नेपाल में हिन्दी और हिन्दी साहित्य -सूर्यनाथ गोप

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लेखक- सूर्यनाथ गोप

भारत के उत्तर में लगभग 500 मील की लम्बाई में पूरब से पश्चिम तक फैला नेपाल जहाँ अपनी नैसर्गिक सुषमा और संपदा के लिए एशिया का स्विटजरलैंड कहा जा सकता है, वहीं अपने शौर्य एवं वीरता तथा सांस्कृतिक चेतना के लिए हिमालय की गोद में पला यह राष्ट्र हिमालय की ही तरह एशिया का सजग प्रहरी भी कहा जा सकता है। इस राष्ट्र ने अपनी सजगता का परिचय बारहवीं शताब्दी से ही देना शुरू कर दिया था, जब भारत पर पश्चिम से लगातार आक्रमणों का नया दौर प्रारंभ हुआ था। तब से लेकर भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना तक अनेक हिन्दू राजाओं जैसे हरिसिंह देव, भारत में अंग्रेज़ी उपनिवेश के विरुद्ध लड़ने वालों, जैसे तात्या टोपे, बेगम हजरत महल आदि प्रमुख व्यक्तियों का शरणास्थल भी यह देश रहा है।
इस देश में अनेक छोटे-बड़े राजा थे, जो आपस में लड़ते रहते थे। भावी अनिष्टों की कल्पना तथा भारत में लगातार हिन्दू राज्यों की पराजय से शिक्षा लेकर वर्तमान शाहवंशीय शासकों में प्रथम तथा दूरदर्शी नरेश पृथ्वी नारायण शाहदेव ने आज के नेपाल का एकीकरण किया था। यह एक सुखद आश्चर्य की बात है कि जिस महाराजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल को एक सूत्र में बाँधा, वह नाथ संप्रदाय के उन्नायक हिन्दी के सुपरिचित कवि, उत्तर भारत में हिन्दू संस्कृति एवं धर्म के महान् रक्षक योगी गोरखनाथ के बड़े भक्त ही नहीं, वरन् स्वयं हिन्दी के अच्छे कवि भी थे। उनके भजन अभी भी रेडियों नेपाल से प्राय: सुनाई पड़ते हैं। उदाहरण के लिए उनका एक भजन यहाँ प्रस्तुत है-
बाबा गोरखनाथ सेवक सुष दाये, भजहुँ तो मन लाये।
बाबा चेला चतुर मछिन्द्रनाथ को, अधबधु रूप बनाये।।
शिव में अंश शिवासन कावे, सिद्धि माहा बनि आये।। बाबा 1 ।।
सिंधिनाद जटाकुवरि, तुम्बी बगल दबाये।।
सम्रथन बांध बधम्बर बैठे, तिनिहि लोक वरदाये।। 2 ।। बाबा ।।
मुन्द्रा कान में अति सोभिते, गेरूवा वस्त्र लगाये।
गलैमाल कद्राच्छे सेली, तन में भसम चढ़ाये।। 3 ।। बाबा ।।
अगम कथा गोरखनाथ कि महिमा पार न पाये।।
नरभूपाल साह जिउको नन्दन पृथ्वीनारायण गाये।। 4 ।।
बाबा गोरखनाथ सेवक सुख दाये, भजहूँ तो मन भाये।।
 

