खाशाबा जाधव
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पूरा नाम | खाशाबा दादासाहेब जाधव |
जन्म | 15 जनवरी, 1926 |
जन्म भूमि | सतारा, महाराष्ट्र |
मृत्यु | 14 अगस्त, 1984 |
कर्म भूमि | भारत |
खेल-क्षेत्र | कुश्ती |
पुरस्कार-उपाधि | 'जीवन गौरव पुरस्कार' (1983), 'मेघनाथ नागेश्वर अवार्ड' (1990-मरणोपरांत), 'शिव छत्रपति पुरस्कार' (1993-मरणोपरांत)। |
प्रसिद्धि | पहलवान |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | कुश्ती, कुश्ती का इतिहास, कुश्ती की पद्धतियाँ, ओलम्पिक खेल, गामा पहलवान, सुशील कुमार पहलवान |
अन्य जानकारी | पुलिस विभाग में खेल कोटा खाशाबा जाधव के ओलम्पिक में पदक जीतने के बाद से ही शुरू हुआ। आज भी खेल कोटा से जो भर्ती होती है, वह खाशाबा जाधव की ही देन है, इस बात की जानकारी आज के पुलिस वालों को शायद ही हो। |
अद्यतन | 01:14, 5 अगस्त, 2016 (IST) |
खाशाबा दादासाहेब जाधव (अंग्रेज़ी: Khashaba Dadasaheb Jadhav, जन्म- 15 जनवरी, 1926, महाराष्ट्र; मृत्यु- 14 अगस्त, 1984) भारत के प्रसिद्ध कुश्ती खिलाड़ी थे। वे पहले भारतीय खिलाड़ी थे, जिन्होंने सन 1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक, फ़िनलैण्ड में देश के लिए कुश्ती की व्यक्तिगत स्पर्धा में सबसे पहले कांस्य पदक जीता था। वैसे तो 1952 के हेलसिंकी ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीम ने फिर से स्वर्ण पदक हासिल किया था, लेकिन चर्चा सोने से अधिक उस कांस्य पदक की होती है, जिसे पहलवान खाशाबा जाधव ने जीता था। खाशाबा को पॉकेट डायनमो के नाम से भी जाना जाता है। भारत को ओलम्पिक का पदक दिलाने वाला यह खिलाड़ी बाद में गुमनाम बनकर रह गया।
परिचय
खाशाबा का जन्म सतारा ज़िला, महाराष्ट्र में कराड तहसील के गोलेश्वर नामक छोटे से गाँव में मराठा परिवार में 15 जनवरी 1926 को हुआ था। उनकी माँ का नाम 'पुतलीबाई' था और उनके पिता को सभी 'दादासाहब' कहते थे। खाशाबा सभी भाई बहनों में सबसे छोटे थे। उनके घर में खेती होती थी। उनके पिता कृषक थे तथा पहलवानी भी करते थे। वे कुश्ती खेलते थे। खेत से घर आने पर वे कुश्ती कैसे खेली जाए इसका प्रशिक्षण खाशाबा को देते थे। कुश्ती का प्रारम्भिक प्रशिक्षण उन्हें घर पर ही मिला।
शिक्षा
खाशाबा की प्रारम्भिक शिक्षा उनके घर के पास स्थित पाठशाला में हुई। उनके माता पिता का उन पर विशेष स्नेह था। वह जिस प्रकार खेलने में कुशल थे उसी प्रकार पढ़ाई में भी होशियार थे। उन्होंने 1940 में अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण की और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। फिर कराड के 'तिलक हाई स्कूल' में प्रवेश लिया। खाशाबा ने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। आगे उन्होंने कोल्हापुर के 'राजाराम महाविद्यालय' में कला शाखा में प्रवेश लिया। कुश्ती की स्पर्धा के कारण वह नियमित रूप से शिक्षा नहीं ले सके। सन 1953 में उन्होंने 'पदवी' परीक्षा उतीर्ण की।
