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कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा।<ref name="srimali"/> 260 ई. पू. में अशोक ने कलिंगवसियों पर आक्रमण किया, उन्हें पूरी तरह कुचलकर रख दिया। मौर्य सम्राट के शब्दों में, 'इस लड़ाई के कारण 1,50,000 आदमी विस्थापित हो गए, 1,00,000 व्यक्ति मारे गए और इससे कई गुना नष्ट हो गए....'। युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वह प्रायश्चित्त करने के प्रयत्न में [[बौद्ध]] विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ।<ref>'भारत का इतिहास' | लेखिका: [[रोमिला थापर]] | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन | पृष्ठ संख्या: 63</ref> | कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा।<ref name="srimali"/> 260 ई. पू. में अशोक ने कलिंगवसियों पर आक्रमण किया, उन्हें पूरी तरह कुचलकर रख दिया। मौर्य सम्राट के शब्दों में, 'इस लड़ाई के कारण 1,50,000 आदमी विस्थापित हो गए, 1,00,000 व्यक्ति मारे गए और इससे कई गुना नष्ट हो गए....'। युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वह प्रायश्चित्त करने के प्रयत्न में [[बौद्ध]] विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ।<ref>'भारत का इतिहास' | लेखिका: [[रोमिला थापर]] | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन | पृष्ठ संख्या: 63</ref> | ||
==अशोक का हृदय परिवर्तन== | ==अशोक का हृदय परिवर्तन== | ||
युद्ध की भीषणता का अशोक पर गहरा प्रभाव पड़ा।<ref>सेनार्ट (इंस्क्रिप्शनस एटसे, पृ. 101) ने एक मनोरंजक सुझाव दिया है कि इस युद्ध में जितनी क्रूरता हुई थी, उसी के कारण अशोक ने [[बौद्ध धर्म]] स्वीकार किया। शायद इसी के आधार पर 'चंडाशोक' के अत्याचार की कहानियाँ चल निकलीं।</ref> अशोक ने युद्ध की नीति को सदा के लिए त्याग दिया और 'दिग्विजय' के स्थान पर '[[धम्म]] विजय' की नीति को अपनाया। [[ | युद्ध की भीषणता का अशोक पर गहरा प्रभाव पड़ा।<ref>सेनार्ट (इंस्क्रिप्शनस एटसे, पृ. 101) ने एक मनोरंजक सुझाव दिया है कि इस युद्ध में जितनी क्रूरता हुई थी, उसी के कारण अशोक ने [[बौद्ध धर्म]] स्वीकार किया। शायद इसी के आधार पर 'चंडाशोक' के अत्याचार की कहानियाँ चल निकलीं।</ref> अशोक ने युद्ध की नीति को सदा के लिए त्याग दिया और 'दिग्विजय' के स्थान पर '[[धम्म]] विजय' की नीति को अपनाया। [[डॉ. हेमचंद्र रायचौधरी]] के अनुसार [[मगध]] का सम्राट बनने के बाद यह अशोक का प्रथम तथा अन्तिम युद्ध था। इसके बाद मगध की विजयों तथा राज्य-विस्तार का यह युग समाप्त हुआ जिसका सूत्रपात [[बिंबिसार]] की [[अंग महाजनपद|अंग]] विजय के बाद हुआ था। अब एक नए युग आरम्भ हुआ। यह युग शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धर्मप्रचार का था, किन्तु इसके साथ-साथ राजनीतिक गतिरोध और सामरिक कुशलता भी दिखाई देने लगी। सैनिक अभ्यास के अभाव में [[मगध]] का सामरिक आवेश और उत्साह क्षीण होने लगा।<ref name="srimali"/> | ||
