"धर्मकीर्ति बौद्धाचार्य": अवतरणों में अंतर

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'''धर्मकीर्ति''' धर्मपाल और ईश्वरसेन के शिष्य थे। बौद्ध न्याय की जिस परम्परा का प्रारम्भ मैत्रेयनाथ, [[असंग बौद्धाचार्य|असंग]] और [[वसुबन्धु बौद्धाचार्य|वसुबन्धु]] की कृतियों से हुआ था, उसे आचार्य [[दिङ्नाग बौद्धाचार्य|दिङ्नाग]] ने अपनी कृतियों में वाद विधि से पृथक तर्कशास्त्र या हेतुशास्त्र के रूप में विकसित किया। आगे चलकर दिङ्नाग द्वारा प्रवर्तित इस तर्क विद्या को धर्मपाल एवं ईश्वरसेन के शिष्य आचार्य धर्मकीर्ति ने (बौद्ध न्याय को) 'प्रमाणशास्त्र' के रूप में विकसित किया।
'''धर्मकीर्ति''' धर्मपाल और ईश्वरसेन के शिष्य थे। बौद्ध न्याय की जिस परम्परा का प्रारम्भ मैत्रेयनाथ, [[असंग बौद्धाचार्य|असंग]] और [[वसुबन्धु बौद्धाचार्य|वसुबन्धु]] की कृतियों से हुआ था, उसे आचार्य [[दिङ्नाग बौद्धाचार्य|दिङ्नाग]] ने अपनी कृतियों में वाद विधि से पृथक तर्कशास्त्र या हेतुशास्त्र के रूप में विकसित किया। आगे चलकर दिङ्नाग द्वारा प्रवर्तित इस तर्क विद्या को धर्मपाल एवं ईश्वरसेन के शिष्य आचार्य धर्मकीर्ति ने (बौद्ध न्याय को) 'प्रमाणशास्त्र' के रूप में विकसित किया।
==समय काल==
==समय काल==
तिब्बती परम्परा के अनुसार आचार्य कुमारिल और आचार्य धर्मकीर्ति समकालीन थे। कुमारिल ने दिङ्नाग का खण्डन तो किया है, किन्तु धर्मकीर्ति का नहीं, जबकि धर्मकीर्ति ने कुमारिल का खण्डन किया है। ऐसी स्थिति में कुमारिल आचार्य धर्मकीर्ति के वृद्ध समकालीन ही हो सकते हैं। आचार्य धर्मकीर्ति ने तर्कशास्त्र का अध्ययन ईश्वरसेन से किया था, किन्तु उनके दीक्षा गुरु प्रसिद्ध विद्वान एवं [[नालन्दा]] के आचार्य धर्मपाल थे। धर्मपाल को [[वसुबन्धु बौद्धाचार्य|वसुबन्धु]] का शिष्य कहा गया है। वसुबन्धु का समय चौथी शताब्दी निश्चित किया गया है। धर्मपाल के शिष्य शीलभद्र ईस्वीय वर्ष 635 में विद्यमान थे, जब [[ह्वेनसांग]] नालन्दा पहुँचे थे। अत: यह मानना होगा कि जिस समय धर्मकीर्ति दीक्षित हुए, उस समय धर्मपाल मरणासन्न थे। इस दृष्टि से विचार करने पर धर्मकीर्ति का काल 550-600 हो सकता है।
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====यश पताका====
====यश पताका====
धर्मकीर्ति के ग्रन्थों में जिस न्यायशास्त्र या प्रमाण विद्या का विशद रूप में प्रौढ़ रीति से उपन्यास मिलता है, वह समस्त परवर्ती बौद्ध न्यायशास्त्र और [[ब्राह्मण]] तथा [[जैन]] न्याय के विकास का भी मूल आधार बना। न केवल [[भारत]] अपितु [[तिब्बत]], [[चीन]], मध्य [[एशिया]] एवं दक्षिण पूर्व के तमाम देशों में धर्मकीर्ति की यश पताका विगत चौदह सौ वर्षों से फहरा रही है। उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत न केवल भारतीय दार्शनिक परम्परा में प्रमाणवाद के मेरुदंड के रूप में स्वीकृत हुए, अपितु बाहरी देशों में भी उनके अनुवाद अत्यन्त लोकप्रिय हुए। किन्तु [[संस्कृत]] या किसी अन्य [[भाषा]] में धर्मकीर्ति की जीवनी का कोई क्रमबद्ध या व्यवस्थित विवरण उपलब्ध नहीं होता। तारानाथ और बु-दोन् के विविरणों से कतिपय तथ्य निकलते हैं, जिनमें धर्मकीर्ति के जीवन पर प्रकाश पड़ता है।<ref name="mcc">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=विश्व के प्रमुख दार्शनिक|लेखक=डॉक्टर करुणेश शुक्ल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 684|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=242|url=}}</ref>
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10:42, 1 मई 2012 का अवतरण

