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'''उपन्यास''' गद्य लेखन की एक विधा है। उपन्यास और [[कहानी]] का कला-रूप आधुनिक युग की उपज है। विद्वानों का ऐसा विचार है कि उपन्यास और कहानी [[संस्कृत]] की कथा-आख्यायिकाओं की सीधी संतान नहीं हैं। [[कविता]] और नाटक के संदर्भ में यही बात नहीं कही जा सकती। अर्थात नाटक और कविता की तरह उपन्यास और कहानी की परम्परा पुरानी नहीं है। उपन्यास का संबंध यथार्थवाद से बताया जाता है। पुरानी दुनिया आदर्शवादी थी। आधुनिक दुनिया यथार्थवादी है। यथार्थवादी होने का पहला लक्षण है जीवन के सारे मूल्यों का लौकिक होना। उसमें जीवन की व्याख्या मुख्यत: दो आधारों पर होती है-
'''उपन्यास''' गद्य लेखन की एक विधा है। उपन्यास और [[कहानी]] का कला-रूप आधुनिक युग की उपज है। विद्वानों का ऐसा विचार है कि उपन्यास और कहानी [[संस्कृत]] की कथा-आख्यायिकाओं की सीधी संतान नहीं हैं। [[कविता]] और नाटक के संदर्भ में यही बात नहीं कही जा सकती। अर्थात् नाटक और कविता की तरह उपन्यास और कहानी की परम्परा पुरानी नहीं है। उपन्यास का संबंध यथार्थवाद से बताया जाता है। पुरानी दुनिया आदर्शवादी थी। आधुनिक दुनिया यथार्थवादी है। यथार्थवादी होने का पहला लक्षण है जीवन के सारे मूल्यों का लौकिक होना। उसमें जीवन की व्याख्या मुख्यत: दो आधारों पर होती है-
# भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियाँ
# भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियाँ
#  ऐतिहासिक परम्परा
#  ऐतिहासिक परम्परा
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<blockquote>मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है। सब आदमियों के चरित्रों में भी बहुत कुछ समानता होते हुए भी कुछ विभिन्नताएँ होती हैं। यही चरित्र संबंधी समानता और विभिन्नता-अभिन्नत्व में भिन्नत्व और विभिन्नत्व में अभिन्नत्व-दिखाना उपन्यास का मूल कर्त्तव्य है।<ref name="साहित्यालोचन"/></blockquote>
<blockquote>मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है। सब आदमियों के चरित्रों में भी बहुत कुछ समानता होते हुए भी कुछ विभिन्नताएँ होती हैं। यही चरित्र संबंधी समानता और विभिन्नता-अभिन्नत्व में भिन्नत्व और विभिन्नत्व में अभिन्नत्व-दिखाना उपन्यास का मूल कर्त्तव्य है।<ref name="साहित्यालोचन"/></blockquote>