कलिंग की प्रजा तथा कलिंग की सीमा पर रहने वाले लोगों के प्रति कैसा व्यवहार किया जाए, इस सम्बन्ध में अशोक ने दो आदेश जारी किए। ये दो आदेश [[धौली]] और [[जौगड़]] नामक स्थानों पर सुरक्षित हैं। ये आदेश [[तोसली]] और [[समापा]] के महामात्यों तथा उच्च अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए लिखे गए हैं - "सम्राट का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार हो, जनता को प्यार किया जाए, अकारण लोगों को कारावास का दंड तथा यातना न दी जाए। जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिए। सीमांत जातियों को आश्वासन दिया गया कि उन्हें सम्राट से कोई भय नहीं करना चाहिए। उन्हें राजा के साथ व्यवहार करने से सुख ही मिलेगा, कष्ट नहीं। राजा यथाशक्ति उन्हें क्षमा करेगा, वे [[धम्म]] का पालन करें। यहाँ पर उन्हें सुख मिलेगा और मृत्यु के बाद स्वर्ग।" | कलिंग की प्रजा तथा कलिंग की सीमा पर रहने वाले लोगों के प्रति कैसा व्यवहार किया जाए, इस सम्बन्ध में अशोक ने दो आदेश जारी किए। ये दो आदेश [[धौली]] और [[जौगड़]] नामक स्थानों पर सुरक्षित हैं। ये आदेश [[तोसली]] और [[समापा]] के महामात्यों तथा उच्च अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए लिखे गए हैं - "सम्राट का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार हो, जनता को प्यार किया जाए, अकारण लोगों को कारावास का दंड तथा यातना न दी जाए। जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिए। सीमांत जातियों को आश्वासन दिया गया कि उन्हें सम्राट से कोई भय नहीं करना चाहिए। उन्हें राजा के साथ व्यवहार करने से सुख ही मिलेगा, कष्ट नहीं। राजा यथाशक्ति उन्हें क्षमा करेगा, वे [[धम्म]] का पालन करें। यहाँ पर उन्हें सुख मिलेगा और मृत्यु के बाद स्वर्ग।" | ||
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[[चित्र:Asoka's-Pillar.jpg|thumb|220px|अशोक का स्तम्भ, [[वैशाली]]]] | [[चित्र:Asoka's-Pillar.jpg|thumb|220px|अशोक का स्तम्भ, [[वैशाली]]]] | ||
यद्यपि अशोक का साम्राज्य विस्तृत था तथापि साम्राज्य के अंतर्गत सभी देशों पर उसका सीधा शासन था। अशोक के पाँचवे और तेरहवें शिलालेख में कुछ जनपदों तथा जातियों का उल्लेख किया गया है। जैसे [[यवन]], [[कांबोज जाति|काम्बोज]], [[नाभक]], [[नाभापंक्ति]], [[भोज जाति|भोज]], [[पितनिक]], [[आंध्र जाति|आन्ध्र]], [[पुलिंद]]। रेप्सन का विचार है कि ये देश तथा जातियाँ अशोक द्वारा जीते गए राज्य के अंतर्गत न होकर प्रभावक्षेत्र में थे।<ref>{{cite web |url=http://books.google.com/books?id=AKn3p64hGycC&pg=PA105&lpg=PA105&dq=rapson+historian&source=bl&ots=U3fefPKFv2&sig=uyaofaWzyGZvrQfMdPVvge27qUY&hl=en&ei=n-F9TpyOBMemrAeE0933Dw&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=2&ved=0CCMQ6AEwAQ#v=onepage&q&f=false |title=Ancient India: From the Earliest Times to the First Century AD |accessmonthday= |accessyear= |last=रेप्सन |first=ई.