मानवता, एक अत्यंत दुर्लभ गुण है। जिसे योग्यता की तरह अर्जित किया जाना या दिया जाना असंभव ही है।
मनुष्य के आवेग के क्षणों में मानवता की उपस्थिति और भी दुर्लभ हो जाती है। मानवता की परीक्षा सही मायने में, किसी व्यक्ति के क्रोध और यौन आवेग के समय ही होती है। वैसे तो सामान्य स्थिति में सभी मानवतावादी होने के दंभ भरते हैं। जो लोग देश, धर्म, जाति, व्यापार, परिवार, राजनीति, पैसा आदि के लिए मानवता के विपरीत आचरण करते हैं उन्हें मानवतावादी कैसे कहा जा सकता है। दुनिया में छद्म मानवतावादियों का बोलबाला है। सामान्यत: वास्तविक मानवतावादियों को समाज का प्रकोप सहना पड़ता है। सामाजिक होना और मानवतावादी होना दोनों एक साथ होना बहुत कठिन है शायद असंभव।
11 फ़रवरी, 2014
बहुत से माता-पिता, अपने अभिभावक होने के अति उत्साह में अपने बच्चों कि लिए बहुत से फ़ैसले करने की सुविधा को अपना अधिकार समझने लगते हैं।
बच्चों के काफ़ी बड़े होने पर भी माता-पिता ही, उनके लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है, यह ख़ुद ही तय करने की प्रक्रिया अपनाते है।
जो कि सर्वथा ग़लत है।
माता-पिता का कर्तव्य अपनी संतान के लिए अच्छे-बुरे में से अच्छा चुनकर उस पर संतान को चलने पर मजबूर करना नहीं है बल्कि माता-पिता का कर्तव्य तो अपनी संतान को यह बताना है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा।
माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को इस लायक़ बनाएँ कि वे स्वयं अच्छा बुरा तय कर सकें।
26 फ़रवरी, 2014
मेरे प्रिय मित्र ने मुझसे प्रश्न किया है कि भगवान कृष्ण की सोलह कलाएँ कौन-कौन सी थीं?
मेरा उत्तर: लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी (ईसवी) तक कला का प्रयोग 'अंश', 'भाग' या 'खण्ड' के लिए हुआ। सूर्य की गति को बारह भागों में बाँटा गया जिसे राशि भी कहा गया। राशि का अर्थ भी हिस्से या अंग्रेज़ी में कहें तो 'Portion' से ही था। सूर्य की गति को बारह कलाओं या राशियों में बाँटा गया और चन्द्रमा को सोलह कलाओं में।
तीसरी-चौथी शताब्दी के बाद कला शब्द का अर्थ 'Art' के लिए होने लगा। जिसका कारण वात्सायन और जयमंगल द्वारा मनुष्य की विभिन्न रङ्ग (रंग) क्षमताओं, विधाओं और सेवाओं को श्रेणीबद्ध कर देना रहा। जयमंगल ने इन्हें 64 श्रेणियों में विभक्त किया। जिन्हें चौंसठ योगिनी के रूप में भी प्रसिद्धि, वज्रयानियों के प्रभाव से निर्मित खजुराहो आदि में मिली।
जिन सोलह कला का उल्लेख कृष्ण के लिए हुआ उसका संदर्भ अंश है न कि कोई 'आर्ट'। इसके लिए वैदिक और पौराणिक दो मान्यता हैं।
पूर्णावतार, ईश्वर के सोलह अंश (कला) से पूर्ण होता है। सामान्य मनुष्य में पाँच अशों (कलाओं) का समावेश होता है यही मनुष्य योनि की पहचान भी है। पाँच कलाओं से कम होने पर पशु, वनस्पति आदि की योनि बनती है और पाँच से आठ कलाओं तक श्रेष्ठ मनुष्य की श्रेणी बनती है। अवतार नौ से सोलह कलाओं से युक्त होते हैं। पन्द्रह तक अंशावतार ही हैं। राम बारह और कृष्ण सोलह कलाओं से पूर्ण हैं।
एक मान्यता यह भी है कि राम सूर्यवंशी हैं तो सूर्य की बारह कलाओं के कारण, बारह कलायुक्त अंशावतार हुए। कृष्ण चंद्रवंशी हैं तो चन्द्रमा की सोलह कलाओं से युक्त होने के कारण पूर्णावतार हैं।
'कला' की तरह ही अनेक ऐसे शब्द हैं जिनके अर्थ कालान्तर में बदल गए। जिनमें से एक शब्द 'संग्राम' भी है। प्राचीन काल में विभिन्न ग्रामों के सम्मेलन को संग्राम कहते थे। इन सम्मेलनों में अक्सर झगड़े होते थे और युद्ध जैसा रूप धारण कर लेते थे। धीरे-धीरे संग्राम शब्द युद्ध के लिए प्रयुक्त होने लगा।
'शास्त्र' शब्द को कला ने बहुत सहजता के साथ बदल दिया पाक शास्त्र , सौंदर्य शास्त्र, शिल्प शास्त्र आदि सब क्रमश: पाक कला, सौन्दर्य कला, शिल्प कला आदि हो गए।
21 फ़रवरी, 2014
ईश्वर के विषय में मुझसे बार-बार कई प्रश्न पूछे गए हैं-
ईश्वर है या नहीं?
