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{{सनातन गोस्वामी विषय सूची}}
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==प्राचीन हिंदी==
{{सूचना बक्सा साहित्यकार
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हिंदी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय [[हिंदी]] का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। सन् 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।
|चित्र=Sanatana-Goswami-2.jpg
 
|चित्र का नाम=सनातन गोस्वामी
 
|पूरा नाम=सनातन गोस्वामी
 
|अन्य नाम=
 
|जन्म=सन 1466 के लगभग
 
|जन्म भूमि=
 
|मृत्यु=
 
|मृत्यु स्थान=
 
|अभिभावक=मुकुन्ददेव (पितामह)
 
|पालक माता-पिता=
 
|पति/पत्नी=
 
|संतान=
 
|कर्म भूमि=[[वृन्दावन]], [[मथुरा]]
 
|कर्म-क्षेत्र=
 
|मुख्य रचनाएँ=श्रीकृष्णलीलास्तव, वैष्णवतोषिणी, श्री बृहत भागवतामृत, हरिभक्तिविलास तथा भक्तिरसामृतसिंधु आदि की रचना की।
 
|विषय=
 
|भाषा=[[हिन्दी]], [[संस्कृत]], [[फारसी भाषा|फारसी]], [[अरबी भाषा|अरबी]]
 
|विद्यालय=
 
|शिक्षा=
 
|पुरस्कार-उपाधि=
 
|प्रसिद्धि=[[सन्त]], कृष्ण-भक्त
 
|विशेष योगदान=[[वृन्दावन]] धाम का पहला [[मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन|मदनमोहन जी मन्दिर]] सनातन गोस्वामी ने ही स्थापित किया था, उसकी सेवा भी स्वयं करते थे।
 
|नागरिकता=भारतीय
 
|संबंधित लेख=[[चैतन्य महाप्रभु]], [[रूप गोस्वामी]] [[चैतन्य सम्प्रदाय]], [[वैष्णव सम्प्रदाय]], [[वृन्दावनदास ठाकुर]], [[कृष्णदास कविराज]], [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी]]
 
|शीर्षक 1=
 
|पाठ 1=
 
|शीर्षक 2=
 
|पाठ 2=
 
|अन्य जानकारी=सनातन ने भक्ति सिद्धान्त, वृन्दादेवी मन्दिर तथा श्रीविग्रह की स्थापना की तथा वैष्णव-स्मृति ग्रन्थ का संकलन कर वैष्णव सदाचार का प्रचार किया। [[वृन्दावन]] पहँचकर सनातन ने अपनी अंतरंग साधना के साथ [[चैतन्य महाप्रभु|महाप्रभु]] द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' कृष्ण-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य भी आरम्भ किया।
 
