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इस बीच 712 ई॰ में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। [[मुहम्मद-इब्न-क़ासिम]] के नेतृत्व में [[मुसलमान]] अरबों ने [[सिंध]] पर हमला कर दिया और वहाँ के [[ब्राह्मण]] राजा [[दाहिर]] को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार [[इस्लाम]] के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के [[हिन्दू धर्म|हिन्दू]] राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई॰ में [[शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी]] ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व | इस बीच 712 ई॰ में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। [[मुहम्मद-इब्न-क़ासिम]] के नेतृत्व में [[मुसलमान]] अरबों ने [[सिंध]] पर हमला कर दिया और वहाँ के [[ब्राह्मण]] राजा [[दाहिर]] को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार [[इस्लाम]] के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के [[हिन्दू धर्म|हिन्दू]] राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई॰ में [[शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी]] ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में सुसलमानों ने हमले करके [[पंजाब]] छीन लिया था और ग़ज़नी के [[महमूद ग़ज़नवी|सुल्तान महमूद]] ने 997 से 1030 ई॰ के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली। फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्व कम करके नहीं आंकना चाहिए। | ||
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06:54, 14 अगस्त 2010 का अवतरण
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राष्ट्रवाक्य: "सत्यमेव जयते" (संस्कृत) सत्य ही विजयी होता है[1] | |||||
राष्ट्रगान: जन गण मन | |||||
राजधानी | नई दिल्ली 28° 34′ N 77° 12′ E | ||||
सबसे बड़े नगर | दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई | ||||
राजभाषा(एँ) | हिन्दी संघ की राजभाषा है, अंग्रेज़ी "सहायक राजभाषा" है। | ||||
अन्य भाषाएँ | बांग्ला, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी और अन्य | ||||
सरकार प्रकार | गणराज्य द्रौपदी मुर्मू वेंकैया नायडू ओम बिड़ला नरेन्द्र मोदी डी. वाई. चन्द्रचूड़ | ||||
विधायिका -उपरी सदन
-निचला सदन |
भारतीय संसद राज्य सभा लोक सभा | ||||
स्वतंत्रता तिथि गणराज्य |
संयुक्त राजशाही से 15 अगस्त, 1947 26 जनवरी, 1950 | ||||
क्षेत्रफल - कुल - जलीय (%) |
32,87,263 किमी² (सातवां) 12,22,559 मील² 9.56 | ||||
जनसंख्या - 2011 - 2001 जनगणना - जनसंख्या घनत्व |
1,21,01,93,422[2] (द्वितीय) 1,02,70,15,248 382[2]/किमी² (27 वाँ) 954[3]/ मील² | ||||
सकल घरेलू उत्पाद (पीपीपी) - कुल - प्रतिव्यक्ति |
2012 अनुमान $4,824 अरब[4] $3,944[4] | ||||
सकल घरेलू उत्पाद (सांकेतिक) - कुल - प्रतिव्यक्ति |
2012 अनुमान $1,779 अरब[4] $1,454[4] | ||||
मानव विकास संकेतांक (एचडीआई) | 0.547 (134 वीं) – मध्यम | ||||
मुद्रा | भारतीय रुपया (आइएनआर (INR) )
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समय मण्डल - ग्रीष्म ऋतु (डेलाइट सेविंग टाइम) |
आइएसटी (IST) (UTC+5:30) अनुसरण नहीं किया जाता (UTC+5:30) | ||||
इंटरनेट टीएलडी | .in | ||||
वाहन चलते हैं | बाएं | ||||
दूरभाष कोड | ++91
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अन्य महत्वपूर्ण जानकारी
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सीमाओं में स्थित देश | उत्तर पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान, उत्तर में भूटान और नेपाल; पूरब में म्यांमार, बांग्लादेश। श्रीलंका भारत से समुद्र के संकीर्ण नहर द्वारा अलग किया जाता है जो पाल्क स्ट्रेट और मन्नार की खाड़ी द्वारा निर्मित है। | ||||
समुद्र तट | 7,516.6 किलोमीटर जिसमें मुख्य भूमि, लक्षद्वीप और अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह शामिल हैं। | ||||
जलवायु | सर्दी (दिसम्बर-फ़रवरी); गर्मी (मार्च-जून); दक्षिण पश्चिम मानसून का मौसम (जून-सितम्बर); मानसून पश्च मौसम (अक्तूबर-नवम्बर) | ||||
भू-भाग | मुख्य भूमि में चार क्षेत्र हैं- ग्रेट माउन्टेन जोन, गंगा और सिंधु का मैदान, रेगिस्तान क्षेत्र और दक्षिणी पेनिंसुला। | ||||