आप ईश्वर को मानते हैं या नहीं?
ईश्वर कैसे मिलेगा?
मेरा उत्तर है:
जो ईश्वर के संबंध में प्रश्न करता है, वह इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए परिपक्व नहीं है और जो परिपक्व है वह कभी ईश्वर के संबंध में कोई प्रश्न नहीं पूछता।
ईश्वर अज्ञात है और उसका अज्ञात होना ही उसका ईश्वर होना है। जो ज्ञात है या हो सकता है, वह ईश्वर कैसे हो सकता है।
ईश्वर की खोज के साधन उपलब्ध नहीं हैं। जिन साधनों से ईश्वर प्राप्ति की बात की जाती है वे सभी ज्ञात साधन हैं। अज्ञात की खोज कभी ज्ञात साधनों की सहायता से नहीं होती।
21 फ़रवरी, 2014
तेरी शोहरतें हैं चारसू, तू हुस्न बेपनाह है
तेरे चाहने वाले बहुत, क़द्रदाँ कोई नहीं
तेरा सब्र भी कमाल है, बफ़ा तो बेमिसाल है
हासिल है आसमाँ तुझे, मिलती ज़मीं कोई नहीं
11 फ़रवरी, 2014
मेरे ताज़ा तरीन मित्र, श्री मुहम्मद ग़नी ने एक सच्ची और अच्छी कहानी चुनी फ़िल्म बनाने के लिए और बना भी डाली। फ़िल्म के 'ज़ीरो बजट' के चलते (जैसे आजकल ज़ीरो फ़िगर) इसमें तकनीक की कुछ कमियाँ ढूंढना बहुत आसान है लेकिन यदि तुलना इस बात से की जाय कि यथार्थ के क़रीब कौन सी फ़िल्म है तो 'थ्री इडियट' से कहीं बहुत-बहुत ज़्यादा यथार्थ आपको इस फ़िल्म में मिलेगा और 'तारे ज़मीन पर' से ज़्यादा ये आपके दिल को छुएगी।
मेरे निवास पर, ख़ास मेरे लिए, ग़नी साहिब ने इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग रखी तो बहुत सुखदायी लगा। फ़िल्म के निर्देशक के साथ फ़िल्म देखना मेरे लिए एक प्रिय अहसास होता है।
मेरी लिखी कुछ पंक्तियों को इस फ़िल्म ने, जिसका कि नाम 'क़ैद' है, मायने दिए हैं।
"कोई मर जाय सहर होने पर दूर कहीं
ऐसा तो ज़माने का दस्तूर नहीं
एक मौक़ा उन्हें भी दो यारो
जिनको जीने का ज़रा भी शऊर नहीं"
और अब ग़नी साहिब के लिए:
मैं ख़ुसूसीयत और दिली अक़ीदत के साथ शामिल हूँ
तेरे हर शौक़ में ग़नी
तू अज़ीम हो न हो, फ़र्क़ क्या
तेरा अंदाज़ ए बयाँ अज़ीम है ग़नी
5 फ़रवरी, 2014
प्रश्न किया गया है कि- मन में भय कब आता है?
मेरा उत्तर है: मन में भय होने का अर्थ है
कि आपने कोई संकल्प किया है अन्यथा भय कैसा!
