"गुप्त साम्राज्य": अवतरणों में अंतर

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गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी [[सदी]] के अन्त में [[प्रयाग]] के निकट [[कौशाम्बी]] में हुआ। गुप्त [[कुषाण|कुषाणों]] के सामन्त थे। इस वंश का आरंभिक राज्य [[उत्तर प्रदेश]] और [[बिहार]] में था। लगता है कि गुप्त शासकों के लिए बिहार की उपेक्षा उत्तर प्रदेश अधिक महत्त्व वाला प्रान्त था, क्योंकि आरम्भिक अभिलेख मुख्यतः इसी राज्य में पाए गए हैं। यही से गुप्त शासक कार्य संचालन करते रहे। और अनेक दिशाओं में बढ़ते गए। गुप्त शासकों ने अपना अधिपत्य अनुगंगा (मध्य गंगा मैदान), प्रयाग (इलाहाबाद), साकेत (आधुनिक अयोध्या) और मगध पर स्थापित किया।
==गुप्तों की उत्पत्ति==
{{tocright}}
गुप्त राजवंशों का इतिहास साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों प्रमाणों से प्राप्त है। इसके अतिरिक्त विदेशी यात्रियों के विवरण से भी गुप्त राजवंशों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
*साहित्यिक साधनों में [[पुराण]] सर्वप्रथम है जिसमें [[मत्स्य पुराण]], [[वायु पुराण]], तथा [[विष्णु पुराण]] द्वारा प्रारम्भिक शासकों के बारे में जानकारी मिलती है।
*[[बौद्ध]] ग्रंथों में 'आर्य मंजूश्रीमूलकल्प' महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त 'वसुबन्धु चरित' तथा 'चन्द्रगर्भ परिपृच्छ' से गुप्त वंशीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
*[[जैन]] ग्रंथों में 'हरिवंश' और 'कुवलयमाला' महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
*स्मृतियों में नारद, पराशर और बृहस्पति स्मृतियों से गुप्तकाल की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक इतिहास की जानकारी मिलती है।
*लौकिक साहित्य के अन्तर्गत विशाखदत्त कृत 'देवीचन्द्रगुप्तम्' (नाटक) से गुप्त नरेश [[रामगुप्त]] तथा चन्द्रगुप्त के बारे में जानकारी मिलती है। अन्य साहित्यिक स्रोतों में - [[अभिज्ञान शाकुन्तलम्]], [[रघुवंश महाकाव्य]], [[मुद्राराक्षस]], [[मृच्छकटिकम]], [[हर्षचरित]], वात्सायनन के कामसूत्र आदि से गुप्तकालीन शासन व्यवस्था एवं नगर जीवन के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
*अभिलेखीय साक्ष्य के अन्तर्गत [[समुद्रगुप्त]] का प्रयाग प्रशस्ति लेख सर्वप्रमुख है, जिसमें समुद्रगुप्त के राज्यभिषेक उसके दिग्विजय तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है। अन्य अभिलेखों में [[चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य|चन्द्रगुप्त द्वितीय]] के उदयगिरि से प्राप्त गुहा लेख, [[कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य|कुमार गुप्त]] का विलसड़ स्तम्भ लेख स्कंद गुप्त का भीतरी स्तम्भ लेख, जूनागढ़ अभिलेख महत्पूर्ण हैं।
*विदेशी यात्रियों के विवरण में [[फ़ाह्यान]] जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में [[भारत]] आया था। उसने मध्य देश के जनता का वर्णन किया है। 7वी. शताब्दी ई. में चीनी यात्री [[ह्वेनसांग]] के विवरण से भी गुप्त इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। उसने बुद्धगुप्त, कुमार गुप्त प्रथम, शकादित्य तथा बालदित्य आदि गुप्त शासकों का उल्लेख किया है। उसके विवरण से यह ज्ञात होता है कि कुमार गुप्त ने ही [[नालन्दा]] विहार की स्थापना की थी।
 
