अशोक की ब्राह्मी लिपि
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- सिकंदर के 325 ई.पू. में पश्चिमोत्तर भारत से ही वापस चले जाने के तुरंत बाद चंद्रगुप्त (324-300 ई.पू.) ने नंदवंश का तख्ता उलटकर मौर्य वंश की स्थापना की।
- चंद्रगुप्त के बाद उसका पुत्र बिंदुसार राजगद्दी पर बैठा, और बिंदुसार की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अशोक 372 ई. पू. में राजा बना। ज्ञात होता है कि राजगद्दी के लिए शुरू में काफ़ी झगड़ा हुआ था; क्योंकि अशोक का राज्याभिषेक उसके गद्दी पर बैठने के चार साल बाद 268 ई. पू. में हुआ। इसके बाद उसने लगभग 37 साल तक भारत के एक विशाल भू-भाग पर राज्य किया। उसने कलिंग को भी अपने राज्य में शामिल कर लिया था। बौद्ध ग्रन्थों के उल्लेखों से पता चलता है कि आरंभ में वह, अपनी क्रूरता के कारण, चंडाशोक कहलाता था; परंतु बाद में उसने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया और वह धार्मिक कार्य करने लगा तो उसे धर्माशोक कहा जाने लगा।
- अशोक के केवल दो धर्मलेखो यानी गुजर्रा मध्य प्रदेश में दतिया के पास, तथा मस्की, जि0 रायचूर, कर्नाटक के लघु-शिलालेखों में ही हमें उसका 'असोक' नाम देखने में आता है। शेष सभी धर्मलेखों में उसे देवानं पियेन पियदसिन लाजिन[1] कहा गया है। स्पष्ट है कि यह नाम उसने बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद ही धारण किया होगा। अशोक का समकालीन श्रीलंका का तिस्स या तिष्य राजा भी अपने नाम के साथ 'देवनांप्रिय' जोड़ता था। तिस्स राजा के समय में ही अशोक का पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा बौद्ध धर्म का प्रचार करे के लिए श्रीलंका पहुंचे थे।
- अशोक के लिए कहीं-कहीं 'अशोकवर्धन' नाम भी मिलता है। उसके एक धर्मलेख में उसे 'मगध का राजा' कहा गया है। परंतु उसके साम्राज्य के लिए उसके लेखों में अधिकतर 'पृथ्वी' या 'जंबूद्वीप' शब्द ही मिलते हैं। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र, पटना में थी। अशोक के धर्मलेख भारत में जिस भी स्थान पर मिले हैं, वहां उसका राज्य निश्चित रूप से था ही। उसने अपने लेखों में 'अपराजित' राज्यों का भी स्पष्ट उल्लेख किया है। दक्षिण भारत के चोल, पांड्य, केरल तथा ताम्रपर्णी (श्रीलंका) देश अशोक के साम्राज्य के बाहर थे। उसके लेखों में एशिया के कई 'योन', यूनानी राजाओं तथा मिस्र के तुरमाय या तुलमाय (टॉलमी) राजा का भी उल्लेख मिलता है।
- अशोक के धर्मलेख पश्चिमोत्तर भारत (पाकिस्तान) से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक मिले हैं। उसके राज्य की सीमाएं पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर को छूती थीं। अशोक के धर्मलेखों में केवल दो यानी शहबाजगढ़ी और मानसेहरा के शिलालेख खरोष्ठी लिपि में है। कंदहार के पास के शार-ए-कुना स्थान से अशोक का द्वैभाषिक, आरमेई-यूनानी लेख मिला है। उसके शेष सभी लेख ब्राह्मी लिपी में हैं। इन लेखों की लिपि के लिए सदैव 'धम्मलिपि', 'धम्मदिपि' या 'धम्मलिबि' शब्दों का प्रयोग किया गया है।
- अशोक के समस्त धर्मलेखों को मुख्यत: दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:
- शिलास्तंभ लेख, और
- शिलाफलक लेख।
शिलास्तंभ एक ही प्रस्तर-खंड के हैं और ये चुनार के बलुआ पत्थरों से बनाए गए हैं। इन पर किया हुआ बहुत बढ़िया ओप (पॉलिश) आज भी हमें आश्चर्य में डाल देता हैं। इन्हें दूर-दूर तक कितनी कठिनाई से ले जाया गया होगा, इसका अंदाजा हमें फीरोजशाह द्वारा 14वीं शताब्दी में टोपरा और मेरठ से अशोक के स्तंभों के दिल्ली लाए जाने के विवरण से लग सकता है। अशोक के शिलास्तंभ आज निम्नलिखित स्थानों पर हैं:
इलाहाबाद-कोसम शिलास्तंभ
मूलत: इस स्तंभ को कौशंबी नगरी (आधुनिक कोसम- इलाहाबाद से लगभग 50 किलोमीटर दूर एक छोटा-सा गांव) में स्थापित किया गया था। इस बात की कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती कि कौन इसे इलाहाबाद ले आया। इस स्तंभ पर अशोक के 6 लेख हैं। इस पर उसके दो लेख और हैं, जो 'रानी का स्तंभलेख' (क्योंकि इसमें उसकी एक रानी कालुवाकी के दान का उल्लेख है) और 'कौशांबी का स्तंभलेख' के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसी स्तंभ पर बाद में समुद्रगुप्त (320-375 ई.) ने भी अपना एक लेख खुदवाया था। मुग़ल बादशाह जहाँगीर (1605-27 ई.) का भी एक फ़ारसी लेख इस पर मिलता है।
रुम्मिनदेई स्तंभलेख
रुम्मिनदेई, लुंबिनी के मंदिर के पास खड़ा होने से इसे यह नाम दिया गया है। यह स्थान बस्ती ज़िले के दुल्हा गांव से लगभग 8 किलोमीटर दूर नेपाल की भगवानपुर तहसील में है। इसी स्थान पर भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था। अशोक अपने राज्याभिषेक के 20 साल बाद इस स्थान पर पूजा करने आया था।
निगाली-सागर शिलास्तंभ
यह स्थान भी बस्ती ज़िले के उत्तर में नेपाल की तराई में है, और रुम्मिनदेई से लगभग बीस किलोमीटर पश्चिमोत्तर की तरफ है। यह स्तंभ निगलीव गांव के पास निगाली सागर नाम के एक विशाल सरोवर के पास खड़ा है। अशोक यहाँ भी पूजा के लिए आया था। गौतम बुद्ध के भी पहले के किसी कनकमुनि बुद्ध के शरीरावशेषों पर यहाँ एक स्तूप बनाया गया था।
दिल्ली-टोपरा शिलास्तंभ
इस स्तंभ को फीरोजशाह (1351-88 ई.) ने टोपरा, अंबाला ज़िला, हरियाणा से मंगवाकर दिल्ली में खड़ा करवाया था। इस पर सात लेख हैं।
दिल्ली-मेरठ शिलास्तंभ
इसे भी फीरोज मेरठ से उठाकर लाया था। फर्रुखसियर के समय (1713-19 ई.) में बारूदखाने के फटने से इस स्तंभ को बड़ा नुक़सान पहुंचा और इसके कई टुकड़े हो गए। 1876 में इसे वर्तमान रूप में खड़ा किया गया।
चंपारन ज़िले के तीन स्तंभ
बिहार के चंपारन ज़िले में अशोक के तीन स्तंभ मिलते हैं-
- राधिया के पास लौरिया अराराज में,
- मठिया के पास लौरिया नंदनगढ़ में,
- रमपुरवा में।
इनमें से प्रत्येक पर छह लेख हैं।
सांची स्तंभ
यह स्थान मध्य प्रदेश में भोपाल के पास है। यहाँ का स्तंभ खंडित अवस्था में है।
सारनाथ स्तंभ
सारनाथ स्तंभ वाराणसी के पास है। यहाँ से अशोक का एक भग्न स्तंभ और सुप्रसिद्ध सिंहशीर्ष मिला है।
- अशोक के स्तंभलेख पॉलिश की हुई गोलाकार सतह पर होने के कारण अधिक स्पष्ट और कलात्मक हैं। सभी स्तंभों पर पूर्ण लेख नहीं मिलते। कुछ स्तंभों के टूट जाने के कारण उन पर खंडित लेख ही मिलते हैं, जैसे कि सारनाथ और सांची के स्तंभों पर।