प्राकृतिक संसाधन | कोयला, लौह अयस्क, मैगनीज अयस्क, माइका, बॉक्साइट, पेट्रोलियम, टाइटानियम अयस्क, क्रोमाइट, प्राकृतिक गैस, मैगनेसाइट, चूना पत्थर, अराबल लेण्ड, डोलोमाइट, माऊलिन, जिप्सम, अपादाइट, फोसफोराइट, स्टीटाइल, फ्लोराइट आदि। | ||||
प्राकृतिक आपदा | मानसूनी बाढ़, फ्लेश बाढ़, भूकम्प, सूखा, ज़मीन खिसकना। | ||||
जनसंख्या वृद्धि दर | औसत वार्षिक घातांकी वृद्धि दर वर्ष 2001-2011 के दौरान 1.64 प्रतिशत है। | ||||
लिंग अनुपात | 1000:940 (2011) | ||||
धर्म | वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार 1,028 मिलियन देश की कुल जनसंख्या में से 80.5 प्रतिशत के साथ हिन्दुओं की अधिकांशता है दूसरे स्थान पर 13.4 प्रतिशत की जनसंख्या वाले मुस्लिम इसके बाद ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और अन्य आते हैं। | ||||
साक्षरता | 74.04% (2011) पुरुष- 82.14% महिलाएं- 65.46% | ||||
सम्भावित जीवन दर | 65.8 वर्ष (पुरुष); 68.1 वर्ष (महिला)[5] | ||||
जातीय अनुपात | सभी पांच मुख्य प्रकार की जातियाँ- ऑस्ट्रेलियाड, मोंगोलॉयड, यूरोपॉयड, कोकोसिन और नीग्रोइड। | ||||
कार्यपालिका शाखा | भारत का राष्ट्रपति देश का प्रधान होता है, जबकि प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है और मंत्रिपरिषद् की सहायता से शासन चलाता है जो मंत्रिमंडल मंत्रालय का गठन करते हैं। | ||||
न्यायपालिका शाखा | भारत का सर्वोच्च न्यायालय भारतीय कानून व्यवस्था का शीर्ष निकाय है इसके बाद अन्य उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय आते हैं। | ||||
अन्य जानकारी | भारत का राष्ट्रीय ध्वज आयताकार तिरंगा है जिसमें केसरिया ऊपर है, बीच में सफ़ेद, और बराबर भाग में नीचे गहरा हरा है। सफ़ेद पट्टी के केन्द्र में गहरा नीला चक्र है जो सारनाथ में अशोक चक्र को दर्शाता है। | ||||
बाहरी कड़ियाँ | भारत की आधिकारिक वेबसाइट | ||||
अद्यतन | 13:23, 11 नवम्बर 2022 (IST)
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दुनियाँ की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक हैं, जो 4,000 से अधिक वर्षों से चली आ रही है और जिसने अनेक रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं का संगम देखा है। यह देश की समृद्ध संस्कृति और विरासत का परिचायक है। आज़ादी के बाद 62 वर्षों में भारत ने सामाजिक और आर्थिक प्रगति की है। भारत कृषि में आत्मनिर्भर देश है और औद्योगीकरण में भी विश्व के चुने हुए देशों में भी इसकी गिनती की जाती है। यह उन देशों में से एक है, जो चाँद पर पहुँच चुके हैं और परमाणु शक्ति संपन्न हैं। भारत का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग कि.मी. है, जो हिमाच्छादित हिमालय की बुलन्दियों से दक्षिण के विषुवतीय वर्षा वनों तक विस्तृत है। क्षेत्रफल में विश्व का सातवां बड़ा देश होने के कारण भारत एशिया महाद्वीप में अलग दिखायी देता है। इसकी सरहदें हिमालय पर्वत और समुद्रों ने बांधी है, जो इसे एक विशिष्ट भौगोलिक पहचान देते हैं। उत्तर में बृहत् हिमालय की पर्वत श्रृंखला से घिरा यह देश कर्क रेखा से आगे संकरा होता चला जाता है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी, पश्चिम में अरब सागर तथा दक्षिण में हिन्द महासागर इसकी सीमाओं का निर्धारण करते हैं।
उत्तरी गोलार्ध में स्थित भारत की मुख्यभूमि 8 डिग्री 4 मिनट और 37 डिग्री 6 मिनट उत्तरी अक्षांश और 68 डिग्री 7 मिनट तथा 97 डिग्री 25 मिनट पूर्वी देशान्तर के बीच स्थित है । उत्तर से दक्षिण तक इसकी अधिकतम लंबाई 3,214 कि.मी. और पूर्व से पश्चिम तक अधिकतम चौड़ाई 2,933 कि.मी. है। इसकी ज़मीनी सीमाओं की लंबाई लगभग 15,200 कि.मी. और तटरेखा की कुल लम्बाई 7,516.6 कि.मी है। यह उत्तर में हिमालय पर्वत, पूर्व में बंगाल की खाड़ी, पश्चिम में अरब सागर तथा दक्षिण में हिंद महासागर से घिरा हुआ है।