==गुप्तों की उत्पत्ति संबंधी विचार==
गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। इस संबंध में कुछ विचारक इसे शूद्र अथवा निम्नजाति से उत्पन्न मानते है जबकि कुछ का मानना है कि गुप्तों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई है। इस संबंध में विभिन्न् विचारकों के विचार निम्नलिखित हैं।
{| class="wikitable" align="right" style="margin:10px"
|+ गुप्तों की उत्पत्ति
|-
! जाति
! इतिहासकार
|-
|1- शूद्र तथा निम्न जाति से उत्पत्ति
| [[काशी प्रसाद जायसवाल]]
|-
|2- वैश्य
| एलन, एस.के. आयंगर, अनन्द सदाशिव अल्टेकर, [[रोमिला थापर]], [[रामशरण शर्मा]]
|-
|3- क्षत्रिय
| सुधारक चट्टोपाध्याय, आर.सी.मजूमदार, गौरी शंकर हीरा चन्द्र ओझा
|-
|4- ब्राह्मण
| डॉ राय चौधरी, डॉ रामगोपाल गोयल आदि
|}
 
==गुप्तकालीन प्रशासन==
==गुप्तकालीन प्रशासन==
{{tocright}}
{{main|गुप्तकालीन प्रशासन}}
{{main|गुप्तकालीन प्रशासन}}
गुप्त सम्राटों के समय में गणतंत्रीय राजव्यवस्था का ह्मस हुआ। गुप्त प्रशासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। देवत्व का सिद्वान्त गुप्तकालीन शासकों में प्रचलित था। राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। उसने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में [[हिमालय]] से लेकर दक्षिण में विंघ्यपर्वत तक एवं पूर्व में [[बंगाल की खाड़ी]] से लेकर पश्चिम में [[सौराष्ट्र]] तक फैला हुआ था।
गुप्त सम्राटों के समय में गणतंत्रीय राजव्यवस्था का ह्मस हुआ। गुप्त प्रशासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। देवत्व का सिद्वान्त गुप्तकालीन शासकों में प्रचलित था। राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। उसने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में [[हिमालय]] से लेकर दक्षिण में विंघ्यपर्वत तक एवं पूर्व में [[बंगाल की खाड़ी]] से लेकर पश्चिम में [[सौराष्ट्र]] तक फैला हुआ था।
==राजस्व के स्रोत==
==राजस्व के स्रोत==
{{main|गुप्तकालीन राजस्व}}
गुप्तकाल में राजकीय आय के प्रमुख स्रोत 'कर' थे, जो निम्नलिखित हैं-
गुप्तकाल में राजकीय आय के प्रमुख स्रोत 'कर' थे, जो निम्नलिखित हैं-
*भाग- राजा को भूमि के उत्पादन से प्राप्त होने वाला छठां हिस्सा।
*भाग- राजा को भूमि के उत्पादन से प्राप्त होने वाला छठां हिस्सा।
*भोग- सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर।
*भोग- सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर।
*प्रणयकर- गुप्तकाल में ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेख [[मनुस्मृति]] में हुआ है। इसी प्रकार भेंट नामक कर का उल्लेख [[हर्षचरित]] में आया है।
*प्रणयकर- गुप्तकाल में ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेख [[मनुस्मृति]] में हुआ है। इसी प्रकार भेंट नामक कर का उल्लेख [[हर्षचरित]] में आया है।
*उपरिकर एवं उद्रंगकर- यह एक प्रकार का भूमि कर होता था। भूमि कर की अदायगी दोनों ही रूपों में ‘हिरण्य‘ (नकद) या मेय (अन्न) में किया जा सकता था, किन्तु छठी शती के बाद किसानों को भूमि कर की अदायगी अन्न के रूप में करने के लिए बाध्य होना पड़ा। भूमि का स्वामी कृषकों एवं उनकी स्त्रियों से बेकार या विष्टि लिया करता था। गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को 'उद्रंग' या 'भागकर' कहा गया है। स्मृति ग्रंथों में इसे ‘राजा की वृत्ति‘ के रूप में उल्लेख किया गया है।
==व्यापार एवं वाणिज्य==
*हलदण्ड कर- यह कर हल पर लगता था। गुप्तकाल में वणिकों, शिल्पियों, शक्कर एवं नील बनाने वाले पर राजकर लगता था। गुप्तकाल में राजस्व के अन्य महत्वपूर्ण स्रोतों में भूमि, रत्न, छिपा हुआ गुप्तधन, खान एवं नमक आदि थे। इन पर सीधे सम्राट का एकाधिपत्य होता था<ref>नारद स्मृति</ref> पर कदाचित यदि इस तरह की खान या गुप्त धन किसी ऐसी भूमि पर निकल आये जो किसी को पहले से अनुदान में मिली है तो इस पर राजा का कोई भी अधिकार नहीं रह जाता था। संभवतः गुप्तकाल में भूराजस्व कुल उत्पादन का 1/4 से 1/6 तक होता था। स्मृतिकार मनु ने ‘मनुस्मृति‘ कहा है कि भूमि पर उसी का अधिकार होता है जो भूमि को सर्वप्रथम जंगल से भूमि में परिवर्तित करता है। बृहस्पति और नारद स्मृतियों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति का जमीन पर मालिका अधिकार तभी माना जा सकता है, जब उसके पास क़ानूनी दस्तावेज हो। इस समय प्रचलन में करीब 5 प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है।
