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पूर्वाभिमुख इस विहार की कुर्सी चौकोर है, जिसकी एक भुजा 18.29 मी. है। सातवीं शताब्दी में [[भारत]] भ्रमण पर आए चीनी यात्री [[ह्वेन त्सांग]] ने इसका वर्णन 200 फुट ऊँचे 'मूलगंध कुटी विहार' के नाम से किया है।<ref>थामस वाटर्स, आन् युवान् च्वाँग्स् ट्रेवेल्स् इन इंडिया, भाग दो, पृ. 47</ref> इस मंदिर पर बने हुए नक़्क़ाशीदार गोले और नतोदर ढलाई, छोटे-छोटे स्तंभों तथा सुदंर कलापूर्ण कटावों आदि से यह निश्चित हो जाता है कि इसका निर्माण [[गुप्त काल]] में हुआ था।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ् इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1905-06, पृ. 68</ref> परंतु इसके चारों ओर [[मिट्टी]] और चूने की बनी हुई पक्की फर्शों तथा दीवालों के बाहरी भाग में प्रयुक्त अस्त-व्यस्त नक़्क़ाशीदार पत्थरों के आधार पर कुछ विद्धानों ने इसे 8वीं शताब्दी के लगभग का माना है। | पूर्वाभिमुख इस विहार की कुर्सी चौकोर है, जिसकी एक भुजा 18.29 मी. है। सातवीं शताब्दी में [[भारत]] भ्रमण पर आए चीनी यात्री [[ह्वेन त्सांग]] ने इसका वर्णन 200 फुट ऊँचे 'मूलगंध कुटी विहार' के नाम से किया है।<ref>थामस वाटर्स, आन् युवान् च्वाँग्स् ट्रेवेल्स् इन इंडिया, भाग दो, पृ. 47</ref> इस मंदिर पर बने हुए नक़्क़ाशीदार गोले और नतोदर ढलाई, छोटे-छोटे स्तंभों तथा सुदंर कलापूर्ण कटावों आदि से यह निश्चित हो जाता है कि इसका निर्माण [[गुप्त काल]] में हुआ था।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ् इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1905-06, पृ. 68</ref> परंतु इसके चारों ओर [[मिट्टी]] और चूने की बनी हुई पक्की फर्शों तथा दीवालों के बाहरी भाग में प्रयुक्त अस्त-व्यस्त नक़्क़ाशीदार पत्थरों के आधार पर कुछ विद्धानों ने इसे 8वीं शताब्दी के लगभग का माना है। | ||
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13:38, 16 अक्टूबर 2013 का अवतरण
मूलगंध कुटी विहार
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विवरण | 'मूलगंध कुटी विहार' सारनाथ, उत्तर प्रदेश में स्थित एक प्रसिद्ध बौद्ध धार्मिक स्थल है। भारत भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इसका वर्णन 200 फुट ऊँचे 'मूलगंध कुटी विहार' के नाम से किया है। |
राज्य | उत्तर प्रदेश |
शहर | सारनाथ |
निर्माण काल | गुप्त काल |
उत्खनन कार्य | 1904 |
संबंधित लेख | सारनाथ, गुप्त काल, बुद्ध |
अन्य जानकारी | विहार के प्रवेश द्वार पर तांबे की एक बड़ी-सी घंटी लगी हुई है, जिसे जापान के एक शाही परिवार ने उपहार में दिया था। |
मूलगंध कुटी विहार सारनाथ, उत्तर प्रदेश के नष्ट हो चुके प्रचीन निर्माणों के बीच स्थित है। यह विहार धर्मराजिका स्तूप से उत्तर की ओर स्थित है। इसका निर्माण गुप्त काल में हुआ था। कुछ विद्वानों ने इसे नक़्क़ाशीदार पत्थरों के आधार पर आठवीं शताब्दी का माना है।
निर्माण काल
पूर्वाभिमुख इस विहार की कुर्सी चौकोर है, जिसकी एक भुजा 18.29 मी. है। सातवीं शताब्दी में भारत भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इसका वर्णन 200 फुट ऊँचे 'मूलगंध कुटी विहार' के नाम से किया है।[1] इस मंदिर पर बने हुए नक़्क़ाशीदार गोले और नतोदर ढलाई, छोटे-छोटे स्तंभों तथा सुदंर कलापूर्ण कटावों आदि से यह निश्चित हो जाता है कि इसका निर्माण गुप्त काल में हुआ था।[2] परंतु इसके चारों ओर मिट्टी और चूने की बनी हुई पक्की फर्शों तथा दीवालों के बाहरी भाग में प्रयुक्त अस्त-व्यस्त नक़्क़ाशीदार पत्थरों के आधार पर कुछ विद्धानों ने इसे 8वीं शताब्दी के लगभग का माना है।
भित्तिचित्र
'मूलगंध कुटी विहार' में आकर्षक भित्तिचित्र आकर्षित करने वाले हैं। इसे जापान के एक प्रसिद्ध पेंटर कोसेत्सु नोसु ने बनाया था। विहार के प्रवेश द्वार पर तांबे की एक बड़ी-सी घंटी लगी हुई है, जिसे जापान के एक शाही परिवार ने उपहार में दिया था। यहाँ गौतम बुद्ध की सोने की एक आदमकद प्रतिमा भी रखी हुई है।
बोधि वृक्ष
मंदिर में एक बोधि वृक्ष भी है, जिसे श्रीलंका के एक पेड़ से प्रतिरोपण के जरिए यहाँ लगाया गया था। श्रीलंका स्थित वृक्ष की उत्पत्ति उसी मूल वृक्ष से हुई है, जिसके नीचे बोध गया में आज से 2500 साल पहले गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।[3]
मंदिर का प्रवेश द्वार
यहाँ मंदिर में प्रवेश के लिए तीनों दिशाओं में एक-एक द्वार और पूर्व दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार (सिंह द्वार) था। कालांतर में जब मंदिर की छत कमज़ोर होने लगी तो उसकी सुरक्षा के लिए भीतरी दक्षिणापथ को दीवारें उठाकर बन्द कर दिया गया। अत: आने जाने का रास्ता केवल पूर्व के मुख्य द्वार से ही रह गया। तीनों दरवाजों के बंद हो जाने से ये कोठरियों जैसी हो गई, जिसे बाद में छोटे मंदिरों का रूप दे दिया गया।
उत्खनन
1904 ई. में श्री ओरटल को खुदाई कराते समय दक्षिण वाली कोठरी में एकाश्मक पत्थर से निर्मित 9 ½ X 9 ½ फुट की मौर्य काल की वेदिका मिली। इस वेदिका पर उस समय की चमकदार पॉलिश है। यह वेदिका प्रारम्भ में धर्मराजिका स्तूप के ऊपर हार्निका के चारों ओर लगी थीं। इस वेदिका पर कुषाण काल की ब्राह्मी लिपि में दो लेख अंकित हैं-
- 'आचाया (य्र्या) नाँ सर्वास्तिवादि नां परिग्रहेतावाम्'
- 'आचार्यानां सर्वास्तिवादिनां परिग्राहे'
इन दोनों लेखों से यह ज्ञात होता है कि तीसरी शताब्दी ई. में यह वेदिका सर्वास्तिवादी संप्रदाय के आचार्यों को भेंट की गई थी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ थामस वाटर्स, आन् युवान् च्वाँग्स् ट्रेवेल्स् इन इंडिया, भाग दो, पृ. 47
- ↑ आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ् इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट), 1905-06, पृ. 68
- ↑ मूलगंध कुटी विहार, सारनाथ (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 16 अक्टूबर, 2013।
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