धर्मकीर्ति धर्मपाल और ईश्वरसेन के शिष्य थे। बौद्ध न्याय की जिस परम्परा का प्रारम्भ मैत्रेयनाथ, असंग और वसुबन्धु की कृतियों से हुआ था, उसे आचार्य दिङ्नाग ने अपनी कृतियों में वाद विधि से पृथक तर्कशास्त्र या हेतुशास्त्र के रूप में विकसित किया। आगे चलकर दिङ्नाग द्वारा प्रवर्तित इस तर्क विद्या को धर्मपाल एवं ईश्वरसेन के शिष्य आचार्य धर्मकीर्ति ने (बौद्ध न्याय को) 'प्रमाणशास्त्र' के रूप में विकसित किया।

समय काल

तिब्बती परम्परा के अनुसार आचार्य कुमारिल और आचार्य धर्मकीर्ति समकालीन थे। कुमारिल ने दिङ्नाग का खण्डन तो किया है, किन्तु धर्मकीर्ति का नहीं, जबकि धर्मकीर्ति ने कुमारिल का खण्डन किया है। ऐसी स्थिति में कुमारिल आचार्य धर्मकीर्ति के वृद्ध समकालीन ही हो सकते हैं। आचार्य धर्मकीर्ति ने तर्कशास्त्र का अध्ययन ईश्वरसेन से किया था, किन्तु उनके दीक्षा गुरु प्रसिद्ध विद्वान एवं नालन्दा के आचार्य धर्मपाल थे। धर्मपाल को वसुबन्धु का शिष्य कहा गया है। वसुबन्धु का समय चौथी शताब्दी निश्चित किया गया है। धर्मपाल के शिष्य शीलभद्र ईस्वीय वर्ष 635 में विद्यमान थे, जब ह्वेनसांग नालन्दा पहुँचे थे। अत: यह मानना होगा कि जिस समय धर्मकीर्ति दीक्षित हुए, उस समय धर्मपाल मरणासन्न थे। इस दृष्टि से विचार करने पर धर्मकीर्ति का काल 550-600 हो सकता है।

यश पताका

धर्मकीर्ति के ग्रन्थों में जिस न्यायशास्त्र या प्रमाण विद्या का विशद रूप में प्रौढ़ रीति से उपन्यास मिलता है, वह समस्त परवर्ती बौद्ध न्यायशास्त्र और ब्राह्मण तथा जैन न्याय के विकास का भी मूल आधार बना। न केवल भारत अपितु तिब्बत, चीन, मध्य एशिया एवं दक्षिण पूर्व के तमाम देशों में धर्मकीर्ति की यश पताका विगत चौदह सौ वर्षों से फहरा रही है। उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत न केवल भारतीय दार्शनिक परम्परा में प्रमाणवाद के मेरुदंड के रूप में स्वीकृत हुए, अपितु बाहरी देशों में भी उनके अनुवाद अत्यन्त लोकप्रिय हुए। किन्तु संस्कृत या किसी अन्य भाषा में धर्मकीर्ति की जीवनी का कोई क्रमबद्ध या व्यवस्थित विवरण उपलब्ध नहीं होता। तारानाथ और बु-दोन् के विविरणों से कतिपय तथ्य निकलते हैं, जिनमें धर्मकीर्ति के जीवन पर प्रकाश पड़ता है।[1]

जीवन परिचय

दिङ्नाग की भांति ही धर्मकीर्ति भी दक्षिण में, त्रिमलय के एक ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुए थे। उनके पिता का नाम कोरूनन्द था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा ब्राह्मण परम्परा और दार्शनिक परिवेश में हुई थी। बाद में उनका झुकाव बौद्ध धर्म और दर्शन की ओर हो गया। फलत: उन्होंने नालन्दा में आकर वसुबन्धु के वृद्ध जीवित शिष्य और योगाचार परम्परा के साक्षात् प्रतिनिधि आचार्य धर्मपाल से बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की। तर्कशास्त्र एवं बौद्ध न्याय विद्या में अपनी गूढ़ सैद्धांतिक जिज्ञासा को शान्त करने के लिए उन्होंने आचार्य दिङ्नाग के साक्षात् शिष्य आचार्य ईश्वरसेन से बौद्ध प्रमाण विद्या का अध्ययन किया और अपने गुरु से अधिक प्रौढ़ ज्ञान अर्जित करने में सफल हुए। स्वयं इनके गुरु ईश्वरसेन ने यह बात स्वीकार की थी, ऐसा परम्परा से ज्ञात होता है। अन्त में वे कलिंग देश में मृत्यु को प्राप्त हुए।[1]

