"अशोक के शिलालेख": अवतरणों में अंतर
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[[मौर्यकाल]] के शिलाओं तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों के अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि [[अशोक का धम्म]] व्यावहारिक फलमूलक ( | [[मौर्यकाल]] के शिलाओं तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों के अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि [[अशोक का धम्म]] व्यावहारिक फलमूलक (अर्थात् फल को दृष्टि में रखने वाला) और अत्यधिक मानवीय था। इस धर्म के प्रचार से [[अशोक]] अपने साम्राज्य के लोगों में तथा बाहर अच्छे जीवन के आदर्श को चरितार्थ करना चाहता था। इसके लिए उसने जहाँ कुछ बातें लाकर बौद्ध धर्म में सुधार किया वहाँ लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए विवश नहीं किया। वस्तुतः उसने अपने शासनकाल में निरन्तर यह प्रयास किया कि प्रजा के सभी वर्गों और सम्प्रदायों के बीच सहमति का आधार ढूंढा जाए और सामान्य आधार के अनुसार नीति अपनाई जाए। | ||
* सातवें [[शिलालेख]] में अशोक ने कहा, "सभी सम्प्रदाय सभी स्थानों में रह सकते हैं, क्योंकि सभी आत्मसंयम और भावशुद्धि चाहते हैं।" | * सातवें [[शिलालेख]] में अशोक ने कहा, "सभी सम्प्रदाय सभी स्थानों में रह सकते हैं, क्योंकि सभी आत्मसंयम और भावशुद्धि चाहते हैं।" | ||
* बारहवें शिलालेख में उसने घोषणा की कि अशोक सभी सम्प्रदायों के गृहस्थ और श्रवणों का दान आदि के द्वारा सम्मान करता है। किन्तु महाराज दान और मान को इतना महत्त्व नहीं देते जितना इस बात को देते हैं कि सभी सम्प्रदाय के लोगों में सारवृद्धि हो, सारवृद्धि के लिए मूलमंत्र है वाकसंयम (वचो गुत्ति)। लोगों को अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा तथा दूसरे सम्प्रदायों की निन्दा नहीं करनी चाहिए। लोगों में सहमति (समवाय) बढ़ाने के लिए धम्म महापात्र तथा अन्य कर्मचारियों को लगाया गया है। | * बारहवें शिलालेख में उसने घोषणा की कि अशोक सभी सम्प्रदायों के गृहस्थ और श्रवणों का दान आदि के द्वारा सम्मान करता है। किन्तु महाराज दान और मान को इतना महत्त्व नहीं देते जितना इस बात को देते हैं कि सभी सम्प्रदाय के लोगों में सारवृद्धि हो, सारवृद्धि के लिए मूलमंत्र है वाकसंयम (वचो गुत्ति)। लोगों को अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा तथा दूसरे सम्प्रदायों की निन्दा नहीं करनी चाहिए। लोगों में सहमति (समवाय) बढ़ाने के लिए धम्म महापात्र तथा अन्य कर्मचारियों को लगाया गया है। | ||
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#मूलानि च फलानि च यत तत्र नास्ति सर्वत हारापितानी च रोपापितानि च [।] | #मूलानि च फलानि च यत तत्र नास्ति सर्वत हारापितानी च रोपापितानि च [।] | ||
#पंथेसू कूपा च खानापिता व्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसुमनुसानं [॥] | #पंथेसू कूपा च खानापिता व्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसुमनुसानं [॥] | ||
अर्थात् | |||
#देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने अपने राज्य में सब जगह और | #देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने अपने राज्य में सब जगह और | ||
