सुख (सूक्तियाँ)

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क्रमांक सूक्तियाँ सूक्ति कर्ता
(1) आप अपनी आंख बंद करके ध्यान लगाएं और खुद से पूछे कि कौन सा काम करते समय आपको आनंद आता है। ऐसी कौन-सी दुनिया है, जो आपको बुलाती है। तभी तुम सही फैसला कर पाओगे।
(2) प्रसन्नता आत्मा को शांति देती है। सैम्युअल स्माइल्स
(3) आनंद ही ब्रह्म है, आनंद से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं. उत्पन्न होने पर आनंद से ही जीवित रहते हैं और मृत्यु से आनंद में समा जाते हैं। उपनिषद
(4) प्रसन्नता स्वास्थ्य देती है, विषाद रोग देते है।
(5) मनुष्य अपने आनंद का निर्माता स्वयं है। थोरो
(6) प्रसन्नचित्त मनुष्य अधिक जीते हैं। शेक्सपियर
(7) प्रसन्न करने का उपाय है, स्वयं प्रसन्न रहना।
(8) हर्ष के साथ शोक और भय इस प्रकार लगे हैं जैसे प्रकाश के संग छाया, सच्चा सुखी वही है जिसकी दृष्टि में दोनों समान हैं। धम्मपद
(9) प्रसन्नता बसन्त की तरह, हृदय की सब कलियां खिला देती है। जीनपॉल
(10) जो व्यक्ति सभी को खुश रखना चाहेगा, वह किसी को खुश नहीं रख सकता।
(11) सुख सर्वत्र मौजूद है, उसका स्त्रोत हमारे हृदयों में है। रस्किन
(12) सुख का रहस्य त्याग में है। एण्ड्रयू कारनेगी
(13) सुख बाहर से मिलने की चीज़ नहीं, मगर अहंकार छोड़े बगैर इसकी प्राप्ति भी होने वाली नहीं। महात्मा गांधी
(14) जीवन का वास्तविक सुख, दूसरों को सुख देने में हैं, उनका सुख लूटने में नहीं। मुंशी प्रेमचंद
(15) जीवन के प्रति जिस व्यक्ति कि कम से कम शिकायतें है, वही इस जगत में अधिक से अधिक सुखी है।
(16) मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरे पास जो भी थोड़ा-बहुत धन शेष है, वह सार्वजनिक हित के कामों में यथाशीघ्र खर्च हो जाए। मेरे अंतिम समय में एक पाई भी न बचे, मेरे लिए सबसे बड़ा सुख यही होगा। पुरुषोत्तमदास टंडन
(17) चाहे राजा हो या किसान, वह सबसे ज़्यादा सुखी है जिसको अपने घर में शान्ति प्राप्त होती है। गेटे
(18) आनंद वह ख़ुशी है जिसके भोगने पर पछताना नहीं पड़ता। सुकरात
(19) केवल आत्मज्ञान ही आत्मा हृदय को सच्चा आनंद प्रदान करता है। स्वामी रामतीर्थ
(20) क्षणभर भी काम के बिना रहना ईश्वर की चोरी समझो, मैं दूसरा कोई रास्ता भीतरी या भाहरी आनंद का नहीं जनता। महात्मा गाँधी
(21) हम स्वयं आनंद की अनुभूति लेने के बजाये दूसरों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं की हम आनंद में हैं। कन्फ्युशियाश
(22) जो वस्तु आनंद प्रदान नहीं कर सकती वह सुन्दर हो ही नहीं सकती। प्रेमचंद
(23) आयु में आनंद है, समग्र शरीर के मंगल में, स्वाश्थ्य में आनंद है। इसी आनंद का भाग करने पर दो वस्तुएं प्राप्त होती हैं एक ज्ञान एंड दूसरा प्रेम। रविन्द्र नाथ टैगोर
(24) जब घर में धन और नाव में पानी आने लगे, तो उसे दोनों हाथों से निकालें, ऐसा करने में बुद्धिमानी है, हमें धन की अधिकता सुखी नहीं बनाती। संत कबीर
(25) भलाई में आनंद है, क्योंकि वह तुम्हारे स्वास्थ्य और सुख में वृद्धि करता है। जरथुष्ट्र
(26) जिज्ञासा के बिना ज्ञान नहीं होता। दुःख के बिना सुख नहीं होता। महात्मा गांधी
(27) जो दूसरों के जीवन के अंधकार में सुख का प्रकाश पहुंचाते हैं, उनका इस संसार से कभी नाश न होगा, वे अमर हैं। स्वेट मार्डेन
(28) वही समाज सदैव सुखी रहकर तरक़्क़ी कर सकता है, जिसमें लोगों ने आपसी प्रेम को आत्मसात कर लिया।
(29) नववर्ष सुख- सम्रध्धि से भरपूर हो।
(30) अगर चाहते सुख समृद्धि, रोको जनसंख्या वृद्धि।
(31) धार्मिक व्यक्ति दुःख को सुख में बदलना जानता है। आचार्य तुलसी