- अशोक के जो लेख शिलाओं पर मिलते हैं, उनके लिए शिलाफलक शब्द का प्रयोग हुआ है। शिलाफलकों से यहाँ अर्थ चट्टानों से है। अब तक केवल एक ही लेख ऐसा मिला है, जो अलग प्रस्तर-खंड पर उत्कीर्ण है। यह शिलाफलक राजस्थान में जयपुर के निकट बैराट से मिला था। अब यह कलकत्ता के संग्रहालय, एशियाटिक सोसायटी में रखा हुआ है, इसलिए इसे 'बैराट-कलकत्ता शिलालेख' का नाम दिया गया है। अशोक के शेष सभी शिलालेख चट्टानों पर खुदे हुए हैं। उन-उन स्थानों पर जो भी प्रमुख चट्टान मिली, उस पर लेख उत्कीर्ण कर दिए गए। लिखते समय स्तंभों की तरह चट्टानों को चिकना करने का प्रयत्न नहीं किया गया है; सामान्यत: किसी भी सपाट-से पत्थर-खंड को चुनकर उस पर लेख खुदवा दिए गए हैं। यही कारण है कि स्तंभलेखों की अपेक्षा शिलालेख कुछ बेढंगे जान पड़ते हैं। सुविधा के लिए अशोक के शिलालेखों को दो भागों में बांटा गया है-
- मुख्य शिलालेख या चतुर्दश-शिलालेख और
- लघु-शिलालेख।
लघु-शिलालेख
लघु-शिलालेख निम्न स्थानों पर पाए गए हैं:
- बैराट : राजस्थान के जयपुर ज़िले में। यह शिलाफलक कलकत्ता संग्रहालय में है।
- रूपनाथ: जबलपुर जिला, मध्य प्रदेश।
- मस्की : रायचूर ज़िला, कर्नाटक।
- गुजर्रा : दतिया ज़िला, मध्य प्रदेश।
- राजुलमंडगिरि : बल्लारी ज़िला, कर्नाटक।
- सहसराम : शाहाबाद ज़िला, बिहार।
- गाधीमठ : रायचूर ज़िला, कर्नाटक।
- पल्किगुंडु : गवीमट के पास, रायचूर ज़िला, कर्नाटक।
- ब्रह्मगिरि : चित्रदुर्ग ज़िला, कर्नाटक।
- सिद्धपुर : चित्रदुर्ग ज़िला, कर्नाटक।
- जटिंगा रामेश्वर : चित्रदुर्ग ज़िला, कर्नाटक।
- एर्रगुड़ी : कर्नूल ज़िला, आंध्र प्रदेश।
- दिल्ली : अमर कॉलोनी, दिल्ली।
- अहरौरा : मिर्जापुर ज़िला, उत्तर प्रदेश।
- ये सभी लघु-शिलालेख अशोक ने अपने राजकर्मचारियों को संबोधित करके लिखवाए हैं। अशोक ने सबसे पहले लघु-शिलालेख ही खुदवाए थे, इसलिए इनकी शैली उसके अन्य लेखों से कुछ भिन्न है।
मुख्य शिलालेख
अशोक के चतुर्दश-शिलालेख या मुख्य शिलालेख निम्नलिखित स्थानों पर पाए जाते है :
- गिरनार : सौराष्ट्र, गुजरात राज्य में जूनागढ़ के पास। इसी चट्टान पर शक महाक्षत्रप रुद्रदामन् ने लगभग 150 ई. में संस्कृत भाषा में एक लेख खुदवाया। बाद में गुप्त-सम्राट स्कंदगुप्त (455-67 ई.) ने भी यहाँ एक लेख अंकित करवाया। चंद्रगुप्त मौर्य ने यहाँ 'सुदर्शन' नाम के एक सरोवर का निर्माण करवाया था। रुद्रदामन तथा स्कंदगुप्त के लेखों में इसी सुर्दशन सरोवर के पुनर्निर्माण की चर्चा है।
- कालसी : देहरादून ज़िला, उत्तरांचल।
- सोपारा : (प्राचीन सूप्पारक) ठाणे ज़िला, महाराष्ट्र। यहाँ से अशोक के शिलालेख के कुछ टुकड़े ही मिले हैं, जो मुंबई के प्रिन्स आफ वेल्स संग्रहालय में रखे हुए हैं।
- एर्रगुड़ी : कर्नूल ज़िला, आंध्र प्रदेश
- धौली : पुरी ज़िला, उड़ीसा
- जौगड़ : गंजाम ज़िला, उड़ीसा
- इनके अलावा खरोष्ठी लिपि में अशोक के दो और चतुर्दश-शिलालेख शहबाजगढ़ी (पेशावर ज़िला) और मानसेहरा (हज़ारा ज़िला) में हैं। ये दोनों स्थान अब पाकिस्तान में हैं।