हिन्दी का एक विशाल क्षेत्र नेपाल

अनुसंधान एवं अध्ययन ही नहीं बल्कि अन्य भी कई दृष्टियों से नेपाल हिन्दी का एक ऐसा विशाल क्षेत्र है, जिससे हिन्दी जगत् अब तक लगभग अपरिचित सा रहा है। यहाँ के हिन्दी साहित्य का थोड़ा परिचय सर्वप्रथम महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने दिया, जब उन्होंने विद्यापति की कीर्तिलता एवं कुछ पदों को वहाँ से ढूँढ निकाला था। राहुल सांकृत्यायन ने भी उन व्यक्तियों की थोड़ी-बहुत चर्चा की है, जिन्होंने वहाँ हिन्दी के भंडार में योगदान दिया है। उनमें राजगुरु हेमराज शर्मा उल्लेखनीय हैं। सच कहा जाए तो नाथ संप्रदायी योगियों से लेकर जोसमनी संतों तक, मल्लकालीन राजाओं से लेकर शाहवंशीय नरेश एवं राजकुल के अनेक सम्मानित व्यक्तियों, सदियों से तिब्बत और भारत के साथ समान रूप से व्यापार करने वाली वहाँ की विशिष्ट नेवार जाति से लेकर पर्वतीय प्रदेश में रहने वाले विद्वान् ब्राह्मण वर्ग और वहाँ के शूरवीर श्रेष्ठ क्षत्रीय वर्ग तथा सेना आदि में काम करने वाली अन्य कई जातियों ने हिन्दी की साहित्य धारा और भाषायी प्रवाह को वहाँ सदा गतिशील बनाये रखा। यह ठीक है कि हिन्दी इस विकास धारा के साथ साथ उनकी अपनी मातृभाषा, ख़ासकर नेपाली और नेवासी भी विकसित होती गई है। परंतु विकास ने हिन्दी के साथ उनके संबंध को और गहरा बनाया है। इसके पीछे संस्कृति और धर्म आदि की वह समान धुरी काम कर रही है, जिससे दोनों ही देशों के साहित्यिक चक्र बराबर जुड़े रहे हैं। यही कारण है कि नेपाल उस संस्कृति, धर्म और साहित्य की रक्षा में भारत का सदा से हाथ बँटाता रहा है, जिसे विदेशी आक्रमणकारी तलवार और साजिश के बल पर नष्ट करने में लगे रहे। नेपाल के संग्रहालय, सरकारी व निजी पुस्तकालयों तथा व्यक्तियों के पास सुरक्षित अनेक हस्तलिखित और प्रकाशित सामग्री इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।
 