|अद्यतन=
 
}}
 
  
जब भी इस भूमि पर [[भगवान]] [[अवतार]] लेते हैं तो उनके साथ उनके पार्षद भी आते हैं। श्री सनातन गोस्वामी ऐसे ही [[संत]] रहे, जिनके साथ हमेशा [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] एवं [[राधा|श्रीराधारानी]] हैं। [[वृन्दावन]] धाम का पहला [[मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन|मदनमोहन जी मन्दिर]] सनातन गोस्वामी ने ही स्थापित किया था। भगवान कृष्ण का जो स्वरूप यहां स्थापित किया गया, उसे [[चैतन्य महाप्रभु]] के भक्त श्री अद्वैताचार्य ने प्रकट किया था।
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{| class="bharattable-purple" border="1" width="25%" style="float:right; margin:10px"
==परिचय==
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|+ अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास
{{main|सनातन गोस्वामी का परिचय}}
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श्री सनातन गोस्वामी जी का जन्म सन 1466 . के लगभग हुआ था। सन 1514 [[अक्टूबर]] में [[चैतन्य महाप्रभु]] सन्न्यास रूप में नीलाचल में विराज रहे थे। श्रीकृष्ण के प्रेम रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण लीलास्थली मधुर [[वृन्दावन]] के [[दर्शन]] की, उनके [[हृदय]] सरोवर में एक भाव तरंग उठी। देखते-देखते वह इतनी विशाल और वेगवती हो गयी कि नीलाचल के प्रेमी [[भक्त|भक्तों]] के नीलाचल छोड़कर न जाने के विनयपूर्ण आग्रह का अतिक्रमण कर उन्हें बहा ले चली, [[वृन्दावन]] के पथ पर साथ चल पड़ी भक्तों की अपार भीड़ भावावेश में उनके साथ [[नृत्य]] और [[कीर्तन]] करती।
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| rowspan="3" style="background:#dfe8e9"| '''शौरसेनी'''
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| पश्चिमी हिंदी
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| [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]]
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| [[गुजराती भाषा|गुजराती]]
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| style="background:#dfe8e9"| '''अर्द्धमागधी'''
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| पूर्वी हिंदी
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| rowspan="4" style="background:#dfe8e9" | '''मागधी'''
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| [[बिहारी भाषाएँ|बिहारी]]
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| [[उड़िया भाषा|उड़िया]]
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|-
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| [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]]
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|-
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| [[असमिया भाषा|असमिया]]
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| style="background:#dfe8e9"|'''खस'''
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| [[पहाड़ी बोली|पहाड़ी]] (शौरसेनी से प्रभावित)
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| rowspan="2" style="background:#dfe8e9" | '''ब्राचड़'''
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| [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]](शौरसेनी से प्रभावित)
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| [[सिंधी भाषा|सिंधी]]
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| style="background:#dfe8e9"| '''महाराष्ट्री'''
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| [[मराठी भाषा|मराठी]]
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|}
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*मध्यदेशीय भाषा परम्परा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिंदी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरी है।
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*प्राचीन हिंदी से अभिप्राय है— अपभ्रंश– अवहट्ट के बाद की भाषा।
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*हिंदी का आदिकाल हिंदी भाषा का शिशुकाल है। यह वह काल था, जब अपभ्रंश–अवहट्ट का प्रभाव हिंदी भाषा पर मौजूद था और हिंदी की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।
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==हिंदी शब्द की व्युत्पत्ति==
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हिंदी शब्द की व्युपत्ति भारत के उत्तर–पश्चिम में प्रवाहमान [[सिंधु नदी]] से सम्बन्धित है। अधिकांश [[विदेशी यात्री]] और आक्रान्ता उत्तर–पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आने वाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए, वह '[[सिंधु]]' का देश था। [[ईरान]] ([[फ़ारस]]) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही सम्बन्ध थे और ईरानी 'सिंधु' को 'हिन्दु' कहते थे। (सिंधु - हिन्दु, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन - [[पहलवी भाषा]] प्रवृत्ति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन)। '''हिन्दू शब्द [[संस्कृत]] से प्रचलित है परंतु यह संस्कृत के 'सिन्धु' शब्द से विकसित है।''' हिन्दू से 'हिन्द' बना और फिर 'हिन्द' में [[फ़ारसी भाषा]] के सम्बन्ध कारक प्रत्यय 'ई' लगने से 'हिंदी' बन गया। 'हिंदी' का अर्थ है—'हिन्द का'। इस प्रकार हिंदी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द 'हिंदी की भाषा' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा।
