भाषायी समस्या : एक राष्ट्रीय समाधान -नर्मदेश्वर चतुर्वेदी

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लेखक- नर्मदेश्वर चतुर्वेदी

भाषा लोक व्यवहार का सशक्त साधन है। भावोद्गार को प्रकट करने, विचार को बोधगम्य बनाने तथा जगत-व्यवहार को चलाने का विश्वव्यापी माध्यम है। एक दूसरे को भली भांति जानने, पहचानने और समझने की कुंजी है। इसके अभाव में भाव मुक्त, विचार बधिर और व्यवहार लंगड़े बनकर रह जाते हैं। इसी के बल तथा आश्रय से मनुष्य इतर प्राणियों से भिन्न और पृथक् होकर अपने को सभ्य एवं संस्कृत कहलाने का दम भरता है।

परंतु इन जैसी बातों तथा विशेषताओं के रहते भी अभी तक ऐसी कोई विश्वव्यापी भाषा नहीं बन पाई है, जिसे सर्वमान्य ठहराया जा सके। इसके ऐतिहासिक, भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा शारीरिक जैसे कई कारण हैं। किसी वस्तु, बात या विषय का आरंभ या उसकी रचना देश काल की सीमा के भीतर परिवेश या परिस्थिति विशेष में हुआ करता है और उसका प्रचार-प्रसार अथवा संकोच विस्तार पुरुषार्थ के परिणाम के अनुपात के अनुरूप होता है। इसलिए इनका स्वरूप भेद इनके मूल उद्देश्य की पूर्ति में बाधक न होकर सहायक ही बनना चाहिए।

भाषा भेद किसी न किसी रूप और मात्रा में सब समय रहता है। मध्य काल में जब क्षेत्रीय बोलियाँ अपने अपने विकास पथ पर बड़ी तीव्र गति से अग्रसर हो रही थीं, वैसा टकराव-बिखराव न था। उन दिनों न तो कोई भाषायी समस्या थी न ही विवाद था। भाषायी विवाद और समस्या को जन्म देकर उकसाने-उभारने का सारा श्रेय ब्रिटिश शासन और उसके अवयवों को है। यह विरासत हमें उन्हीं की कूटनीति के दुष्परिणाम स्वरूप मिली है, जिसे आज इसने अपने सिरदर्द के रूप में पाल लिया है। उसके कुफल को भोगना अनिवार्य सा हो चला है। इससे त्राण पाने के लिए सूझ-बूझ और सद्भावना की आवश्यकता है, क्योंकि भाषा किसी धर्म या जाति से ही बँधकर अपने राष्ट्रीय चरित्र और विश्वजनीन प्रकृति से वंचित रह जाती है।

विडंबना यह है कि सब समय ऐसा नहीं हो पाता है। कभी कभी संकुचित स्वार्थ के कारण दृष्टि पथ धूमिल पड़ जाता है और मनुष्य की जय यात्रा में एक भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। फलस्वरूप वह पथभ्रष्ट ही नहीं, लक्ष्य विरत भी हो जाता है, जिसकी परिणति संघर्ष में होती है। उसकी रचनात्मक प्रवृत्तियों का स्थान ध्वंसकारी गतिविधियाँ ले लेती हैं। इसका एक स्वाभाविक कुपरिणाम यह होता है कि निहित स्वार्थ वालों की बन जाती है और उनकी कुचालें फलवती दिखाई देने लगती हैं। दाँव-पेंच से अनभिज्ञ व्यक्तियों के निर्विकार चित्त में भी विकार घर बना लेता है और धीरे धीरे पलती दरारें भी खाई बनकर दुराव ला देती हैं, जिन्हें पार करना सब समय सुगम या संभव नहीं हो पाता है। इसके लिए असीम धैर्य, समय तथा सक्रियता की अपेक्षा एवं आवश्यकता हुआ करती है। एक बार एकता सूत्र के उलझ जाने पर अभिन्नता का बोध कराना कठिन तथा दुरुह हो जाता है। विश्वजनीनता का भाव कवि कल्पना मात्र लगने लगता है। उसकी अखंडता को मार्मिक आघात पहुँचता है।