- शिलालेखों और स्तंभलेखों के अलावा अशोक के तीन संक्षिप्त गुफ़ालेख भी मिलते हैं। गया या बुद्धगया के पास 'बराबर' नाम की पहाड़ी पर चार कृत्रिम गुफ़ाएं हैं। प्राचीन काल में यह पहाड़ी खलतिक पर्वत (स्खलतिक) के नाम से जानी जाती थी। उपर्युक्त चार गुफ़ाओं में से तीन में अशोक के संक्षिप्त लेख खुदे हुए हैं। इन लेखों से पता चलता है कि अशोक ने आजीविक संप्रदाय के भिक्षुओं के लिए इन गुफ़ाओं का निर्माण करवाया था। इन गुफ़ाओं के पास की चौथी गुफ़ा में मौखरि राजा अनंतवर्मन (छठी शताब्दी ई.) का एक शिलालेख है। इसी पहाड़ी पर, परंतु इन गुफ़ाओं से लगभग एक मील दूर, नागार्जुन पहाड़ी पर तीन गुफ़ाएं और हैं। इनमें अशोक के पोते 'देवानांप्रिय' दशरथ के लेख हैं। ये गुफ़ाएं भी आजीविक संप्रदाय के भिक्षुओं के लिए बनाई गई थीं।
- अशोक के एक स्तंभलेख से पता चलता है कि उसका राज्यभिषेक (268 ई.पू.) होने के 12 साल बाद, अर्थात् 256 ई.पू. से, उसने धर्मलेख खुदवाना आरंभ कर दिया था। सबसे पहले उसने लघु-शिलालेख खुदवाए और उसके अनंतर चतुदर्श-शिलालेख। तीन गुफ़ालेखों में से दो उसने राज्यभिषेक के 12 वर्ष बाद और तीसरा लेख राज्यभिषेक के 19 वर्ष बाद खुदवाया था। लघु-स्तंभलेखों में कोई तिथि नहीं मिलती। शेष स्तंभलेखों में से कुछ उसने शासन के 21वें वर्ष में, कुछ 27वें तथा 28वें वर्ष में खुदवाए थे।
- इस प्रकार, अशोक के विभिन्न लेखों से कम-से-कम 15 से 20 सालों का अंतर है। फिर भी, इन सारे लेखों की लेखन-शैली में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता, सिवा इसके कि शिलालेखों की अपेक्षा स्तंभलेख कुछ अधिक अच्छे लिखे गए हैं। इसलिए अशोक की ब्राह्मी लिपि के अक्षरों को हम कोई सुदृढ़ तिथिगत आधार प्रदान नहीं कर सकते। इन्हें उत्तरी और दक्षिणी जैसी शैलियों में विभाजित करना भी उचित नहीं जान पड़ता। अशोक के अभिलेखों के स्थानों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि जहां-जहां भी उसके राज्य में राजमार्ग गए, वहां उसके धर्मलेखों के साथ 'लिपिकर' पहुंचे और ब्राह्मी लिपि भी पहुंची। पश्चिमोत्तर भारत के केवल दो शिलालेखों को छोड़कर अशोक के बाकी सभी लेख ब्राह्मी लिपि में हैं।
- तक्षशिला से मिले आरमेई लिपि के एक लेख को भी कुछ विद्वान् अशोक का मानते हैं। उसी प्रकार, यूनानी और आरमेई लिपियों में एक द्वैभाषिक लेख (शारए-कुना, कंदहार, अफ़ग़ानिस्तान से) मिला हैं, जो कतिपय विद्वानों की राय में अशोक का है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पश्चिमोत्तर भारत में खरोष्ठी, आरमेई तथा यूनानी लिपियों का प्रचार होने से अशोक ने अपने धर्मलेखों के लए इन स्थानीय लिपियों का इस्तेमाल किया है। इससे सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि उस समय भारत के अन्य प्रदेशों में भी स्थानीय लिपियों का प्रचार होता, तो अशोक अपने लेख उनमें खुदवाता। किंतु हम देखते हैं कि पश्चिमोत्तर भारत के अलावा शेष समूचे भारतीय प्रदेशों के उसके लेख ब्राह्मी लिपि में हैं। यही नहीं, इस ब्राह्मी लिपि के स्वरूप में कोई प्रादेशिक अंतर देखने में नहीं आते। इससे यह परिणाम निकलता है कि अशोक के समय में प्राय: संपूर्ण भारतवर्ष में ब्राह्मी लिपि का व्यवहार था और साधारण जनता भी इस लिपि को पढ़-लिख सकती थी। अशोक के लेखों की सार्वदेशिकता का पता इस बात से भी चलता है कि उसने अपने लेखों में सर्वत्र उस समय की बोलचाल की प्राकृत भाषा का प्रयोग किया है। इस प्राकृत या पालि में प्रांत-भेद के अनुसार थोड़ा-सा अंतर ज़रूर दृष्टिगत होता है, परंतु है यह प्राकृत भाषा ही।