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उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं—
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#'हिंदी' शब्द का विकास कई चरणों में हुआ- '''सिंधु'''→ '''हिन्दु'''→ '''हिन्द+'''→ '''हिंदी'''। प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने “हिन्दी-उर्दू का अद्वैत” शीर्षक आलेख में विस्तार से स्पष्ट किया है कि [[ईरान]] की प्राचीन [[अवेस्ता भाषा|भाषा अवेस्ता]] में “स्” ध्वनि नहीं बोली जाती थी। अवेस्ता में “स्” का उच्चारण “ह्” किया जाता था। उदाहरण के लिए [[संस्कृत]] के असुर शब्द का उच्चारण अहुर किया जाता था। अफ़ग़ानिस्तान के बाद की [[सिन्धु नदी]] के पार के हिन्दुस्तान के इलाके को प्राचीन फारसी साहित्य में “हिन्द” एवं “हिन्दुश” के नामों से पुकारा गया है। “हिन्द” के भूभाग की किसी भी वस्तु, भाषा तथा विचार के लिए विशेषण के रूप में “हिन्दीक” का प्रयोग होता था। हिन्दीक माने हिन्द का या हिन्द की। यही हिन्दीक शब्द [[अरबी भाषा|अरबी]] से होता हुआ ग्रीक में “इंदिका” तथा “इंदिके” हो गया। ग्रीक से लैटिन में यह “इंदिया” तथा लैटिन से अंग्रेज़ी में “इंडिया” शब्द रूप बन गए। यही कारण है कि अरबी एवं फ़ारसी साहित्य में “हिन्द” में बोली जाने वाली ज़बानों के लिए “ज़बान-ए-हिन्द” लफ्ज़ मिलता है। [[भारत]] में आने के बाद मुसलमानों ने “ज़बान-ए-हिन्दी” का प्रयोग [[आगरा]]-[[दिल्ली]] के आसपास बोली जाने वाली भाषा के लिए किया। “ज़बान-ए-हिन्दी” माने हिन्द में बोली जाने वाली जबान। इस इलाक़े के गैर-मुस्लिम लोग बोले जाने वाले भाषा-रूप को “भाखा” कहते थे, हिन्दी नहीं। [[कबीरदास]] की प्रसिद्ध पंक्ति है – संस्किरित है कूप जल, भाखा बहता नीर।
 +
#'हिंदी' शब्द मूलतः फ़ारसी का है न कि 'हिंदी' भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जनमे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालाँकि कुछ कट्टर हिंदी प्रेमी 'हिंदी' शब्द की व्युत्पत्ति हिंदी भाषा में ही दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे - हिन (हनन करने वाला) + दु (दुष्ट)= हिन्दू अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला हिन्दू और उन लोगों की भाषा 'हिंदी'; हीन (हीनों)+दु (दलन)= हिन्दू अर्थात् हीनों का दलन करने वाला हिन्दू और उनकी भाषा 'हिंदी'। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है, इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।
 +
#'हिंदी' शब्द के दो अर्थ हैं— 'हिन्द देश के निवासी' (यथा— '''हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा'''— इक़बाल) और 'हिंदी की भाषा'। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द दो आरम्भिक अर्थों से पृथक हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई हिंदी नहीं कहता, बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इस देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब 'हिंदी' शब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं, जो सब 'हिंदी' नहीं कहलाती हैं। बेशक ये सभी 'हिन्द' की भाषाएँ हैं, लेकिन केवल 'हिंदी' नहीं हैं। उन्हें हम [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]], [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]], [[असमिया भाषा|असमिया]], [[उड़िया भाषा|उड़िया]], [[मराठी भाषा|मराठी]] आदि नामों से पुकारते हैं। इसलिए 'हिंदी' की इन सब भाषाओं के लिए 'हिंदी' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता। हिंदी' शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है, बल्कि यह भाषा समूह का नाम है। हिंदी जिस भाषा समूह का नाम है, उसमें आज के हिंदी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में [[ब्रजभाषा]], [[अवधी भाषा|अवधी]] एवं [[खड़ी बोली]] को आगे चलकर [[मध्यकाल]] में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
 +
*'''ब्रजभाषा'''- प्राचीन हिंदी काल में [[ब्रजभाषा]] अपभ्रंश–अवहट्ट से ही जीवन रस लेती रही। अपभ्रंश–अवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा [[साहित्य]] का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का 'प्रद्युम्न चरित' (1354 ई.) है।
 +
*'''अवधी'''- [[अवधी भाषा|अवधी]] की पहली कृति मुल्ला दाउद की 'चंद्रायन' या 'लोरकहा' (1370 ई.) मानी जाती है। इसके उपरान्त अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोत्तर विकास होता गया।
 +
*'''खड़ी बोली'''- प्राचीन हिंदी काल में रचित [[खड़ी बोली]] साहित्य में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, [[गोरखनाथ]] आदि नाथों, [[अमीर ख़ुसरो]] जैसे सूफ़ियों, [[जयदेव]], [[संत नामदेव|नामदेव]], [[रामानंद]] आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश–अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।
  