(32) विचित्र बात है कि सुख की अभिलाषा मेरे दुःख का एक अंश है। खलील जिब्रान
(33) संसार में प्रायः सभी जन सुखी एवं धनशाली मनुष्यों के शुभेच्छु हुआ करते हैं। विपत्ति में पड़े मनुष्यों के प्रियकारी दुर्लभ होते हैं। मृच्छकटिक
(34) आत्मा को न शाश्त्र काट सकता है, न आग जला सकती है, न जल भिगो सकता है और न हवा सुखा सकती है। भगवत गीता
(35) प्रयासरत रहिये, सुख संजोइए
(36) अगर इन्सान सुख-दुःख की चिंता से ऊपर उठ जाए, तो आसमान की ऊंचाई भी उसके पैरों तले आ जाय। शेख सादी
(37) चिंता करता हूँ मैं जितनी उस अतीत की, उस सुख की, उतनी ही अनंत में बनती जातीं रेखाएं दुःख की। जयशंकर प्रसाद
(38) तीन बातें सुखी जीवन के लिए- अतीत की चिंता मत करो, भविष्य का विश्वास न करो और वर्तमान को व्यर्थ मत जाने दो।
(39) अज्ञानी वे हैं, जो कुमार्ग पर चलकर सुख की आशा करते हैं।
(40) किसी से ईर्ष्या करके मनुष्य उसका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता है, पर अपनी निद्रा, अपना सुख और अपना सुख-संतोष अवश्य खो देता है।
(41) जीवन और मृत्यु में, सुख और दुःख मे ईश्वर समान रूप से विद्यमान है। समस्त विश्व ईश्वर से पूर्ण हैं। अपने नेत्र खोलों और उसे देखों।
(42) जो लोग पाप करते हैं उन्हें एक न एक विपत्ति सवदा घेरे ही रहती है, किन्तु जो पुण्य कर्म किया करते हैं वे सदा सुखी और प्रसन्न रह्ते हैं।
(43) संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कत्र्तव्य पालन करने में है।
(44) सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय, मान-अपमान, निंदा-स्तुति, ये द्वन्द निरंतर एक साथ जगत में रहते हैं और ये हमारे जीवन का एक हिस्सा होते हैं, दोनों में भगवान को देखें।
(45) सुख-दुःख जीवन के दो पहलू हैं, धूप व छांव की तरह।
(46) सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए।
(47) सुख बाहर से नहीं भीतर से आता है।
(48) सुखों का मानसिक त्याग करना ही सच्चा सुख है जब तक व्यक्ति लौकिक सुखों के आधीन रहता है, तब तक उसे अलौकिक सुख की प्राप्ति नहीं हों सकती, क्योंकि सुखों का शारीरिक त्याग तो आसान काम है, लेकिन मानसिक त्याग अति कठिन है।
(49) सबके सुख में ही हमारा सुख सन्निहित है।
(50) सुख बाँटने की वस्तु है और दु:खे बँटा लेने की। इसी आधार पर आंतरिक उल्लास और अन्यान्यों का सद्‌भाव प्राप्त होता है। महानता इसी आधार पर उपलब्ध होती है।
(51) मरते वे हैं, जो शरीर के सुख और इन्द्रीय वासनाओं की तृप्ति के लिए रात-दिन खपते रहते हैं।
(52) प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजा के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिये। आत्मप्रियता में राजा का हित नहीं है, प्रजा की प्रियता में ही राजा का हित है। चाणक्य
(53) कर्मेशु मंत्री; कार्येशु दासी; रुपेशु लक्ष्मी; क्षमाया धरित्री; भोज्येशु माता; शयनेशु रम्भा; सत्कर्म नारी कुलधर्मपत्नी। - पति के किये कार्य में मंत्री के समान सलाह देने वाली, सेवा में दासी के सामान काम करने वाली, माता के समान स्वादिष्ट भोजन करने वाली, शयन के समय रम्भा के सामान सुख देने वाली, धर्म के अनुकूल और क्षमादी गुण धारण करने में पृथ्वी के सामान स्थिर रहने वाली होती है। संस्कृत सूक्ति
(54) मानव सुख जीवन में है और जीवन परिश्रम में है। अज्ञात
(55) धार्मिक व्यक्ति दुःख को सुख में बदलना जानता है। आचार्य तुलसी
(56) धार्मिक वृत्ति बनाये रखने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं हो सकता और धार्मिक वृत्ति को खोने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता। आचार्य तुलसी