{{main|गुप्तकालीन वाणिज्य और व्यापार}}
#क्षेत्र भूमि- ऐसी भूमि जो खेती के योग्य होती हो।
गुप्त काल में व्यापार एवं वाणिज्य अपने उत्कर्ष पर था। [[उज्जैन]], भड़ौच, प्रतिष्ष्ठान, [[विदिशा]], [[प्रयाग]], [[पाटलिपुत्र]], [[वैशाली]], ताम्रलिपि, [[मथुरा]], [[अहिच्छत्र]], [[कौशाम्बी]] आदि महत्त्वपूर्ण व्यापारिक नगर है। इन सब में उज्जैन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक स्थल था क्योंकि देश के हर कोने से मार्ग उज्जैन की ओर आते थे। स्वर्ण मुदाओं की अधिकता के कारण ही संभवतः गुप्तकालीन व्यापार विकास कर सका।
#वास्तु भूमि-  ऐसी भूमि जो निवास के योग्य होती हो।
==सामाजिक स्थिति==
#चारागाह भूमि - पशुओं के चारा योग्य भूमि
{{main|गुप्तकालीन सामाजिक स्थिति}}
#सिल -  ऐसी भूमि जो जोतने योग्य नहीं होती थी।
गुप्तकालीन भारतीय समाज परंपरागत 4 जातियों -  
#अग्रहत -  ऐसी भूमि जो जंगली होती थी।
#[[ब्राह्मण]],
*अमर सिंह ने 'अमरकोष' में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख किया है। ये हैं -
#[[क्षत्रिय]],
#उर्वरा,  
#[[वैश्य]] एवं
#ऊसर,  
#[[शूद्र]] में विभाजित था।
#मरु,
*[[कौटिल्य]] ने [[अर्थशास्त्र]] में तथा [[वराहमिहिर]] ने वृहतसंहिता में चारों वर्णो के लिए अलग अलग बस्तियों का विधान किया है।  
#अप्रहत,
*न्याय संहिताओं में यह उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रीय की परीक्षा अग्नि से, वैश्य की परीक्षा जल से तथा शूद्र की विषय से की जानी चाहिए।
#सद्वल,
==धार्मिक स्थिति==
#पंकिल,
{{main|गुप्तकालीन धार्मिक स्थिति}}
#जल,
गुप्त साम्राज्य को [[ब्राह्मण]] धर्म व [[हिन्दू धर्म]] के पुनरुत्थान का समय माना जाता है। हिन्दू धर्म विकास यात्रा के इस चरण में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए जैसे मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म का सामान्य लक्षण बन गई। [[यज्ञ]] का स्थान उपासना ने ले लिया एवं गुप्त काल में ही [[वैष्णव धर्म|वैष्णव]] एवं [[शैव धर्म]] के मध्य समन्वय स्थापित हुआ। ईश्वर भक्ति को महत्त्व दिया गया। तत्कालीन महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय के रूप में वैष्णव एवं शैव सम्प्रदाय प्रचलन में थे।
#कच्छ,
==कला और स्थापत्य==
#शर्करा,
{{main|गुप्तकालीन कला और स्थापत्य}}
#शर्कावती,
गुप्त काल में कला की विविध विधाओं जैसे वस्तं स्थापत्य, [[चित्रकला]], मृदभांड कला आदि में अभूतपूर्ण प्रगति देखने को मिलती है। गुप्त कालीन स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन मंदिर थे। मंदिर निर्माण कला का जन्म यही से हुआ। इस समय के मंदिर एक ऊँचे चबूतरें पर निर्मित किए जाते थे। चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर से सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था। [[देवता]] की मूर्ति को गर्भगृह में स्थापित किया गया था और गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा मार्ग का निर्माण किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों पर पाश्वों पर गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आकृतियां बनी होती थी। गुप्तकालीन मंदिरों की छतें प्रायः सपाट बनाई जाती थी पर शिखर युक्त मंदिरों के निर्माण के भी अवशेष मिले हैं। गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी ईटों एवं पत्थरों से बनाये जाते थे। ‘भीतरगांव का मंदिर‘ ईटों से ही निर्मित है।<br />
#नदीमातृक,
#देवमातृक।
कृषि से जुडे हुए कार्यो को 'महाक्षटलिक' एवं 'कारणिक' देखता था। गुप्तकाल में सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण अधिकांश कृषि वर्षा पर आधारित थी। [[वराहमिहिर]] की [[वृहत्तसंहिता]] में वर्षा की संभावना और वर्षा के अभाव के प्रश्न पर काफी विचार विमर्श हुआ है। वृहत संहिता में ही वर्षा से होने वाली तीन फसलों का उल्लेख है। [[स्कन्दगुप्त]] के जूनागढ़, अभिलेख से यह प्रमाणित होता है कि इसने 'सुदर्शन झील' की मरम्मत करवाई। सिंचाई में 'रहट' या 'घटीयंत्र' या प्रयोग होता था। गुप्तकाल में सोना, चांदी, तांबा एवं लोहा जैसी धातुओं का प्रचलन था। पालने योग्य पशुओं का में अमरकोष में घोड़े, भैंस, ऊंट, बकरी, भेड़, गधा, कुत्ता, बिल्ली आदि का विवरण प्राप्त होता है।