#सीमावर्ती राज्य- चोड़, पांड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र तथा ताम्रपर्णी (श्रीलंका)- तक | #सीमावर्ती राज्य- चोड़, पांड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र तथा ताम्रपर्णी (श्रीलंका)- तक |
07:53, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
मौर्य सम्राट अशोक के इतिहास की सम्पूर्ण जानकारी उसके अभिलेखों से मिलती है। यह माना जाता है कि, अशोक को अभिलेखों की प्रेरणा ईरान के शासक 'डेरियस' से मिली थी। अशोक के लगभग 40 अभिलेख प्राप्त हुए हैं। ये ब्राह्मी, खरोष्ठी और आर्मेइक-ग्रीक लिपियों में लिखे गये हैं। सम्राट अशोक के ब्राह्मी लिपि में लिखित सन्देश को सर्वप्रथम एलेग्जेंडर कनिंघम के सहकर्मी जेम्स प्रिंसेप ने पढ़ा था। अशोक के अभिलेखों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
- शिलालेख
- स्तम्भलेख
- गुहालेख
- शिलालेखों और स्तम्भ लेखों को दो उपश्रेणियों में रखा जाता है। 14 शिलालेख सिलसिलेवार हैं, जिनको चतुर्दश शिलालेख कहा जाता है। ये शिलालेख शाहबाजगढ़ी, मानसेरा, कालसी, गिरनार, सोपारा, धौली और जौगढ़ में मिले हैं। कुछ फुटकर शिलालेख असम्बद्ध रूप में हैं और संक्षिप्त हैं। शायद इसीलिए उन्हें लघु शिलालेख कहा जाता है। इस प्रकार के शिलालेख रूपनाथ, सासाराम, बैराट, मास्की, सिद्धपुर, जतिंगरामेश्वर और ब्रह्मगिरि में पाये गये हैं।
- दूसरी श्रेणी के लघु शिलालेख बैराट[1], येरागुड़ी और कोपबाल में मिले हैं। दो अन्य लघु शिलालेख अभी हाल में ही अफ़गानिस्तान में - एक जलालाबाद में और दूसरा कंधार के निकट मिला है।
- इसके अलावा सात लेख स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं, जिसके कारण वह स्तम्भ लेख के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये स्तम्भ लेख दिल्ली, इलाहाबाद, लौरिया - अरराज, लौरिया नंदनगढ़ और रामपुरवा में मिले हैं। कुछ स्तम्भों पर केवल एक एक लेख है, अत: उन्हें सात स्तम्भ लेखों के क्रम से अलग रखा गया है और वे लघुस्तम्भ लेख कहे जाते हैं। इस प्रकार के लघु स्तम्भलेख सारनाथ, साँही, रुम्मिनदेह और निग्लीव में मिले हैं।
- अंतिम तीन लेख बराबर पहाड़ियों की गुफाओं में मिले हैं और उनको गुफालेखों के नाम से पुकारा जाता है।[2]
शिलालेखों में अशोक
अन्य संबंधित लेख |
मौर्यकाल के शिलाओं तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों के अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अशोक का धम्म व्यावहारिक फलमूलक (अर्थात् फल को दृष्टि में रखने वाला) और अत्यधिक मानवीय था। इस धर्म के प्रचार से अशोक अपने साम्राज्य के लोगों में तथा बाहर अच्छे जीवन के आदर्श को चरितार्थ करना चाहता था। इसके लिए उसने जहाँ कुछ बातें लाकर बौद्ध धर्म में सुधार किया वहाँ लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए विवश नहीं किया। वस्तुतः उसने अपने शासनकाल में निरन्तर यह प्रयास किया कि प्रजा के सभी वर्गों और सम्प्रदायों के बीच सहमति का आधार ढूंढा जाए और सामान्य आधार के अनुसार नीति अपनाई जाए।
- सातवें शिलालेख में अशोक ने कहा, "सभी सम्प्रदाय सभी स्थानों में रह सकते हैं, क्योंकि सभी आत्मसंयम और भावशुद्धि चाहते हैं।"