==शिक्षा तथा दीक्षा==
 
{{main|सनातन गोस्वामी का बाल्यकाल और शिक्षा|सनातन गोस्वामी को दीक्षा}}
 
सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की।<br />
 
सनातन गोस्वामी ने मंगलाचरण में केवल विद्यावाचस्पति के लिये 'गुरुन्' शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उनके दीक्षा गुरु थे, और अन्य सब शिक्षा गुरु। 'गुरुन' शब्द बहुवचन होते हुए भी गौरवार्थ में बहुत बार एक वचन में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी एक वचन में प्रयुक्त होकर विद्यावाचस्पति के साथ जुड़ा हुआ है।<ref> डा. सुशील कुमार देने भी अपनी पुस्तक Early History of the Vaisnava Faith and Movement in Bengal (p. 148 fn) में लिखा है “The word gurun in the passage expressly qualifies Vidyavavchaspatin only, and the plural is honontic”</ref> यदि विद्यावाचस्पति और सार्वभौम भट्टाचार्य दोनों दोनों से जुड़ा होता तो द्विवचन में प्रयुक्त किया गया होता।
 
====रचना====
 
सनातन गोस्वामी की रचनाएँ निम्न हैं-
 
#श्रीकृष्णलीलास्तव
 
#वैष्णवतोषिणी
 
#श्री बृहत भागवतामृत
 
#हरिभक्तिविलास तथा
 
#भक्तिरसामृतसिंधु
 
 
==भक्ति-साधना==
 
सनातन गोस्वामी गौड़ दरबार में सुलतान के शिविर में रहते समय मुसलमानी वेश-भूषा में रहते, अरबी और फारसी में अनर्गल चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि रूप और सनातन जब रामकेलि महाप्रभु के दर्शन करने गये, उस समय नित्यानन्द और हरिदास ने, जो महाप्रभु के साथ थे, कहा-
 
रूप और साकर आपके दर्शन को आये हैं। यहाँ सनातन को ही साकर (मल्लिक) कहा गया है।<ref>रूप साकर आइला तोमा देखिबारे। (चैतन्य-चरितामृत 2।1।174</ref>
 
{{main|सनातन गोस्वामी की भक्ति-साधना}}
 
 
==वृन्दावन आगमन==
 
{{main|सनातन गोस्वामी का वृन्दावन आगमन}}
 
'सनातन गोस्वामी ने दरवेश का भेष बनाया और अपने पुराने सेवक ईशान को साथ ले चल पड़े [[वृन्दावन]] की ओर। उन्हें [[हुसैनशाह]] के सिपाहियों द्वारा पकड़े जाने का भय था। इसलिये [[राजपथ]] से जाना ठीक न था। दूसरा मार्ग था पातड़ा पर्वत होकर, जो बहुत कठिन और विपदग्रस्त था। उसी मार्ग से जाने का उन्होंने निश्चय किया। सनातन को आज मुक्ति मिली है। हुसैनशाह के बन्दीखाने से ही नहीं, माया के जटिल बन्धन से भी। उस मुक्ति के लिये ऐसी कौन सी क़ीमत है, जिसे देने को वे प्रस्तुत नहीं।
 
[[चित्र:madan-mohan-temple-1.jpg|[[मदन मोहन मन्दिर वृन्दावन|मदन मोहन जी का मंदिर, वृन्दावन]]<br /> Madan Mohan temple, Vrindavan|thumb|200px]]
 
==चैतन्य महाप्रभु से मिलन==
 
{{main|सनातन गोस्वामी का चैतन्य महाप्रभु से मिलन}}
 
सनातन गोस्वामी कुछ दिनों में [[काशी]] पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही सुसंवाद मिला कि महाप्रभु [[वृन्दावन]] से लौटकर कुछ दिनों से काशी में चन्द्रशेखर आचार्य के घर ठहरे हुए हैं। उनके [[नृत्य]]-[[कीर्तन]] के कारण काशी में भाव-भक्ति की अपूर्व बाढ़ आयी हुई है। यह सुन उनके आनन्द की सीमा न रही।
 
==मदनगोपाल विग्रह की प्राप्ति==
 
{{main|सनातन गोस्वामी को मदनगोपाल विग्रह की प्राप्ति}}
 
वृन्दावन पहुँचकर [[सनातन गोस्वामी|सनातन]] ने जमुना पुलिन के वन प्रान्त से परिवेष्टित आदित्य टीले के निर्जन स्थान में अपनी पर्णकुटी में फिर आरम्भ किया, अपनी अंतरंग साधना के साथ महाप्रभु द्वारा निर्दिष्ट-लीलातीर्थ- उद्धार' [[कृष्ण]]-भक्ति-प्रचार और कृष्ण-विग्रह-प्रकाश आदि का कार्य आरम्भ किया।<br />
 