[[ह्वेन त्सांग]] ने गुप्तकालीन फसलों के विषय में बताया है कि पश्चिमोत्तर भारत में ईख और गेहूं तथा [[मगध]] एवं उसके पूर्वी क्षेत्रों में चावल की पैदावार होती थी। अमरकोष में उल्लिखित कताई-बुनाई, हथकरघा एवं धागे के विवरण से लगता है कि गुप्तकाल में वस्त्र निर्माण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। श्रेणियां, व्यवसायिक उद्यम एवं निर्माण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। श्रेणियां अपने आन्तरिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्र होती थी। श्रेणी के प्रधान को ‘ज्येष्ठक‘ कहा जाता था। यह पद आनुवंशिक होता था। [[नालन्दा]] एवं [[वैशाली]] से गुप्तकालीन श्रेष्ठियों, सार्थवाहों एवं कुलिकों की मुहरें प्राप्त होती है। श्रेणियां आधुनिक बैंक का भी काम करती थी। ये धन को अपने पास जमा करती एवं ब्याज पर धन उधार देती थी। ब्याज के रूप में प्राप्त धन का उपयोग मंदिरों में दीपक जलाने के काम में किया जाता था। 437 - 38 ई के ‘मंदसौर अभिलेख‘ में रेशम बुनकरों की श्रेणी के द्वारा विशाल 'सूर्य मंदिर' के निर्माण एवं मरम्मत का उल्लेख मिलता है। स्कन्दगुप्त के इंदौर ताम्रपत्र अभिलेख में इंद्रपुर के देव विष्णु ब्राह्मण द्वारा ‘तैलिक श्रेणी‘ का उल्लेख मिलता है जो ब्याज के रुपये में से सूर्य मंदिर में दीपक जलाने में प्रयुक्त तेज के खर्च को वहन करता था। गुप्त काल में श्रेणी से बड़ी संस्था, जिसकी शिल्प श्रेणियां सदस्य होती थी, उसे निगम कहा जाता था। प्रत्येक शिल्पियों की अलग-अलग श्रेणियां होती थी। ये श्रेणियां अपने कानून एवं परम्परा की अवहेलना करने वालों को सज़ा देने का अधिकार रखती थीं। व्यापारिक का नेतृत्व करने वाला ‘सार्थवाह‘ कहलाता था। निगम का प्रधान ‘श्रेष्ठि‘ कहलाता था। व्यापारिक समितियों को निगम कहते थे।
'''गुप्तकालीन महत्त्वपूर्ण मंदिर'''<br />