जे. |authorlink= |format= |publisher= |language=अंग्रेज़ी }}</ref> किन्तु यह सही प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि इन प्रदेशों में अशोक के धर्म महामात्रों के नियुक्त किए जाने का उल्लेख है। | यद्यपि अशोक का साम्राज्य विस्तृत था तथापि साम्राज्य के अंतर्गत सभी देशों पर उसका सीधा शासन था। अशोक के पाँचवे और तेरहवें शिलालेख में कुछ जनपदों तथा जातियों का उल्लेख किया गया है। जैसे [[यवन]], [[कांबोज जाति|काम्बोज]], [[नाभक]], [[नाभापंक्ति]], [[भोज जाति|भोज]], [[पितनिक]], [[आंध्र जाति|आन्ध्र]], [[पुलिंद]]। रेप्सन का विचार है कि ये देश तथा जातियाँ अशोक द्वारा जीते गए राज्य के अंतर्गत न होकर प्रभावक्षेत्र में थे।<ref>{{cite web |url=http://books.google.com/books?id=AKn3p64hGycC&pg=PA105&lpg=PA105&dq=rapson+historian&source=bl&ots=U3fefPKFv2&sig=uyaofaWzyGZvrQfMdPVvge27qUY&hl=en&ei=n-F9TpyOBMemrAeE0933Dw&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=2&ved=0CCMQ6AEwAQ#v=onepage&q&f=false |title=Ancient India: From the Earliest Times to the First Century AD |accessmonthday= |accessyear= |last=रेप्सन |first=ई.जे. |authorlink= |format= |publisher= |language=अंग्रेज़ी }}</ref> किन्तु यह सही प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि इन प्रदेशों में अशोक के धर्म महामात्रों के नियुक्त किए जाने का उल्लेख है। डॉ. रायचौधरी के अनुसार इन लोगों के साथ विजितों तथा अंतरविजितों<ref>अर्थात् स्वतंत्र सीमावर्ती राज्यों</ref> के बीच का व्यवहार किया जाता था। [[गांधार]], [[यवन]], काम्बोज, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश में थे। भोज, [[राष्ट्रिक]], [[पितनिक]] सम्भवतः अपरान्त पश्चिमी सीमा में थे। 13वें शिलालेख में अशोक ने [[अटवी|अटवी जातियों]] का उल्लेख किया है, जो अपराध करते थे। उन्हें यथासम्भव क्षमा करने का आश्वासन दिया गया है। किन्तु साथ ही यह चेतावनी भी दी है कि अनुताप अर्थात् पश्चाताप में भी 'देवानाम्प्रिय' का प्रभाव है। यदि ये जातियाँ कठिनाइयाँ उत्पन्न करें तो राजा को उन्हें सज़ा देने तथा मारने की शक्ति भी है। सम्भवतः यह 'अटवी प्रदेश' [[बुंदेलखण्ड]] से लेकर [[उड़ीसा]] तक फैला हुआ था। ये अटवी जातियाँ यद्यपि पराजित हुईं थीं, तथापि उनकी आंतरिक स्वतंत्रता को मान्यता दे दी गई थी। | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
09:47, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
सम्राट अशोक सीरिया के राजा 'एण्टियोकस द्वितीय'[1] और कुछ अन्य यवन[2] राजाओं का समसामयिक था, जिनका उल्लेख 'शिलालेख संख्या 8' में है। इससे विदित होता है कि अशोक ने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में राज्य किया, किंतु उसके राज्याभिषेक की सही तारीख़ का पता नहीं चलता है। अशोक ने 40 वर्ष राज्य किया। इसलिए राज्याभिषेक के समय वह युवक ही रहा होगा। अशोक के राज्यकाल के प्रारम्भिक 12 वर्षों का कोई सुनिश्चित विवरण उपलब्ध नहीं है। [3]
अशोक शासक के रूप में
शासक संगठन का प्रारूप लगभग वही था जो चंद्रगुप्त मौर्य के समय में था। अशोक के अभिलेखों में कई अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। जैसे राजुकु, प्रादेशिक, युक्त आदि। इनमें अधिकांश राज्याधिकारी चंद्रगुप्त के समय से चले आ रहे थे। अशोक ने धार्मिक नीति तथा प्रजा के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर उनके कर्तव्यों में विस्तार किया जिसका विवेचन आगे किया जाएगा। केवल धम्म महामात्रों की नियुक्ति एक नवीन प्रकार की नियुक्ति थी।