मदनगोपाल को अपनी व्यवस्था आप करनी पड़ी। उस दिन पंजाब के एक बड़े व्यापारी श्रीरामदास कपूर जमुना के रास्ते नाव में कहीं जा रहे थे। नाव अनेक प्रकार की बहुमूल्य सामग्री से लदी थी, जिसे उन्हें कहीं दूर जाकर बेचना था। दैवयोग से आदित्य टीले के पास जाकर नाव फँस गयी जल के भीतर रेत के एक टीले में और एक ओर टेढ़ी हो गयी।<br />
 
सनातन गोस्वामी ने अपनी [[कुटिया]] के निकट ही एक फूँस की झोंपड़ी का निर्माण किया और उसमें मदनगोपाल जी को स्थापित किया। उनके भोग के लिये वे मधुकरी पर ही निर्भर करते। मधुकरी में जो आटा मिलता उसकी अंगाकड़ी (बाटी) बनाकर भोग के रूप में उनके सामने प्रस्तुत करते।
 
{{seealso|सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन मन्दिर का निर्माण|सनातन गोस्वामी द्वारा मदनमोहन की सेवा}}
 
 
==भक्ति सिद्धान्त==
 
{{main|सनातन गोस्वामी का भक्ति सिद्धान्त}}
 
[[चैतन्य महाप्रभु|श्रीचैतन्य महाप्रभु]] ने एक बार [[सनातन गोस्वामी]] की असाधारण शक्ति का मूल्यांकन करते हुए कहा था- "तुम्हारे भीतर मुझ तक को समझाने और पथ प्रदर्शन करने की शक्ति है। कितनी बार तुमने इसका परिचय भी दिया है।"<ref>"आमा के ओ बुझाइते तुमि धर शक्ति।</small><br />
 
कत गञि बुझायाछ व्यवहार-भक्ति॥"(चैतन्य चरित 3/4/163</ref>
 
इस शक्ति के कारण ही उन्होंने उनके शरीर को अपने उद्देश्य की सिद्धि का प्रधान साधन माना था- तोमार शरीर मोर प्रधान साधन।"<ref>चैतन्य चरित 3/4/73</ref>
 
 
==सनातन और हुसैनशाह==
 
{{main|सनातन गोस्वामी और हुसैनशाह}}
 
हुसैनशाह के दरबार में रूप-सनातन किस प्रकार राज-मन्त्री हुए, इस सम्बन्ध में श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने 'सप्त गोस्वामी' ग्रन्थ में लिखा है-"शैशव में सनातन और उनके भाई बाकला से रामकेलि अपने पितामह मुकुन्ददेव के पास ले जाये गये। उन्होंने ही उनका लालन-पालन किया।
 
 
==वंश परम्परा==
 
{{main|सनातन गोस्वामी की वंश परम्परा}}
 
रूप और [[सनातन गोस्वामी|सनातन]] के असाधारण व्यक्तित्व की गरिमा का सही मूल्यांकन करने के लिए उनकी वंश परम्परा पर दृष्टि डालना आवशृयक है। उनके पूर्वपुरुष दक्षिण [[भारत]] में रहते थे। वे राजवंश के थे और जैसे राजकार्य में [[दक्ष]] थे वैसे ही शास्त्र-विद्या में प्रवीण थे। 
 
 
==नीलाचल में==
 
{{main|सनातन गोस्वामी नीलाचल में}}
 
महाप्रभु ने स्वयं ही एक बार नीलाचल जाने को सनातन गोस्वामी से कहा था। इसलिये वे झारिखण्ड के जंगल के रास्ते नीलाचल की पदयात्रा पर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते अनाहार और अनियम के कारण उन्हें विषाक्त खुजली रोग हो गया। उसके कारण सारे शरीर से क्लेद बहिर्गत होते देख, वे इस प्रकार विचार करने लगे, एक तो मैं वैसे ही म्लेक्ष राजा की सेवा में रह चुकने के कारण अपवित्र और अस्पृश्य हूँ।
 
 
==विविध घटनाएँ==
 
{{main|सनातन गोस्वामी विविध घटनाएँ}}
 
नन्दग्राम में जिस कुटी में [[सनातन गोस्वामी]] भजन करते थे, वह आज भी विद्यमान है। इसमें रहते समय एक बार मदनगोपाल जी ने उनके ऊपर विशेष कृपा की। यद्यपि वे मदनगोपालजी को [[वृन्दावन]] में छोड़कर यहाँ चले आये थे, मदनगोपाल उन्हें भूले नहीं थे। वे छाया की तरह हर समय उनके आगे-पीछे रहते और उनके योग-क्षेम की चिन्ता रखते।
 