==गुप्तकालीन अभिलेख एवं उनके प्रवर्तक==
{| class="bharattable" border="1"
 
{| class="wikitable"
|+ गुप्तकालीन अभिलेख एवं प्रवर्तक
|-
|-
! शासक/प्रर्वतक
! मंदिर
! प्रमुख अभिलेख
! स्थान
|-
|-
|1- [[समुद्रगुप्त]]
|1- विष्णुमंदिर
| प्रयाग प्रशस्ति, एरण प्रशस्ति, गया ताम्र शासनलेख, नालंदा शासनलेख
| [[तिगवा]] (जबलपुर मध्य प्रदेश)
|-
|-
|2- [[चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य|चन्द्रगुप्त द्वितीय]]  
|2- शिव मंदिर
| सांची शिलालेख, उदयगिरि का प्रथम एवं द्वितीय शिलालेख, गढ़वा का प्रथम शिलालेख, मथुरा स्तम्भलेख, मेहरौली प्रशस्ति।
| [[भूमरा]] (नागोद मध्य प्रदेश)
|-
|-
|3- [[कुमार गुप्त]]  
|3- पार्वती मंदिर       
| मंदसौर शिलालेख, गढ़वा का द्वितीय एवं तृतीय शिलालेख, विलसड़ स्तम्भलेख, उदयगिरि का तृतीय गुहालेख, मानकुंवर बुद्धमूर्ति लेख, कर्मदाडा लिंकलेख, धनदेह ताम्रलेख, किताईकुटी ताम्रलेख, बैग्राम ताम्रलेख, दामोदर प्रथम एवं द्वितीय ताम्रलेख।
| [[नचना कुठार]] (मध्य प्रदेश)
|-
|-
|4- [[स्कन्दगुप्त]]
|4- [[दशावतार विष्णु मन्दिर|दशावतार मंदिर]]        
| जूनागढ़ प्रशस्ति, भितरी स्तम्भलेख, सुपिया स्तम्भलेख, कहांव स्तम्भलेख, इन्दौर ताम्रलेख।
| [[देवगढ़]] (झांसी, उत्तर प्रदेश)
|-
|-
|5- [[कुमारगुप्त द्वितीय]]
|5- शिवमंदिर           
| सारनाथ बुद्धमूर्ति लेख
| खोह (नागौद, मध्य प्रदेश)
|-
|-
|6- [[भानुगुप्त]]
|6- भीतरगांव का मंदिर लक्ष्मण मंदिर (ईटों द्वारा निर्मित)  
| एरण स्तम्भ लेख।
     
|-
| भितरगांव (कानपुर, उत्तर प्रदेश)
|7- [[विष्णुगुप्त]]
| पंचम दोमोदर ताम्रलेख।
|-
|-8- बुद्धगुप्त
| एरण स्तम्भ लेख, राजघाट (वाराणसी) स्तम्भ लेख, पहाड़ ताम्रलेख, नन्दपुर ताम्रलेख, चतुर्थ दामोदर ताम्रलेख।
|-
|9- बैलगुप्त
|टिपरा (गुनईधर) ताम्रलेख।
|-
|-
|}
|}
           
 
           
==साहित्य==
       
{{main|गुप्तकालीन साहित्य}}
     
गुप्तकाल को [[संस्कृत]] साहित्य का '''स्वर्ण युग''' माना जाता है। बार्नेट के अनुसार '''प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्त काल का वह महत्त्व है जो यूनान के इतिहास में पेरिक्लीयन युग का है।''' स्मिथ ने गुप्त काल की तुलना ब्रिटिश इतिहास के एजिलाबेथन तथा स्टुअर्ट के कालों से की है। गुप्त काल को श्रेष्ठ कवियों का काल माना जाता है।
           