तक्षशिला और कलिंग पर विजय
अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष तक अशोक ने मौर्य साम्राज्य की परम्परागत नीति का ही अनुसरण किया। अशोक ने देश के अन्दर साम्राज्य का विस्तार किया किन्तु दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार की नीति अपनाई।[4]
भारत के अन्दर अशोक एक विजेता रहा। उसने खस, नेपाल को विजित किया और तक्षशिला के विद्रोह का शान्त किया। अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष में अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त की। ऐसा प्रतीत होता है कि नंद वंश के पतन के बाद कलिंग स्वतंत्र हो गया था। प्लिनी की पुस्तक में उद्धृत मेगस्थनीज़ के विवरण के अनुसार चंद्रगुप्त के समय में कलिंग एक स्वतंत्र राज्य था। अशोक के शिलालेख के अनुसार युद्ध में मारे गए तथा क़ैद किए हुए सिपाहियों की संख्या ढाई लाख थी और इससे भी कई गुना सिपाही युद्ध में घायल हुए थे। मगध की सीमाओं से जुड़े हुए ऐसे शक्तिशाली राज्य की स्थिति के प्रति मगध शासक उदासीन नहीं रह सकता था। खारवेल के समय मगध को कलिंग की शक्ति का कटु अनुभव था। सुरक्षा की दृष्टि से कलिंग का जीतना आवश्यक था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कलिंग को जीतने का दूसरा कारण भी था। दक्षिण के साथ सीधे सम्पर्क के लिए समुद्री और स्थल मार्ग पर मौर्यों का नियंत्रण आवश्यक था। कलिंग यदि स्वतंत्र देश रहता तो समुद्री और स्थल मार्ग से होने वाले व्यापार में रुकावट पड़ सकती थी। अतः कलिंग को मगध साम्राज्य में मिलाना आवश्यक था। किन्तु यह कोई प्रबल कारण प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस दृष्टि से तो चंद्रगुप्त के समय से ही कलिंग को मगध साम्राज्य में मिला लेना चाहिए था। कौटिल्य के विवरण से स्पष्ट है कि वह दक्षिण के साथ व्यापार को महत्त्व देता था। विजित कलिंग राज्य मगध साम्राज्य का एक अंग हो गया। राजवंश का कोई राजकुमार वहाँ वाइसराय[5] नियुक्त कर दिया गया। तोसली इस प्रान्त की राजधानी बनाई गई।[4]
कलिंग युद्ध
कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा।[4] 260 ई. पू. में अशोक ने कलिंगवसियों पर आक्रमण किया, उन्हें पूरी तरह कुचलकर रख दिया। मौर्य सम्राट के शब्दों में, 'इस लड़ाई के कारण 1,50,000 आदमी विस्थापित हो गए, 1,00,000 व्यक्ति मारे गए और इससे कई गुना नष्ट हो गए....'। युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वह प्रायश्चित्त करने के प्रयत्न में बौद्ध विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ।[6]
अशोक का हृदय परिवर्तन