हमारे तत्त्व चिंतक पूर्व पुरुष नानात्व में एकत्व का अनुभव कर सके थे। इसलिए 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' जैसी अनुभूति को वाणी प्रदान कर पाते थे। उन्हें राष्ट्र का भी बोध था, किंतु पूरक रूप में विघटनकारी प्रतिद्वंद्वी रूप में नहीं। उसके विश्वजनीन विचार मानव मात्र के लिए थे, किसी वर्ण, वर्ग या जाति विशेष के लिए नहीं। उनका विश्व व्यक्ति का ही विस्तार था। परंतु उच्च एवं उन्नत विचारों की सार्थकता उनकी सफल व्यावहारिकता में ही है। व्यावहारिकता की खोट वैचारिक विमलता को धूमिल बना देती है और व्यावहारिक निर्दोषता मनुष्य की चारित्रिक निपुणता पर निर्भर करती है। इसीलिए हमारे यहाँ सुव्यवस्था के साथ साथ सच्चरित्रता पर भी बन दिया गया है। स्मरणीय है कि निर्मल दृष्टि भी उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने में सक्षम एवं समर्थ है।

प्रस्तुत संदर्भ में इतनी विस्तृत भूमिका देने की आवश्यकता इसलिए प्रतीत हुई कि बहुधा भाषायी समस्या को भाषा वैज्ञानिक न रहने देकर उसे राजनीतिक मुहरे का रूप दे दिया जाता है और उसका उपयोग अभीष्ट की पूर्ति के लिए अपनी रीति से किया जाने लगता है। किसी भाषा की प्रकृति, उसके स्वरूप, उसकी प्राणवता और प्रेरक शक्ति को जान-पहचान कर उसे यथा योग्य स्थान पर प्रतिष्ठित रखने का ध्यान बहुत ही कम रखा जाता है। इस प्रकार का कार्य प्राय: ऐसे लोगों के द्वारा सम्पन्न होता है, जो इसके अधिकारी नहीं होते, उनके लिए काँच और हीरे में कोई अंतर नहीं होता है। सभी समान रूप में उपभोग्य वस्तुएँ हैं। ऐसी असंगत, अवांछनीय और अवैधानिक दृष्टि किसी भी जाति या राष्ट्र के लिए आत्मघाती हो सकती है। इसलिए भाषायी समस्याएँ समय समय पर उकसाकर उलझा दी जाती हैं और विषयांतर करके उसकी आड़ में मनमानी कर ली जाती है। यह एक नाजुक स्थिति है। ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न को हल्के-फुल्के ढंग से सुलझाया नहीं जा सकता। इसका विश्लेषण-विवेचन पर्याप्त गंभीरता के साथ किया जाना चाहिए। इसके लिए उसकी पृष्ठभूमि को जान रखना सर्वथा एवं समीचीन है।