(57) शांति से बढकर कोई ताप नहीं, संतोष से बढकर कोई सुख नहीं, तृष्णा से बढकर कोई व्याधि नहीं और दया के सामान कोई धर्म नहीं। चाणक्य
(58) सौ बरस जीने के लिए उन सभी सुखों को छोड़ना होता है जिन सुखों के लिए हम सौ बरस जीना चाहते हैं। अज्ञात
(59) प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है। चाणक्य
(60) एक बार काम शुरू कर लें तो असफलता का डर नहीं रखें और न ही काम को छोड़ें। निष्ठा से काम करने वाले ही सबसे सुखी हैं। चाणक्य
(61) जिसे पुस्‍तकें पढ़ने का शौक़ है, वह सब जगह सुखी रह सकता है। महात्मा गांधी
(62) जो पुरुषार्थ नहीं करते उन्हें धन, मित्र, ऐश्वर्य, सुख, स्वास्थ्य, शांति और संतोष प्राप्त नहीं होते। वेदव्यास
(63) दान-पुण्य केवल परलोक में सुख देता है पर योग्य संतान सेवा द्वारा इहलोक और तर्पण द्वारा परलोक दोनों में सुख देती है। कालिदास
(64) कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय। आप ठगे सुख होत है, और ठगे दु:ख होय॥ कबीर
(65) सुख में गर्व न करें, दुःख में धैर्य न छोड़ें। पं श्री राम शर्मा आचार्य
(66) आलसी सुखी नहीं हो सकता, निद्रालु ज्ञानी नहीं हो सकता, मम्त्व रखनेवाला वैराग्यवान नहीं हो सकता और हिंसक दयालु नहीं हो सकता। भगवान महावीर
(67) हताश न होना सफलता का मूल है और यही परम सुख है। उत्साह मनुष्य को कर्मो में प्रेरित करता है और उत्साह ही कर्म को सफल बनता है। वाल्मीकि
(68) तप ही परम कल्याण का साधन है। दूसरे सारे सुख तो अज्ञान मात्र हैं। वाल्मीकि
(69) रामायण समस्त मनुष्य जाति को अनिर्वचनीय सुख और शांति पहुँचाने का साधन है। मदनमोहन मालवीय
(70) दुनियावी चीजों में सुख की तलाश, फिजूल होती है। आनन्‍द का ख़ज़ाना, तो कहीं हमारे भीतर ही है। स्वामी रामतीर्थ
(71) मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरे पास जो भी थोड़ा-बहुत धन शेष है, वह सार्वजनिक हित के कामों में यथाशीघ्र खर्च हो जाए। मेरे अंतिम समय में एक पाई भी न बचे, मेरे लिए सबसे बड़ा सुख यही होगा। पुरुषोत्तमदास टंडन
(72) जैसे रात्रि के बाद भोर का आना या दु:ख के बाद सुख का आना जीवन चक्र का हिस्सा है वैसे ही प्राचीनता से नवीनता का सफ़र भी निश्चित है। भावना कुँअर
(73) जैसे दीपक का प्रकाश घने अंधकार के बाद दिखाई देता है उसी प्रकार सुख का अनुभव भी दुःख के बाद ही होता है। शूद्रक
(74) बच्चों को पालना, उन्हें अच्छे व्यवहार की शिक्षा देना भी सेवाकार्य है, क्योंकि यह उनका जीवन सुखी बनाता है। स्वामी रामसुखदास
(75) पुस्तक प्रेमी सबसे धनवान व सुखी होता है, संपूर्ण रूप से त्रुटिहीन पुस्तक कभी पढ़ने लायक़ नहीं होती। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
(76) जो नसीहतें नहीं सुनता, उसे लानत-मलामत सुनने का सुख होता है। शेख़ सादी
(77) इस संसार में सबसे सुखी वही व्‍यक्ति है जो अपने घर में शांति पाता है। गेटे
(78) यह एक प्रकार का आध्यात्मिक दंभ है जिसमें लोगों को लगता है कि वे धन के बिना सुखी रह सकते हैं। एल्बर्ट कामू
(79) अपनी अभिलाषित वस्तुओं में से कुछ के बिना रहना भी सुख का अनिवार्य हिस्सा है। बरट्रेंड रसेल
(80) कभी कभार सुख के पीछे भागना छोड़ कर बस सुखी होना भी एक अच्छी बात है। गियोम अपोलिनेयर
(81) दुनिया ऐसे लोगों से अंटी पड़ी है जो असाधारण सुख की आस में संतोष को ताक पर रख देते हैं। डग लारसन
(82) सुख बीता तो ग़म न करें, बल्कि खुश हों कि सुख मिला तो सही। डॉ. स्युस
(83) सुख हमें नहीं मिल सकता यदि विश्वास हम किन्हीं चीजों में करें और अमल करें किन्हीं और चीज़ों पर। फ्रेया स्टार्क द जर्नीज़ ईको
(84) सुखी विवाह का रहस्य एक रहस्य ही है। हैनी यंगमैन