- अशोक के लेखों में 'लिपिकर' या 'दिपिकर' शब्द मिलते हैं; इनके साथ 'लिखिते' 'लेखिते' क्रियाएं भी मिलती हैं। शहबाजगढ़ी के खरोष्ठी लेख में 'निपिस्तम्' या 'निपेसितम्' क्रिया का इस्तेमाल किया गया है। ये क्रियाएं 'नि-पिस्' अर्थात् 'लिखना' धातु से बनी हैं। आधुनिक फ़ारसी में भी लेख के लिए 'नविश्ता' शब्द का उपयोग होता है। दारयबहु (डेरियस) के बेहिस्तुन-लेख में भी 'दिपि' (लिपि) शब्द मिलता है। इसलिए 'लिपिकर' या 'दिपिकर' शब्द को हम 'लेखक' के अर्थ में ले सकते हैं।
- अशोक के चौदहवें अर्थात् अंतिम शिलालेख से उसके इन लेखों के विषय में कुछ जानकारी मिलती है। गिरनार का चौदहवां शिलालेख है:
अयं धंमलिपि देवानंप्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता अस्ति एव संखितेन अस्ति मझमेन अस्ति विस्ततन (.) न च सर्वं सर्वत घटितं (.) महालके हि विजितं बहु च लिखितं लिखापयिसं चेव (.) अस्ति च एत कं पुन वुतं तस तस अथस माधूरताय किंति जनो तथा पटिपजेथ (.) तत्र एकदा असमातं अस देसं व सछाय कारणं व अलोचेत्वा लिपिकरापरधेन व अर्थात ये धर्मलेख देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने लिखवाए हैं। (ये लेख) कहीं संक्षेप में, कहीं मध्यम रूप में और कहीं विस्तृत रूप में हैं। क्योंकि सब जगह सब बातें लागू नहीं होतीं (किसी किसी ने इसका अर्थ 'सब जगह सब बातें या सब लेख नहीं लिखे गए है', भी किया है)। मेरा राज्य बहुत विस्तृत है, इसलिए बहुत-से (लेख) लिखवाए गए हैं और बहुत-से लगातार लिखवाए जाएंगे। कहीं-कहीं विषय की रोचकता के कारण एक ही बात बार-बार कही गई है, जिससे कि लोग उसके अनुसार आचरण करें। इन लेखों में जो कुछ अपूर्ण लिखा गया हो उसका कारण देश-भेद, संक्षिप्त लेख या लिखनेवाले का अपराध समझना चाहिए।
- लेकिन अशोक के अभिलेखों से यह बात पता नहीं चलती कि ये शिलालेख किस विधि से खुदवाए गए। ऐसा लगता है कि लेखों को खुदवाने का काम दो स्तरों में पूरा होता था। 'लिपिकर' का काम पत्थर पर लेख को लिख देने तक सीमित था। लेख खोदनेवाला कोई दूसरा ही पेशेवर व्यक्ति (शिल्पी) होता था। हमारे प्राचीन साहित्य में खोदने की क्रिया के लिए 'छिन्दति' शब्द मिलता है, जो 'छिद्' धातु से बना है। 'लिपिकर' या लेखक किसी पत्थर पर पहले चूना-पत्थर या कोयले से अक्षरो को लिखता था, और बाद में खोदने का काम करने वाला (शिल्पी) उन अक्षरों का अनुसरण करते हुए पत्थर पर अक्षर खोदता था। अक्षरों के आकार-प्रकार के लिए 'लिपिकर' ही जिम्मेवार होता था, परंतु खोदते समय अक्षरो के आकार-प्रकार में यत्किंचित् फ़र्क़ पड़ना स्वाभाविक है। वस्तुत: लेख खोदने वाले का स्थान गौण था। अशोक के लेखों के अक्षरों की रेखाओं की मोटाई भी प्राय: एक-सी देखने को मिलती है क्योंकि जिस खड़िया से लिपिकर ने पत्थरों पर अक्षर लिखे होंगे, वह ऐसी रही होगी कि अक्षर समान