; अर्नेस्ट ए. बेकर के शब्दों में
अर्नेस्ट ए. बेकर ने उपन्यास की परिभाषा देते हुए उसे गद्यबद्ध कथानक के माध्यम द्वारा जीवन तथा समाज की व्याख्या का सर्वोत्तम साधन बताया है। यों तो विश्वसाहित्य का प्रारंभ ही संभवत: कहानियों से हुआ और वे महाकाव्यों के युग से आज तक के साहित्य का मेरुदंड रही हैं, फिर भी उपन्यास को आधुनिक युग की देन कहना अधिक समीचीन होगा। साहित्य में गद्य का प्रयोग जीवन के यथार्थ चित्रण का द्योतक है। साधारण बोलचाल की भाषा द्वारा लेखक के लिए अपने पात्रों, उनकी समस्याओं तथा उनके जीवन की व्यापक पृष्ठभूमि से प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करना आसान हो गया है। जहाँ महाकाव्यों में कृत्रिमता तथा आदर्शोन्मुख प्रवृत्ति की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है, आधुनिक उपन्यासकार जीवन की विश्रृंखलताओं का नग्न चित्रण प्रस्तुत करने में ही अपनी कला की सार्थकता देखता है।
यथार्थ के प्रति आग्रह का एक अन्य परिणाम यह हुआ कि कथा साहित्य के अपौरुषेय तथा अलौकिक तत्व, जो प्राचीन महाकाव्यों के विशिष्ट अंग थे, पूर्णतया लुप्त हो गए। कथाकार की कल्पना अब सीमाबद्ध हो गई। यथार्थ की परिधि के बाहर जाकर मनचाही उड़ान लेना उसके लिए प्राय: असंभव हो गया। उपन्यास का आविर्भाव और विकास वैज्ञानिक प्रगति के साथ हुआ। एक ओर जहाँ विज्ञान ने व्यक्ति तथा समाज को सामान्य धरातल से देखने तथा चित्रित करने की प्ररेणा दी वहीं दूसरी ओर उसने जीवन की समसयाओं के प्रति एक नए दृष्टिकोण का भी संकेत किया। यह दृष्टिकोण मुख्यत: बौद्धिक था। उपन्यासकार के ऊपर कुछ नए उत्तरदायित्व आ गए थे। अब उसकी साधना कला की समस्याओंं तक ही सीमित न रहकर व्यापक सामाजिक जागरूकता की अपेक्षा रखती थी। वस्तुत: आधुनिक उपन्यास सामाजिक चेतना के क्रमिक विकास की कलात्मक अभिव्यक्ति है। जीवन का जितना व्यापक एवं सर्वांगीण चित्र उपन्यास में मिलता है उतना साहित्य के अन्य किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं।
सामाजिक जीवन की विशद व्याख्या प्रस्तुत करने के साथ ही साथ आधुनिक उपन्यास वैयक्तिक चरित्र के सूक्ष्म अध्ययन की भी सुविधा प्रदान करता है। वास्तव में उपन्यास की उत्पत्ति की कहानी यूरोपीय पुनरुत्थान (रेनैसाँ) के फलस्वरूप अर्जित व्यक्तिस्वातंत्य के साथ लगी हुई है। इतिहास के इस महत्वपूर्ण दौर के उपरांत मानव को, जो अब तक समाज की इकाई के रूप में ही देखा जाता था, वैयक्तिक प्रतष्ठा मिली। सामंतवादी युग के सामाजिक बंधन ढीले पड़े और मानव व्यक्तित्व के विकास के लिए उन्मुक्त वातावरण मिला। यथार्थोन्मुख प्रवृत्तियों ने मानव चरित्र के अध्ययन के लिए भी एक नया दृष्टिकोण दिया। अब तक के साहित्य में मानव चरित्र के सरल वर्गीकरण की परंपरा चली आ रही है। पात्र या तो पूर्णतया भले होते थे या एकदम गए गुजरे। अच्छाइयों और त्रुटियों का सम्मिश्रण, जैसा वास्तविक जीवन में सर्वत्र देखने को मिलता है, उस समय के कथाकारों की कल्पना के परे की बात थी। उपन्यास में पहली बार मानव चरित्र के यथार्थ, विशद एवं गहन अध्ययन की संभावना देखने को मिली।
अंग्रेजी के महान्‌ उपन्यासकार हेनरी फ़ील्डिंग ने अपनी रचनाओं को गद्य के लिखे गए व्यंग्यात्मक महाकाव्य की संज्ञा दी। उन्होंने उपन्यास की इतिहास से तुलना करते हुए उसे अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण कहा। जहाँ इतिहास कुछ विशिष्ट व्यक्तियों एवं महत्वपूर्ण घटनाओं तक ही सीमित रहता है, उपन्यास प्रदर्शित जीवन के सत्य, शाश्वत और संर्वदेशीय महत्व रखते हैं। साहित्य में आज उपन्यास का वस्तुत: वही स्थान है जो प्राचीन युग में महाकाव्यों का था। व्यापक सामाजिक चित्रण की दृष्टि से दोनों में पर्याप्त साम्य है। लेकिन जहाँ महाकाव्यों में जीवन तथा व्यक्तियों का आदर्शवादी चित्र मिलता है, उपन्यास, जैसा फ़ील्डिंग की परिभाषा से स्पष्ट है, समाज की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता है। उपन्यासकार के लिए कहानी साधन मात्र है, साध्य नहीं। उसका ध्येय पाठकों का मनोरंजन मात्र भी नहीं। वह सच्चे अर्थ में अपने युग का इतिहासकार है जो सत्य और कल्पना दोनों का सहारा लेकर व्यापक सामाजिक जीवन की झाँकी प्रस्तुत करता है।<ref>सं.ग्रं.-ई.एम. फ़ोर्स्टर : ऐस्पेक्ट्स ऑव द नावेल; राल्फ़ फ़ॉक्स : दी नावेल ऐंउ द पीपुल; पसी कुवतक : द क्रैफ़्ट ऑव फ़िक्शन; एडविन म्योर : द स्ट्रक्चर ऑव द नावेल।</ref>
उपन्यास के समानांतर इधर उपन्यासिका नामक नवीन गद्य विधा का सूत्रपात हुआ है जिसे लघु उपन्यास भी कहा जाता है। उपन्यासिका अपनी संघटना की दृष्टि से उपन्यास के निकट होने पर भी कलवेर तथा आकार के चलते कहानी के अधिक निकट होती है। इसमें न तो कहनी जैसी एकसूत्रता, सघन बुनावट और प्रभावान्विति होती है और न ही उपन्यास जैसा फैलाव तथा निरूपण वैविध्य। देखा जाए तो उपन्यासिका उपन्यास और कहानी के बीच की विधा है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=119 |url=}}</ref>
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07:51, 6 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

