किसी मनुष्य में जन साधारण से विशेष गुण या शक्ति का विकास देखकर उसके संबंध में जो एक स्थायी आनंद पद्बति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं।
यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण।
श्रद्धा धर्म की अनुगामिनी है। जहां धर्म का स्फुरण दिखाई पड़ता है, वहीं श्रद्धा टिकती है।
शील के लिए सात्विक हृदय चाहिए।
सच्ची कला वही है जिसे सुनने या देखने से रसिक का मन प्रसन्न हो जाए और उसे एक नई दृष्टि भी मिले।
राग मिलाने वाली वासना है और द्वेष अलग करने वाली।
सच्चा दान दो प्रकार का होता है- एक वह जो श्रद्धावश दिया जाता है, दूसरा वह जो दयावश दिया जाता है।
श्रद्धा सामर्थ्य के प्रति होती है और दया असामर्थ्य के प्रति।
प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं।
केवल नाम की इच्छा रखनेवाला पाखंडी भी नियम का पालन कर सकता है और पूरी तरह कर सकता है, पर शील के लिए सात्विक हृदय चाहिए।
जिसे धर्म की शक्ति पर, धर्मस्वरूप भगवान की अनंत करुणा पर पूर्ण विश्वास है, नैराश्य का दु:ख उसके पास नहीं फटक सकता।