==गुप्त काल स्वर्ण काल के रूप में==
       
गुप्त काल को स्वर्ण युग (Golden Age), क्लासिकल युग (Classical Age) एवं पैरीक्लीन युग (Periclean Age) कहा जाता है। अपनी जिन विशेषताओं के कारण गुप्तकाल को ‘स्वर्णकाल‘ कहा जाता है, वे इस प्रकार हैं- साहित्य, विज्ञान, एवं कला के उत्कर्ष का काल, भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार का काल, धार्मिक सहिष्णुता एवं आर्थिक समृद्धि का काल, श्रेष्ठ शासन व्यवस्था एवं महान्सम्राटों के उदय का काल एवं राजनीतिक एकता का काल, इन समस्त विशेषताओं के साथ ही हम गुप्त को स्वर्णकाल, क्लासिकल युग एवं पैरीक्लीन युग कहते हैं। कुछ विद्वानों जैसे [[रामशरण शर्मा|आर.एस.शर्मा]], [[दामोदर धर्मानंद कोसांबी|डी.डी. कौशम्बी]] एवं [[रोमिला थापर|डॉ. रोमिला थापर]] गुप्त के ‘स्वर्ण युग‘ की संकल्पना को निराधार सिद्ध करते हैं क्योंकि उनके अनुसार यह काल सामन्तवाद की उन्नति, नगरों के पतन, व्यापार एवं वाणिज्य के पतन तथा आर्थिक अवनति का काल था।
           
           
         
         




{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक2|पूर्णता=|शोध=}}


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
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[[Category:नया पन्ना]]
==संबंधित लेख==
{{गुप्त काल}}
 
{{भारत के राजवंश}}
[[Category:गुप्त_काल]]
[[Category:इतिहास कोश]]
__INDEX__
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09:58, 25 अक्टूबर 2014 के समय का अवतरण

गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी सदी के अन्त में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ। गुप्त कुषाणों के सामन्त थे। इस वंश का आरंभिक राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में था। लगता है कि गुप्त शासकों के लिए बिहार की उपेक्षा उत्तर प्रदेश अधिक महत्त्व वाला प्रान्त था, क्योंकि आरम्भिक अभिलेख मुख्यतः इसी राज्य में पाए गए हैं। यही से गुप्त शासक कार्य संचालन करते रहे। और अनेक दिशाओं में बढ़ते गए। गुप्त शासकों ने अपना अधिपत्य अनुगंगा (मध्य गंगा मैदान), प्रयाग (इलाहाबाद), साकेत (आधुनिक अयोध्या) और मगध पर स्थापित किया।

गुप्तों की उत्पत्ति

गुप्त राजवंशों का इतिहास साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों प्रमाणों से प्राप्त है। इसके अतिरिक्त विदेशी यात्रियों के विवरण से भी गुप्त राजवंशों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