गोदान

उपन्यास गद्य लेखन की एक विधा है। उपन्यास और कहानी का कला-रूप आधुनिक युग की उपज है। विद्वानों का ऐसा विचार है कि उपन्यास और कहानी संस्कृत की कथा-आख्यायिकाओं की सीधी संतान नहीं हैं। कविता और नाटक के संदर्भ में यही बात नहीं कही जा सकती। अर्थात् नाटक और कविता की तरह उपन्यास और कहानी की परम्परा पुरानी नहीं है। उपन्यास का संबंध यथार्थवाद से बताया जाता है। पुरानी दुनिया आदर्शवादी थी। आधुनिक दुनिया यथार्थवादी है। यथार्थवादी होने का पहला लक्षण है जीवन के सारे मूल्यों का लौकिक होना। उसमें जीवन की व्याख्या मुख्यत: दो आधारों पर होती है-

  1. भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियाँ
  2. ऐतिहासिक परम्परा

उपन्यास की परिभाषा

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में

जन्म से ही उपन्यास यथार्थ जीवन की ओर उन्मुख रहा है। पुरानी कथा-आख्यायिका से वह इसी बात में भिन्न है। वे (यानी, पुरानी कथा-आख्यायिकाएँ) जीवन के खटकने वाले यथार्थ के संघर्षों के बचकर स्वप्नलोक की मादक कल्पनाओं से मानव को उलझाने, बहकाने और फुसलाने का प्रयत्न करती थीं, जबकि उपन्यास जीवन की यथार्थ से रस खींचकर चित्त-विनोदन के साथ ही साथ मनुष्य की समस्याओं के सम्मुखीन होने का आह्वान लेकर साहित्य क्षेत्र में आया था। उसके पैर ठोस धरती पर जमे हैं और यथार्थ जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों से छनकर आने वाला “अव्याज मनोहर” मानवीय रस ही उसका प्रधान आकर्षण है।[1]

मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में

मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है। सब आदमियों के चरित्रों में भी बहुत कुछ समानता होते हुए भी कुछ विभिन्नताएँ होती हैं। यही चरित्र संबंधी समानता और विभिन्नता-अभिन्नत्व में भिन्नत्व और विभिन्नत्व में अभिन्नत्व-दिखाना उपन्यास का मूल कर्त्तव्य है।[1]

अर्नेस्ट ए. बेकर के शब्दों में

अर्नेस्ट ए. बेकर ने उपन्यास की परिभाषा देते हुए उसे गद्यबद्ध कथानक के माध्यम द्वारा जीवन तथा समाज की व्याख्या का सर्वोत्तम साधन बताया है। यों तो विश्वसाहित्य का प्रारंभ ही संभवत: कहानियों से हुआ और वे महाकाव्यों के युग से आज तक के साहित्य का मेरुदंड रही हैं, फिर भी उपन्यास को आधुनिक युग की देन कहना अधिक समीचीन होगा। साहित्य में गद्य का प्रयोग जीवन के यथार्थ चित्रण का द्योतक है। साधारण बोलचाल की भाषा द्वारा लेखक के लिए अपने पात्रों, उनकी समस्याओं तथा उनके जीवन की व्यापक पृष्ठभूमि से प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करना आसान हो गया है। जहाँ महाकाव्यों में कृत्रिमता तथा आदर्शोन्मुख प्रवृत्ति की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है, आधुनिक उपन्यासकार जीवन की विश्रृंखलताओं का नग्न चित्रण प्रस्तुत करने में ही अपनी कला की सार्थकता देखता है।

यथार्थ के प्रति आग्रह का एक अन्य परिणाम यह हुआ कि कथा साहित्य के अपौरुषेय तथा अलौकिक तत्व, जो प्राचीन महाकाव्यों के विशिष्ट अंग थे, पूर्णतया लुप्त हो गए। कथाकार की कल्पना अब सीमाबद्ध हो गई। यथार्थ की परिधि के बाहर जाकर मनचाही उड़ान लेना उसके लिए प्राय: असंभव हो गया। उपन्यास का आविर्भाव और विकास वैज्ञानिक प्रगति के साथ हुआ। एक ओर जहाँ विज्ञान ने व्यक्ति तथा समाज को सामान्य धरातल से देखने तथा चित्रित करने की प्ररेणा दी वहीं दूसरी ओर उसने जीवन की समसयाओं के प्रति एक नए दृष्टिकोण का भी संकेत किया। यह दृष्टिकोण मुख्यत: बौद्धिक था। उपन्यासकार के ऊपर कुछ नए उत्तरदायित्व आ गए थे। अब उसकी साधना कला की समस्याओंं तक ही सीमित न रहकर व्यापक सामाजिक जागरूकता की अपेक्षा रखती थी। वस्तुत: आधुनिक उपन्यास सामाजिक चेतना के क्रमिक विकास की कलात्मक अभिव्यक्ति है। जीवन का जितना व्यापक एवं सर्वांगीण चित्र उपन्यास में मिलता है उतना साहित्य के अन्य किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं।

