो रहें कहाँ?
अपने देशवासियों को अमीर बनाने के क्रम में अमरीका ने तो साम्राज्यवाद अपना लिया लेकिन भारत को क्या करना चाहिए? सिर्फ़ एक ही रास्ता है उत्पादन बढ़ाने का जिसमें खाद्यान उत्पादन सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन हो कुछ और ही रहा है। उपजाऊ ज़मीन पर कंक्रीट के जंगल बनाए जा रहे हैं...
दु:ख और अवसाद का कारण 'बेरोज़गारी'-
'बेरोज़गारी हटाओ' नारा भी अजीब तरह का नारा है। जबकि सीधी-सादी सी बात है कि रोज़गार देने से ही बेरोज़गारी हटती है तो फिर नारा 'रोज़गार लाओ' क्यों नहीं होता? क्योंकि हमारी मानसिकता नकारात्मक बातों को अधिक ध्यान से सुनने की बन गई है। रोज़गार के लिए क्या करें? अनेक उपाय हो सकते हैं जैसे कि-
सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थाओं में निचले क्रम की नौकरी के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण उनका हो जिनकी न्यूनतम शैक्षिक योग्यता स्नातक हो। ये नौकरियाँ वाहन चालक, चपरासी आदि जैसे कार्य की हों। इससे किसी भी स्नातक को साधारण नौकरी करने में शर्म महसूस नहीं होगी।
इसे यूँ भी कह सकते हैं कि वाहन चालक, सुरक्षाकर्मी, चपरासी के लिए यदि न्यूनतम शैक्षिक योग्यता स्नातक हो तो पढ़े लिखे बेरोज़गार इन नौकरियों को करने में शर्मिंदगी महसूस नहीं करेंगे।
          भारत में अभी तक शिक्षार्थियों का पढ़ाई लिए नौकरी करना या पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करने का प्रचलन उतना नहीं है जितना कि पश्चिमी देशों में है। इन शिक्षार्थियों को होटलों या रेस्ताराओं में काम करने में शर्म महसूस होती है। यदि सरकार की ओर से इन शिक्षार्थियों को एक बिल्ला (Badge) दिया जाय जो इनके शिक्षार्थी-कर्मी होने की पहचान हो तो लोग इस बिल्ले को देखकर इनसे अपेक्षाकृत अच्छा व्यवहार करेंगे। जब सम्मान पूर्ण व्यवहार होगा तो शिक्षार्थियों को किसी भी नौकरी में लज्जा का अनुभव नहीं होगा।
दु:ख और अवसाद का एक कारण है असुरक्षा-
जैसे कि न्यायपालिका का सूत्र है कि 'अपराधी का नहीं बल्कि अपराध का उन्मूलन करना है'। यह सूत्र सुनने में काफ़ी प्रभावशाली है लेकिन अपने अभियान में सफल कितना है इसका उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसकी सफलता-असफलता सभी जानते हैं। असल में हमारा केन्द्र बिन्दु सदैव अपराध और अपराधी रहता है। उस सामान्य प्रकृति के व्यक्ति की ओर हमारा ध्यान ही नहीं रहता जो आपराधिक कृत्य से बचता रहता है। यदि एक मात्र ज़िक्र होता भी है तो इस सूत्र से कि 'चाहे दस अपराधी छूट जाएँ किन्तु एक निरपराधी को सज़ा नहीं होनी चाहिए।
        एक अच्छे नागरिक के लिए लिए शासन की ओर से मात्र यह व्यवस्था है कि जब कभी वह निरपराध पकड़ा जाएगा तो उसे बचाने का प्रयास किया जाएगा। यह क्या व्यवस्था हुई? एक अच्छे नागरिक को राज्य की ओर से सम्मानित करने या कम से कम ससम्मान जीने की कोई व्यवस्था राज्य नहीं करता। कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि कोई एक ऐसा नागरिक जिसने अपना पूरा जीवन सभी प्रकार के सामाजिक और राज्य प्रदत्त नियमों को मानते हुए व्यतीत किया हो और उसे उम्र के अंतिम पड़ाव में पहुँच कर और वरिष्ठ नागरिक बनकर कोई किसी प्रकार का सम्मान राज्य द्वारा दिया गया हो। वरिष्ठ नागरिक या प्रचलित भाषा में कहें कि सीनियर सिटीज़न को जो यात्रा किराए में जो रियायतें मिलती हैं वे तो सभी के लिए समान हैं भले ही वह कोई 'अवकाश प्राप्त आतंकवादी' ही क्यों न हो।
दु:ख और अवसाद का कारण 'भ्रष्टाचार'-
