"सुवर्णप्रभास": अवतरणों में अंतर
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*महायान सूत्र साहित्य में सुवर्णप्रभास की महत्त्वपूर्ण सूत्रों में गणना की जाती है। [[चीन]] और [[जापान]] में इसके प्रति अतिशय श्रद्धा है। फलस्वरूप धर्मरक्ष ने 412-426 ईस्वी में, परमार्थ ने 548 ईस्वी में, यशोगुप्त ने 561-577 ईस्वी में, पाओक्की ने 597 ईस्वी में तथा इत्सिंग ने 703 ईस्वी में इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया। | |||
*महायान सूत्र साहित्य में सुवर्णप्रभास की महत्त्वपूर्ण सूत्रों में गणना की जाती है। चीन और जापान में इसके प्रति अतिशय श्रद्धा है। फलस्वरूप धर्मरक्ष ने 412-426 ईस्वी में, परमार्थ ने 548 ईस्वी में, यशोगुप्त ने 561-577 ईस्वी में, पाओक्की ने 597 ईस्वी में तथा इत्सिंग ने 703 ईस्वी में इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया। | |||
*इसी तरह जापानी भाषा में भी तीन या चार अनुवाद हुए। तिब्बती भाषा में भी इसका अनुवाद उपलब्ध है। साथ ही उइगर (Uigur) और खोतन में भी इसका अनुवाद हुआ। इन अनुवादों से यह सिद्ध होता है कि इस सूत्र का आदर एवं लोकप्रियता व्यापक क्षेत्र में थी। इस सूत्र में दर्शन, नीति, तन्त्र एवं आचार का उपाख्यानों द्वारा सुस्पष्ट निरूपण किया गया है। इस तरह बौद्धों के महायान सिद्धान्तों का विस्तृत प्रतिपादन है। इसमें कुल 21 परिवर्त हैं। | *इसी तरह जापानी भाषा में भी तीन या चार अनुवाद हुए। तिब्बती भाषा में भी इसका अनुवाद उपलब्ध है। साथ ही उइगर (Uigur) और खोतन में भी इसका अनुवाद हुआ। इन अनुवादों से यह सिद्ध होता है कि इस सूत्र का आदर एवं लोकप्रियता व्यापक क्षेत्र में थी। इस सूत्र में दर्शन, नीति, तन्त्र एवं आचार का उपाख्यानों द्वारा सुस्पष्ट निरूपण किया गया है। इस तरह बौद्धों के महायान सिद्धान्तों का विस्तृत प्रतिपादन है। इसमें कुल 21 परिवर्त हैं। | ||
*प्रथम परिवर्त में सुवर्णप्रभास के श्रवण का माहात्म्य वर्णित है। | *प्रथम परिवर्त में सुवर्णप्रभास के श्रवण का माहात्म्य वर्णित है। | ||
*द्वितीय परिवर्त में जिस विषय की आलोचना की गई है, वह अत्यन्त | *द्वितीय परिवर्त में जिस विषय की आलोचना की गई है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। बुद्ध ने दीर्षायु होने के दो कारण बताए हैं। प्रथम प्राणिवध से विरत होना तथा द्वितीय प्राणियों के अनुकूल भोजन प्रदान करना। बोधिसत्त्व रुचिरकेतु को सन्देह हुआ कि भगवान ने दीर्घायुष्कता के दोनों साधनों का आचरण किया, फिर भी अस्सी वर्ष में ही उनकी आयु समाप्त हो गई। अत: उनके वचन का कोई प्रामाण्य नहीं है। | ||
*इस शंका का समाधान करने के लिए चार बुद्ध अक्षोभ्य, रत्नकेतु, अमितायु और दुन्दुभिस्वर की कथा की तथा लिच्छिवि कुमार ब्राह्मण कोण्डिन्य की कथा की अवतारणा की गई। आशय यह है कि बुद्ध का शरीर पार्थिव नहीं है, अत: उसमें सर्षप (सरसों) के बराबर भी धातु नहीं है तथा उनका शरीर धर्ममय एवं नित्य है। अत: पूर्वोक्त शंका का कोई अवसर नहीं है। | *इस शंका का समाधान करने के लिए चार बुद्ध अक्षोभ्य, रत्नकेतु, अमितायु और दुन्दुभिस्वर की कथा की तथा लिच्छिवि कुमार ब्राह्मण कोण्डिन्य की कथा की अवतारणा की गई। आशय यह है कि बुद्ध का शरीर पार्थिव नहीं है, अत: उसमें सर्षप (सरसों) के बराबर भी धातु नहीं है तथा उनका शरीर धर्ममय एवं नित्य है। अत: पूर्वोक्त शंका का कोई अवसर नहीं है। | ||
<poem>तथा हि: यदा शशविषाणेन नि:श्रेणी सुकृता भवेत्। | <poem>तथा हि: यदा शशविषाणेन नि:श्रेणी सुकृता भवेत्। | ||