कुश्ती का प्रशिक्षण
खाशाबा के घर का वातावरण कुश्तीमय होने के कारण प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करते समय वह रोज़ सुबह व्यायाम के लिए अखाड़े जाते थे। उसके बाद वह स्कूल जाते थे। शाम को वह चौपाल के बाहर स्थित मैदान पर हूतूतू, लंगड़ी, दौड़ना आदि खेल खेलते थे और दंड, बैठक, सूर्य नमस्कार करते थे। इसलिए उनका शरीर गठीला व चपल हो गया था। सन 1934 में गोलेश्वर गाँव के निकट रेठरे गाँव में कुश्ती की स्पर्धा थी। उस समय उनकी आयु मात्र आठ वर्ष थी। कुश्ती शुरू हुई और दूसरे मिनट में ही खाशाबा ने प्रतिस्पर्धी को हरा दिया। उस समय उन्हें पुरस्कार में बादाम और शक्कर मिली थी। बेटे के कुश्ती जीतने की पिता को बहुत खुशी हुई।
अखिल भारतीय स्पर्धा
कोल्हापुर में क्रीड़ा शिक्षक पुरंदरे के रूप में खाशाबा को सर्वोत्कृष्ट गुरु मिले। उनके मार्गदर्शन में उन्होंने कुश्ती का जमकर अभ्यास किया। उन्होंने खाशाबा को 'अखिल महाराष्ट्र' एवं 'अखिल भारतीय क्रीड़ा स्पर्धा' में उतारने का निर्णय लिया।
नासिक में अखिल महाराष्ट्र कुश्ती स्पर्धा आयोजित की गई थी। खाशाबा प्रशिक्षक के साथ स्पर्धा के लिए नासिक आये। वहाँ उन्हें कोई ज़्यादा नहीं जानता था। इसलिए शुरुआत में उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया। परन्तु खाशाबा ने मैदान पर आते ही अपना कौशल सिद्ध किया। उन्होंने मुम्बई के पहलवान राक्षे को पराजित किया। यहाँ वे अजेय रहे। उनकी कीर्ति संपूर्ण महाराष्ट्र में फैल गयी। यह कुश्ती खाशाबा के जीवन को एक नया मोड़ देने वाली सिद्ध हुई। उनका चयन राष्ट्रीय स्तर पर कुश्ती खेलने के लिए हो गया। राष्ट्रीय कुश्ती स्पर्धा में भी खाशाबा अजेय रहे। वे अब राष्ट्रीय स्तर के पहलवान, कुश्ती खिलाड़ी के रूप में मशहूर हो गये थे। उनका चयन 1948 के लंदन ओलंपिक के लिए हुआ था। वे ओलंपिक स्पर्धा की तैयारी करने लगे।
अखिल भारतीय एवं अखिल महाराष्ट्र मंडल
सन 1949 में अखिल भारतीय एवं अखिल महाराष्ट्र मंडल की कुश्ती स्पर्धा नागपुर में आयोजित किए जाने की घोषणा हुई। इस स्पर्धा में खाशाबा की कुश्ती बड़े सम्मान से लगाई गयी थी। इस कुश्ती स्पर्धा में दक्षिण महाराष्ट्र के संस्थान संघ की ओर से उन्होंने भाग लिया। उन्होंने 11 दिसंबर 1949 को नागपुर की कुश्ती स्पर्धा में प्रतिस्पर्धी को मात्र पांच मिनट के भीतर ही चित कर दिया तथा अपनी बेजोड़ कुश्ती कला का कौशल नागपुरवासियों को दिखाया।
अंतर महाविद्यालय स्पर्धा
सन 1950 से 1951, ये दो वर्ष खाशाबा के लिए बहुत अच्छे रहे। इस कालावधि में उन्होंने लगातार चार बार अंतर महाविद्यालीय स्पर्धा में सफलता प्राप्त की। महाराष्ट्र में नासिक, नागपुर, पुणे में कुश्ती स्पर्धा में भाग लेकर विजयी रहे। उन्होंने अखिल भारतीय विद्यापीठ कुश्ती स्पर्धा में भी विजयी हो स्वर्ण पदक जीता।
अखिल भारतीय विद्यापीठ क्रीड़ा स्पर्धा, पुणे