 
<div align="center">'''[[सनातन गोस्वामी का परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div>
 
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध=}}
 
==वीथिका-गौड़ीय संप्रदाय==
 
<gallery>
 
चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-3.jpg|गुरु पूर्णिमा पर [[भजन-कीर्तन]] करते श्रद्धालु, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]
 
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चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-26.jpg|गुरु पूर्णिमा पर [[भजन-कीर्तन]] करते श्रद्धालु, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]
 
चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-7.jpg|गुरु पूर्णिमा पर [[भजन-कीर्तन]] करते श्रद्धालु, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]
 
चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-27.jpg|गुरु पूर्णिमा पर शंख बजाती श्रद्धालु युवती, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]
 
चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-8.jpg|गुरु पूर्णिमा पर [[भजन-कीर्तन]] करते श्रद्धालु, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]
 
चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-10.jpg|गुरु पूर्णिमा पर [[भजन-कीर्तन]] करते श्रद्धालु, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]
 
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक3|पूर्णता=|शोध=}}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>
 +
==बाहरी कड़ियाँ==
 +
*[http://www.pravakta.com/indian-aryan-languages-of-the-indo-european-family भारोपीय परिवार की भारतीय भाषाएँ]
 +
*[http://www.pravakta.com/reflections-in-relation-to-hindi-language हिन्दी भाषा के सम्बंध में कुछ विचार]
 +
*[http://www.rachanakar.org/2010/03/blog-post_3350.html हिन्दी भाषा-क्षेत्र एवं हिन्दी के क्षेत्रगत रूप]
 +
*[http://www.scribd.com/doc/22142436/Hindi-Urdu हिन्दी-उर्दू का अद्वैत]
 +
*[http://www.scribd.com/doc/22573933/Hindi-kee-antarraashtreeya-bhoomikaa हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीय भूमिका]
 +
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{चैतन्य महाप्रभु}}{{सनातन गोस्वामी2}}{{सनातन गोस्वामी}}
+
{{हिन्दी भाषा}}{{भाषा और लिपि}}{{व्याकरण}}
[[Category:चैतन्य महाप्रभु]]
+
[[Category:भाषा और लिपि]][[Category:भाषा कोश]][[Category:साहित्य कोश]]
[[Category:भक्ति साहित्य]]
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[[Category:हिन्दी भाषा]]
[[Category:सगुण भक्ति]][[Category:साहित्य कोश]]
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[[Category:जनगणना अद्यतन]]
 
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07:19, 5 मई 2016 का अवतरण

प्राचीन हिंदी

हिंदी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय हिंदी का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। सन् 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।

अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास
शौरसेनी पश्चिमी हिंदी
राजस्थानी
गुजराती
अर्द्धमागधी पूर्वी हिंदी
मागधी बिहारी
उड़िया
बांग्ला
असमिया
खस पहाड़ी (शौरसेनी से प्रभावित)
ब्राचड़ पंजाबी(शौरसेनी से प्रभावित)
सिंधी
महाराष्ट्री मराठी
  • मध्यदेशीय भाषा परम्परा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिंदी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरी है।
  • प्राचीन हिंदी से अभिप्राय है— अपभ्रंश– अवहट्ट के बाद की भाषा।
  • हिंदी का आदिकाल हिंदी भाषा का शिशुकाल है। यह वह काल था, जब अपभ्रंश–अवहट्ट का प्रभाव हिंदी भाषा पर मौजूद था और हिंदी की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।

हिंदी शब्द की व्युत्पत्ति

हिंदी शब्द की व्युपत्ति भारत के उत्तर–पश्चिम में प्रवाहमान सिंधु नदी से सम्बन्धित है। अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर–पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आने वाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए, वह 'सिंधु' का देश था। ईरान (फ़ारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही सम्बन्ध थे और ईरानी 'सिंधु' को 'हिन्दु' कहते थे। (सिंधु - हिन्दु, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन - पहलवी भाषा प्रवृत्ति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन)। हिन्दू शब्द संस्कृत से प्रचलित है परंतु यह संस्कृत के 'सिन्धु' शब्द से विकसित है। हिन्दू से 'हिन्द' बना और फिर 'हिन्द' में फ़ारसी भाषा के सम्बन्ध कारक प्रत्यय 'ई' लगने से 'हिंदी' बन गया। 'हिंदी' का अर्थ है—'हिन्द का'। इस प्रकार हिंदी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द 'हिंदी की भाषा' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं—