मोटाई के बनें। खोदने वाले ने लेखक के अक्षरों का ही अनुसरण किया है। बाद के ब्राह्मी अभिलेखों में जिस प्रकार अक्षरों के सिरों पर हमें घुंडियां दिखाई देती हैं, वैसी अशोक के ब्राह्मी लेखों में देखने को नहीं मिलतीं। अशोक के शिलालेखों में अक्षरो की खड़ी रेखाओं की लंबाई इनकी आड़ी रेखाओं से सामान्यत: दुगुनी देखने को मिलती है। परंतु कर्नाटक के शिलालेखों में यह लंबाई दुगने से कुछ अधिक और इलाहाबाद कोसम स्तंभलेख में दुगने से कुछ कम दिखाई देती है।
- अशोक के ब्राह्मी लेखों में केवल छह मूल स्वरों के संकेत पाए जाते हैं- 'अ' , 'आ', 'इ', 'उ', 'ए' और 'ओ'। इनमें 'ऋ' एवं 'लृ' तथा इनके दीर्घ रूपों के लिए अक्षर नहीं हैं। इनमें 'ई' , 'ऊ', 'ऐ' तथा 'औ' के मूल स्वरों के लिए भी अक्षर नहीं हैं। व्यजनों के साथ जुड़नेवाली स्वरों की मात्राओं के रूप में अशोक के लेखों में केवल 'आ', 'इ', 'ई', 'ए', 'ऐ' तथा 'ओ' की मात्राएं मिलती हैं। 'औ' के स्वतंत्र स्वर-संकेत या व्यंजनों के साथ लगनेवाली इसकी मात्रा के लिए अशोक के लिखों में कोई चिह्न नहीं देखने में आताफ। अनुस्वार के लिए एक बिंदु (ं) का प्रयोग हुआ है, जो प्राय: अक्षर की दाहिनी ओर कुछ ऊपर रखा जाता था। विसर्ग का चिह्न (:) भी अशोक के किसी लेख में नहीं पाया जाता।
- अशोक के लेखों में निम्नलिखित 33 व्यंजनों के लिए अक्षर-संकेत हैं :
क ख ग घ य र ल व च छ ज झ ञ श ष स ह ट ठ ड ढ ण ड़ (ळ) त थ द ध न प फ ब भ म
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इन सभी व्यंजनों में 'अ' स्वर निहित है, अर्थात् ये स्वरांत हैं, हलंत नहीं हैं। यहाँ पर प्रत्येक अक्षर की विशेषता को व्यक्त करना मुद्रण की कठिनाइयों के कारण संभव नहीं है। फिर भी हम मोटे तौर पर अशोक के लेखों के अक्षरों की कुछ विशेषताओं पर प्रकाश डालेंगे। 'क' जोड़ के चिह्न-सा 'क्रॉस' की तरह का है। अशोक के किसी भी लेख में 'ङ' के लिए संकेत नहीं मिलता। अशोक के लेखों में सभी ऊष्मा व्यंजन मिलते हैं, परंतु उनमें से 'स' का ही सर्वाधिक प्रयोग देखने को मिलता है। 'श' और 'ष' कालसी के शिलालेख में मिलते हैं। 'श' कर्नाटक के लेखों में भी है। अशोक के खरोष्ठी लेखों में भी 'श', 'ष' तथा 'स' के लिए अक्षर हैं। स्तंभलेखों में 'ड़' ('ळ्') के लिए अक्षर मिलता है। एळ्क, दळि जैसे पशुवाचक शब्दों में इस अक्षर का उपयोग देखने को मिलता है।
- संयुक्त व्यंजनों को लिखते समय अधिकतर पहले उच्चारित व्यंजन को ऊपर और बाद में उच्चारित व्यंजन को उसके नीचे लिखा जाता था। परंतु कहीं-कहीं यह भी देखने को मिलता है कि बाद में उच्चारित व्यंजन ऊपर लिखा गया है और पहले उच्चारित व्यंजन उसके नीचे है। वस्तुत: यह लिखनेवाले की ग़लती के कारण हुआ है और इससे यही पता चलता है कि 'लिपिकर' या लेखक शुद्ध लिखना नहीं जानते थे। उदाहरण के लिए, गिरनार के लेख में 'व्य' के स्थान पर 'य्व' लिखा गया है। 