नेपाल में हिन्दी का व्यवहार किन-किन स्तरों पर

यों देखा जाए तो डेढ़ करोड़ की आबादी वाले इस देश में लगभग पचहत्तर प्रतिशत लोग हिन्दी का किसी न किसी रूप में प्रयोग करते हैं। बाकी आबादी में उन निरे अशिक्षित हिमालय की ऊपरी या सुदूर उत्तरी सीमा पर रहने वाले तिब्बती या उनके मिश्रित नस्ल के लोगों को ले सकते हैं, जिनका कोई संपर्क निचले भाग या तलहटी के लोगों से नहीं हो पाता। परंतु ऐसे लोग भी सामान्य व्यवहार की हिन्दी की समझ ज़रूर लेते हैं, क्योंकि तम्बाकू या अन्य कई चीज़ों के हिन्दी भाषी व्यापारी वहाँ भी पहुँचते ही रहते हैं। वास्तव में नेपाल की तराई और पहाड़ के लोगों के बीच आपसी आदान-प्रदान और संपर्क ने वहाँ पहाड़ी क्षेत्रों में हिन्दी को और भी सुलभ और ग्राहय बनाया। इस संपर्क से नेपाली भाषा का भी बहुत विकास हुआ है और नेपाली के इस विकास के पीछे हिन्दी का मुख्य रूप से हाथ रहा है। हिन्दी और उसकी बोलियाँ जहाँ तराई के लोगों को आसानी से नेपाली के निकट ले गईं वहीं पहाड़ के लोगों के बीच सुगम और लोकप्रिय भी होती गईं। इसके साथ ही पहाड़ों में चलने वाली नेपाली की समानांतर अन्य कई भाषाएँ जैसे गुरूड़, मगर, लेप्चा, तामाडु, डोटेली, शेर्पाली, नेवारी आदि अनेक भाषाओं के बीच नेपाली को तेज़ीसे फलने-फूलने और राष्ट्रभाषा होने का अवसर भी हिन्दी के कारण मिला। यदि नेपाली भाषा की प्रवृत्तियाँ हिन्दी से संबद्ध नहीं होतीं, उसकी शैलियों से अगर वह जुड़ी नहीं होती तो आज नेपाली भाषा वहाँ की राष्ट्रभाषा कहलाने का अवसर संभवत: नहीं पा सकती। क्योंकि नेवारी जैसी समृद्ध, प्राचीन और लोकप्रिय भाषा पहले से ही डटी थी। फिर भी वह तो काठमांडू उपत्यका के सभी राज्यों की राजभाषा भी कभी रह चुकी थी। पर चूंकि नेपाली (जिसका पुराना नाम खसकुरा, पर्वते या गोरखा भाषा है) हिन्दी की उत्तर-पश्चिमी धारा की पहाड़ी राजस्थानी बोलियों से विकसित हुई थी, इसलिए उसमें हिन्दी की वे सभी मूल प्रवृत्तियाँ ज्यों की त्यों आज तक बनी हुई हैं। फलत: वह नेपाल के पहाड़ों में चलने वाली मगर, तामाडु, लेप्चा, डोटेली, शेर्पाली, नेवारी आदि कई विकसित एवं समृद्ध भाषाओं को पीछे धकेल कर आसानी से राष्ट्रभाषा के स्तर तक पहुँच गई।
नेपाल में हिन्दी का व्यवहार मुख्यतया तीन रूपों में होता है। प्रथम तो तराई के लगभग अस्सी-पचासी लाख लोगों की वह पहली भाषा है। अर्थात् भारत के उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा से लगे आबादी की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण नेपाल के इस तराई क्षेत्र में हिन्दी उसी रूप में प्रथम भाषा है, जिस रूप में बिहार और उत्तर प्रदेश में है। द्वितीय : हिन्दी वहाँ पहाड़ों एवं पहाड़ी नगरों में निवास करने वाले उन बहुसंख्यक लोगों की द्वितीय और संपर्क भाषा है, जिनकी मातृभाषा नेपाली है। इस प्रकार उस देश की आबादी के लगभग नब्बे प्रतिशत लोगों की हिन्दी प्रथम और द्वितीय एवं संपर्क भाषा है। सच तो यह है कि हिन्दी के इस व्यापक प्रयोग ने ही उसे सर्वप्रथम 1950-60 के दशक और फिर बाद के दशकों में कुछ राजनीतिक पेचीदगी में जकड़ दिया और राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किए जाने की मांग जोर पकड़ने लगी। नेपाल-तराई-कांग्रेस तथा उसके प्रमुख नेता बेदानंद झा ने तो इसे ही अपनी पार्टी का मूल मुद्दा बनाया और हिन्दी को संवैधानिक स्तर प्रदान करने का हर संभव प्रयास जारी रखा। उधर नेपाली कांग्रेस के कई प्रमुख नेता मातृका प्रसाद कोइराला, सूर्य प्रसाद उपाध्याय, रामनारायण मिश्र तथा प्रजा परिषद के भद्रकाली मिश्र आदि महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने भी हिन्दी को संविधान में द्वितीय राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की मांग की। नेपाली कांग्रेस सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री बी. पी. कोईराला तो हमेशा हिन्दी से संबद्ध ही नहीं रहे वरन् उसके अच्छे लेखक भी थे। उस समय संविधान में हिन्दी को उपर्युक्त द्वितीय स्थान देने का निर्णय लगभग हो चुका था। हिन्दी को संवैधानिक स्तर तो वहाँ नहीं मिल सका, लेकिन जनस्तर पर वह उसी रूप में विकसित होती रही, भले ही बाद के सरकारी आंकड़ों में हिन्दी भाषियों की संख्या चाहे कितनी कर करके दिखाने की कोशिश होती रही है।
 

हिन्दी का व्यवहार नेपाल में कब से?

नेपाल के हिन्दी के व्यवहार का प्राचीनतम रूप शिलालेखों एवं उपलब्ध हस्तलिखित सामग्रियों से अनुमान किया जा सकता है। पश्चिम नेपाल की दांग घाटी में प्राप्त आज से अलगभग 650 वर्ष पूर्व के शिलालेख में दांग का तत्कालीन राजा रत्नसेन, जो बाद में योगी बन गया था, उसकी एक 'दंगीशरण कथा' नामक रचना भी मिलती है। यह कृति नेपाल में हिन्दी के व्यापक प्रयोग और गहरी जड़ को पुष्ट करती है। यह रचना साहित्यिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही हिन्दी की भाषिक विकास प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी साहित्य का जो इतिहास आज तक लिखा गया है, वह भारत के हिन्दी साहित्य का ही इतिहास है। वास्तव में भारत से बाहर हिन्दी की जो धाराएं चलती रही हैं, वे अब भी इतिहासकारों की दृष्टि से ओझल है। उनकी ओर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। मेरे विचार से तो नेपाल की हिन्दी और उसके साहित्य का एक अलग ही बड़ा इतिहास तैयार हो सकता है। पाल्पा के सेन वंशीय नरेशों तथा पूरब में मोरंग और अन्य कई राज्यों के तत्कालीन नरेशों ने तो हिन्दी को अपनी राजभाषा ही बनाया था। कुष्णशाह, मुकंदसेन आदि नरेशों के सभी पत्र और हुक्मनामें हिन्दी में ही मिलते हैं, जिससे हिन्दी की तत्कालीन स्थिति का आसानी से अनुमान हो जाता है। काठमांडू उपत्यका के मल्ल राजाओं में से अनेक ने हिन्दी में रचनाएं कीं। उनके हिन्दी प्रेम का कारण भी वहां हिन्दी का व्यापक प्रयोग और प्रचार ही कहा जा सकता है। इस प्रकार हिन्दी वहाँ कम से कम सात सौ वर्षों पूर्व से ही बहुसंख्यक लोगों की प्रथम और द्वितीय भाषा के रूप में चलती आई है।
 