  1. 'हिंदी' शब्द का विकास कई चरणों में हुआ- सिंधुहिन्दुहिन्द+ईहिंदी। प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने “हिन्दी-उर्दू का अद्वैत” शीर्षक आलेख में विस्तार से स्पष्ट किया है कि ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में “स्” ध्वनि नहीं बोली जाती थी। अवेस्ता में “स्” का उच्चारण “ह्” किया जाता था। उदाहरण के लिए संस्कृत के असुर शब्द का उच्चारण अहुर किया जाता था। अफ़ग़ानिस्तान के बाद की सिन्धु नदी के पार के हिन्दुस्तान के इलाके को प्राचीन फारसी साहित्य में “हिन्द” एवं “हिन्दुश” के नामों से पुकारा गया है। “हिन्द” के भूभाग की किसी भी वस्तु, भाषा तथा विचार के लिए विशेषण के रूप में “हिन्दीक” का प्रयोग होता था। हिन्दीक माने हिन्द का या हिन्द की। यही हिन्दीक शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में “इंदिका” तथा “इंदिके” हो गया। ग्रीक से लैटिन में यह “इंदिया” तथा लैटिन से अंग्रेज़ी में “इंडिया” शब्द रूप बन गए। यही कारण है कि अरबी एवं फ़ारसी साहित्य में “हिन्द” में बोली जाने वाली ज़बानों के लिए “ज़बान-ए-हिन्द” लफ्ज़ मिलता है। भारत में आने के बाद मुसलमानों ने “ज़बान-ए-हिन्दी” का प्रयोग आगरा-दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली भाषा के लिए किया। “ज़बान-ए-हिन्दी” माने हिन्द में बोली जाने वाली जबान। इस इलाक़े के गैर-मुस्लिम लोग बोले जाने वाले भाषा-रूप को “भाखा” कहते थे, हिन्दी नहीं। कबीरदास की प्रसिद्ध पंक्ति है – संस्किरित है कूप जल, भाखा बहता नीर।
  2. 'हिंदी' शब्द मूलतः फ़ारसी का है न कि 'हिंदी' भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जनमे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालाँकि कुछ कट्टर हिंदी प्रेमी 'हिंदी' शब्द की व्युत्पत्ति हिंदी भाषा में ही दिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे - हिन (हनन करने वाला) + दु (दुष्ट)= हिन्दू अर्थात् दुष्टों का हनन करने वाला हिन्दू और उन लोगों की भाषा 'हिंदी'; हीन (हीनों)+दु (दलन)= हिन्दू अर्थात् हीनों का दलन करने वाला हिन्दू और उनकी भाषा 'हिंदी'। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है, इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।
  3. 'हिंदी' शब्द के दो अर्थ हैं— 'हिन्द देश के निवासी' (यथा— हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा— इक़बाल) और 'हिंदी की भाषा'। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द दो आरम्भिक अर्थों से पृथक हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई हिंदी नहीं कहता, बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इस देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब 'हिंदी' शब्द का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं, जो सब 'हिंदी' नहीं कहलाती हैं। बेशक ये सभी 'हिन्द' की भाषाएँ हैं, लेकिन केवल 'हिंदी' नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं। इसलिए 'हिंदी' की इन सब भाषाओं के लिए 'हिंदी' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता। हिंदी' शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है, बल्कि यह भाषा समूह का नाम है। हिंदी जिस भाषा समूह का नाम है, उसमें आज के हिंदी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
  • ब्रजभाषा- प्राचीन हिंदी काल में ब्रजभाषा अपभ्रंश–अवहट्ट से ही जीवन रस लेती रही। अपभ्रंश–अवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का 'प्रद्युम्न चरित' (1354 ई.) है।
  • अवधी- अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की 'चंद्रायन' या 'लोरकहा' (1370 ई.) मानी जाती है। इसके उपरान्त अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोत्तर विकास होता गया।
  • खड़ी बोली- प्राचीन हिंदी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर ख़ुसरो जैसे सूफ़ियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश–अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।


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