स्वर्गस्यारोहणार्थाय तदा धातुर्भविष्यति॥ | स्वर्गस्यारोहणार्थाय तदा धातुर्भविष्यति॥ | ||
अनस्थिरुधिरे काये कुतो धातुर्भविष्यति।< | अनस्थिरुधिरे काये कुतो धातुर्भविष्यति।<ref>द्र.- सुवर्णप्रभाससूत्र, तथागतायु: प्रमाणनिर्देशपरिवर्त, पृ0 8 (दरभङ्गा-संस्करण 1967</ref> | ||
अपि च, न बुद्ध: परिनिर्वाति न धर्म: परिहीयते। | अपि च, न बुद्ध: परिनिर्वाति न धर्म: परिहीयते। | ||
सत्त्वानां परिपाकाय परिनिर्वाणं निदर्श्यते॥ | सत्त्वानां परिपाकाय परिनिर्वाणं निदर्श्यते॥ | ||
अचिन्त्यो भगवान् बुद्धो नित्यकायस्तथागत:। | अचिन्त्यो भगवान् बुद्धो नित्यकायस्तथागत:। | ||
देशेति विविधान व्यूहान् सत्त्वानां हितकारणात्।< | देशेति विविधान व्यूहान् सत्त्वानां हितकारणात्।<ref>द्र.- सुवर्णप्रभाससूत्र, तथागतायु: प्रमाणनिर्देशपरिवर्त, पृ0 9 (दरभङ्गा-संस्करण 1967</ref> </poem> | ||
*तृतीय परिवर्त में रुचिरकेतु बोधिसत्त्व स्वप्न में एक ब्राह्मण को दुन्दुभि बजाते देखता है और दुन्दुभि से धर्म गाथाएं निकल रही हैं। जागने पर भी बोधिसत्त्व को गाथाएं याद रहती हैं और वह उन्हें भगवान के सामने निवेदित करता है। | *तृतीय परिवर्त में रुचिरकेतु बोधिसत्त्व स्वप्न में एक ब्राह्मण को दुन्दुभि बजाते देखता है और दुन्दुभि से धर्म गाथाएं निकल रही हैं। जागने पर भी बोधिसत्त्व को गाथाएं याद रहती हैं और वह उन्हें भगवान के सामने निवेदित करता है। | ||
*चतुर्थ परिवर्त में महायान के मौलिक सिद्धान्तों का गाथाओं द्वारा उपपादन किया गया है। | *चतुर्थ परिवर्त में महायान के मौलिक सिद्धान्तों का गाथाओं द्वारा उपपादन किया गया है। | ||
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*बीसवें परिवर्त में सुवर्णरत्नाकरछत्रकूट नामक तथागत की बोधिसत्त्वों द्वारा की गई गाथामय स्तुति प्रतिपादित है। | *बीसवें परिवर्त में सुवर्णरत्नाकरछत्रकूट नामक तथागत की बोधिसत्त्वों द्वारा की गई गाथामय स्तुति प्रतिपादित है। | ||
*इक्कीसवें परिवर्त में बोधिसत्त्वसमुच्चया नामक कुल-देवता द्वारा व्यक्त सर्वशून्यताविषयक गाथाएं उल्लिखित हैं। | *इक्कीसवें परिवर्त में बोधिसत्त्वसमुच्चया नामक कुल-देवता द्वारा व्यक्त सर्वशून्यताविषयक गाथाएं उल्लिखित हैं। | ||
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13:44, 21 मार्च 2014 के समय का अवतरण
- महायान सूत्र साहित्य में सुवर्णप्रभास की महत्त्वपूर्ण सूत्रों में गणना की जाती है। चीन और जापान में इसके प्रति अतिशय श्रद्धा है। फलस्वरूप धर्मरक्ष ने 412-426 ईस्वी में, परमार्थ ने 548 ईस्वी में, यशोगुप्त ने 561-577 ईस्वी में, पाओक्की ने 597 ईस्वी में तथा इत्सिंग ने 703 ईस्वी में इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया।
- इसी तरह जापानी भाषा में भी तीन या चार अनुवाद हुए। तिब्बती भाषा में भी इसका अनुवाद उपलब्ध है। साथ ही उइगर (Uigur) और खोतन में भी इसका अनुवाद हुआ। इन अनुवादों से यह सिद्ध होता है कि इस सूत्र का आदर एवं लोकप्रियता व्यापक क्षेत्र में थी। इस सूत्र में दर्शन, नीति, तन्त्र एवं आचार का उपाख्यानों द्वारा सुस्पष्ट निरूपण किया गया है। इस तरह बौद्धों के महायान सिद्धान्तों का विस्तृत प्रतिपादन है। इसमें कुल 21 परिवर्त हैं।
- प्रथम परिवर्त में सुवर्णप्रभास के श्रवण का माहात्म्य वर्णित है।
- द्वितीय परिवर्त में जिस विषय की आलोचना की गई है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। बुद्ध ने दीर्षायु होने के दो कारण बताए हैं। प्रथम प्राणिवध से विरत होना तथा द्वितीय प्राणियों के अनुकूल भोजन प्रदान करना। बोधिसत्त्व रुचिरकेतु को सन्देह हुआ कि भगवान ने दीर्घायुष्कता के दोनों साधनों का आचरण किया, फिर भी अस्सी वर्ष में ही उनकी आयु समाप्त हो गई। अत: उनके वचन का कोई प्रामाण्य नहीं है।