संकल्पवान व्यक्ति को भय सताता है।
भय की परिणति हमें नकारात्मक की ओर ही ले जाय ऐसा नहीं है बल्कि अनेक अद्भुत कृत्य भय का ही परिणाम हैं।
आपने वह विज्ञापन देखा होगा कि 'डर के आगे जीत है' इसका अर्थ ही यह है कि आपके मन में भय के उत्पन्न होने का कारण आपके द्वारा किया गया कोई संकल्प है।
5 फ़रवरी, 2014
सिद्धांतवादी, आदर्शवादी और परम्परावादी व्यक्ति का अहिंसक होना बड़ा कठिन है।
वह अपने उसूल-आदर्शों के पालन के लिए किसी भी शारीरिक, भावनात्मक या वैचारिक हिंसा के लिए तत्पर रहता है।
यहाँ तक कि जो किसी आदर्श या परम्परा के कारण ही अहिंसा में विश्वास करते हैं उनमें भी हिंसा का एक अलग रूप होता है।
5 फ़रवरी, 2014
मुझसे प्रश्न पूछा गया है कि सच्चे प्रेमी/प्रेमिका और सच्चे मित्र की पहचान कैसे हो?
मेरा उत्तर: आप कोई कार या मोटर साइकिल ख़रीद रहे हैं कि जिसकी क्वालिटी की जांच करेंगे? प्रेम में और मित्रता में किसी की गुणवत्ता की जांच नहीं की जाती। ज़रा सोचिए कि यदि सामने वाला आपकी जांच करने लगे तो ? क्या आप खरे उतरेंगे ? क्या आप विश्वास के साथ अपने बारे में कह सकते हैं कि आप पूरी तरह खरे प्रेमी या मित्र हैं?
प्रेमियों के प्रेम में, यदि प्रथम वरीयता प्रेम ही है तभी वह प्रेम है अन्यथा वह कुछ और ही होगा प्रेम नहीं।
मित्रों की मित्रता में, यदि सबसे पहला कारण मित्रता ही है तो उसे हम मित्रता कह सकते हैं।
सामान्यत: होता यह है कि जब हम कहते हैं कि हम किसी से प्रेम करते हैं या कोई हमारा मित्र है तो- उसके पीछे कुछ कारण छुपे होते हैं। ये कारण बहुत से हो सकते हैं जिनका कोई संबंध प्रेम या मित्रता से नहीं होता। हम इन कारणों की ओर या तो ध्यान नहीं देते या फिर ध्यान देना नहीं चाहते। ऐसी मित्रता या प्रेम अस्थाई होता है।
प्रेमी/प्रेमिका या मित्र को दुर्घटनावश 'खो देना' तो बहुत दु:खदायी है लेकिन जो यह कहते हैं कि 'प्यार में धोखा' हो गया या 'मित्रता में कपट' हो गया, वे ठीक नहीं कहते । प्यार या मित्रता कोई व्यवसाय नहीं है जो कोई धोखा या कपट कर देगा।
हम प्यार 'पाने' के प्रयास में अधिक रहते हैं, प्यार 'करने' के प्रयास में कम। इसी तरह मित्रता भी। हम जब कभी स्वयं की भावनाओं का विश्लेषण करें तो हम पाएँगे कि जिससे हम प्यार करते हैं वह हमारे साथ धोखा कर ही नहीं सकता। यदि आपको धोखे की संभावना दिखाई दे रही है तो इसका अर्थ है कि आप कुछ पाना चाहते हैं और कुछ पाने की चाह ही प्रेम और मित्रता की सबसे बड़ी शत्रु है।
4 फ़रवरी, 2014
केन्द्रीय विद्यालय मथुरा में मेरे 'ज़माने' के छात्र-सहपाठी जमा हो रहे हैं (अध-बूढ़े हैं सब...)। 14 सितम्बर को... पवन चतुर्वेदी, सुनील आचार्य, संदीपन नागर और, और भी मित्रों ने याद किया है...