सन 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक, फ़िनलैण्ड में कांस्य पदक जीतने के बाद खाशाबा ने कोल्हापुर के राजाराम महाविद्यालय में कला शाखा में तीसरे वर्ष के लिए प्रवेश लिया। यह उनका महाविद्यालय का अंतिम वर्ष था। अक्टूबर 1952 में अखिल भारतीय विद्यापीठ क्रीड़ा स्पर्धा पुणे में संपन्न हुई। इस स्पर्धा में हरियाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश, दिल्ली के पहलवानों ने कुश्ती में वर्चस्व दिखाया। बैटमवेट 57 किलो वर्ग में केवल खाशाबा ने अपनी जीत की परम्परा जारी रखी। उन्होंने अपने प्रतिस्पर्धी को आसानी से मात देकर अखिल भारतीय विद्यापीठ क्रीड़ा स्पर्धा, पुणे में विजय का नया रिकार्ड दर्ज कराया। इस प्रकार उनकी सफलता की घुड़दौड़ महाविद्यालीय शिक्षण जारी रहते समय भी शुरू थी।
1948 के लंदन ओलंपिक
सन् 1948 के लंदन ओलंपिक में फ्लायवेट, 52 किलो वर्ग में फ्री स्टाइल कुश्ती के लिए खाशाबा का चयन होने तथा उनकी प्रतिभा को देखकर अंग्रेज प्रशिक्षक रीस गार्डनर ने उनका कुश्ती के लिए मार्गदर्शन दिया और योग्य प्रशिक्षण प्रदान किया। ओलंपिक में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित भी किया। लंदन के एक्सप्रेस हॉल में 30 जुलाई, 1948 को मैट पर कुश्ती की शुरुआत खाशाबा से ही हुई।
पहला राउंड
ऑस्ट्रेलिया के बी. हेम्स से खाशाबा की 15 मिनट की लड़ाई थी। खाशाबा ने कुश्ती का कौशल दिखाकर प्रतिस्पर्धी को 15 से 20 बार चित किया, परंतु प्रतिस्पर्धी की भुजाएं हाथ से टिककर रखने का नियम खाशावा को मालूम नहीं था, इसलिए पंच उन्हें विजयी घोषित नहीं कर रहे थे। खाशाबा ने हेम्स को प्रत्येक 10 सेकंड में उठाकर पटकना शुरू किया। इससे हेम्स इतना थक गया कि उसे उठते भी नही आ रहा था। अंत में हेम्स को उठाकर स्ट्रेचर पर ले जाना पड़ा इस प्रकार खाशाबा ने पहला राउंड जीत लिया। उसी प्रकार कुश्ती समाप्त होने के पश्चात् खाशाबा को कुश्ती का एक महत्वपूर्ण नियम समझ में आया, वह यह कि प्रतिस्पर्धी की पीठ जमीन को लगने के बाद कम से 2 सेकंड उसके दंड जमीन पर दबाकर रखने पड़ते है।
दूसरा राउंड
दूसरे राउंड में खाशाबा ने अमेरिकन पहलवान डार्निंग को मुलतानी दांव मारकर 14 वें मिनट में जमीन पर लिटा दिया तथा उसकी भुजाएं जमीन पर दबाकर रखी। खाशाबा को विजयी घोषित किया गया।
तीसरा राउंड
तीसरे राउंड में ईरान के शक्तिशाली पहलवान रेस्सी के साथ खाशाबा की कुश्ती हुई। रोलिंग फॉल्ट होने के कारण खाशाबा अखाड़े की रिंग के बाहर गए। परंतु पुन: कुश्ती लगाने का नियम होने पर भी निर्णायकों ने खाशाबा को हारा हुआ घोषित कर दिया। निर्णायकों के गलत निर्णय का खामियाजा खाशाबा को भुगतना पड़ा तथा उन्हें स्पर्धा से बाहर होना पड़ा आखिर में वे छठवें स्थान पर चले गए। अब तक भारत का एक भी पहलवान ओलंपिक में इतने ऊंचे स्तर तक नहीं पहुंच पाया था।
1952: हेलसिंकी ओलंपिक की तैयारी
