भदन्त आनन्द कौसल्यायन
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पूरा नाम | भदन्त आनन्द कौसल्यायन |
अन्य नाम | हरिनाम दास |
जन्म | 5 जनवरी, 1905 |
जन्म भूमि | अम्बाला, पंजाब |
मृत्यु | 22 जून, 1988 |
अभिभावक | रामसरन दास |
कर्म भूमि | भारत |
मुख्य रचनाएँ | 'जो भूल न सका', 'जो लिखना पड़ा', 'देश की मिट्टी बुलाती है', 'मनुस्मृति क्यों जलायी गई?', 'राम कहानी राम की जबानी' आदि। |
भाषा | संस्कृत, पाली, अंग्रेज़ी और सिंहली |
पुरस्कार-उपाधि | 'वाचस्पति' की उपाधि |
प्रसिद्धि | बौद्ध विद्वान् तथा समाज सुधारक |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | बौद्ध धर्म, बौद्ध दर्शन, गौतम बुद्ध |
विशेष | 'बोधगया' का एक महंत छोटे बच्चों से कृषि का काम लिया करता था। बच्चों को महंत के चंगुल से निकालने के लिए भदन्त जी ने वहां पर एक विद्यालय की स्थापना की। |
अन्य जानकारी | राहुल सांकृत्यायन की प्रेरणा से भदन्त आनन्द जी बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए थे। उन्हें परिव्राजक के वस्त्र पहनने को मिले और बौद्ध तीर्थों की यात्रा करने की प्रेरणा भी मिली। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
भदन्त आनन्द कौसल्यायन (अंग्रेज़ी: Bhadant Anand Kausalyan; जन्म- 5 जनवरी, 1905, अम्बाला, पंजाब; मृत्यु- 22 जून, 1988) प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु, लेखक तथा पालि भाषा के मूर्धन्य विद्वान् थे। ये पूरे जीवन घूम-घूमकर राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार करते रहे। भदन्त आनन्द कौसल्यायन बीसवीं शती में बौद्ध धर्म के सर्वश्रेष्ठ क्रियाशील व्यक्तियों में गिने जाते थे। ये दस वर्षों तक 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति', वर्धा के प्रधानमंत्री रहे। देशवासियों की समता के ये प्रबल समर्थक थे। इन्होंने 21 वर्ष की उम्र में ही घर का त्याग कर दिया था और देशाटन के लिए निकल पड़े थे।
जन्म तथा शिक्षा
भदन्त आनन्द कौसल्यायन का जन्म 5 जनवरी, 1905 को अविभाजित पंजाब के अम्बाला ज़िले में 'सोहना' नामक गाँव में हुआ था। ये खत्री परिवार से सम्बंधित थे। इनका बचपन का नाम 'हरिनाम दास' था। पिता रामसरन दास अम्बाला के ही एक हाईस्कूल में प्रधानाध्यापक पद पर नियुक्त थे। वर्ष 1920 में हरिनाम दास ने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर 1924 में उन्नीस वर्ष की अवस्था में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। जब हरिनाम दास जी लाहौर में थे, तब उन्होंने उर्दू भाषा का अध्ययन भी किया।
गृह त्याग
हरिनाम दास बचपन से ही स्वतंत्र विचारों के व्यक्ति थे। देश की ग़ुलामी उन्हें असह्य थी और समाज में फैला भेदभाव का बर्ताव उनको विचलित कर देता था। वे देशवासियों की समता के समर्थक थे। इन्हीं विचारों का परिणाम था कि उनके अंदर वैराग्य की भावना पनपने लगी थी और 21 वर्ष की उम्र में घर छोड़कर वे देशाटन के लिए निकल पड़े। देश भ्रमण में वे अनेक स्थानों में गए और वहां के लोगों की जीवन चर्चा और संस्कृति का निकट से अध्ययन किया। इसी क्रम में उनका संपर्क कांगड़ा ज़िले की 'डुमने' और 'सराडे' नामक जातियों से हुआ। हरिनाम दास ने उनमें फैली बुराइयों को दूर करने की चेष्टा की और कुछ समय तक उनके बच्चों की शिक्षा का भी प्रबंध किया।[1]