दोस्तों की याद में-
दोस्त वो निठल्ला होता है जिसके साथ बिना काम-काज की बात किए सारा दिन गुज़ारा जा सके।
दोस्त वो रिश्ता होता है जिसकी बहन की शादी में पूरी रात काम करने के बाद भी उसके और अपने
मां-बाप से डांट पड़ती है।
दोस्त वो राहत होता है जो महबूब की बेवफ़ाई में टिशू-नॅपकिन से लेकर ज़बर्दस्ती खाना खिलाने
का काम भी करता है।
दोस्त वो खड़ूस होता है जो हमें चैन से दारू और सिगरेट नहीं पीने देता।
दोस्त वो ड्रामा होता है जो हमारी बीवी के सामने अपनी इमेज हमेशा, भारतभूषण और प्रदीप कुमार जैसी बनाकर
रखता है जिससे हम अपनी बीवी को प्रेम चौपड़ा और रंजीत नज़र आते हैं
दोस्त वो पंगा होता है जो हमारी लड़ाई में अपना दांत तुड़वा लेता है या अपनी में हमारा...
दोस्त वो कलेस होता है जिसकी पजॅसिवनॅस की वजह से हमारा महबूब हमेशा कहता रहता है-
"उसी के पास जाओ! वोई है तुम्हारा दोस्त-गर्लफ़्रॅन्ड-बॉयफ़्रॅन्ड सबकुछ सबकुछ..."
दोस्त वो शॅर्लॉक होम्स होता है जो हमारी परेशानियों का कोई न कोई हल चुपचाप और बिना अहसान दिखाए करता रहता है।
दोस्त वो याड़ी होता है जिसे एक बार नज़र लग जाय तो उस पर न्यौछावर करने के लिए सारी दुनिया की दौलत भी कम पड़ जाती है...
13 सितम्बर, 2013
एक और फ़ेसबुक वार्ता:
Ajit Dixit बापू जी के बारे में नई पीढ़ी में बहुत सारी भ्रांतियां प्रचलित हो गई हैं. उनके बारे में अभद्र और मनगढ़ंत टिप्पणियां पढ़कर मन खिन्न हो जाता है. अधकचरा ज्ञान रखने वालों को मेरी सलाह है की पहले उनके बारे में पूरी जानकारी करें फिर टिप्पणी करें।
Aditya Chaudhary: अजित जी आपने सही कहा, किसी भी विराट व्यक्तित्व की आलोचना करना आसान है, किन्तु उस जैसा बनना बहुत कठिन है। गाँधी जी की तरह यदि सभी महापुरुष और नेता अपने व्यक्तिगत जीवन को भी सार्वजनिक करने की हिम्मत करते, तभी उनका सही मूल्यांकन होता। किन्तु किसी ने ऐसा किया नहीं...। महात्मा गाँधी के अनेक कार्यों का अनुसरण करने का प्रयास किया गया और ज़ाहिर है कि आलोचना भी की गई लेकिन कोई भी गाँधी जी की तरह से अपने व्यक्तिगत जीवन की गतिविधियों को सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
राकेश जैन जी Shreesh Rakesh Jain ने मेरे फ़ोटो पर कमेंट किया है कि मेरी मुद्रा गंभीर है... उनके सम्मान में मैंने उत्तर दिया है...
जैन साहिब बड़ी अजीब बात यह है कि मुद्रा और रूप दोनों ही शब्द ऐसे हैं जिनका अर्थ पैसा है। रूप शब्द से ही रुपया शब्द बना है। प्राचीन काल में मुद्रा-विशेषज्ञ को रूप-कला विज्ञ कहते थे।
यहाँ तक कि अर्थ का अर्थ भी वही है...। आपको मेरी मुद्रा गंभीर लगी! यह सोचकर मैं बड़ा खुश हूँ। उम्मीद है कि कभी न कभी मुद्रा (पैसा) भी मुझे लेकर गंभीर हो जाएगी। मैं तो चाहे जब गंभीर मुद्रा बना लेता हूँ लेकिन मुद्रा (पैसा) मुझे लेकर कभी गंभीर नहीं होती...