  • साहित्यिक साधनों में पुराण सर्वप्रथम है जिसमें मत्स्य पुराण, वायु पुराण, तथा विष्णु पुराण द्वारा प्रारम्भिक शासकों के बारे में जानकारी मिलती है।
  • बौद्ध ग्रंथों में 'आर्य मंजूश्रीमूलकल्प' महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त 'वसुबन्धु चरित' तथा 'चन्द्रगर्भ परिपृच्छ' से गुप्त वंशीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
  • जैन ग्रंथों में 'हरिवंश' और 'कुवलयमाला' महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
  • स्मृतियों में नारद, पराशर और बृहस्पति स्मृतियों से गुप्तकाल की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक इतिहास की जानकारी मिलती है।
  • लौकिक साहित्य के अन्तर्गत विशाखदत्त कृत 'देवीचन्द्रगुप्तम्' (नाटक) से गुप्त नरेश रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त के बारे में जानकारी मिलती है। अन्य साहित्यिक स्रोतों में - अभिज्ञान शाकुन्तलम्, रघुवंश महाकाव्य, मुद्राराक्षस, मृच्छकटिकम, हर्षचरित, वात्सायनन के कामसूत्र आदि से गुप्तकालीन शासन व्यवस्था एवं नगर जीवन के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
  • अभिलेखीय साक्ष्य के अन्तर्गत समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति लेख सर्वप्रमुख है, जिसमें समुद्रगुप्त के राज्यभिषेक उसके दिग्विजय तथा व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है। अन्य अभिलेखों में चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि से प्राप्त गुहा लेख, कुमार गुप्त का विलसड़ स्तम्भ लेख स्कंद गुप्त का भीतरी स्तम्भ लेख, जूनागढ़ अभिलेख महत्पूर्ण हैं।
  • विदेशी यात्रियों के विवरण में फ़ाह्यान जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में भारत आया था। उसने मध्य देश के जनता का वर्णन किया है। 7वी. शताब्दी ई. में चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से भी गुप्त इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। उसने बुद्धगुप्त, कुमार गुप्त प्रथम, शकादित्य तथा बालदित्य आदि गुप्त शासकों का उल्लेख किया है। उसके विवरण से यह ज्ञात होता है कि कुमार गुप्त ने ही नालन्दा विहार की स्थापना की थी।

गुप्तों की उत्पत्ति संबंधी विचार

गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। इस संबंध में कुछ विचारक इसे शूद्र अथवा निम्नजाति से उत्पन्न मानते है जबकि कुछ का मानना है कि गुप्तों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई है। इस संबंध में विभिन्न् विचारकों के विचार निम्नलिखित हैं।

गुप्तों की उत्पत्ति
जाति इतिहासकार
1- शूद्र तथा निम्न जाति से उत्पत्ति काशी प्रसाद जायसवाल
2- वैश्य एलन, एस.के. आयंगर, अनन्द सदाशिव अल्टेकर, रोमिला थापर, रामशरण शर्मा
3- क्षत्रिय सुधारक चट्टोपाध्याय, आर.सी.मजूमदार, गौरी शंकर हीरा चन्द्र ओझा
4- ब्राह्मण डॉ राय चौधरी, डॉ रामगोपाल गोयल आदि

गुप्तकालीन प्रशासन

गुप्त सम्राटों के समय में गणतंत्रीय राजव्यवस्था का ह्मस हुआ। गुप्त प्रशासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। देवत्व का सिद्वान्त गुप्तकालीन शासकों में प्रचलित था। राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। उसने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंघ्यपर्वत तक एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था।

राजस्व के स्रोत

गुप्तकाल में राजकीय आय के प्रमुख स्रोत 'कर' थे, जो निम्नलिखित हैं-

  • भाग- राजा को भूमि के उत्पादन से प्राप्त होने वाला छठां हिस्सा।
  • भोग- सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर।
  • प्रणयकर- गुप्तकाल में ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेख मनुस्मृति में हुआ है। इसी प्रकार भेंट नामक कर का उल्लेख हर्षचरित में आया है।

व्यापार एवं वाणिज्य

गुप्त काल में व्यापार एवं वाणिज्य अपने उत्कर्ष पर था। उज्जैन, भड़ौच, प्रतिष्ष्ठान, विदिशा, प्रयाग, पाटलिपुत्र, वैशाली, ताम्रलिपि, मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी आदि महत्त्वपूर्ण व्यापारिक नगर है। इन सब में उज्जैन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक स्थल था क्योंकि देश के हर कोने से मार्ग उज्जैन की ओर आते थे। स्वर्ण मुदाओं की अधिकता के कारण ही संभवतः गुप्तकालीन व्यापार विकास कर सका।

सामाजिक स्थिति

गुप्तकालीन भारतीय समाज परंपरागत 4 जातियों -

  1. ब्राह्मण,
  2. क्षत्रिय,
  3. वैश्य एवं
  4. शूद्र में विभाजित था।
  • कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में तथा वराहमिहिर ने वृहतसंहिता में चारों वर्णो के लिए अलग अलग बस्तियों का विधान किया है।
  • न्याय संहिताओं में यह उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रीय की परीक्षा अग्नि से, वैश्य की परीक्षा जल से तथा शूद्र की विषय से की जानी चाहिए।