भारतीय भाषाओं में संस्कृत सर्वाधिक प्राचीन भाषा बतलाई जाती है। भर्तुहरि जैसे मनीषी ने तो इसे अनादि तक कह डाला है। आदि तो कहीं न कहीं और कभी न कभी हुआ ही होगा। फिर भी जिसका ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध न हो उसे अनादि कह देना अनैतिहासिक नहीं ठहराया जा सकता है। निस्संदेह संस्कृत वाड्मय से अधिक पुरानी संस्कृत भाषा रही होगी। इस संदर्भ में पूर्व प्रचलित किसी निविद भाषा का नाम भी लिया जाता है, जिसके विषय में हमारी यथेष्ट जानकारी नहीं है। वैदिक वाड्मय से भी प्राचीनतर तमिल अथवा प्राकृत भाषा के होने का प्रमाण अनुपलब्ध है। परंतु किसी भाषा की मात्र प्राचीनता अपने आप में उसके अस्तित्व को बनाए रखने का औचित्य सिद्ध नहीं करती है। इस कसौटी पर संस्कृत की स्थिति अन्यान्य भाषाओं से भिन्न और खरी उतरती है। संस्कृत भाषा में उपलब्ध साहित्य के अवलोकन मात्र से यह स्पष्ट होती होते देर नहीं लगती है कि वह मात्र लोक व्यवहार अथवा जगत् व्यवहार चलाने की भाषा नहीं है अपितु उसमें पूर्व पुरुषों द्वारा अर्जित ज्ञान विज्ञान की निधियाँ सुरक्षित हैं। वे किसी भी जाति अथवा राष्ट्र के लिए गर्व एवं गौरव की वस्तु तथा विषय है। उनका बहुलांश मानव मात्र के लिए उपयोगी एवं हितकर है। इसी रिक्त के सहारे आज भी संस्कृत भाषा जीवित बनी हुई है और भविष्य में भी बनी रहेगी। ज्ञान-विज्ञान किसी एव की बपौती नहीं है, उसे सदैव सर्वसुलभ रहना चाहिए। संस्कृत में अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ समाहित हैं। इसलिए यह भाषा विशिष्ट एवं अद्वितीय है। जब तक मनुष्य में ज्ञान-विज्ञान की जिज्ञासा तथा पिपासा बनी रहेगी, तब तक संस्कृत भाषा और साहित्य का महत्त्व तथा माहात्म्य अक्षण्ण बना रहेगा। इसमें संदेह नहीं कि इसकी सहचरी रूप में अन्य भाषाएँ भी फूलती, फलती और फैलती रहेंगी।
कुछ लोगों ने भ्रांतिवश संस्कृत को कोरे कर्मकांड की भाषा समझ लिया है। इसका भी एक ऐतिहासिक तथा राजनीतिक कारण है, जो अपने आप में स्वतंत्र विषय है। परंतु वास्तविकता यदि इसके विपरीत नहीं तो बहुत कुछ इससे भिन्न तथा पृथक् अवश्य है। अंतर्साक्ष्य द्वारा यह सरलता से सिद्ध किया जा सकता है कि संस्कृत सार्वभौम भाषा है। इस साहित्य में वनवासी आदिवासी से लेकर नगर निवासी तक का चित्रण है। कामसूत्र से लेकर ब्रह्मसूत्र तक की रचना हुई है। अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, ज्योतिशास्त्र, कृषिशास्त्र, वास्तुशास्त्र, रसायनशास्त्र, दर्शनशास्त्र, साहित्यशास्त्र, गणितशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद तथा अणु-परमाणु जैसे विविध विषयों का इस भाषा में विशद वर्णन विवेचन है। जीवन और जगत् के विषय में जितना गहन एवं गंभीर चिंतन यहाँ उजागर है, उतना किसी एक भाषा में कदाचित सुलभ नहीं है। ऐसी समृद्ध तथा जीवंत भाषा की उपेक्षा अथवा अनदेखी करना आत्म हत्या से भी जघन्तर अपराध है। संस्कृत भाषा के प्रश्न को प्रांतीय अथवा राष्ट्रीय स्तर से बढ़कर लोकोपयोगी विश्वजनीन संदर्भ में जांचना-परखना चाहिए। सूर्य के बिंब को भरे घड़े के जल में भी देखा तो जा सकता है, किंतु स्वयं सूर्य को, उसकी समा को आयत नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार का प्रयास हास्यास्पद ही कहा जायेगा।