युद्ध की भीषणता का अशोक पर गहरा प्रभाव पड़ा।[7] अशोक ने युद्ध की नीति को सदा के लिए त्याग दिया और 'दिग्विजय' के स्थान पर 'धम्म विजय' की नीति को अपनाया। डॉ. हेमचंद्र रायचौधरी के अनुसार मगध का सम्राट बनने के बाद यह अशोक का प्रथम तथा अन्तिम युद्ध था। इसके बाद मगध की विजयों तथा राज्य-विस्तार का यह युग समाप्त हुआ जिसका सूत्रपात बिंबिसार की अंग विजय के बाद हुआ था। अब एक नए युग आरम्भ हुआ। यह युग शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धर्मप्रचार का था, किन्तु इसके साथ-साथ राजनीतिक गतिरोध और सामरिक कुशलता भी दिखाई देने लगी। सैनिक अभ्यास के अभाव में मगध का सामरिक आवेश और उत्साह क्षीण होने लगा।[4] कलिंग की प्रजा तथा कलिंग की सीमा पर रहने वाले लोगों के प्रति कैसा व्यवहार किया जाए, इस सम्बन्ध में अशोक ने दो आदेश जारी किए। ये दो आदेश धौली और जौगड़ नामक स्थानों पर सुरक्षित हैं। ये आदेश तोसली और समापा के महामात्यों तथा उच्च अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए लिखे गए हैं - "सम्राट का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार हो, जनता को प्यार किया जाए, अकारण लोगों को कारावास का दंड तथा यातना न दी जाए। जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिए। सीमांत जातियों को आश्वासन दिया गया कि उन्हें सम्राट से कोई भय नहीं करना चाहिए। उन्हें राजा के साथ व्यवहार करने से सुख ही मिलेगा, कष्ट नहीं। राजा यथाशक्ति उन्हें क्षमा करेगा, वे धम्म का पालन करें। यहाँ पर उन्हें सुख मिलेगा और मृत्यु के बाद स्वर्ग।"
साम्राज्य की सीमा
हर दशा में दूसरे सम्प्रदायों का आदर करना ही चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य अपने सम्प्रदाय की उन्नति और दूसरे सम्प्रदायों का उपकार करता है। इसके विपरीत जो करता है वह अपने सम्प्रदाय की (जड़) काटता है और दूसरे सम्प्रदायों का भी अपकार करता है। क्योंकि जो अपने सम्प्रदाय की भक्ति में आकर इस विचार से कि मेरे सम्प्रदाय का गौरव बढ़े, अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा करता है और दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करता है, वह ऐसा करके वास्तव में अपने सम्प्रदाय को ही गहरी हानि पहुँचाता है। इसलिए समवाय (परस्पर मेलजोल से रहना) ही अच्छा है अर्थात् लोग एक-दूसरे के धर्म को ध्यान देकर सुनें और उसकी सेवा करें। - सम्राट अशोक महान[8]
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अशोक के शिलालेखों तथा स्तंभलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा की ठीक जानकारी प्राप्त होती है। शिलालेखों तथा स्तंभलेखों के विवरण से ही नहीं, वरन् जहाँ से अभिलेख पाए गए हैं, उन स्थानों की स्थिति से भी सीमा निर्धारण करने में सहायता मिलती है। इन अभिलेखों में जनता के लिए राजा की घोषणाएँ थीं। अतः वे अशोक के विभिन्न प्रान्तों में आबादी के मुख्य केन्द्रों में उत्कीर्ण कराए गए। कुछ अभिलेख सीमांत स्थानों पर पाए जाते हैं। उत्तर-पश्चिम में शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा में अशोक के शिलालेख पाए गए। इसके अतिरिक्त तक्षशिला में और क़ाबुल प्रदेश में 'लमगान' में अशोक के लेख अरामाइक लिपि में मिलते हैं। एक शिलालेख में एण्टियोकस द्वितीय थियोस को पड़ोसी राजा कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि उत्तर-पश्चिम में अशोक के साम्राज्य की सीमा हिन्दुकुश तक थी। कालसी, रुम्मिनदेई तथा निगाली सागर शिलालेख तथा स्तंभलेखों से सिद्ध होता है कि देहरादून और नेपाल की तराई का क्षेत्र अशोक के राज्य में था। सारनाथ तथा नेपाल की वंशावलियों के प्रमाण तथा स्मारकों से यह सिद्ध होता है कि नेपाल अशोक के साम्राज्य का एक अंग था। जब अशोक युवराज था, उसने खस और नेपाल प्रदेश को जीता था।