भारत एशिया महाद्वीप के दक्षिणी भाग में स्थित तीन प्रायद्वीपों में मध्यवर्ती और सबसे बड़ा प्रायद्वीप । यह त्रिभुजाकार है। हिमालय पर्वत श्रृंखला को इस त्रिभुज का आधार और कन्याकुमारी को उसका शीर्षबिन्दु कहा जा सकता है। इसके उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में हिन्द महासागर स्थित है। ऊँचे-ऊँचे पर्वतों ने इसे उत्तर-पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान तथा उत्तर-पूर्व में म्यांमार से अलग कर दिया है। यह स्वतंत्र भौगोलिक इकाई है। प्राकृतिक दृष्टि से इसे तीन क्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है—हिमालय क्षेत्र, उत्तर का मैदान जिससे होकर सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियाँ बहती हैं, दक्षिण का पठार, जिसे विंध्य पर्वतमाला उत्तर के मैदान से अलग करती है। भारत की विशाल जनसंख्या सात सौ पचास से अधिक [6] बोलियाँ बोलती है और संसार के सभी मुख्य धर्मों को मानने वाले यहाँ मिलते हैं। अंग्रेज़ी में भारत का नाम 'इंडिया' सिंधु के फ़ारसी रूपांतरण के आधार पर यूनानियों के द्वारा प्रचलित 'हंडस' नाम से पड़ा। सिन्धु का फ़ारसी में हिन्द, हन्द या हिन्दू हुआ। हिन्द का यूनानियों ने इन्दस किया जो बाद में 'इंडिया' हो गया। सिन्धु नदी को अंगेज़ी में आज भी 'इन्डस' ही कहते हैं। मूल रूप से इस देश का नाम प्रागैतिहासिक काल के राजा भरत[7] के आधार पर भारतवर्ष है किन्तु अधिकारिक नाम 'भारत' ही है। अब इसका क्षेत्रफल संकुचित हो गया है और इस प्रायद्वीप के दो छोटे-छोटे क्षेत्रों पाकिस्तान तथा बांग्लादेश को इससे पृथक करके शेष भू-भाग को भारत कहते हैं। 'हिन्दुस्थान' नाम सही तौर से केवल गंगा के उत्तरी मैदान के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है जहाँ हिन्दी बोली जाती है। इसे भारत अथवा इंडिया का पर्याय नहीं माना जा सकता।
भारत की आधारभूत एकता उसकी विशिष्ट संस्कृति तथा सभ्यता पर आधारित है। यह इस बात से प्रकट है कि हिन्दू धर्म सारे देश में फैला हुआ है। संस्कृत को सब देवभाषा स्वीकार करते हैं। जिन सात नदियों को पवित्र माना जाता है उनमें सिंधु पंजाब में बहती है और कावेरी दक्षिण में, इसी प्रकार जिन सात पुरियों को पवित्र माना जाता है उनमें हरिद्वार उत्तर प्रदेश में स्थित है और कांची सुदूर दक्षिण में। भारत के सभी राजाओं की आकांक्षा रही है कि उनके राज्य का विस्तार आसेतु हिमालय हो। परन्तु इतने बड़े देश को जो वास्तव में एक उपमहाद्वीप है और क्षेत्रफल में पश्चिमी रूस को छोड़कर सारे यूरोप के बराबर है, एक राजनीतिक इकाई बनाये रखना अत्यन्त कठिन था। वास्तव में उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटिश शासकों की स्थापना से पूर्व सारा देश बहुत थोड़े काल को छोड़कर, कभी एक साम्राज्य के अंतर्गत नहीं रहा। ब्रिटिश काल में सारे देश में एक समान शासन व्यवस्था करके तथा अंग्रेजों को सारे देश में प्रशासन और शिक्षा की समान भाषा बनाकर पूरे देश को एक राजनीतिक इकाई बना दिया गया। परन्तु यह एकता एक शताब्दी के अन्दर ही भंग हो गयी। 1947 ई॰ में जब भारत स्वाधीन हुआ, उसे विभाजित करके सिंधु, उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त, पश्चिमी पंजाब (यह भाग अब पाकिस्तान कहलाता है), पूर्वी तथा उत्तरी बंगाल (यह भाग अब बांगलादेश कहलाता है) उससे अलग कर दिया गया।
इतिहास (आदिकाल से स्वतंत्रता तक)
इन्हें भी देखें: आर्य, आर्यावर्त, सोम रस एवं वेद
भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। 3000 ई॰ पूर्व तथा 1500 ई॰ पूर्व के बीच सिंधु घाटी में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष मोहन जोदड़ो (मुअन-जो-दाड़ो) और हड़प्पा में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में आर्यों का प्रवेश बाद में हुआ।
आर्यों ने पाया कि इस देश में उनसे पूर्व के जो लोग निवास कर रहे थे, उनकी सभ्यता यदि उनसे श्रेष्ठ नहीं तो किसी रीति से निकृष्ट भी नहीं थी। आर्यों से पूर्व के लोगों में सबसे बड़ा वर्ग द्रविड़ों का था। आर्यों द्वारा वे क्रमिक रीति से उत्तर से दक्षिण की ओर खदेड़ दिये गए। जहाँ दीर्घ काल तक उनका प्रधान्य रहा। बाद में उन्होंने आर्यों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। उनसे विवाह सम्बन्ध स्थापित कर लिये और अब वे महान् भारतीय राष्ट्र के अंग हैं। द्रविड़ों के अलावा देश में और मूल जातियाँ थी, जिनमें से कुछ का प्रतिनिधित्व मुण्डा, कोल, भील आदि जनजातियाँ करती हैं जो मोन-ख्मेर वर्ग की भाषाएँ बोलती हैं। भारतीय आर्यों का प्राचीनतम साहित्य हमें वेदों में विशेष रूप से ऋग्वेद में मिलता है, जिसका रचनाकाल कुछ विद्वान् तीन हज़ार ई॰ पू॰ मानते हैं। वेदों में हमें उस काल की सभ्यता की एक झाँकी मिलती है। आर्यों ने इस देश को कोई राजनीतिक एकता प्रदान नहीं की। यद्यपि उन्होंने उसे एक पुष्ट दर्शन और धर्म प्रदान किया, जो हिन्दू धर्म के नाम से प्रख्यात है और कम से कम चार हज़ार वर्ष से अक्षुण्ण है।