(85) इस सीमित संसार में भौतिक सुखों की असीमित वृद्धि होते जाना असंभव है। ई एफ शूमाकर
(86) मैंने पाया है कि सुख लगभग हर बार कठोर श्रम की प्रतिक्रिया ही होता है। डेविड ग्रेसन
(87) बांट लेने से सुख दूना होता है और दु:ख आधा। स्वीडन की कहावत
(88) समस्या तभी पैदा होती है जब दिनचर्या का महत्त्व ज़्यादा हो जाता है सोच नेपथ्य में रह जाता है, धीरे धीरे खो जाता है, केवल भ्रम रह जाता है भौतिक सुख, अपने से ज़्यादा" लोग क्या कहेंगे "की चिंता प्रमुख हो जाते हैं आदमी स्वयं, स्वयं नहीं रहता कठपुतली की तरह नाचता रहता, जो करना चाहता, कभी नहीं कर पाता, जो नहीं करना चाहता, उसमें उलझा रहता, जितना दूर भागता उतना ही फंसता जाता। राजेंद्र तेला
(89) दिल में प्यार रखने वाले लोगों को दु:ख ही झेलने पड़ते हैं। दिल में प्यार पनपने पर बहुत सुख महसूस होता है, मगर इस सुख के साथ एक डर भी अंदर ही अंदर पनपने लगता है, खोने का डर, अधिकार कम होने का डर आदि-आदि। मगर दिल में प्यार पनपे नहीं, ऐसा तो हो नहीं सकता। तो प्यार पनपे मगर कुछ समझदारी के साथ। संक्षेप में कहें तो प्रीति में चालाकी रखने वाले ही अंतत: सुखी रहते हैं।
(90) जिज्ञासा बिना ज्ञान नहीं होता। दु:ख बिना सुख नहीं होता। महात्मा गांधी
(91) निरर्थक आशा से बंधा मानव अपना हृदय सुखा डालता है और आशा की कड़ी टूटते ही वह झट से विदा हो जाता है। रवीन्द्र
(92) बुरे विचार ही हमारी सुख-शांति के दुश्मन हैं। स्वेट मॉर्डन
(93) आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है और निर्वाण परम सुख। धम्मपद
(94) दुखों में जिसका मन उदास नहीं होता, सुखों में जिसकी आसक्ति नहीं होती तथा जो राग, भय व क्रोध से रहित होता है, वही स्थितिप्रज्ञ है। वेदव्यास
(95) बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि सुख या दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो प्राप्त हो जाए, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे। वेदव्यास
(96) जैसा सुख-दु:ख दूसरे को दिया जाता है, वैसा ही सुख-दुख उसी के परिणामस्वरूप स्वयं को प्राप्त होता है। अज्ञात
(97) मानव केवल अपने सुख से ही सुखी नहीं होता, कभी-कभी दूसरों को दुखी करके, अपमानित करके, अपने मान को, सुख को प्रतिष्ठित करता है। जयशंकर प्रसाद
(98) प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। जयशंकर प्रसाद
(99) मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली- भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बड़कर संसार में कुछ भी नहीं है। वेदव्यास
(100) जो अप्राप्त वस्तु के लिए चिंता नहीं करता और प्राप्त वस्तु के लिए सम रहता है, जिसने न दु:ख देखा है, न सुख- वह संतुष्ट कहा जाता है। महोपनिषद
(101) जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। प्रेमचंद
(102) अपने सुख के दिनों का स्मरण करने से बड़ा दु:ख कोई नहीं है। दांते
(103) विष पीकर शिव सुख से जागते हैं, जबकि लक्ष्मी का स्पर्श पाकर विष्णु निद्रा से मूर्च्छाग्रस्त हो जाते हैं। अज्ञात
(104) जैसा सुख-दुख दूसरे को दिया जाता है, वैसा ही सुख दु:ख परिणाम में मिलता है। अज्ञात
(105) दुख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर यों ही होते रहते हैं। कालिदास
(106) इस संसार में दु:ख अनंत हैं तथा सुख अत्यल्प है, इसलिए दुखों से घिरे सुखों पर दृष्टि नहीं लगानी चाहिए। योगवाशिष्ठ
(107) पार्थिव सुख ही एकमात्र सुख नहीं है- बल्कि धर्म के लिए, दूसरों के लिए उस सुख को उत्सर्ग कर देना ही श्रेय है। शरतचंद
(108) ईश्वर जिसे भी मिले हैं, दु:ख में ही मिले हैं। सुख का साथी जीव है और दु:ख का साथी ईश्वर है। रामचंद डोंगरे