यह सही है कि किसी भी नौकरी के लिए ईमानदारी न्यूनतम आवश्यकता है लेकिन इस आवश्यकता को कितने लोग पूर्ण कर रहे हैं। जो इसे पूर्ण कर रहे हैं उन्हें कोई विशेष महत्व क्यों नहीं मिल रहा। किसी ईमानदार को विशेष महत्व न देने की यह परिपाटी उस समय तो ठीक थी जब उन लोगों की संख्या कम थी जो ईमानदार नहीं थे। सन् 1960 के आस-पास भारत में भ्रष्टाचार का अंतरराष्ट्रीय सूचकांक 7 प्रतिशत के लगभग था। आजकल यह अनुपात कितना है इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। यदि हम ईमानदार को यह अहसास नहीं कराएँगे कि ईमानदार होना केवल मन का संतोष नहीं है बल्कि समाज में और सरकार में भी इसका विशेष महत्व है तो नतीजे बेहतर होंगे। निश्चित रूप से अनके सरकारी कर्मचारी ऐसे हैं जो अपने अवकाश प्राप्तिकाल तक भरसक सत्यनिष्ठा का पालन करते हैं और रिश्वत भी नहीं लेते, लेकिन उनके अवकाश प्राप्त जीवन में और एक भ्रष्ट कर्मचारी के जीवन में राज्य की दृष्टि में कोई अंतर नहीं होता। मैंने कभी नहीं सुना कि किसी राज्यकर्मचारी को उसकी ईमानदारी के साथ दी गई सेवाओं के लिए राज्य ने पुरस्कृत किया हो। ईमानदारी को एक सामाजिक गुण के रूप में ही लिया जाता है लेकिन इसे एक प्रशासनिक योग्यता के रूप में भी प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए। राज्य कर्मचारियों की पदोन्नति या पदोवनति उनकी ईमानदारी की सेवाओं का मूल्यांकन करके होनी चाहिए। भ्रष्ट कर्मचारियों को दंडित करने की प्रक्रिया से भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है बल्कि बढ़ा है। ज़रूरत है ईमानदार को सम्मानित करने की।
दु:ख और अवसाद का कारण 'ख़ाली दिमाग़'-
पुरानी कहावत है 'ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर'। यह कहावत बहुत ही वैज्ञानिक परीक्षण का नतीजा है। मनुष्य का मस्तिष्क ख़ाली रहने पर नकारात्मक बातें ज़्यादा सोचता है। कभी इस प्रयोग को करके देखें कि ख़ुद को कुछ समय के लिए ख़ाली छोड़ दें। आप देखेंगे कि आपको बार-बार अपने दिमाग़ को रचनात्मक सोच की ओर मोड़ना पड़ रहा है वरना दिमाग़ तो अधिकतर बुरे विचारों से घिरने लगता है। ये विचार ही हमें पहले दु:ख और फिर अवसाद की ओर ले जाते हैं।
          कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य अपनी स्थिति के लिए स्वयं ही ज़िम्मेदार होता है। दु:ख की उपस्थिति सुख के साथ वैसे ही है जैसे प्रकाश के साथ अंधकार, अमीरी के साथ ग़रीबी, ज्ञान के साथ अज्ञान, प्रेम के साथ घृणा, मिलन के साथ विछोह आदि जुड़े रहते हैं।
इसे थोड़ा और विस्तार दें तो-
प्रकाश की उपस्थिति सदैव अंधकार से प्रभावित रहती है। प्रकाश का सुख वही अनुभव कर सकता है जिसने अंधकार का अनुभव किया हो। इसलिए प्रकाश में अंधकार का भय समाहित है।
कोई अमीर ऐसा नहीं है जिसे ग़रीब हो जाने का भय दु:खी न करता हो। हम जितने ज्ञानी होते जाते हैं उतना ही अपने अज्ञान का अहसास बढ़ता जाता है। प्रेम का सुख और घृणा का दु:ख समानान्तर चलते रहते हैं। असल में प्रेम और घृणा एक दूसरे के आवरण मात्र हैं। मिलन के सुख को विछोह का दु:ख हमेशा प्रभावित करता रहता है। यदि यह कहें तो और भी उचित होगा कि विछोह का दु:ख क्या है, यह समझ में तभी आता है जब मिलन का सुख मिलता है।
          दु:ख को शाश्वत कहा गया है, अंधकार की तरह और सुख को क्षणिक कहा जाता है, प्रकाश की तरह। लेकिन मैं सहमत नहीं हूँ इससे क्योंकि यदि दु:ख शाश्वत है तो सुख भी शाश्वत ही होगा अन्यथा सुख, कभी भी दु:ख का विलोम नहीं को सकता। सभी विलोम अपने अनुलोम के समानान्तर होते हैं और अपने भीतर एक-दूसरे को छुपाए रहते हैं।

मेरी 'मगजमारी' का सारांश यह है कि दु:ख को समझ न पाना ही दु:खी होने का कारण है। बस और कुछ नहीं...

इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


पिछले सम्पादकीय