खाशाबा को 1948 के लंदन ओलंपिक में असफलता प्राप्त होने से वे अंत्यत नाराज थे, उन्होंने अगले ओलंपिक के लिए जोरदार तैयारी शुरू की। वे रोज सुबह उठकर 11 मील दौड़ने का अभ्यास करने लगे। एक बार में वे 2000 दंड-बैठक लगाने लगे। इस प्रकार वे रोज सुबह 3 घंटे व्यायाम करते थे, उन्होंने अपने वजन पर नियंत्रण रखकर ताकत बढ़ाने का कड़ा अभ्यास किया, उसी प्रकार शाम को भारोत्तोलन (वेटलिफ्टिंग) का व्यायाम भी शुरू किया।
मद्रास में होने वाली राष्ट्रीय स्पर्धा से हेलसिंकी ओलंपिक के लिए भारतीय टीम चुनी जानी थी , कोल्हापुर स्पोर्ट्स एसोसिएशन की ओर से खाशाबा स्पर्धा में सहभागी हुए तथा बैटमवेट, 48 किलो वर्ग के अंतिम दौर में प्रवेश किया परंतु निर्णायकों ने मद्रास के राष्ट्रीय खेल की अपेक्षा खाशाबा को जानबूझकर एक अंक कम देकर प्रतिस्पर्धी पहलवान को विजयी घोषित किया।
ओलंपिक के लिए चयन
खाशाबा मात्र चुप नहीं बैठे उन्होंने खुद पर हुए अन्याय के लिए ओलंपिक संगठन के अध्यक्ष को पत्र भेजा तथा पुन: चयन जांच में अवसर देने की विनती की, अंत में कलकत्ता में पुन: चयन जांच हुई, उसमें खाशाबा ने स्वर्ण पदक जीता तथा उनका हेलसिंकि ओलंपिक के लिए चयन पक्का हो गया।
आर्थिक समस्या
खाशाबा जाधव ने सबसे पहली बार ओलम्पिक में 1948 में हिस्सा लिया था। कोल्हापुर के महाराजा ने उनकी लंदन यात्रा का खर्चा उठाया। तब वे कोई विजयी प्रदर्शन नहीं कर सके। 1952 हेलसिंकी जाना उनके लिए आसान बात नहीं थी। वे क्वालिफ़ाई तो कर चुके थे, लेकिन वहां पहुंचने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। खाशाबा ने हेलसिंकी जाने के लिए सरकार से मदद मांगी, लेकिन तत्कालीन सरकार ने उनसे पल्ला झाड़ लिया। सरकार ने कहा- "जब खेल खत्म हो जाएं, तब वे उनसे आ कर मिलें।"
हेलसिंकी, फ़िनलैण्ड में जाने के लिए खाशाबा के सामने पैसों की समस्या उत्पन्न हुई, 'राजाराम महाविद्यालय' के प्राचार्य दाभोलकर ने अपना बंगला गिरवी रखकर चार हजार रुपयों की मदद की, खाशाबा को कुल 12 हजार रुपयों की आवश्यकता थी, परंतु भारत सरकार ने खाशाबा की दुबली-पतली देहयष्टि को देखते हुए आर्थिक मदद करने से इनकार कर दिया। खाशाबा ने रसीद बुक छपाकर 1 रुपए से चंदा जमा किया, उसी प्रकार एक सहकारी बैंक से कर्ज लेकर पैसे इकट्ठे किए।
हेलसिंकी ओलंपिक में पहला मुक़ाबला
खाशाबा का आख़िरकार 11 जुलाई 1952 को रात में भारतीय टीम के साथ हेलसिंकी शहर में आगमन हुआ। 20 जुलाई, 1952 को खाशाबा का कनाडा के पहलवान क़्वीन के ख़िलाफ़ पहला मुक़ाबला हुआ, खाशाबा ने अपने खूबसूरत दांव का प्रदर्शन करते हुए क्षणार्धात पॉली को चितपट कर दिया तथा निर्णायकों ने खाशाबा को विजयी घोषित किया।
दूसरा राउंड
दूसरे राउंड में खाशाबा का मुक़ाबला मैक्सिको के पहलवान वासुतिला के साथ था, खाशाबा ने प्रतिस्पर्धा पर पूर्ण वर्चस्व हासिल करते हुए दसवें सेकंड में ही दांव डालने का प्रयत्न कर वासुतिला को चित किया तथा हाथ उठाकर आनंद व्यक्त किया।
तीसरा राउंड
तीसरा राउंड 21 जुलाई 1952 को शाम को हुआ, यह राउंड भी खाशाबा ने प्रतिस्पर्धी पर सहज मात करके जीती।
चौथी कुश्ती