महाजनपद युग
इन्हें भी देखें: ब्राह्मण, अंधक संघ, कृष्ण एवं ब्रज
प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है। सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, 326 ई॰ पू॰ है, जब मक़दूनिया के राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई॰ पू॰ तक पहुँच जाता है। इस काल में भारत क़ाबुल की घाटी से लेकर गोदावरी तक षोडश जनपदों में विभाजित था, जिनके नाम निम्नोक्त थेः-
इन राज्यों मे आपस में बराबर लड़ाई होती रहती थी। छठीं शताब्दी ई॰ पू॰ के मध्य में बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के राज्य काल में मगध ने काशी तथा कोशल पर अधिकार करने के बाद अपनी सीमाओं का विस्तर आरम्भ किया। इन्हीं दोनों मगध राजाओं के राज्यकाल में वर्धमान महावीर ने जैन धर्म तथा गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का उपदेश दिया। बाद मे काल में मगध राज्य का विस्तार जारी रहा और चौथी शताब्दी ई॰ पू॰ के अंत में नन्द राजाओं के शासनकाल में उसका विस्तार बंगाल से लेकर पंजाब में व्यास नदी के तट तक सारे उत्तरी भारत में हो गया।
मौर्य और शुंग
इन्हें भी देखें: अशोक के शिलालेख, अशोक, बुद्ध, बौद्ध दर्शन, बौद्ध धर्म, फ़ाह्यान एवं पाटलिपुत्र
यूनानी इतिहासकारों के द्वारा वर्णित 'प्रेसिआई' देश का राजा इतना शक्तिशाली था कि सिकन्दर की सेनाएँ व्यास पार करके प्रेसिआई देश में नहीं घुस सकीं और सिकन्दर, जिसने 326 ई॰ में पंजाब पर हमला किया, पीछे लौटने के लिए विवश हो गया। वह सिंधु के मार्ग से पीछे लौट गया। इस घटना के बाद ही मगध पर चंद्रगुप्त मौर्य (लगभग 322 ई॰ पू॰-298 ई॰ पू॰) ने पंजाब में सिकन्दर जिन यूनानी अधिकारियों को छोड़ गया था, उन्हें निकाल बाहर किया और बाद में एक युद्ध में सिकन्दर के सेनापति सेल्युकस को हरा दिया। सेल्युकस ने हिन्दूकुश तक का सारा प्रदेश वापस लौटा कर चन्द्रगुप्त मौर्य से संधि कर ली। चन्द्रगुप्त ने सारे उत्तरी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने सम्भ्वतः दक्षिण भी विजय कर लिया। वह अपने इस विशाल साम्राज्य पर अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से शासन करता था। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र वैभव और समृद्धि में सूसा और एकबताना नगरियों को भी मात करती थी। उसका पौत्र अशोक था, जिसने कलिंग (उड़ीसा) को जीता। उसका साम्राज्य हिमालय के पादमूल से लेकर दक्षिण में पन्नार नदी तक तथा उत्तर पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर उत्तर-पूर्व में आसाम की सीमा तक विस्तृत था। उसने अपने विशाल साम्राज्य के समय साधनों को मनुष्यों तथा पशुओं के कल्याण कार्यों तथा बौद्ध धर्म के प्रसार में लगाकर अमिट यश प्राप्त किया। उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भिक्षुओं को मिस्र, मक़दूनिया तथा कोरिन्थ (प्राचीन यूनान की विलास नगरी) जैसे दूर-दराज स्थानों में भेजा और वहाँ लोकोपकारी कार्य करवाये। उसके प्रयत्नों से बौद्ध धर्म विश्वधर्म बन गया। परन्तु उसकी युद्ध से विरत रहने की शान्तिपूर्ण नीति ने उसके वंश की शक्ति क्षीण कर दी और लगभग आधी शताब्दी के बाद पुष्यमित्र ने उसका उच्छेद कर दिया। पुष्यमित्र ने शुंगवंश (लगभग 185 ई॰ पू॰- 73 ई॰ पू॰) की स्थापनी की, जिसका उच्छेद कराव वंश (लगभग 73 ई॰ पू॰-28 ई॰ पू॰) ने कर दिया।
शक, कुषाण और सातवाहन
इन्हें भी देखें: राबाटक लेख, कुषाण, कनिष्क, कम्बोजिका एवं कल्हण
मौर्यवंश के पतन के बाद मगध की शक्ति घटने लगी और सातवाहन राजाओं के नेतृत्व में मगध साम्राज्य दक्षिण से अलग हो गया। सातवाहन वंश को आन्ध्र वंश भी कहते हैं और उसने 50 ई॰ पू॰ से 225 ई॰ तक राज्य किया। भारत में एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के अभाव में बैक्ट्रिया और पार्थिया के राजाओं ने उत्तरी भारत पर आक्रमण शुरू कर दिये। इन आक्रमणकारी राजाओं में मिनाण्डर सबसे विख्यात है। इसके बाद ही शक राजाओं के आक्रमण शुरू हो गये और महाराष्ट्र, सौराष्ट्र तथा मथुरा शक क्षत्रपों के शासन में आ गये। इस तरह भारत की जो राजनीतिक एकता भंग हो गयी थी, वह ईसवीं पहली शताब्दी में कुजुल कडफ़ाइसिस द्वारा कुषाण वंश की शुरूआत से फिर स्थापित हो गयी। इस वंश ने तीसरी शताब्दी ईसवीं के मध्य तक उत्तरी भारत पर राज्य किया।
इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क (लगभग 120-144 ई॰) था, जिसकी राजधानी पुरुषपुर अथवा पेशावर थी। उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और अश्वघोष, नागार्जुन तथा चरक जैसे भारतीय विद्वानों को संरक्षण दिया। कुषाणवंश का अज्ञात कारणों से तीसरी शताब्दी के मध्य तक पतन हो गया। इसके बाद भारतीय इतिहास का अंधकार युग आरम्भ होता है। जो चौथी शताब्दी के आरम्भ में गुप्तवंश के उदय से समाप्त हुआ।
गुप्त
इन्हें भी देखें: ह्वेन त्सांग लगभग 320 ई॰ पू॰ में चन्द्रगुप्त ने गुप्तवंश का प्रचलित किया और पाटलिपुत्र को फिर से अपनी राजधानी बनाया। गुप्त वंश में एक के बाद एक चार महान शक्तिशाली राजा हुए, जिन्होंने सारे उत्तरी भारत में अपना साम्राज्य विस्तृत कर लिया और दक्षिण के कई राज्यों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उन्होंने हिन्दू धर्म को राज्य धर्म बनाया, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रति सहिष्णुता बरती और ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, वास्तुकला और चित्रकला की उन्नति की। इसी युग में कालिदास, आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर हुए। रामायण, महाभारत, पुराणों तथा मनुसंहिता को भी इसी युग में वर्तमान रूप प्राप्त हुआ। चीनी यात्री फाह्यान ने 401 से 410 ई॰ के बीच भारत की यात्रा की और उसने उस काल का रोचक वर्णन किया है। उसका मत है कि उस काल में देश में पूरा रामराज्य था। स्वाभाविक रूप से गुप्त युग को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है और उसकी तुलना एथेन्स के परीक्लीज युग से की जाती है। (पेरीक्लीज (लगभग 492-529 ई॰ पू॰) एथेन्स का महान राजनेता तथा सेनापति था। उसके प्रशासकाल (460-429 ई॰ पू॰) में एथेन्स उन्नति के शिखर पर पहुँच गया)। आंतरिक विघटन तथा हूणों के आक्रमणों के फलस्वरूप छठी शताब्दी में गुप्त वंश का पतन हो गया। परन्तु सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हर्षवर्धन ने एक दूसरा साम्राज्य खड़ा कर दिया, जिसकी राजधानी कन्नौज थी। यह साम्राज्य सारे उत्तरी भारत में विस्तृत था। दक्षिण में चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय ने उसका साम्राज्य नर्मदा तट से आग बढ़ने से रोक दिया था। चीनी यात्री ह्वयुएनत्सांग उसके राज्यकाल में भारत आया था और उसने अपने यात्रा वर्णन में लिखा है कि हर्षवर्धन बड़ा प्रतापी और शक्तिशाली राजा है। वह 646 ई॰ में निस्संतान मर गया और उसके बाद सारे उत्तरी भारत में फिर से अव्यवस्था फैल गयी।
राजपूत आदि राजवंश
इस अव्यवस्था के फलस्वरूप राजवंशों का उदय हुआ, जो अपने को राजपूत कहते थे। इनमें पंजाब का हिन्दूशाही राजवंश, गुजरात का गुर्जर-प्रतिहार राजवंश, अजमेर का चौहान वंश, कन्नौज का गहदवाल वंश तथा मगध और बंगाल का पाल वंश था। दक्षिण में भी सातवाहन वंश के पतन के बाद इसी प्रकार सत्ता का विघटन हो गया। उड़ीसा के गंग वंश जिसने पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर बनवाया, वातापी के चालुक्य वंश, जिसके राज्यकाल में अजन्ता के कुछ गुफ़ा चित्र बने तथा कांची के पल्लव वंश ने, जिसकी स्मृति उस काल में बनवाये गये कुछ प्रसिद्ध मन्दिरों में सुरक्षित है, दक्षिण को आपस में बांट लिया और परस्पर युद्धों में एक दूसरे का नाश कर दिया। इसके बाद मान्यखेट अथवा मालखड़ के राष्ट्रकूट वंश का उदय हुआ, जिसका उच्छेद पुर ने चालुक्य वंश की एक नवीन शाखा ने कर दिया। जिसने कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। उसका उच्छेद देवगिरि के यादवों तथा द्वारसमुद्र के होयसल वंश ने कर दिया। सुदूर दक्षिण में चेर, पांड्य और चोल राज्यों का उदय हुआ, जिनमें से अंतिम राज्य सबसे अधिक चला। इस तरह सारे भारत में अनैक्य व्याप्त हो गया।
आर्यों के आदि स्थल सूची
आर्यों के आदि स्थल | हड़प्पाकालीन नदियों के किनारे बसे नगर | विभिन्न विद्वानों द्वारा सिंधु सभ्यता का काल निर्धारण | |||