दक्षिण भारत में अशोक
दक्षिण में मौर्य प्रभाव के प्रसार की जो प्रक्रिया चंद्रगुप्त मौर्य के काल में आरम्भ हुई, वह अशोक के नेतृत्व में और भी अधिक पुष्ट हुई। लगता है कि चंद्रगुप्त की सैनिक प्रसार की नीति ने वह स्थायी सफलता नहीं प्राप्त की, जो अशोक की धम्म विजय ने की थी। गावीमठ, ब्रह्मगिरि, मस्की, येर्रागुण्डी, जतिंग रामेश्वर आदि स्थलों पर स्थित अशोक के शिलालेख इसके प्रमाण हैं। और फिर परिवर्ती कालीन साहित्य में, विशेष रूप से दक्षिण में अशोकराज की परम्परा काफ़ी प्रचलित प्रतीत होती है। ह्यूनत्सांग ने तो चोल-पाड्य राज्यों में (जिन्हें स्वयं अशोक के शिलालेख 2 एवं 13 में सीमावर्ती प्रदेश बताया गया है) भी अशोकराज के द्वारा निर्मित अनेक स्तूपों का वर्णन किया है। यह सम्भव है कि कलिंग में अशोक की सैनिक विजय और फिर उसके पश्चात् उनके सौहार्दपूर्ण नीति ने भोज, पत्तनिक, आँध्रों, राष्ट्रिकों, सतियपुत्रों एवं केरलपुत्रों जैसी शक्तियों के बीच मौर्य प्रभाव के प्रसार को बढ़ाया होगा। दक्षिण दिशा में अशोक को सर्वाधिक सफलता ताम्रपर्णी में मिली। वहाँ का राजा तिस्स तो अशोक से इतना प्रभावित था कि उसने भी देवानाम्प्रिय की उपाधि धारण कर ली। अपने दूसरे राज्याभिषेक में उसने अशोक को विशेष निमंत्रण भेजा। जिसके फलस्वरूप सम्भवतः अशोक का पुत्र महेन्द्र बोधिवृक्ष की पौध लेकर पहुँचा। श्रीलंका में यह बौद्ध धर्म का पदार्पण था। श्रीलंका के प्राचीनतम अभिलेख तिस्स के उत्तराधिकारी उत्तिय के काल के हैं। जो अपनी प्राकृत भाषा एवं शैली की दृष्टि से स्पष्टतः अशोक के अभिलेखों से प्रभावित है। अशोक और श्रीलंका के सम्बन्ध पारस्परिक सदभाव, आदर-सम्मान एवं बराबरी पर आधारित थे न कि साम्राज्यिक शक्ति एवं आश्रित शक्ति के पारस्परिक सम्बन्धों पर।
उपर्युक्त विदेशी शक्तियों के अतिरिक्त कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिनके सम्बन्ध में कुछ परम्पराएँ एवं किंवदन्तियाँ प्राप्त हैं। उदाहरणार्थ कश्मीर सम्भवतः अन्य सीमावर्ती प्रदेशों की तरह ही अशोक के साम्राज्य से जुड़ा था। मध्य एशिया में स्थित खोटान के राज्य के बारे में एक तिब्बती परम्परा है कि बुद्ध की मृत्यु के 250 वर्ष के बाद अर्थात् ई. पू. 236 में अशोक खोटान गया था। सम्भवतः यह भी धम्म मिशन के रूप में हुआ होगा किन्तु यह दृष्टव्य है कि स्वयं अशोक के अभिलेखों में इसका कोई उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार नेपाल का कुछ अंश अशोक की यात्रा के उपलक्ष्य में वहाँ के करों को कम करना किसी विदेशी राज्य में सम्भव नहीं था। फिर भी नेपाल का शेष अंश सम्भवतः मौर्य साम्राज्य से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए हुए होगा।
अर्थव्यवस्था