उसके पश्चात् 22 जुलाई 1952 को चौथी कुश्ती जर्मनी के स्मीट्जा के खिलाफ थी, स्मीट्ज खाशाबा से थोड़ा बड़ा तथा मोटाताजा था , परंतु खाशाबा ने आत्मविश्वास के साथ खेलकर युक्ति का प्रयोग कर फटाफट अंक हासिल कर बढ़त हासिल कर ली, खाशाबा को निर्णायकों ने विजयी घोषित किया।
क़्वार्टर फाइनल
खाशाबा ने अब क़्वार्टर फाइनल में प्रवेश किया, अंतिम चरण में जापान के दुशी, रशिया के मामेदबेकाद व भारत के खाशाबा , ये तीन पहलवान ही बचे थे, इन तीनों में ही पहले क्रमांक के लिए लड़ाई थी। अंतिम चरण में खाशाबा को दो कुश्तियाँ खेलनी थीं।
खाशाबा की कुश्ती
खाशाबा की पहली कुश्ती जापान के पहलवान दुशी के साथ थी, दुशी का रोलिंग फॉल्ट होने के बाद भी निर्णायकों ने खाशाबा को एक बार नीचे गिराया तथा एक अंक हासिल किया, निर्णायकों का कॉल दुशी ने हासिल किया यह अंक निर्णायक सिद्ध हुआ, निर्णायकों ने दुशी को विजयी घोषित किया, सेमीफाइनल में जाने का मौका चूक गया, यह कुश्ती खेलकर खाशाबा के बहुत थक जाने के बाद भी खाशाबा की कुश्ती जानबूझकर रशिया के मामेदबेकाद के साथ लगाई गई, इस बार भी खाशाबा पर अन्याय हुआ उन्होंने प्रतिस्पर्धा के विरुद्ध बराबरी की टक्कर देकर 15 मिनट तक दम टिकाए रखने के बाद भी रसियन पहलवान को जानबुझकर एक अंक ज्यादा दिया गया तथा रशिया के मामेदबेकाद को विजयी घोषित किया गया, खाशाबा रशिया की राजनीति की बलि चढ़ गया तथा अंत में उन्हें कांस्य पदक पर संतुष्ट होना पड़ा , खाशाबा ने भारत के खेल इतिहास में बहुत बड़ी क्रांति की।
जापान की कुश्ती टीम का भारत दौरा
सन 1953 में जापान की कुश्ती टीम भारत दौरे पर कुश्ती खेलने के लिए आई थी, इस मुकाबले के लिए कोल्हापुर एसोसिएशन की ओर से खाशाबा चयन जांच स्पर्धा में उतरे इसमें उनका चयन हुआ , कोलकाता में भारत-जापान अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा होने वाली थीं,
बैटमवेट वर्ग में महत्वपूर्ण कुश्ती ओलंपिक कांस्य पदक विजेता खाशाबा जाधब विरुद्ध विश्व प्रसिद्ध पहलवान युनीमोरी के बीच हुई, इसमें खाशाबा द्वारा ताकत लगाकर युनीमोरी को ऊपर उठाते समय खाशाबा का सिर जमीन से छू गया , तब उन्होंने हवा में ही टांग मारी तथा पैर को झटका देकर युनीमोरो को नीचे मैट पर गिराकर चितपट कर दिया. जापान के पहलवान भारत के 23 पहलवानों से खेले , उनमें केवल एक बार ही उन्हें हार का सामना करना पड़ा और वह भी केवल खाशाबा के खिलाफ।
पुलिस दल में नौकरी
स्पर्धात्मक कुश्ती से निवृत्त होने का विचार खाशाबा ने किया , ओलंपिक कांस्य पदक जीतने के बाद भी उन्हें नौकरी नही मिल रही थी, आर्थिक अड़चन होने के कारण उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था , नौकरी ढ़ूढ़ने के दौरान ही उन्हें पुलिस दल में नौकरी मिली यह नौकरी उन्हें खेल के क्षेत्र में बहुमूल्य कौशल दिखाने के कारण मिली. खाशाबा 4 जुलाई 1955 को सब इंस्पेक्टर के रूप में मुंबई में पुलिस विभाग में नियुक्त हुए. पुलिस प्रशिक्षण लेते समय दूसरा क्रमांक हासिल कर सर्वोत्कृष्ट खिलाडी के रूप में सम्मान की तलवार हासिल की।