राहुल सांकृत्यायन से भेंट
इस बीच हरिनाम दास की भेंट एक साधु से हुई। इस साधु का नाम था- 'रामोदर दास'। यही 'रामोदर दास' बाद में राहुल सांकृत्यायन के नाम से विख्यात हुए। राहुल जी से मिलना हरिनाम दास के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। राहुल जी की प्रेरणा से वे बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए। उन्हें परिव्राजक के वस्त्र पहनने को मिले और बौद्ध तीर्थों की यात्रा करने की प्रेरणा भी मिली।
शोध व साहित्य सृजन
भारत के समस्त बौद्ध तीर्थों की यात्रा करने के बाद और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए हरिनाम दास वर्ष 1928 ई. में श्रीलंका गए। वहां 'त्रिपिटक' आदि ग्रंथों का गंभीर अध्ययन किया। अब वे भदन्त आनन्द कौसल्यायन के नाम से पहचाने जाने लगे थे। उनका ध्यान शोध और साहित्य सृजन की और भी गया। उन्होंने संस्कृत, पाली, अंग्रेज़ी और सिंहली भाषाओं में प्रवीणता प्राप्त कर ली थी।
विभिन्न गतिविधियाँ
- भदन्त आनन्द जी 1932 में धर्मदूत बन कर लंदन गए। बाद में उन्होंने चीन, जापान, थाईलैंड आदि देशों की यात्रा की। सब जगह उनका विद्वानों से संपर्क हुआ और उन्होंने बौद्ध धर्म की विभिन्न प्रवृत्तियों के संबंध में विचारों का आदान-प्रादान किया।
- उन्होंने कुछ समय तक सारनाथ में रहकर 'महाबोधि सभा' का काम भी देखा और 'धर्मदूत' नामक पत्र का संपादन भी किया।
- वर्ष 1956 में नेपाल में आयोजित 'चतुर्थ बौद्ध सम्मेलन' में भी वे सम्मिलित हुए। वहीं उनकी भेंट डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर से हुई थी।[1]
विद्यालय की स्थापना
भदन्त आनन्द कौसल्यायन नई पीढ़ी की शिक्षा पर बहुत बल देते थे। 'बोधगया' का एक महंत छोटे बच्चों से कृषि का काम लिया करता था। बच्चों को महंत के चंगुल से निकालने के लिए उन्होंने वहां पर एक विद्यालय की स्थापना की।
कृतियाँ
भदन्त आनन्द जी ने हिन्दी साहित्य के संवर्धन के लिए बहुत काम किया। बौद्ध जातक कथाओं को हिन्दी में उपलब्ध कराने का श्रेय उनको ही है। उनकी कुछ अन्य कृतियां भी प्रसिद्ध हैं, जैसे-
- 'जो भूल न सका'
- 'जो लिखना पड़ा'
- 'रेल का टिकट'।
- 'दर्शन-वेद से मार्क्स तक'
- 'देश की मिट्टी बुलाती है'
- 'मनुस्मृति क्यों जलायी गई?'
- 'राम कहानी राम की जबानी'
- 'भगवान बुद्ध और उनके अनुचर'
- 'बौद्ध धर्म का सार'
- 'बौद्ध धर्म एक बुद्धिवादी अध्ययन'
सम्मान
'दर्शन-वेद से मार्क्स तक' में उन्होंने भारत के सभी दर्शनों का वर्णन किया है। उनकी हिन्दी सेवाओं के लिए 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' ने उन्हें 'वाचस्पति' की उपाधि से सम्मानित किया था।[1]
निधन
भदन्त आनन्द कौसल्यायन जी का निधन 22 जून, 1988 ई. को हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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