15 अगस्त, 2013
अफ़साना निगार याने कहानीकार और उपन्यासकार इतिहास को अपने मन मुताबिक़ घुमा-फिरा देते हैं। इसके बाद फ़िल्मकार तो और भी ज़्यादा मसाले का तड़का लगा देते हैं। मुग़ल इतिहास में अकबर की पत्नी, जो सलीम (जहाँगीर) की मां भी थी, का नाम जोधाबाई, कहीं भी नहीं है। अकबरनामा, जहाँगीरनामा कहीं भी देख लीजिए आपको जोधाबाई नाम जहाँगीर की पत्नी के रूप में मिलेगा, अकबर की पत्नी का नहीं। ये हिंदू रानी जो अकबर की पत्नी बनी आमेर (जयपुर) के राजा बिहारी मल (भारमल) की पुत्री थी। इसका नाम हरका, रुक्मा या हीरा था। शादी के बाद नाम हो गया था मरियम-उज़-ज़मानी। कर्नल टॉड के लोक-कथाओं पर आधारित इतिहास और मुग़ल-ए-आज़म फ़िल्म के कारण जोधाबाई नाम, अकबर की रानी के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
फ़तेहपुर सीकरी आगरा से 22 मील दक्षिण में, मुग़ल सम्राट अकबर का बसाया हुआ भव्य नगर जिसके खंडहर आज भी अपने प्राचीन वैभव की झाँकी प्रस्तुत करते हैं। अकबर से पूर्व यहाँ फ़तेहपुर और सीकरी नाम के दो गाँव बसे हुए थे जो अब भी हैं। इन्हें अंग्रेज़ी शासक ओल्ड विलेजेस के नाम से पुकारते थे। सन् 1527 ई. में चित्तौड़-नरेश राणा संग्रामसिंह और बाबर ने यहाँ से लगभग दस मील दूर कनवाहा नामक स्थान पर भारी युद्ध हुआ था जिसकी स्मृति में बाबर ने इस गाँव का नाम फ़तेहपुर कर दिया था। तभी से यह स्थान फ़तेहपुर सीकरी कहलाता है। कहा जाता है कि इस ग्राम के निवासी शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से अकबर के घर सलीम (जहाँगीर) का जन्म हुआ था। जहाँगीर की माता मरियम-उज़्-ज़मानी (आमेर नरेश बिहारीमल की पुत्री) और अकबर, शेख सलीम के कहने से यहाँ 6 मास तक ठहरे थे जिसके प्रसादस्वरूप उन्हें पुत्र का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
सन् 1584 में एक अंग्रेज़ व्यापारी अकबर की राजधानी आया, उसने लिखा है− 'आगरा और फ़तेहपुर दोनों बड़े शहर हैं। उनमें से हर एक लंदन से बड़ा और अधिक जनसंकुल है। सारे भारत और ईरान के व्यापारी यहाँ रेशमी तथा दूसरे कपड़े, बहुमूल्य रत्न, लाल, हीरा और मोती बेचने के लिए लाते हैं।' सन् 1600 के बाद शहर वीरान होता चला गया हालांकि कुछ नए निर्माण भी यहाँ हुए थे। और जानने के लिए भारतकोश पर जाएँ...
18 जुलाई, 2013
महान स्वतंत्रता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई (रानी झांसी) के संबंध में भारतकोश के कुछ सुधी और जागरूक पाठक गणों ने अपने प्रश्न और शंकाएँ जताई हैं।
इस संबंध में उनकी शंकाओं का निवारण करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। चूँकि हम भारतीयों में इतिहास लिखने की परंपरा नहीं रही, इसलिए ये झंझट सामने आते हैं। आइए कुछ तारीख़ों पर ग़ौर करें...
राजा झांसी गंगाधर राव के मनु (बाद में लक्ष्मीबाई) से विवाह का वर्ष लगभग सभी उल्लेखों में 1842 मिलता है। महान स्वतंत्रता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई के जन्म का वर्ष अधिकतर 1835 ही मिलता है। इस हिसाब से विवाह की उम्र रही मात्र 7 वर्ष...? लेकिन कई स्थानों पर यह 13-14 वर्ष भी है।
गंगाधर राव का कोई जीवन चरित नहीं मिलता और न ही जन्म की तारीख़... लेकिन फिर भी ये सोच कर कि वह राजा था... तो कम से कम विवाह की और मरने की तारीख़ तो सही होगी... विवाह 1842 में और गंगाधर की मृत्यु हुई 1853 में...। महारानी लक्ष्मीबाई की वीरगति प्राप्त करने की तारीख़ भी दो हैं 17 जून और 18 जून।
गंगाधर राव स्त्री पोशाक पहन कर नाटकों में हिस्सा लेता था या नहीं इसका फ़ैसला करने वाला मैं कौन होता हूँ। जो कुछ भी इतिहासकारों ने लिखा और मैंने पढ़ा वही मैं भी आप तक पहुँचाने का प्रयत्न करता हूँ...