खाशाबा ने पुलिस दल की निष्ठापूर्वक 28 वर्ष सेवा की, वे नायगाव पुलिस मुख्यालय के क्रीड़ांगण पर प्रशिक्षण देते थे। पुलिस दल की पहली कुश्ती स्पर्धा खाशाबा ने जीती। घुटने के दर्द के कारण स्पर्धात्मक कुश्तियों से उन्हें संन्यास लेना पड़ा परंतु वे पुलिस मुख्यालय के क्रीड़ांगण पर पहलवानों को कुश्ती का प्रशिक्षण देते थे।
सेवानिवृत्त
खाशाबा ने क्रीड़ा क्षेत्र में पुलिस का नाम ऊंचा किया परंतु पदोन्नति के समय मात्र उन्हें अलग कर दिया जाता था, राजनीतिक दबाब के कारण उन्हें पदोन्नति नहीं मिल रही थी, उन्होंने इसके लिए दौड़भाग नहीं की वे सन् 1983 में सम्मानपूर्वक नियम आयु अनुसार सेवानिवृत्त हुए। निवृत्त होने के पश्चात् खाशाबा अपने गांव गोलेश्वर वापस लौटे तथा खेती करने लगे , उन्हें सरकार से निवृत्ति वेतन भी मंजूर नहीं किया उनकी निवृत्ति के पश्चात् का समय बड़ा कठिन व्यतीत हुआ।[1]
कांस्य पदक
खाशाबा जाधव ने हेलसिंकी में कांस्य पदक जीतकर अपना जलवा दिखा दिया। हेलसिंकी की मैट सर्फेस पर वे एडजस्ट नहीं कर सके और इसी कारण वे स्वर्ण पदक से चूक गए। उन खेलों में नियमों के विरुद्ध लगातार दो बाउट रखवाए गए थे। खाशाबा के स्वर्ण पदक से चूकने का यह भी एक प्रमुख कारण रहा था।
हेलसिंकी ओलंपिक में यूं तो भारतीय हॉकी टीम ने फिर से स्वर्ण पदक हासिल किया था, लेकिन चर्चा में सबसे ज़्यादा खाशाबा द्वारा जीता गया कांस्य पदक ही रहा। यह पहली बार था, जब किसी भारतीय एथलीट ने व्यक्तिगत पदक हासिल किया हो। इसके पहले 1900 में नॉर्मन पिचार्ड ने दो रजत पदक जीते थे, लेकिन वे भारतीय मूल के नहीं थे और तब भारत भी अंग्रेज़ों के अधीन देश के रूप में हिस्सा लेता था। इतनी बड़ी उपलब्धि के बावजूद खाशाबा को कभी 'पद्म पुरस्कार' नहीं मिला। बेंटमवेट वर्ग (57 कि.ग्रा. से कम) में लड़ने वाले खाशाबा जाधव की चपलता उन्हें अपने समकालीन पहलवानों से अलग करती थी। इसी कारण अंग्रेज़ कोच रीस गार्डनर ने उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए उन्हें प्रशिक्षण दिया था।[2]
भारत वापसी
पदक जीतने के बाद स्वदेश लौटने पर खाशाबा का जोरदार स्वागत हुआ, लेकिन उनके मन में सिर्फ एक ही बात थी, अपने प्रिंसिपल का वह कर्ज चुकाना। भारत आने के बाद उन्होंने जो पहली कुश्ती लड़ी, उसकी पूरी इनामी राशि अपने प्रिंसिपल खरडीकर को दे दी, ताकि वे अपना गिरवी रखा घर छुड़ा सकें।
खेल कोटा
मुंबई पुलिस के लिए खाशाबा जाधव ने 25 साल तक सेवाएं दीं, लेकिन उनके सहकर्मी इस बात को कभी नहीं जान सके कि वे ओलम्पिक चैंपियन हैं। पुलिस विभाग में खेल कोटा खाशाबा के ओलम्पिक में पदक जीतने के बाद ही शुरू हुआ। आज भी लोगों की भर्ती खेल कोटा से होती है, लेकिन यह खाशाबा जाधव की ही देन है, इस बात की जानकारी आज के पुलिस वालों को शायद ही हो।[3]
निधन