धार्मिक स्थिति

गुप्त साम्राज्य को ब्राह्मण धर्म व हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का समय माना जाता है। हिन्दू धर्म विकास यात्रा के इस चरण में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए जैसे मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म का सामान्य लक्षण बन गई। यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया एवं गुप्त काल में ही वैष्णव एवं शैव धर्म के मध्य समन्वय स्थापित हुआ। ईश्वर भक्ति को महत्त्व दिया गया। तत्कालीन महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय के रूप में वैष्णव एवं शैव सम्प्रदाय प्रचलन में थे।

कला और स्थापत्य

गुप्त काल में कला की विविध विधाओं जैसे वस्तं स्थापत्य, चित्रकला, मृदभांड कला आदि में अभूतपूर्ण प्रगति देखने को मिलती है। गुप्त कालीन स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन मंदिर थे। मंदिर निर्माण कला का जन्म यही से हुआ। इस समय के मंदिर एक ऊँचे चबूतरें पर निर्मित किए जाते थे। चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर से सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था। देवता की मूर्ति को गर्भगृह में स्थापित किया गया था और गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा मार्ग का निर्माण किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों पर पाश्वों पर गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आकृतियां बनी होती थी। गुप्तकालीन मंदिरों की छतें प्रायः सपाट बनाई जाती थी पर शिखर युक्त मंदिरों के निर्माण के भी अवशेष मिले हैं। गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी ईटों एवं पत्थरों से बनाये जाते थे। ‘भीतरगांव का मंदिर‘ ईटों से ही निर्मित है।

गुप्तकालीन महत्त्वपूर्ण मंदिर

मंदिर स्थान
1- विष्णुमंदिर तिगवा (जबलपुर मध्य प्रदेश)
2- शिव मंदिर भूमरा (नागोद मध्य प्रदेश)
3- पार्वती मंदिर नचना कुठार (मध्य प्रदेश)
4- दशावतार मंदिर देवगढ़ (झांसी, उत्तर प्रदेश)
5- शिवमंदिर खोह (नागौद, मध्य प्रदेश)
6- भीतरगांव का मंदिर लक्ष्मण मंदिर (ईटों द्वारा निर्मित) भितरगांव (कानपुर, उत्तर प्रदेश)

साहित्य

गुप्तकाल को संस्कृत साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। बार्नेट के अनुसार प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्त काल का वह महत्त्व है जो यूनान के इतिहास में पेरिक्लीयन युग का है। स्मिथ ने गुप्त काल की तुलना ब्रिटिश इतिहास के एजिलाबेथन तथा स्टुअर्ट के कालों से की है। गुप्त काल को श्रेष्ठ कवियों का काल माना जाता है।

गुप्त काल स्वर्ण काल के रूप में

गुप्त काल को स्वर्ण युग (Golden Age), क्लासिकल युग (Classical Age) एवं पैरीक्लीन युग (Periclean Age) कहा जाता है। अपनी जिन विशेषताओं के कारण गुप्तकाल को ‘स्वर्णकाल‘ कहा जाता है, वे इस प्रकार हैं- साहित्य, विज्ञान, एवं कला के उत्कर्ष का काल, भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार का काल, धार्मिक सहिष्णुता एवं आर्थिक समृद्धि का काल, श्रेष्ठ शासन व्यवस्था एवं महान्सम्राटों के उदय का काल एवं राजनीतिक एकता का काल, इन समस्त विशेषताओं के साथ ही हम गुप्त को स्वर्णकाल, क्लासिकल युग एवं पैरीक्लीन युग कहते हैं। कुछ विद्वानों जैसे आर.एस.शर्मा, डी.डी. कौशम्बी एवं डॉ. रोमिला थापर गुप्त के ‘स्वर्ण युग‘ की संकल्पना को निराधार सिद्ध करते हैं क्योंकि उनके अनुसार यह काल सामन्तवाद की उन्नति, नगरों के पतन, व्यापार एवं वाणिज्य के पतन तथा आर्थिक अवनति का काल था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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