नेपाल-भारत के बीच सांस्कृतिक-धार्मिक और हिन्दी की भूमिका

बारहवीं शताब्दी में भारत पर मुस्लिम आक्रमण का सिलसिला प्रारंभ होने से पहले तक, हिमालय के दक्षिणी भूभाग में एक ही संस्कृति थी। मुस्लिम संस्कृति ने भारतीय समाज और राज्य व्यवस्था को काफ़ी प्रभावित किया है। परंतु नेपाल पर इसी कारण बहुत कम प्रभाव पड़ा।
अपनी राष्ट्रभाषा नेपाली के विकास के साथ-साथ नेपाल ने संस्कृत शिक्षा पर भी काफ़ी जोर दे रखा है। दूसरी ओर अनेक संत-साधुओं तथा विद्वानों का अकसर भारत से आगमन होता रहता है और प्रवचन आदि हिन्दी में होने के कारण वहाँ के लोग उसे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। उधर नेपाल के लोग भी प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में ख़ासकर उत्तर भारत के तीर्थ स्थल काशी, प्रयाग, हरिद्वार आते ही रहते हैं, जहाँ हिन्दी उन्हें आसानी से एक दूसरे से जोड़ने का काम करती है। बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों और नेपाल के लोगों का आपस में वैवाहिक संबंध भी पहले से चलता आ रहा है और स्वाभाविक रूप से हिन्दी एक दूसरे के बीच आदान-प्रदान का माध्यम बनती रही है। फिर उत्तर भारत के व्यापारियों और उद्योगपतियों तथा नेपाल के व्यापारियों के बीच आपसी लेन देन भी प्रारंभ से ही चलता आया है। नेपाल और भारत के ऐसे सामाजिक, व्यापारिक और धार्मिक एवं सांस्कृतिक संबंध में हिन्दी की प्रमुख भूमिका ही नहीं, वरन् वह आज तक भी एक दूसरे को समीप लाने में एकमात्र सशक्त माध्यम रही है।
 

नेपाल के लिए हिन्दी की उपादेयता

नेपाल में हिन्दी जिनकी वह प्रथम या द्वितीय भाषा नहीं है, उन सबों के लिए भी उतनी ही उपयोगी है। हिन्दी का अच्छा ज्ञान नेपाली के अच्छे ज्ञान में स्वाभाविक रूप से सहयोगी होता है। इसलिए यह उन लोगों के लिए भी सरल पड़ती है, जिनकी मात्रभाषा नेपाली नहीं है। हिन्दी सीख लेने के बाद नेपाली सीखना और भी आसान हो जाता है। ख़ासकर उत्तरी सीमा पर रहने वाले तिब्बती मूल के लोगों ने हिन्दी के माध्यम से नेपाली सीखी है। यह कोई भी व्यक्ति उनसे पहली बार ही बातचीत करके समझ सकता है।
हिन्दी में तकनीकी और ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों का जिस तेज़ीसे प्रकाशन हो रहा है, उसने नेपाली पाठकों को विज्ञान की अधुनातन प्रवृत्तियों से जोड़ने में बड़ी मदद की है। इसके कई कारण हैं। जैसे- अंग्रेज़ी में प्रकाशित पुस्तकों की अपेक्षा हिन्दी माध्यम से पढ़ना उन्हें सरल पड़ता है और वे आसानी से समझ लेते हैं। दूसरी बात नेपाल के शिक्षा बिंदु की आंतरिक इच्छा है कि नेपाली भाषा का विकास हो। इस मामले में वहाँ के शिक्षा बिंदु और सरकार की राष्ट्रभाषा के प्रति काफ़ी दिलचस्पी है। नेपाली को अंग्रेज़ी की इस मार से बचाने में हिन्दी की तकनीकी, ज्ञान-विज्ञान तथा अन्य विषयों से संबंधी पाठ्य पुस्तकें बड़ी सहायता कर रही हैं। नेपाली से आये हुए पाठक तथा अध्येता हिन्दी की इन पुस्तकों के आधार पर ही नेपाली माध्यम की परीक्षाओं में बैठते हैं। यहाँ तक की उच्च शिक्षा में भी अंग्रेज़ी माध्यम से परीक्षा देने वालों की संख्या नगण्य-सी है।
 