- बारहवें शिलालेख में उसने घोषणा की कि अशोक सभी सम्प्रदायों के गृहस्थ और श्रवणों का दान आदि के द्वारा सम्मान करता है। किन्तु महाराज दान और मान को इतना महत्त्व नहीं देते जितना इस बात को देते हैं कि सभी सम्प्रदाय के लोगों में सारवृद्धि हो, सारवृद्धि के लिए मूलमंत्र है वाकसंयम (वचो गुत्ति)। लोगों को अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा तथा दूसरे सम्प्रदायों की निन्दा नहीं करनी चाहिए। लोगों में सहमति (समवाय) बढ़ाने के लिए धम्म महापात्र तथा अन्य कर्मचारियों को लगाया गया है।
- अशोक पर यह आरोप लगाया गया है कि उसने अपने आदेश (लेख) केवल बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए खुदवाये हैं पर यह विचार न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि उसने सभी सम्प्रदायों को प्रकट रूप से सहायता दी।[3]
अशोक के चतुर्दश-शिलालेख या मुख्य शिलालेख निम्नलिखित स्थानों पर पाए जाते है :
- गिरनार : सौराष्ट्र, गुजरात राज्य में जूनागढ़ के पास। इसी चट्टान पर शक महाक्षत्रप रुद्रदामन ने लगभग 150 ई. में संस्कृत भाषा में एक लेख खुदवाया। बाद में गुप्त-सम्राट स्कंदगुप्त (455-67 ई.) ने भी यहाँ एक लेख अंकित करवाया। चंद्रगुप्त मौर्य ने यहाँ 'सुदर्शन' नाम के एक सरोवर का निर्माण करवाया था। रुद्रदामन तथा स्कंदगुप्त के लेखों में इसी सुर्दशन सरोवर के पुनर्निर्माण की चर्चा है।
- कालसी : देहरादून ज़िला, उत्तराखंड।
- सोपारा : (प्राचीन सूप्पारक) ठाणे ज़िला, महाराष्ट्र। यहाँ से अशोक के शिलालेख के कुछ टुकड़े ही मिले हैं, जो मुंबई के प्रिन्स आफ वेल्स संग्रहालय में रखे हुए हैं।
- येर्रागुडी : कर्नूल ज़िला, आंध्र प्रदेश।
- धौली : पुरी ज़िला, उड़ीसा।
- जौगड़ : गंजाम ज़िला, उड़ीसा।
- लघु-शिलालेख निम्न स्थानों पर पाए गए हैं:
- बैराट : राजस्थान के जयपुर ज़िले में। यह शिलाफलक कलकत्ता संग्रहालय में है।
- रूपनाथ: जबलपुर ज़िला, मध्य प्रदेश।
- मस्की : रायचूर ज़िला, कर्नाटक।
- गुजर्रा : दतिया ज़िला, मध्य प्रदेश।
- राजुलमंडगिरि : बल्लारी ज़िला, कर्नाटक।
- सहसराम : शाहाबाद ज़िला, बिहार।
- गाधीमठ : रायचूर ज़िला, कर्नाटक।
- पल्किगुंडु : गवीमट के पास, रायचूर, कर्नाटक।
- ब्रह्मगिरि : चित्रदुर्ग ज़िला, कर्नाटक।
- सिद्धपुर : चित्रदुर्ग ज़िला, कर्नाटक।
- जटिंगा रामेश्वर : चित्रदुर्ग ज़िला, कर्नाटक।
- येर्रागुडी : कर्नूल ज़िला, आंध्र प्रदेश।
- दिल्ली : अमर कॉलोनी, दिल्ली।
- अहरौरा : मिर्ज़ापुर ज़िला, उत्तर प्रदेश।
- ये सभी लघु-शिलालेख अशोक ने अपने राजकर्मचारियों को संबोधित करके लिखवाए हैं। अशोक ने सबसे पहले लघु-शिलालेख ही खुदवाए थे, इसलिए इनकी शैली उसके अन्य लेखों से कुछ भिन्न है।
अशोक के ब्राह्मी लेखों के कुछ नमूने दे रहे हैं- लिप्यंतर और अर्थ-सहित।
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लिप्यंतर
- देवानं पियेन पियदसिन लाजिन वीसतिवसाभिसितेन
- अतन आगाच महीयिते हिद बुधे जाते सक्यमुनीति
- सिलाविगडभीचा कालापित सिलाथभे च उसपापिते
- हिद भगवं जातेति लुंमिनिगामे उबलिके कटे
- अठभागिये च
अर्थ :
- देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने (अपने) राज्याभिषेक के 20 वर्ष बाद स्वयं आकर इस स्थान की पूजा की,
- क्योंकि यहाँ शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म हुआ था।
- यहाँ पत्थर की एक दीवार बनवाई गई और पत्थर का एक स्तंभ खड़ा किया गया।
- बुद्ध भगवान यहाँ जनमे थे, इसलिए लुम्बिनी ग्राम को कर से मुक्त कर दिया गया और
- (पैदावार का) आठवां भाग भी (जो राज का हक था) उसी ग्राम को दे दिया गया है।