एक बात जो मुझे महसूस हुई वह यह है कि माने हुए बड़े इतिहासकारों ने रानी लक्ष्मीबाई का जीवन-वृत्त क्यों नहीं लिखा ? इसका कारण यह हो सकता है कि ये इतिहासकार 1857 के स्वतंत्रता समर को महज़ एक आर्थिक विद्रोह की संज्ञा देते हैं और रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष को यह लिख कर हलका बना देते हैं कि लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को अंग्रेज़ों ने उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और झांसी को शासक विहीन मान लिया गया और अंग्रेज़ों ने झांसी को पूर्णत: अपने अधिकार में लेना चाहा जो कि लक्ष्मीबाई को नागवार गुज़रा...।
अब बताइए मैं क्या करूँ ? मेरे प्रपितामह याने मेरे पिताजी के दादाजी 'बाबा देवकरण सिंह' को भी अंग्रेज़ों ने फाँसी दी थी इसी 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में... उनका नाम इतिहास में तो दर्ज है लेकिन फाँसी की सही-सही तारीख़ नहीं मिलती।
ख़ैर मुझे बहुत अच्छा लगा कि लोग मेरे जैसे साधारण आदमी की पोस्ट में भी दिलचस्पी लेते हैं... मैं तो समझ रहा था कि जनता को नवरत्न तेल बेचने वाले महान व्यक्तित्वों से फ़ुर्सत ही नहीं...
18 जून, 2013
आज पिता दिवस है। मैं गर्व करता हूँ कि मैं चौधरी दिगम्बर सिंह जी जैसे पिता का बेटा हूँ। वे स्वतंत्रता सेनानी थे और चार बार संसद सदस्य रहे। वे मेरे गुरु और मित्र भी थे। भारतकोश के संचालक ट्रस्ट के संस्थापक भी हैं।
उनके स्वर्गवास पर मैंने एक कविता लिखी थी...
ये तो तय नहीं था कि
तुम यूँ चले जाओगे
और जाने के बाद
फिर याद बहुत आओगे
मैं उस गोद का अहसास
भुला नहीं पाता
तुम्हारी आवाज़ के सिवा
अब याद कुछ नहीं आता
तुम्हारी आँखों की चमक
और उनमें भरी
लबालब ज़िन्दगी
याद है मुझको
उन आँखों में
सुनहरे सपने थे
वो तुम्हारे नहीं
मेरे अपने थे
मैं उस उँगली की पकड़
छुड़ा नहीं पाता
उस छुअन के सिवा
अब याद कुछ नहीं आता
तुम्हारी बलन्द चाल
की ठसक
और मेरा उस चाल की
नक़ल करना
याद है मुझको
तुम्हारे चौड़े कन्धों
और सीने में समाहित
सहज स्वाभिमान
याद है मुझको
तुम्हारी चिता का दृश्य
मैं अब तक भुला नहीं पाता
तुम्हारी याद के सिवा कुछ भी
मुझे रुला नहीं पाता
17 जून, 2013
आज मन उदास है... मेहदी हसन साहिब नहीं रहे... मैंने बहुत कम उम्र से ही उनको सुना और अब भी सुनता हूँ... उनके गायन की प्रशंसा करने के लिए मैं अति तुच्छ व्यक्ति हूँ... कभी-कभी सोचता हूँ कि राजस्थान की मिट्टी में ऐसा क्या अद्भुत है जिसने मेहदी हसन जैसे कला शिरोमणि को जन्म दिया... उनकी गाई और ज़फ़र (बहादुर शाह ज़फ़र) की कही ग़ज़ल आज बहुत याद आई-
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी ।
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ॥
ले गया लूट के कौन आज तिरा सब्र-उ-क़रार ।
बे-क़रारी तुझे दिल कभी ऐसी तो न थी ॥
14 जून, 2013