सन 1955 में शाशाबा जाधव को मुंबई पुलिस में सब-इंस्पेक्टर की नौकरी मिली। अगले कई वर्षों तक वे इसी पद पर बिना किसी प्रमोशन के बने रहे। 1982 में महज 6 महीनों के लिए उन्हें असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर का पद दिया गया। इसके बाद वे सेवानिवृत्त हो गए। सेवानिवृत्ति के महज दो साल बाद एक सड़क दुर्घटना में उनका निधन हो गया। खाशाबा अपनी बहन से मिलने के लिए बाहरगांव गए हुए थे, बहन से मिलकर वे रेठरे गांव से पैदल चलकर आ रहे थे तभी एक दुर्घटना का शिकार हो गए सामने से आने वाले ट्रक ने उन्हें टक्कर मार दी, उसमें ही उनकी 14 अगस्त 1984 को मृत्यु हो गई। आज दिल्ली में खाशाबा जाधव के नाम से स्टेडियम है, लेकिन उनके परिवार को कोई आर्थिक सहायता मुहैया नहीं हो सकी है।
पुरस्कार व सम्मान
अपने सेवाभाव से खाशाबा जाधव ने बहुत-से खिलाड़ी तैयार किये। 1983 में 'फ़ाय फ़ाउंडेशन' ने उनको 'जीवन गौरव पुरस्कार' से सम्मानित किया था। 1990 में इन्हें 'मेघनाथ नागेश्वर अवार्ड' से (मरणोपरांत) नवाजा गया। 'शिव छत्रपति पुरस्कार' से वे 1993 में (मरणोपरांत) नवाजे गए। खाशाबा जाधव भारत माँ के महान् सपूत थे, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। इतना ही नहीं पुलिस में भर्ती होकर देश की सेवा की और साथ ही देश को पहला कांस्य पदक दिलाकर भारत का सर विश्व में ऊँचा किया।[4]
खाशाबा पर फ़िल्म निर्माण
हिन्दी फ़िल्मों के अभिनेता रितेश देशमुख फ़िल्म निर्माता के रूप में अपनी अगली फ़िल्म ‘पॉकेट डायनेमो’ के निर्माण के लिए तैयारी कर रहे हैं। फ़िल्म का निर्माण उनकी कम्पनी ‘मुम्बई फ़िल्म कम्पनी’ (एमएफ़सी) के बैनर तले किया जाएगा। फ़िल्म की कहानी कुश्ती खिलाड़ी खाशाबा जाधव की जीवनी पर आधारित है। एक आधिकारिक बयान में पुष्टि करते हुए रितेश ने कहा कि हमने खाशाबा जाधव के जीवन पर फ़िल्म बनाने के अधिकार ख़रीद लिए हैं। मैं खुश हूं कि जाधव के बेटे रंजीत जाधव ने हमें अपने पिता की जिंदगी पर फ़िल्म बनाने के काबिल समझा। रितेश का कहना था कि "खेलों में खाशाबा जाधव का प्रदर्शन उल्लेखनीय रहा था। उन्होंने देश को पहला अंतर्राष्ट्रीय पदक दिलवाया, लेकिन दुर्भाग्य से उनके बारे में देश के लोगों को मालूम नहीं है। वह देश के नायक हैं, उन्हें पहचान मिलनी चाहिए और उनके योगदान को याद किया जाना चाहिए।"[5]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यंगलवार, विजय। भारतीय ओलंपिक वीर (हिन्दी) (html)। । अभिगमन तिथि: 5 अगस्त, 2016।
- ↑ 1952 हेलसिंकी ओलम्पिक:भारतीय पहलवान जाधव ने देश को दिलाया पहला व्यक्तिगत पदक (हिन्दी) jagran.com। अभिगमन तिथि: 05 अगस्त, 2016।
- ↑ यंगलवार, विजय। भारतीय ओलंपिक वीर (हिन्दी) (html)। । अभिगमन तिथि: 5 अगस्त, 2016।
- ↑ भुला दिए गए भारत को पहला ओलिंपिक मेडल दिलाने वाले पहलवान दादासाहेब जाधव (हिन्दी) krantidoot.in। अभिगमन तिथि: 05 अगस्त, 2016।
- ↑ आखिर क्यों भुला दिया देश ने पहला ओलम्पिक मैडल दिलाने वाले पहलवान दादासाहेब जाधव को ? (हिन्दी) hindi.insistpost.com। अभिगमन तिथि: 05 अगस्त, 2016।
बाहरी कड़ियाँ
New Wrestling Stadium Named as K.D. Jadhav Wrestling Stadium
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