(109) सुन लो पलटू भेद यह, हंसी बोले भगवान। दु:ख के भीतर मुक्ति है, सुख में नरक निदान। पलटू साहब
(110) जिसके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है। वेदव्यास
(111) प्रत्येक व्यक्ति का सुख-दुख अपना-अपना है। आचारांग
(112) सुख तो स्वभाव से ही अल्पकालिक होते हैं और दु:ख छीर्घकालिक। बाणभट्ट
(113) सुख-दुख को देनेवाला अन्य कोई नहीं है। इन्हें कोई अन्य देता है, यह कहना कुबुद्धि है। यह अपने ही कर्मों से मिलता है। अज्ञात
(114) मनुष्य को चाहिए कि वह दु:ख से घिरा होने पर भी सुख की आशा न छोड़े। जातक
(115) सुखी के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यात्मा के प्रति हर्ष और पापी के प्रति उपेक्षा की भावना करने से चित्त प्रसन्न व निर्मल होता है। पतंजलि
(116) सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है। सुख अनुकूल है, दु:ख प्रतिकूल है। वध अप्रिय है, जीना प्रिय है। सब जीव दीर्घायु होना चाहते हैं। भगवान महावीर
(117) दान और युद्ध को समान कहा जाता है। थोड़े भी बहुतों को जीत लेते हैं। श्रद्धा से अगर थोड़ा भी दान करो तो परलोक का सुख मिलता है। जातक
(118) धर्म से अर्थ उत्पन्नहोता है। धर्म से सुख होता है। धर्म से मनुष्य सब कुछ प्राप्त करता है। धर्म जगत का सार है। वाल्मीकि
(119) बलवती आशा कष्टप्रद है। नैराश्य परम सुख है। व्यास
(120) आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है, निर्वाण परम सुख। धम्मपद
(121) प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। जयशंकर प्रसाद
(122) सब कुछ दूसरे के वश में होना दु:ख है और सब कुछ अपने वश में होना सुख है। मनुस्मृति
(123) दुख या सुख किसी पर सदा ही नहीं रहते हैं। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे, कभी ऊपर होते रहते हैं। कालिदास
(124) मनुष्य सुख और दु:ख सहने के लिए बनाया गया है, किसी एक से मुंह मोड़ लेना कायरता है। भगवतीचरण वर्मा
(125) आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है, निर्वाण परम सुख है। धम्मपद
(126) सद्बुद्धि वाले पुरुष को अल्प सुख एवं अधिक क्लेश वाला कार्य नहीं करना चाहिए। अचिन्त्यानन्द वर्णी
(127) पीड़ा का सीमातीत हो जाना ही उसकी चिकित्सा है। जैसे बिंदु का समुद्र में विलीन होना ही उसका सुख व विश्राम पा जाना है। ग़ालिब
(128) मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फंसता है, तब वह उसी में और भी लिपटता जाता है, उसी के प्रगाढ़ आलिंगन में सुखी होने लगता है। पापों की श्रृंखला बन जाती है। उसी के नए-नए रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। जयशंकर प्रसाद
(129) मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फंस जाता है, तब वह उसी में और लिपटता जाता है। उसी के प्रगाढ़ आलिंगन में सुखी होने लगता है। पापों की एक श्रृंखला बन जाती है। फिर उसी के नए - नए रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। जयशंकर प्रसाद
(130) भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। बाल्मीकि
(131) भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। जहां दिखावे का भाव हैं वहां कृत्रिमता है। हनुमान प्रसाद
(132) जिनके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुखी ही है। वेदव्यास
(133) दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में दु:ख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। विसुद्धिमग्ग
(134) भक्ति अपने सुख के लिए हुआ करती है, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं। जहां दिखावे का भाव हैं वहां कृत्रिमता है। हनुमान प्रसाद