समालोचन

अपने गुरु की आज्ञा से धर्मकीर्ति ने दिङ्नाग के प्रधान ग्रन्थ प्रमाण समुच्चय पर वार्तिक रूप एक पद्यात्मक लगभग 2000 कारिकाओं में एक ग्रन्थ लिखा। जो ग्रन्थ उक्त, अनुक्त और दुरुक्त पदार्थों की चिन्ता से युक्त हो, वह 'ग्रन्थ वार्तिक' कहा जाता है। आचार्य दिङ्नाग ने जब 'प्रमाणसमुच्चय' लिखकर बौद्ध प्रमाणशास्त्र का बीज वपन किया तो अन्य बौद्धेतर दार्शनिकों में उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। तदनुसार न्याय दर्शन के व्याख्याकारों में उद्योतकर ने, मीमांसक मत के आचार्य कुमारिल ने, जैन आचार्यां में आचार्य मल्लवादी ने दिङ्नाग के मन्तव्यों की समालोचना की। फलस्वरूप बौद्ध विद्वानों को भी प्रमाणशास्त्र के विषय में अपने विचारों को सुव्यवस्थित करने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐसे विद्वानों में आचार्य धर्मकीर्ति प्रमुख हैं, जिन्होंने दिङ्नाग के दार्शनिक मन्तव्यों का सुविशद विवेचन किया तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि दार्शनिकों की जमकर समालोचना करके बौद्ध प्रमाणशास्त्र की भूमिका को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने केवल बौद्धेतर विद्वानों की ही आलोचना नहीं की, अपितु कुछ गौण विषयों में अपना मत दिङ्नाग से भिन्न रूप में भी प्रस्तुत किया। उन्होंने दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन की भी, जिन्होंने दिङ्नाग के मन्तव्यों की अपनी समझ के अनुसार व्याख्या की थी, उनकी भी समालोचना कर बौद्ध प्रमाणशास्त्र को परिपुष्ट किया।

ग्रंथ रचना

आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाणशास्त्र विषयक सात ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। ये सातों ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या के रूप में ही हैं। प्रमाणसमुच्चय में प्रतिपादित विषयों का ही इन ग्रन्थों में विशेष विवरण है। किन्तु एक बात असन्दिग्ध हैं कि धर्मकीर्ति के ग्रन्थों के प्रकाश में आने के बाद दिङ्नाग के ग्रन्थों का अध्ययन गौण हो गया। आचार्य धर्मकीर्ति के सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-

  1. प्रमाणवार्तिक,
  2. प्रमाणविनिश्चय,
  3. न्यायबिन्दु,
  4. हेतुबिन्दु,
  5. वादन्याय,
  6. सम्बन्धपरीक्षा
  7. सन्तानान्तरसिद्धि

इनके अतिरिक्त प्रमाणवार्तिक के 'स्वार्थानुमान परिच्छेद' की वृत्ति एवं 'सम्बन्धपरीक्षा की टीका' भी स्वयं धर्मकीर्ति ने लिखी है। आचार्य धर्मकीर्ति के इस ग्रन्थों का प्रधान और पूरक के रूप में भी विभाजन किया जाता है। तथा हि- 'न्यायबिन्दु' की रचना तीक्ष्णबुद्धि पुरुषों के लिए, 'प्रमाणविनिश्चय' की रचना मध्यबुद्धि पुरुषों के लिए तथा 'प्रमाणवार्तिक' का निर्माण मन्दबुद्धि पुरुषों के लिए हैं- ये ही तीनों प्रधान ग्रन्थ है।, जिनमें प्रमाणों से सम्बद्ध सभी वक्तव्यों का सुविशद निरूपण किया गया है। अवशिष्ट चार ग्रन्थ पूरक के रूप में हैं। तथाहि-स्वार्थानुमान से सम्बद्ध हेतुओं का निरूपण 'हेतुबिन्दु' में है। हेतुओं का अपने साध्य के साथ सम्बन्ध का निरूपण 'सम्बन्धपरीक्षा' में है। परार्थानुमान से सम्बद्ध विषयों का निरूपण 'वादन्याय' में है अर्थात इसमें परार्थानुमान के अवयवों का तथा जय-पराजय की व्यवस्था कैसे हो- इसका विशेष प्रतिपादन किया गया है।