नेपाल का हिन्दी साहित्य

नेपाल में उपलब्ध हिन्दी साहित्य की अनेक हस्तलिखित प्रतियाँ मिलती हैं। प्राचीन साहित्यकारों में नाथपंथी एवं विद्यापती की रचनाओं से लेकर विगत शताब्दी तक की कई रचनाओं की हस्तलिखित प्रतियाँ स्थान-स्थान पर देखने को मिलती हैं। कुछ वर्षों पहले की खोजों से उदघटित प्रणामी साहित्य का मूल ग्रंथ 'कुलजमस्वरूप' की भी दो हस्तलिखित प्रतियाँ वहाँ सुरक्षित हैं। वहाँ के अनेक मल्लकालीन रचनाओं की हिन्दी रचनाएँ भी उपलब्ध होती हैं। मल्ल रचनाओं का समय आज से दो सौ वर्ष पूर्व से लेकर छ: सौ वर्ष पूर्व से भी अधिक तक ठहरता है। जगतज्योतिर्मल्ल और जयस्थितिमल्ल के हिन्दी भजन तथा नाटक अत्यन्त उत्कृष्ट हैं। इसी काल से एक मानवीर कछिपति नाम के व्यक्ति का लिखा नाटक 'श्री कृष्णचरित प्याख' नेपाल के तत्कालीन हिन्दी साहित्य का सुंदर नमूना है। मल्लकाल के नाटकों की एक और विशेषता यह है कि उनके संवाद तो हिन्दी में हैं, पर स्थान-स्थान पर संकेत-निर्देश नेवारी भाषा में हैं, जो मल्ल राजाओं की राजभाषा थी। आज भी काठमांडू उपत्यका की मूल भाषा नेवारी ही है। इसका पुराना तथा प्रचलित नाम नेपाल भाषा है। मल्लकाल में हिन्दी नाटकों तथा मंच की खूब उन्नति हुई। उस समय काठमांडू उपत्यका के विभिन्न स्थानों पर बनाए गए 'दबली' (ईंट और पत्थर का बना खुला पक्का रंगमंच) आज भी ज्यों के त्यों हैं। जिन पर अब या तो मुहल्ले के बच्चे दिन भर उछलकूद करते रहते हैं या परचून की दुकाने सजती हैं। उस समय उन 'दबली' पर दिखाये जाने वाले अधिकांश नाटक हिन्दी के ही हुआ करते थे। उन्नत रंगमंच के कारण ही संभवत: उस समय सर्वाधिक नाटक रचे गए।
इधर शाहवंशीय नरेशों में पृथ्वीवीर विक्रम के समय की कई रचनाएं मिलती हैं। राजा राजेंद्र विक्रम शाह तो स्वयं हिन्दी में अच्छी कविताएँ किया करते थे, जिनमें से कई उपलब्ध भी हो चुकी हैं। विषय की दृष्टि से मूलतया नेपाल में ही रचित हिन्दी साहित्य का आयाम बहुत बड़ा है। और यदि संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो विभिन्न विषयों पर वहाँ रचित हिन्दी ग्रंथों की संख्या एक हज़ार से भी ऊपर हो जाने का अनुमान है। इनमें स अधिकतर अप्रकाशित हैं। और न इनकी कोई सुव्यवस्थित सूची ही तैयार की जा सकती है। नेपाली साहित्य की कई महान् हस्तियाँ, प्राचीन एवं समसामयिक, जैसे आशुकवि शंभुप्रसाद दुंगेल, मोतीराम भट्ट, लेखनाथ पौड़याल, गिरीश बल्लभ जोशी, रघुनाथ भांट, उदयानंद अर्ज्याल से लेकर आधुनिक कथाकार उपन्यासकार भवानी भिक्षु (श्री भिक्षु तो मूलत: हिन्दी भाषी और हिन्दी लेखक ही थे), सरदार रुद्राज पांडेय, लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा, सूर्यविक्रम व्यथित आदि वरिष्ठ नेपाली साहित्यकारों की भी कई हिन्दी रचनाएँ मिलती हैं। शुभप्रसाद ने देवकीनंदन खत्री के 'चंद्रकान्ता' और 'चंद्रकान्ता संतति' से प्रभावित