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आदि (मूल) स्थान | मत | नगर | नदी / सागर तट | काल | विद्वान |
महाजनपद सूची
नाम | विवरण | क्षेत्र |
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इस्लाम का प्रवेश
इन्हें भी देखें: चंगेज़ ख़ाँ एवं महमूद ग़ज़नवी इस बीच 712 ई॰ में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। मुहम्मद-इब्न-क़ासिम के नेतृत्व में मुसलमान अरबों ने सिंध पर हमला कर दिया और वहाँ के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार इस्लाम के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के हिन्दू राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई॰ में शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में सुसलमानों ने हमले करके पंजाब छीन लिया था और ग़ज़नी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई॰ के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली। फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।
पृथ्वीराज चौहान और ग़ोरी
इन्हें भी देखें: महमूद ग़ोरी फ़ारस तथा पश्चिम एशिया के दूसरे राज्यों की तरह मुसलमानों को भारत में शीघ्रता से सफलता नहीं मिली। यद्यपि सिंध पर अरब मुसलमानों का शीघ्रता से क़ब्ज़ा हो गया, परन्तु वहाँ से वे लगभग चार शताब्दियों तक आगे नहीं बढ़ पाये। उत्तर-पश्चिम के मुसलमान आक्रमणकारियों को भी भारत ने लगभग तीन शताब्दियों तक रोके रखा। शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी का दिल्ली जीतने का पहला प्रयास विफल हुआ और पृथ्वीराज ने 1190 ई॰ में तराईन की पहली लड़ाई में उसे हरा दिया। वह 1193 ई॰ में तराईन की दूसरी लड़ाई में ही पृथ्वीराज को हराने में सफल हुआ। इस विजय के बाद शहाबुद्दीन और उसके सेनापतियों ने उत्तरी भारत के दूसरे हिन्दू राजाओं को भी हरा दिया और वहाँ मुसलमानी शासन स्थापित कर दिया। इस तरह तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दिल्ली के सुल्तानों की अधीनता में उत्तरी भारत की राजनीतिक एकता फिर से स्थापित हो गई।
तैमूर
इन्हें भी देखें: तैमूर लंग, विजय नगर साम्राज्य, बहमनी वंश, चंगेज़ ख़ाँ एवं अलाउद्दीन ख़िलजी दक्षिण एक और शताब्दी तक स्वतंत्र रहा, किन्तु सुल्तान ख़िलजी के राज्यकाल में दक्षिण भी दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया और इस तरह चौदहवीं शताब्दी में कुछ काल के लिए सारे भारत का शासन फिर से एक केन्द्रीय सत्ता के अंतर्गत आ गया। परन्तु दिल्ली सल्तनत का शीघ्र ही पतन शुरू हो गया और 1336 ई॰ में दक्षिण में हिन्दुओं का एक विशाल राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी विजय नगर साम्राज्य थी। बंगाल (1338 ई॰), जौनपुर (1393 ई॰), गुजरात तथा दक्षिण के मध्यवर्ती भाग में भी बहमनी सल्तनत (1347 ई॰) के नाम से स्वतंत्र मुसलमानी राज्य स्थापित हो गया। 1398 ई॰ में तैमूर ने भारत पर हमला किया और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे लूटा। उसके हमले से दिल्ली की सल्तनत जर्जर हो गयी।
मुग़ल
इन्हें भी देखें: बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगज़ेब, शेरशाह सूरी साम्राज्य एवं शेरशाह सूरी दिल्ली की सल्तनत वास्तव में कमज़ोर थी, क्योंकि सुल्तानों ने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का ह्रदय जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। वे धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर थे और उन्होंने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू प्रजा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखती थी। इसक फलस्वरूप 1526 ई॰ में बाबर ने आसानी से दिल्ली की सल्तनत को उखाड़ फैंका। उसने पानीपत की पहली लड़ाई में अन्तिम सुल्तान इब्राहीम लोदी को हरा दिया और मुग़ल वंश की प्रतिष्ठित किया, जिसने 1526 से 1858 ई॰ तक भारत पर शासन किया। तीसरा मुग़ल बादशाह अकबर असाधारण रूप से योग्य और दूरदर्शी शासक था। उसने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का ह्रदय जीतने की कोशिश की और विशेष रूप से युद्ध प्रिय राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता तथा मेल-मिलाप की नीति बरती, हिन्दुओं पर से जज़िया उठा लिया और राज्य के ऊँचे पदों पर बिना भेदभाव के सिर्फ योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं।