धर्मकीर्ति के टीकाकार

आचार्य धर्मकीर्ति के मन्तव्यों का खण्डन वैशेषिक दर्शन में व्योमशिव ने, मीमांसा दर्शन में शालिकनाथ ने, न्याय दर्शन में जयन्त और वाचस्पतिमिश्र ने, वेदान्त में भी वाचस्पतिमिश्र ने तथा जैन दर्शन में अकलंक आदि आचार्यों ने किया है। धर्मकीर्ति के टीकाकारों ने उन आक्षेपों का यथासम्भव निराकरण किया है। धर्मकीर्ति के टीकाकारों को तीन वर्ग में विभक्त किया जाता है-

  1. प्रथम वर्ग के पुरस्कर्ता देवेन्द्रबुद्धि माने जाते हैं, जो धर्मकीर्ति के साक्षात शिष्य थे और जिन्होंने शब्द प्रधान व्याख्या की है। देवेन्द्रबुद्धि ने प्रमाणवार्तिक की दो बार व्याख्या लिखकर धर्मकीर्ति को दिखाई और दोनों ही बार धर्मकीर्ति ने उसे निरस्त कर दिया। अन्त में तीसरी बार असन्तुष्ट रहते हुए भी उसे स्वीकार कर लिया और मन में यह सोचकर निराश हुए कि वस्तुत: मेरा प्रमाणशास्त्र यथार्थ रूप में कोई समझ नहीं सकेगा। शाक्यबुद्धि एवं प्रभाबुद्धि आदि भी इसी प्रथम वर्ग के आचार्य हैं।
  2. दूसरे वर्ग के ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने शब्द प्रधान व्याख्या का मार्ग छोड़कर धर्मकीर्ति के तत्त्वज्ञान को महत्त्व दिया। इस वर्ग के पुरस्कर्ता आचार्य धर्मोत्तर है। धर्मोत्तर का कार्यक्षेत्र कश्मीर रहा, अत: उनकी परम्परा को कश्मीर-परम्परा भी कहते हैं। वस्तुत: धर्मकीर्ति के मन्तव्यों का प्रकाशन धर्मोत्तर द्वारा ही हुआ है। ध्वन्यालोक के कर्ता आनन्दवर्धन ने भी धर्मोत्तर कृत प्रमाणविनिश्चय की टीका पर टीका लिखी है, किन्तु वह अनुपलब्ध है। इसी परम्परा में शंकरानन्द ने भी प्रमाणवार्तिक पर एक विस्तृत व्याख्या लिखना शुरू किया, किन्तु वह अधूरी रही।
  3. तीसरे वर्ग में धार्मिक दृष्टि को महत्त्व देने वाले धर्मकीर्ति के टीकाकार हैं। उनमें प्रज्ञाकर गुप्त प्रधान है। उन्होंने स्वार्थानुमान को छोड़कर शेष तीन परिच्छेदों पर 'अलंकार' नामक भाष्य लिखा, जिसे 'प्रमाणवार्तिकालङ्कार भाष्य' कहते हैं। इस श्रेणी के टीकाकारों में प्रमाणवार्तिक के प्रमाणपरिच्छेद का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि उसमें भगवान बुद्ध की सर्वज्ञता तथा उनके धर्मकाय आदि की सिद्धि की गई है। प्रज्ञाकर गुप्त का अनुसरण करने वाले आचार्य हुए है। 'जिन' नामक आचार्य ने प्रज्ञाकर के विचारों की पुष्टि की है। रविगुप्त प्रज्ञाकर के साक्षात शिष्य थे। ज्ञानश्रीमित्र भी इसी परम्परा के अनुयायी थे। ज्ञानश्री के शिष्य यमारि ने भी अलंकार की टीका की। कर्णगोमी ने स्वर्थानुमान परिच्छेद ने चारों परिच्छेदों पर टीका लिखी है, किन्तु उसे शब्दार्थपरक व्याख्या ही मानना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 विश्व के प्रमुख दार्शनिक |लेखक: डॉक्टर करुणेश शुक्ल |प्रकाशक: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 684 |पृष्ठ संख्या: 242 |

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