लिप्यंतर
- इयं धंमलिपि देवानंप्रियेन
- प्रियदसिना राजा लेखापिता [।] इध न किं
- चि जीवं आरभित्पा प्रजूहितव्यं [।]
- न च समाजो कतव्यो [।] बहुकं हि दोसं
- समाजम्हि पसति देवानंप्रियो प्रियदसि राजा [।]
- अस्ति पि तु एकचा समाजा साधुमता देवानं
- प्रियस प्रियदसिनो राञो [।] पुरा महानसम्हि
- देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो अनुदिवसं ब
- हूनि प्राणसतसहस्त्रानि आरभिसु सूपाथाय [।]
- से अज यदा अयं धंमलिपि लिखिता ती एव प्रा
- णा आरभरे सूपाथाय द्वो मोरा एको मगो सो पि
- मगो न ध्रुवो [।] एते पि त्री प्राणा पछा न आरभिसरे [॥]
अर्थ
- यह धर्मलिपि देवताओं के प्रिय
- प्रियदर्शी राजा ने लिखाई। यहाँ (मेरे साम्राज्य में)
- कोई जीव मारकर हवन न किया जाए।
- और न समाज (आमोद-प्रमोद वाला उत्सव) किया जाए। क्योंकि बहुत दोष
- समाज में देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा देखता है।
- (परंतु) एक प्रकार के (ऐसे) समाज भी हैं जो देवताओं के
- प्रिय प्रियदर्शी राजा के मत में साधु हैं। पहले पाकशाला में-
- देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा की – प्रतिदिन कई
- लाख प्राणी सूप के लिए मारे जाते थे।
- किंतु आज जब यह धर्मलिपि लिखाई गई, तीन ही प्राणी
- मारे जाते- दो मयूर तथा एक मृग। और वह भी
- मृग निश्चित नहीं। ये तीन प्राणी भी बाद में नहीं मारे जाएंगे।
लिप्यंतर
- सर्वत विजितम्हि देवानंप्रियस पियदसिनो राञो
- एवमपि प्रचंतेषु यथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो आ तंब-
- पंणी अंतियको योनराजा ये वा पि तस अंतियकस सामीपं
- राजानो सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछ कता
- मनुसचिकीछा च पसुचिकीछा च [।] ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च
- पसोपगानि च यत यत नास्ति सर्वत हारापितानी च रोपापितानि च [।]
- मूलानि च फलानि च यत तत्र नास्ति सर्वत हारापितानी च रोपापितानि च [।]
- पंथेसू कूपा च खानापिता व्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसुमनुसानं [॥]
अर्थात्
- देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने अपने राज्य में सब जगह और
- सीमावर्ती राज्य- चोड़, पांड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र तथा ताम्रपर्णी (श्रीलंका)- तक
- और अंतियोक यवनराज तथा उस अंतियोक के जो पड़ोसी राजा हैं,
- उन सबके राज्यों में देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने दो प्रकार की चिकित्सा का प्रबंध किया है-
- मनुष्यों की चिकित्सा के लिए और पशुओं की चिकित्सा के लिए।
- मनुष्यों और पशुओं के लिए जहां-जहां औषधियां नहीं थीं वहां-वहां लाई और रोपी गई हैं।
- इसी प्रकार, जहां-जहां मूल व फल नहीं थे वहां-वहां लाए और रोपे गए हैं।
- मार्गों पर मनुष्यों तथा पशुओं के आराम के लिए कुएं खुदवाए गए हैं और वृक्ष लगाए गए हैं।
लिप्यंतर :
- लाजिना पियदसिना दुवा
- डसवसाभिसितेना इयं
- कुभा खलतिक पवतसि
- दिना (आजीवि) केहि
(अशोक के बराबर गुफ़ा के प्रथम और इस द्वितीय लेख में, लगता है, किसी ने बाद में 'आजीविकेहि' शब्द मिटाने की कोशिश की है। अशोक-पौत्र दशरथ के नागार्जुनी गुफ़ा के प्रथम लेख में भी ऐसा ही हुआ है।)
अर्थ:
द्वादश वर्ष से अभिषिक्त राजा प्रियदर्शी ने खलतिक पर्वत पर (स्थित) यह गुफ़ा आजीविको को प्रदान की।