मराठा
इन्हें भी देखें: मराठा साम्राज्य, शिवाजी, तानाजी, अहिल्याबाई होल्कर एवं जाटों का इतिहास राजपूतों और मुग़लों के योग से उसने अपना साम्राज्य कन्दहार से आसाम की सीमा तक तथा हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में अहमदनगर तक विस्तृत कर दिया। उसके पुत्र जहाँगीर जहाँ पौत्र शाहजहाँ कि राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार जारी रहा। शाहजहाँ ने ताज का निर्माण कराया, परन्तु क्न्दहार उसके हाथ से निकल गया। अकबर के प्रपौत्र औरंगज़ेब के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार अपने चरम शिखर पर पहुँच गया और कुछ काल के लिए सारा भारत उसके अंतर्गत हो गया। परन्तु औरंगज़ेब ने जान-बूझकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति त्याग दी और हिन्दुओं को अपने विरुद्ध कर लिया। उसने हिन्दुस्तान का शासन सिर्फ मुसलमानों के हित में चलाने की कोशिश की और हिन्दुओं को ज़बर्दस्ती मुसलमान बनाने का असफल प्रयास किया। इससे राजपूताना, बुंदेलखण्ड तथा पंजाब के हिन्दू उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए। महाराष्ट्र में शिवाजी ने 1707 ई॰ में औरंगज़ेब की मृत्यु से पूर्व ही एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापित कर दिया। औरंगज़ेब अन्तिम शक्तिशाली मुग़ल बादशाह था। उसके उत्तराधिकारी अत्यन्त निर्बल और अयोग्य थे, उनके वज़ीर विश्वासघाती थे। फ़ारस के नादिरशाह ने मुग़ल बादशाहत पर सबसे सांघातिक प्रहार किया। उसने 1739 ई॰ में भारत पर चढ़ाई की और दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसे निर्दयता से पूरी तरह लूटा। उसके हमले से मुग़ल साम्राज्य पूरी तरह जर्जर हो गया और इसके बाद शीघ्रता से उसका विघटन हो गया। अवध, अखण्डित बंगाल तथा दक्षिण के मुसलमान सूबेदारों ने अपने को स्वतंत्र कर लिया। राजपूत राजा भी अर्द्ध-स्वतंत्र हो गये। पेशवा बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठों ने मुग़ल साम्राज्य के खंडहरों पर हिन्दू पद पादशाह की स्थापना का प्रयास किया।
अंग्रेज़
इन्हें भी देखें: वास्को द गामा परन्तु यह सम्भव नहीं हो सका। फ़िरंगी लोग समुद्री मार्गों से भारत की ज़मीन पर पैर जमा चुके थे। अकबर से लेकर औरंगज़ेब तक मुग़ल बादशाहों ने भारत के इस नये मार्ग का महत्व नहीं समझा। इनमें से कोई इन नवांगतुकों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का अनुमान नहीं लगा सका और उनके जंगी बेड़े का मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली भारतीय जंगी बेड़ा तैयार करने की आवश्यकता को अनुभव नहीं कर सका। इस तरह भारतीयों की ओर से किसी प्रतिरोध का सामना किये बग़ैर सबसे पहले पुर्तग़ाली भारत पहुँचे। उसके बाद डच, अंग्रेज़, फ्राँसीसी आये। सोलहवीं शताब्दी में इन फिरंगियों में आपस में लड़ाइयाँ होती रही, जो अधिकांश समुद्र में हुई। डच और अंग्रेजों ने मिलकर सबसे पहले पुर्तग़ालियों की सामुद्रिक शक्ति को समाप्त किया। इसके बाद डच लोगों को पता चला कि उनके लिए भारत की अपेक्षा मसाले वाले द्वीपों से व्यापार करना अधिक लाभदायी है। इस तरह भारत में सिर्फ अंग्रेज और फ्राँसीसी लोगों के बीच प्रतिद्वन्द्विता हुई।
ईस्ट इंडिया कम्पनी
इन्हें भी देखें: मैसूर युद्ध एवं टीपू सुल्तान अठारहवीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर क़ब्ज़ा कर लिया। उधर फ्राँसीसियों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्हें अपनी सेनाओं में भारतीय सिपाहियों की भरती करने की भी इजाज़त मिल गयी। वे इन भारतीय सिपाहियों का उपयोग न केवल अपनी आपसी लड़ाइयों में करते थे बल्कि इस देश के राजाओं के विरुद्ध भी करते थे। इन राजाओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कमज़ोरी ने इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का जाग्रत कर दिया और उन्होंने कुछ देशी राजाओं के विरुद्ध दूसरे देशी राजाओं से संधियाँ कर लीं। 