लायक़ नहीं हैं हम तेरे, तू प्यार क्यूँ करे
कोई गुल भला, ख़िज़ाओं से दीदार क्यूँ करे[1]
किस्मत ही दिल फ़रेब थी, तू बेवफ़ा नहीं
बंदा ख़ुदा से क्या कहे इसरार क्यूँ करे[2]
जब चारागर ही मर्ज़ है तो किससे क्या कहें[3]
शब-ए-हिज़्र, अब रह-रह मुझे बीमार क्यूँ करे[4]
ख़ामोश आइने को अब इल्ज़ाम कितने दें
तू ज़िन्दगी की सुबह यूँ बेज़ार क्यूँ करे
परछाइयाँ भी खो गईं ज़ुलमत के साए में[5]
तू आ के, मेरा ज़िक्र ही बेकार क्यूँ करे