सामाजिक जीवन की विशद व्याख्या प्रस्तुत करने के साथ ही साथ आधुनिक उपन्यास वैयक्तिक चरित्र के सूक्ष्म अध्ययन की भी सुविधा प्रदान करता है। वास्तव में उपन्यास की उत्पत्ति की कहानी यूरोपीय पुनरुत्थान (रेनैसाँ) के फलस्वरूप अर्जित व्यक्तिस्वातंत्य के साथ लगी हुई है। इतिहास के इस महत्वपूर्ण दौर के उपरांत मानव को, जो अब तक समाज की इकाई के रूप में ही देखा जाता था, वैयक्तिक प्रतष्ठा मिली। सामंतवादी युग के सामाजिक बंधन ढीले पड़े और मानव व्यक्तित्व के विकास के लिए उन्मुक्त वातावरण मिला। यथार्थोन्मुख प्रवृत्तियों ने मानव चरित्र के अध्ययन के लिए भी एक नया दृष्टिकोण दिया। अब तक के साहित्य में मानव चरित्र के सरल वर्गीकरण की परंपरा चली आ रही है। पात्र या तो पूर्णतया भले होते थे या एकदम गए गुजरे। अच्छाइयों और त्रुटियों का सम्मिश्रण, जैसा वास्तविक जीवन में सर्वत्र देखने को मिलता है, उस समय के कथाकारों की कल्पना के परे की बात थी। उपन्यास में पहली बार मानव चरित्र के यथार्थ, विशद एवं गहन अध्ययन की संभावना देखने को मिली।

अंग्रेजी के महान्‌ उपन्यासकार हेनरी फ़ील्डिंग ने अपनी रचनाओं को गद्य के लिखे गए व्यंग्यात्मक महाकाव्य की संज्ञा दी। उन्होंने उपन्यास की इतिहास से तुलना करते हुए उसे अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण कहा। जहाँ इतिहास कुछ विशिष्ट व्यक्तियों एवं महत्वपूर्ण घटनाओं तक ही सीमित रहता है, उपन्यास प्रदर्शित जीवन के सत्य, शाश्वत और संर्वदेशीय महत्व रखते हैं। साहित्य में आज उपन्यास का वस्तुत: वही स्थान है जो प्राचीन युग में महाकाव्यों का था। व्यापक सामाजिक चित्रण की दृष्टि से दोनों में पर्याप्त साम्य है। लेकिन जहाँ महाकाव्यों में जीवन तथा व्यक्तियों का आदर्शवादी चित्र मिलता है, उपन्यास, जैसा फ़ील्डिंग की परिभाषा से स्पष्ट है, समाज की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता है। उपन्यासकार के लिए कहानी साधन मात्र है, साध्य नहीं। उसका ध्येय पाठकों का मनोरंजन मात्र भी नहीं। वह सच्चे अर्थ में अपने युग का इतिहासकार है जो सत्य और कल्पना दोनों का सहारा लेकर व्यापक सामाजिक जीवन की झाँकी प्रस्तुत करता है।[2]

उपन्यास के समानांतर इधर उपन्यासिका नामक नवीन गद्य विधा का सूत्रपात हुआ है जिसे लघु उपन्यास भी कहा जाता है। उपन्यासिका अपनी संघटना की दृष्टि से उपन्यास के निकट होने पर भी कलवेर तथा आकार के चलते कहानी के अधिक निकट होती है। इसमें न तो कहनी जैसी एकसूत्रता, सघन बुनावट और प्रभावान्विति होती है और न ही उपन्यास जैसा फैलाव तथा निरूपण वैविध्य। देखा जाए तो उपन्यासिका उपन्यास और कहानी के बीच की विधा है।[3]

भारतकोश पर उपलब्ध उपन्यास


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 उपन्यास और कहानी (हिंदी) साहित्यालोचन। अभिगमन तिथि: 25 फ़रवरी, 2013।
  2. सं.ग्रं.-ई.एम. फ़ोर्स्टर : ऐस्पेक्ट्स ऑव द नावेल; राल्फ़ फ़ॉक्स : दी नावेल ऐंउ द पीपुल; पसी कुवतक : द क्रैफ़्ट ऑव फ़िक्शन; एडविन म्योर : द स्ट्रक्चर ऑव द नावेल।
  3. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 119 |

बाहरी कड़ियाँ

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