'कला' शब्द का अर्थ वात्स्यायन (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) के बाद बदल गया। वात्स्यायन ने पहली बार 'कला' शब्द को इस अर्थ में प्रयोग किया जिसे कि अंग्रेज़ी में 'आर्ट' कहते हैं। जयमंगल ने भी 64 कलाओं के बारे में बताया। इससे पहले इसका अर्थ था 'अंश' (हिस्सा)। इसी लिए चन्द्रमा या सूर्य की पृथ्वी के सापेक्ष स्थितियों को बाँटा गया तो उन्हें कला कहा गया। चन्द्रमा को सोलह अंश में और सूर्य को बारह में। इसीलिए चन्द्रमा की सोलह कला हैं और सूर्य की बारह कला। अवतारों की कला का भी यही रहस्य है। लोग अक्सर पूछते हैं कि कृष्ण की सोलह कलाएँ कौन-कौन सी थी ? असल में कृष्ण के काल में कला का अर्थ अंश था न कि आज की तरह 'आर्ट'।
ख़ैर... नृत्य कला पर भी भारतकोश पर कुछ है शायद आपकी रुचि हो
10 जून, 2013
नर्गिस दत्त, जिस पृष्ठ भूमि से आयीं थीं, कोई सोच भी नहीं सकता था कि वे एक संवेदनशील समाजसेविका भी बनेंगी। ये भी उल्लेखनीय है कि वे समाजसेवा का ढोंग नहीं करती थीं (जैसा कि आजकल फ़ॅशन है)। जब वे कॅन्सर से हार कर अपनी अंतिम सांसे ले रही थीं, उस समय, पति सुनील दत्त उनके पास थे। उनके अंतिम समय की बातें सुनकर मैं इतना भावुक हो गया कि आँसू नहीं रोक पाया। आप चाहें तो भारतकोश पर उनके लेख के सबसे नीचे की ओर, बाहरी कड़ियों में उनके जीवन पर बनी छोटी सी डॉक्यूमेन्ट्री को लिंक क्लिक करके देख सकते हैं। इसमें उनकी आवाज़ की अंतिम रिकॉर्डिंग भी है। ... विस्तार में जानने के लिए क्लिक करें
1 जून, 2013
ईश्वर, अवतार, पैग़म्बर और संत किसी भी रूप में पक्षपाती नहीं होते। इसलिए ये किसी व्यक्ति विशेष का हित या अहित करेंगे ऐसा सोचना व्यर्थ ही है। जब इनके अस्तित्व पर हमारी आलोचना का असर नहीं होता तो फिर प्रार्थना का भी असर कैसे होगा। ज़रा सोचिए कि क्या हम यह मान सकते हैं कि ईश्वर पक्षपाती है, असंभव ही है ना ? तो फिर करें क्या ?
... प्रार्थना तो करें पर माँगे कुछ नहीं। प्रार्थना हमें विनम्र बनाती है। कर्म करें अकर्मण्य न रहें।
19 मई, 2013
मेरे मित्र श्री पी. के. वार्ष्णेय ने प्रश्न किया है- Varshney Mathura :
ADITITYA JI KYA HAMARA DHARM HINDU HAI YA SANATAN ?
मैंने उत्तर दिया है--------:------
तकनीकी दृष्टि से आप सनातन वैष्णव हैं। यदि आज की भाषा में कहें तो आप हिन्दू धर्म के वैष्णव संप्रदायी हैं। हिन्दू या हिन्दी तो भारतवासियों को कहा जाता था (पुराने समय में)। सिन्धु नदी को ईरानियों ने हिन्दु कहा और यूनानियों ने इंदु। हिन्दु से हिन्दू हुआ और इंदु से इंडिया। जहाँ तक मेरे धर्म का सवाल है और यदि अपना धर्म चुनने की मुझे स्वतंत्रता है तो मैं तो मरने के बाद ही अपना धर्म चुनूंगा। ऊपर जाकर जिस धर्म के भी लोग अधिक सुविधा देंगे उसे ही चुन लूंगा। ये भी हो सकता है कि कुछ चीजें किसी एक की पसंद आए और कुछ किसी दूसरे की। पता नहीं क्या पसंद आए जैसे कि अप्सरा स्वर्ग की या हूर जन्नत की, अमृत स्वर्ग का या आब-ए-हयात बहिश्त का...वग़ैरा-वग़ैरा
16 मई, 2013
मेरे बचपन के प्रिय सहपाठी और मित्र हैं, श्री संदीपन विमलकांत । उन्होंने FB पर पूछा " Kahan ho koi khabar naheen?" तो मैने उनके जवाब में एक शेर कहा-
वो पूछते हैं मुझसे अपनी ख़बर नहीं ।
बंदा तो दर-ब-दर है कोई एक दर नहीं ।।