घटनाचक्र ने लोक मंच के सवाल को राजनीतिक मंच पर उतार दिया है और राजनीतिक क्षेत्र में उसका उपयोग गेंद के समान उछाल कर किया जाने लगा है। यह कदाचित इसलिए कि हम सत्ताकामी पहले हैं, देश भक्त बाद में। इसलिए कभी तो हिन्दी-उर्दू का प्रश्न उभारा जाता है तो कभी प्रांतीय भाषाओं को उकसाया जाता है। इससे भी दो कदम आगे ऐसे लोग हैं, जो राष्ट्रभाषा के आसन पर विदेशी भाषा को ही बनाए रखने में संकोच का अनुभव नहीं करते, जैसे उनका स्वाभिमान ही तिरोहित हो चुका है। अंग्रेज़ी भाषा को जिस रूप में हम जानते-पहचानते हैं, वह अंग्रेज़ी भाषा भाषियों में ही सर्वमान्य नहीं है। फिर हमारे पूर्वजों ने उसके गुणों पर रीझकर उसे नहीं पढ़ा-सीखा था। इसके आर्थिक और राजनीतिक कारण थे, भाषा वैज्ञानिक अथवा साहित्यिक नहीं। यह हमारी दासता की विरासत है, इससे हमारी प्रांतीय अथवा क्षेत्रीय भाषाओं का भी भविष्य अंधकारमय बन जायेगा। हिन्दी ऐतिहासिक तथा सामाजिक कारणों से हमारी भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनी। आंदोलन की भाषा के रूप में संघर्ष के बीच उसका विकास हुआ है और अपने विशिष्ट नैसर्गिक गुणों के कारण राष्ट्रभाषा के पट पर प्रतिष्ठित हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसका राजभाषा के पद पर आसीन होना स्वाभाविक था और ऐसा ही हुआ भी।

इसी प्रकार उर्दू भारतीय भाषा हिन्दी की शैली के रूप में तुर्क, अरब तथा ईरान के संपर्क से अस्तित्व में आई। आदान-प्रदान की दृष्टि में यह एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी। उनके सान्निध्य में रहकर इसका विकास होना भी अनिवार्य था। कालक्रम से धीरे धीरे यह फूलने, फलने और फैलने भी लगी। इसकी किसी से न तो होड़ थी, न संघर्ष ही था। इसके सहज विकास को नया कृत्रिम मोड़ दिया जाने लगा, प्रयोग की भाषा प्रयास के सांचे में ढलने लगी तो लोग चौंककर चकराने लगे और इसकी प्रतिक्रिया भी आरंभ हो गई। सामंती परिवेश और वातावरण में जन्मी भाषा भी यदि लोक व्यवहार की भाषा बनकर रहे तो भला इसमें किसे आपत्ति हो सकती है, किंतु वही जब राजनीतिक मुहरे के रूप में काम में लाई जाने लगती है, तो उसका सहजपन विकृत होकर दूषित हो जाता है। उर्दू हमारी अपनी भाषा-शैली है, इसलिए उसका दुरुपयोग होते देखकर जितनी पीड़ा हमें होती है, उतनी शतरंज के खिलाड़ियों के लिए कदापि संभव नहीं है।

आज हमारा देश एक नाजुक दौर से गुजर रहा है। यह हमारे लिए एक खुली चुनौती और निर्मम चेतावनी बन गया है। इसके लिए पर्याप्त सजगता, सतर्कता तथा सक्रियता की अपेक्षा है। हमारी एक भूल हमें रसातल में पहुँचा सकती है। ऐसी दशा में विघटनकारी शक्तियों से हमें सावधान रहना है। लोकहित में व्यक्तिगत या दलगत लाभ के लोभ का संवरण करना है। प्रजातंत्र के नाम पर अपनी कुत्सित कामनाओं को चरितार्थ नहीं होने देना है। मनुष्य को अपनी श्रेष्ठता को उजागर करना है।

भाषा वही जीवित रहती है, जो जनता के द्वारा प्रयुक्त होती है। वह न तो विद्वानों द्वारा गढ़ी-मढ़ी जाती है, न कोशों द्वारा सिखाई जाती है। वह गतिशील तथा वृद्धिशील प्रकृति की है, जिसका विस्तार होता रहता है। भाषा जनता की होनी चाहिए, जड़ता की नहीं। हिन्दी राजकाज की ही भाषा नहीं, हमारी सांस्कृतिक विरासत की संदेशवाहिका भी है। राष्ट्रभाषा से अनुस्यूत राष्ट्रलिपि के समाधान का भी यही जनपथ है।

इसके लिए वह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि भाषायी प्रश्न को भाषा वैज्ञानिक परिधि तक ही सीमित रहने दिया जाए, उसे राजनीतिक मुहरे के रूप में उछाला न जाए। इसके लिए अनुकूल वातावरण की आवश्यकता है, जो सद्भाव और सौहार्द द्वारा सर्वथा संभव है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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