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक उत्तरी भारत की अर्थव्यवस्था मुख्यत: कृषि प्रधान हो गई थी। भू-राजस्व सरकार की आय का सर्वमान्य स्रोत बन चुका था और यह महसूस किया जाने लगा कि कृषि-अर्थव्यवस्था का विस्तार होने पर नियमित कराधान से राजस्व में भी सुनिश्चित्त वृद्धि होगी। अधिकांश जनसंख्या कृषक थी और गाँव में रहती थी। राजा और राज्य का भेद उत्तरोत्तर मिटता जा रहा था।[9]
राज्यों से संबंध
यद्यपि अशोक का साम्राज्य विस्तृत था तथापि साम्राज्य के अंतर्गत सभी देशों पर उसका सीधा शासन था। अशोक के पाँचवे और तेरहवें शिलालेख में कुछ जनपदों तथा जातियों का उल्लेख किया गया है। जैसे यवन, काम्बोज, नाभक, नाभापंक्ति, भोज, पितनिक, आन्ध्र, पुलिंद। रेप्सन का विचार है कि ये देश तथा जातियाँ अशोक द्वारा जीते गए राज्य के अंतर्गत न होकर प्रभावक्षेत्र में थे।[10] किन्तु यह सही प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि इन प्रदेशों में अशोक के धर्म महामात्रों के नियुक्त किए जाने का उल्लेख है। डॉ. रायचौधरी के अनुसार इन लोगों के साथ विजितों तथा अंतरविजितों[11] के बीच का व्यवहार किया जाता था। गांधार, यवन, काम्बोज, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश में थे। भोज, राष्ट्रिक, पितनिक सम्भवतः अपरान्त पश्चिमी सीमा में थे। 13वें शिलालेख में अशोक ने अटवी जातियों का उल्लेख किया है, जो अपराध करते थे। उन्हें यथासम्भव क्षमा करने का आश्वासन दिया गया है। किन्तु साथ ही यह चेतावनी भी दी है कि अनुताप अर्थात् पश्चाताप में भी 'देवानाम्प्रिय' का प्रभाव है। यदि ये जातियाँ कठिनाइयाँ उत्पन्न करें तो राजा को उन्हें सज़ा देने तथा मारने की शक्ति भी है। सम्भवतः यह 'अटवी प्रदेश' बुंदेलखण्ड से लेकर उड़ीसा तक फैला हुआ था। ये अटवी जातियाँ यद्यपि पराजित हुईं थीं, तथापि उनकी आंतरिक स्वतंत्रता को मान्यता दे दी गई थी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 261 - 246 ईसा पू.
- ↑ यूनानी
- ↑ भट्टाचार्य, सचिदानंद भारतीय इतिहास कोश (हिंदी)। लखनऊ: उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, 26।
- ↑ 4.0 4.1 4.2 4.3 द्विजेन्द्र नारायण झा, कृष्ण मोहन श्रीमाली “मौर्यकाल”, प्राचीन भारत का इतिहास, द्वितीय संस्करण (हिंदी), दिल्ली: हिंदी माध्यम कार्यांवय निदेशालय, 178।
- ↑ उपराजा
- ↑ 'भारत का इतिहास' | लेखिका: रोमिला थापर | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन | पृष्ठ संख्या: 63
- ↑ सेनार्ट (इंस्क्रिप्शनस एटसे, पृ. 101) ने एक मनोरंजक सुझाव दिया है कि इस युद्ध में जितनी क्रूरता हुई थी, उसी के कारण अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। शायद इसी के आधार पर 'चंडाशोक' के अत्याचार की कहानियाँ चल निकलीं।
- ↑ गिरनार का बारहवाँ शिलालेख "अशोक के धर्म लेख" से पृष्ठ सं- 31
- ↑ 'भारत का इतिहास' | लेखिका: रोमिला थापर | प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन | पृष्ठ संख्या: 66
- ↑ रेप्सन, ई.जे.। Ancient India: From the Earliest Times to the First Century AD (अंग्रेज़ी)। ।
- ↑ अर्थात् स्वतंत्र सीमावर्ती राज्यों
बाहरी कड़ियाँ
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