(135) हताश न होना सफलता का मूल है और यही परम सुख है। उत्साह मनुष्य को कर्म के लिए प्रेरित करता है और उत्साह ही कर्म को सफल बनाता है। वाल्मीकि
(136) शांति जैसा तप नहीं है, संतोष से बढ़कर सुख नहीं है, तृष्णा से बढ़कर रोग नहीं है और दया से बढ़कर धर्मा नहीं है। चाणक्यनीति
(137) सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख कहां? सुख चाहने वाले को विद्या और विद्यार्थी को सुख की कामना छोड़ देनी चाहिए। चाणक्यनीति
(138) निरोगी रहना, ऋणी न होना, अच्छे लोगों से मेल रखना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निभर्य होकर रहना- ये मनुष्य के सुख हैं। वेदव्यास
(139) दुखी सुख की इच्छा करता है। सुखी और अधिक सुख चाहता है। वास्तव में, दु:ख के प्रति उपेक्षा भाव रखना ही सुख है। विसुद्धिमग्ग
(140) मनुष्य के दु:ख से दुखी होना ही सच्चा सुख है। हजारीप्रसाद द्विवेदी
(141) किसे हमेश सुख मिला है और किसे हमेशा दु:ख मिला है। सुख-दुख सबके साथ लगे हुए हैं। कालिदास
(142) प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का हित नहीं है। चाणक्य
(143) इस संसार में दु:ख अनंत हैं तथा सुख अत्यल्प हैं। इसलिए दुखों से घिरे सुखों पर दृष्टि नहीं लगानी चाहिए। योगवासिष्ठ
(144) बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि सुख या दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो प्राप्त हो जाए, उसका हृदय से स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे। वेदव्यास
(145) जैसा सुख-दुख दूसरे को दिया जाता है, वैसा ही सुख-दुख स्वयं को भी प्राप्त होता है। अज्ञात
(146) पहले विद्वता लोगों के क्लेश को दूर करने के लिए थी। कालांतर में वह विषयी लोगों के विषय सुख की प्राप्ति के लिए हो गई। भर्त्तृहरि
(147) प्रजा के सुख में ही राजा का सुख और प्रजाओं के हित में ही राजा को अपना हित समझना चाहिए। आत्मप्रियता में राजा का अपना हित नहीं है, प्रजाओं की प्रियता में ही राजा का हित है। चाणक्य
(148) दुख में एक भी क्षण व्यतीत करना संसार के सारे सुखों से बढ़कर है। हाफिज
(149) विष पीकर शिव सुख से जागते हैं, जबकि लक्ष्मी का स्पर्श पाकर विष्णु निद्रा से मूर्च्छाग्रस्त हो जाते हैं। अज्ञात
(150) संतोष से सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है। पतंजलि
(151) सत्याग्रह एक ऐसी तलवार है जिसके सब ओर धार है। उसे काम में लाने वाला और जिस पर वह काम में लाई जाती है, दोनों सुखी होते हैं। ख़ून न बहाकर भी वह बड़ी कारगर होती है। उस पर न तो कभी जंग ही लगता है आर न कोई चुरा ही सकता है। महात्मा गांधी
(152) दु:ख, सुख के साथ ही निरंतर घूमता रहता है। वीणावासवदत्ता
(153) विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है। प्रेमचंद
(154) शांति और सुख बाह्य वस्तुएं नहीं हैं, वह तुम्हारे अंदर ही निवास करती हैं। सत्य साईं बाबा
(155) माता के समान सुख देने वाली कौन है? उत्तम विद्या। देने से क्या बढ़ती है? उत्तम विद्या। शंकराचार्य
(156) जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं। प्रेमचंद
(157) विष पीकर शिव सुख से जागते हैं, जबकि लक्ष्मी का स्पर्श पाकर विष्णु निद्रा से मूर्च्छाग्रस्त हो जाते हैं। अज्ञात
(158) लोभ के कारण पाप होते हैं, रस के कारण रोग होते हैं और स्नेह के कारण दु:ख होते हैं। अत: लोभ, रस और स्नेह का त्याग करके सुखी हो जाओ। नारायण

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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