होकर हिन्दी में 'प्रेमकांता' आठ भागों में तथा 'प्रेमकांता संतति' उपन्यास बारह भागों में लिखा, जो प्रकाशित हैं। उनका एक 'वत्सराज' नामक अप्रकाशित नाटक भी उपलब्ध हुआ है। इसके अतिरिक्त एक अन्य नाटक, जिसमें उर्दू-मिश्रित भाषा का प्रयोग है, प्राप्त हुआ है। उसी प्रकार गिरीश बल्लभ जोशी का भी 'गिरीशवाणी' नाम का एक बृहद उपन्यास तथा अन्य कई रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं, परंतु वे सबकी सब अप्रकाशित हैं। आधुनिक लेखकों में जिन विशिष्ट नेपाली साहित्यकारों की उल्लेखनीय हिन्दी रचनाएँ हैं, उनमें मोहनराज शर्मा, डॉक्टर ध्रुवचंद गौतम, चेतन कार्की, दुर्गाप्रसाद श्रेष्ठ 'उपेंद्र', धूस्वां सायमि आदि का नाम प्रमुख है।
मूल रूप से सिर्फ़ हिन्दी में लिखने वालों में श्री बुन्नीलाल एक ऐसे लेखक हैं, जिनकी रचनाओं में नेपाल के पूर्वाचल के जीवन का सुंदर चित्रण पाया जाता है। इनकी कुछ रचनाएँ ही प्रकाशित हैं तथा एक उत्कृष्ट उपन्यास 'नयन कहर दरियाव' प्रकाशनाधीन है। बुन्नीलाल नेपाल में फधीश्वरनाथ रेणु और नागार्जुन की याद दिलाते हैं। इनकी शैली पाठक को बांध लेती है। इनके अतिरिक्त तारिणी प्रसाद यादव, केदार मानंधर आदि की भी काफ़ी सशक्त रचनाएँ हैं। पर इन दोनों की सभी रचनाएँ अभी अप्रकाशित हैं। एक सूर्यदास मानंध (सुकुबाबा) हुए, जिनका समय लगभग 200 वर्ष पहले माना जाता है। उनकी भी कई हस्तलिखित हिन्दी रचनाएँ उपलब्ध हैं। ऐसे अनेक लेखक और अनेक कृतियों का उल्लेख अभी बाकी ही है, जिनके संबंध में इस लेख में लिख पाना संभव नहीं। वास्तव में नेपाल में हिन्दी की साहित्यिक गतिविधि काफ़ी उत्साहवर्धक होते हुए भी वहाँ के हिन्दी साहित्य एवं साहित्यकारों की अनेक गंभीर समस्याओं को भारत की हिन्दी संस्थाएँ तथा वहाँ की सरकार थोड़ा ध्यान देकर हल कर सकती हैं। कुछ समस्याएँ हैं-
(क)अप्रकाशित हिन्दी ग्रंथों के प्रकाशन।
(ख)प्राचीन एवं मध्यकाल में रचित हिन्दी ग्रंथों की खोज तथा उसके सम्यक संरक्षण की व्यवस्था।
(ग)वर्तमान समय में लिखने वाले लेखकों को समय-समय पर प्रोत्साहन।
 
इन सब समस्याओं को ध्यान में रखते हुए वर्धा के विश्व हिन्दी विद्यापीठ से संबद्ध एक विश्व हिन्दी अकादमी की स्थापना होनी चाहिए, जो विश्व में भारत के अतिरिक्त अन्य देशों की हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति इन उपर्युक्त दायित्वों को संभाले। वैसे इतना हो जाने भर से ही विश्व में हिन्दी की समस्याओं का अंत नहीं हो जाएगा। पर यह एक शुभ शुरूआत होगी। जो ख़ासकर नेपाल जैसे भारत के अत्यंत निकट के पड़ोसी देश-हिन्दी साहित्य की दृष्टि से तो कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और निकटतम देश के साथ सांस्कृतिक तथा परापूर्व से आ रहे धार्मिक आदि संबंधों को और भी मजबूत बनाएगी।



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