- इस शंका का समाधान करने के लिए चार बुद्ध अक्षोभ्य, रत्नकेतु, अमितायु और दुन्दुभिस्वर की कथा की तथा लिच्छिवि कुमार ब्राह्मण कोण्डिन्य की कथा की अवतारणा की गई। आशय यह है कि बुद्ध का शरीर पार्थिव नहीं है, अत: उसमें सर्षप (सरसों) के बराबर भी धातु नहीं है तथा उनका शरीर धर्ममय एवं नित्य है। अत: पूर्वोक्त शंका का कोई अवसर नहीं है।
तथा हि: यदा शशविषाणेन नि:श्रेणी सुकृता भवेत्।
स्वर्गस्यारोहणार्थाय तदा धातुर्भविष्यति॥
अनस्थिरुधिरे काये कुतो धातुर्भविष्यति।[1]
अपि च, न बुद्ध: परिनिर्वाति न धर्म: परिहीयते।
सत्त्वानां परिपाकाय परिनिर्वाणं निदर्श्यते॥
अचिन्त्यो भगवान् बुद्धो नित्यकायस्तथागत:।
देशेति विविधान व्यूहान् सत्त्वानां हितकारणात्।[2]
- तृतीय परिवर्त में रुचिरकेतु बोधिसत्त्व स्वप्न में एक ब्राह्मण को दुन्दुभि बजाते देखता है और दुन्दुभि से धर्म गाथाएं निकल रही हैं। जागने पर भी बोधिसत्त्व को गाथाएं याद रहती हैं और वह उन्हें भगवान के सामने निवेदित करता है।
- चतुर्थ परिवर्त में महायान के मौलिक सिद्धान्तों का गाथाओं द्वारा उपपादन किया गया है।
- पञ्चम परिवर्त में बुद्ध के स्तव हैं, जिनका सामूहिक नाम कमलाकर है। इनमें बुद्ध की महिमा का वर्णन है।
- षष्ठ परिवर्त में वस्तुमात्र की शून्यता के परिशीलन का निर्देश है।
- सप्तम में सुवर्णप्रभास के माहात्म्य का वर्णन है।
- अष्टम परिवर्त में सरस्वती देवी बुद्ध के सम्मुख आविर्भूत हुई और सुवर्णप्रभास में प्रतिपादित धर्म का व्याख्यान करने वाले धर्मभाणक को बुद्ध की प्रतिभा से सम्पन्न करने की प्रतिज्ञा की। *नवम परिवर्त में महादेवी बुद्ध के सम्मुख प्रकट हुईं और घोषणा की कि मैं व्यावहारिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति से धर्मभाणक को सम्पन्न करूँगी।
- दशम परिवर्त में विभिन्न तथागतों एवं बोधिसत्त्वों के नामों का संकीर्तन किया गया है।
- एकादश परिवर्त में दृढ़ा नामक पृथ्वी देवी भगवान के सम्मख उपस्थित हुईं और कहा कि धर्मभाणक के लिए जो उपवेशन-पीठ हे, वह यथासम्भव सुखप्रदायक होगा। साथ ही आग्रह किया कि धर्मभाणक के धर्मामृत से अपने को तृप्त करूँगी।
- द्वादश परिवर्त में यक्ष सेनापति अपने अट्ठाइस सेनापतियों के साथ भगवान के पास आये और सुवर्णप्रभास के प्रचार के लिए अपने सहयोग का वचन दिया। साथ ही धर्मभाणकों की रक्षा का आश्वासन भी दिया।
- त्रयोदश परिवर्त में राजशास्त्र सम्बन्धी विषयों का प्रतिपादन है।
- चतुर्दश परिवर्त में सुसम्भव नामक राजा का वृत्तान्त है।
- पंचदश परिवर्त में यक्षों और अन्य देवताओं ने सुवर्णप्रभास के श्रोताओं की रक्षा की प्रतिज्ञा की।
- षोडश परिवर्त में भगवान ने दश सहस्र देवपुत्रों के बुद्धत्व लाभ की भविष्यवाणी की।
- सप्तदश परिवर्त में व्याधियों के उपशमन करने का विवरण दिया गया है।
- अष्टादश परिवर्त में जलवाहन द्वारा मत्स्यों को बौद्धधर्म में प्रवेश कराने के चर्चा है।
- उन्नीसवें परिवर्त में भगवान ने बोधिसत्त्व अवस्था में एक व्याघ्री की भूख मिटाने के लिए अपने शरीर का परित्याग किया था, उसकी चर्चा है।
- बीसवें परिवर्त में सुवर्णरत्नाकरछत्रकूट नामक तथागत की बोधिसत्त्वों द्वारा की गई गाथामय स्तुति प्रतिपादित है।
- इक्कीसवें परिवर्त में बोधिसत्त्वसमुच्चया नामक कुल-देवता द्वारा व्यक्त सर्वशून्यताविषयक गाथाएं उल्लिखित हैं।