'र' के लिए ब्राह्मी लिपि में एक लहरदार खड़ी लकीर का चिह्न है। जब यह 'र' अक्षर किसी अन्य व्यंजन के साथ संयुक्ताक्षर के रूप में आता है, तो सामान्यत: 'र' का अक्षर स्पष्ट रूप से ऊपर रहता है और दूसरा व्यंजनाक्षर कुछ छोटे आकार में नीचे रहता है। इस नियम के अपवाद भी मिलते हैं, और इसलिए एक ही संयुक्ताक्षर को 'स्त्र' या 'र्स' तथा 'व्र' या 'र्व' पढ़ा जाता है। अशोक के समय में 'र्' (रेफ) की धारणा का अभी पूर्ण विकास नहीं हुआ था। असल में, संयुक्त व्यंजनों में पहले आनेवाले र् (रेफ) और बाद में आनेवाले र का भेद अशोक के लिपिकर स्पष्ट रूप से नहीं जानते थे। आज भी न केवल छोटे विद्यार्थी, बल्कि पढ़े-लिखे वयस्क भी 'पुनर्लिखित' को 'पुर्नलिखित', 'आशीर्वाद' को 'आर्शीवाद' आदि लिख जाते हैं।
- अशोक के ब्राह्मी लेखों में विरामचिह्नों का उपयोग अपवाद रूप में ही मिलता है। स्तंभलेखों में शब्दों के बीच कुछ अंतर दिखाई देता है। कुछ अन्य शिलालेखों में शब्दों के बीच कभी-कभी अंतर रखा गया है। परंतु अशोक के सभी लेखों में शब्दों के बीच स्पष्ट अंतर दिया गया हो, ऐसी बात नहीं है। कुछ लेखों में पूर्ण-विराम के रूप में दंडचिह्न (।) का भी इस्तेमाल देखने को मिलता है; जैसे, सहसराम के लघु-शिलालेख में।
- अशोक के लेखों में कुछ अक्षर कभी-कभी उलटे लिखे हुए भी मिलते हैं। ऐसे अक्षर हैं : 'घ' 'ओ' और 'नो'।
वैसे, इन शिलालेखों को खोदते समय काफ़ी सावधानी बरती गई थी। लेख के खुद जाने पर उसे पुन: शुद्ध भ् किया जाता था। देखने में आता है कि कुछ जगह भूल से छूट गए अक्षर को पुन: लिखा गया है और अशुद्ध अक्षर को मिटा दिया गया है। यह सही है कि अशोक की ब्राह्मी लिपि के कई अक्षरों के दो-दो, तीन-तीन रूप देखने को मिलते हैं, किंतु यह प्रादेशिक अंतर नहीं है। अंत में हम यही कहेंगे कि अशोक के ये धर्मलेख भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि हैं। आज के भारत की प्राय: सभी लिपियां, और विदेशों की भी बहुत-सी लिपियां, अशोक के लेखों की इस ब्राह्मी को अपनी जननी मान सकती हैं। संसार के इतिहास में अशोक को छोड़कर अन्य किसी भी शासक ने इतने विशाल स्तर पर नैतिक एवं धार्मिक लेख नहीं खुदवाए हैं। यहाँ हम अशोक के ब्राह्मी लेखों के कुछ नमूने दे रहे हैं- लिप्यंतर और अर्थ-सहित।
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लिप्यंतर
- देवानं पियेन पियदसिन लाजिन वीसतिवसाभिसितेन
- अतन आगाच महीयिते हिद बुधे जाते सक्यमुनीति
- सिलाविगडभीचा कालापित सिलाथभे च उसपापिते
- हिद भगवं जातेति लुंमिनिगामे उबलिके कटे
- अठभागिये च
अर्थ :
- देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने (अपने) राज्याभिषेक के 20 वर्ष बाद स्वयं आकर इस स्थान की पूजा की,
- क्योंकि यहाँ शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म हुआ था।
- यहाँ पत्थर की एक दीवार बनवाई गई और पत्थर का एक स्तंभ खड़ा किया गया।
- बुद्ध भगवान यहाँ जनमे थे, इसलिए लुम्बिनी ग्राम को कर से मुक्त कर दिया गया और
- (पैदावार का) आठवां भाग भी (जो राज का हक था) उसी ग्राम को दे दिया गया है।
लिप्यंतर
- इयं धंमलिपि देवानंप्रियेन
- प्रियदसिना राजा लेखापिता [।] इध न किं
- चि जीवं आरभित्पा प्रजूहितव्यं [।]
- न च समाजो कतव्यो [।] बहुकं हि दोसं
- समाजम्हि पसति देवानंप्रियो प्रियदसि राजा [।]
- अस्ति पि तु एकचा समाजा साधुमता देवानं
- प्रियस प्रियदसिनो राञो [।] पुरा महानसम्हि
- देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो अनुदिवसं ब
- हूनि प्राणसतसहस्त्रानि आरभिसु सूपाथाय [।]
- से अज यदा अयं धंमलिपि लिखिता ती एव प्रा
- णा आरभरे सूपाथाय द्वो मोरा एको मगो सो पि
- मगो न ध्रुवो [।] एते पि त्री प्राणा पछा न आरभिसरे [॥]
अर्थ
- यह धर्मलिपि देवताओं के प्रिय
- प्रियदर्शी राजा ने लिखाई। यहाँ (मेरे साम्राज्य में)
- कोई जीव मारकर हवन न किया जाए।
- और न समाज (आमोद-प्रमोद वाला उत्सव) किया जाए। क्योंकि बहुत दोष
- समाज में देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा देखता है।
- (परंतु) एक प्रकार के (ऐसे) समाज भी हैं जो देवताओं के
- प्रिय प्रियदर्शी राजा के मत में साधु हैं। पहले पाकशाला में-
- देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा की – प्रतिदिन कई
- लाख प्राणी सूप के लिए मारे जाते थे।
- किंतु आज जब यह धर्मलिपि लिखाई गई, तीन ही प्राणी
- मारे जाते- दो मयूर तथा एक मृग। और वह भी
- मृग निश्चित नहीं। ये तीन प्राणी भी बाद में नहीं मारे जाएंगे।
लिप्यंतर
- सर्वत विजितम्हि देवानंप्रियस पियदसिनो राञो
- एवमपि प्रचंतेषु यथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो आ तंब-
- पंणी अंतियको योनराजा ये वा पि तस अंतियकस सामीपं
- राजानो सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछ कता
- मनुसचिकीछा च पसुचिकीछा च [।] ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च
- पसोपगानि च यत यत नास्ति सर्वत हारापितानी च रोपापितानि च [।]
- मूलानि च फलानि च यत तत्र नास्ति सर्वत हारापितानी च रोपापितानि च [।]
- पंथेसू कूपा च खानापिता व्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसुमनुसानं [॥]
अर्थात्
- देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने अपने राज्य में सब जगह और
- सीमावर्ती राज्य- चोड़, पांड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र तथा ताम्रपर्णी (श्रीलंका)- तक
- और अंतियोक यवनराज तथा उस अंतियोक के जो पड़ोसी राजा हैं,
- उन सबके राज्यों में देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने दो प्रकार की चिकित्सा का प्रबंध किया है-
- मनुष्यों की चिकित्सा के लिए और पशुओं की चिकित्सा के लिए।
- मनुष्यों और पशुओं के लिए जहां-जहां औषधियां नहीं थीं वहां-वहां लाई और रोपी गई हैं।
- इसी प्रकार, जहां-जहां मूल व फल नहीं थे वहां-वहां लाए और रोपे गए हैं।
- मार्गों पर मनुष्यों तथा पशुओं के आराम के लिए कुएं खुदवाए गए हैं और वृक्ष लगाए गए हैं।
लिप्यंतर :
- लाजिना पियदसिना दुवा
- डसवसाभिसितेना इयं
- कुभा खलतिक पवतसि
- दिना (आजीवि) केहि
(अशोक के बराबर गुफ़ा के प्रथम और इस द्वितीय लेख में, लगता है, किसी ने बाद में 'आजीविकेहि' शब्द मिटाने की कोशिश की है। अशोक-पौत्र दशरथ के नागार्जुन पहाड़ी के प्रथम लेख में भी ऐसा ही हुआ है।)
अर्थ:
द्वादश वर्ष से अभिषिक्त राजा प्रियदर्शी ने खलतिक पर्वत पर (स्थित) यह गुफ़ा आजीविकों को प्रदान की।
टीका टिप्पणी
- ↑ देवताओं के प्रिय और सभी पर कृपा करने वाले राजा
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