1744-49 ई॰ में मुग़ल बादशाह की प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करके उन्होंने आपस में कर्नाटक की दूसरी लड़ाई छेड़ी। एक साल के बाद कर्नाटक की दूसरी लड़ाई शुरू हुई। जिसमें फ्राँसीसी गवर्नर डूप्ले ने पहली लड़ाई से सबक़ लेते हुए न केवल कर्नाटक के प्रशासन पर, बल्कि निज़ाम के राज्य पर भी फ़्राँस का राजनीतिक नियत्रंण स्थापित करने की कोशिश की। परन्तु अंग्रेजों ने उसकी महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होने दी। अंग्रेजों को बंगाल में भारी सफलता मिली थी। बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के केवल पचास वर्ष बाद 1757 ई॰ में राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजों ने नवाब सिराजुद्दौला के विरुद्ध विश्वासघातपूर्ण राजद्रोहात्मक षड़यंत्र रचकर प्लासी की लड़ाई जीत ली और बंगाल को एक प्रकार से अपनी मुट्ठी में कर लिया। उन्होंने बंगाल की गद्दी पर एक कठपुतली नवाब मीर ज़ाफ़र को बिठा दिया। इसके बाद एक के बाद, तेज़ी से कई घटनाएँ घटीं।
जनरल और वायसराय | कार्य / कार्यकाल |
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पानीपत
अहमद शाह अब्दाली ने 1748 से 1760 ई॰ के बीच भारत पर चढ़ाइयाँ कीं और 1761 ई॰ में पानीपत की तीसरी लड़ाई जीत कर मुग़ल साम्राज्य का फ़ातिहा पढ़ दिया। उसन दिल्ली पर दख़ल करके उसे लूटा। पानीपत की तीसरी लड़ाई में सबसे अधिक क्षति मराठों को उठानी पड़ी। कुछ समय के लिए उनकी बाढ़ रुक गयी और इस प्रकार वे मुग़ल बादशाहों की जगह ले लेने का मौका खो बैठे। यह लड़ाई वास्तव में मुग़ल साम्राज्य के पतन की सूचक है। इसने भारत में मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में मदद की। अब्दाली को पानीपत में जो फ़तह मिली, उससे न तो वह स्वयं कोई लाभ उठा सका और न उसका साथ देने वाले मुसलमान सरदार। इस लड़ाई से वास्तविक फ़ायदा अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उठाया। इसके बाद कम्पनी को एक के बाद दूसरी सफलताएँ मिलती गयीं।
रेग्युलेटिंग एक्ट
बंगाल के साधनों से बलशाली होकर अंग्रेजों ने 1760 ई॰ में वाण्डीवाश की लड़ाई में फ्राँसीसियों को हरा दिया और 1762 ई॰ में उनस पांडेचेरी ले लिया। इस प्रकार उन्होंने भारत में फ्राँसीसियों की राजनीतिक शक्ति समाप्त कर दी। 1764 ई॰ में अंग्रजों ने बक्सर की लड़ाई में बादशाह बहादुर शाह और अवध के नवाब की सम्मिलित सेना को हरा दिया और 1765 ई॰ में बादशाह से बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्राप्त कर ली। इसके फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कम्पनी को पहली बार बंगाल, उड़ीसा तथा बिहार के प्रशासन का क़ानूनी अधिकार मिल गया। कुछ इतिहासकार इसे भारत में ब्रिटिश राज्य का प्रारम्भ मानते हैं। 1773 ई॰ में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने एक रेग्युलेटिंग एक्ट पास करके भारत में ब्रिटिश प्रशासन को व्यवस्थित रूप देने का प्रयास किया। इस एक्ट के अंतर्गत भारत में कम्पनी क्षेत्रों का प्रशासन गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिया गया। उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की कौंसिल गठित की गयी। एक्ट में बंगाल के गवर्नर को गवर्नर-जनरल का पद प्रदान किया गया और कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की भी स्थापना की गयी। वारेन हेस्टिंग्स, जो उस समय बंगाल का गवर्नर था, 1773 ई॰ में पहला गवर्नर-जनरल बनाया गया।
1773 ई॰ से 1947 ई॰ तक का काल, जब भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हुआ और भारत स्वाधीन हुआ, दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला, कम्पनी का शासनकाल, जो 1858 ई॰ तक चला और दूसरा, 1858 से 1947 ई॰ तक का काल, जब भारत का शासन सीधे ब्रिटेन द्वारा होने लगा।
गवर्नर-जनरलों का समय
कम्पनी के शासन काल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक बाईस गवर्नर-जनरलों के हाथों मे रहा। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय घटना यह है कि कम्पनी युद्ध तथा कूटनीति के द्वारा भारत में अपने साम्राज्य का उत्तरोत्तर विस्तार करती रही। मैसूर के साथ चार लड़ाइयाँ, मराठों के साथ तीन, बर्मा (म्यांमार) तथा सिखों के साथ दो-दो लड़ाइयाँ तथा सिंध के अमीरों, गोरखों तथा अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक-एक लड़ाई छेड़ी गयी। इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कम्पनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली। उसने जिन फ़ौजों से लड़ाई की उनमें से अधिकांश भारतीय सिपाही थे और लड़ाई का ख़र्च पूरी तरह भारतीय करदाता को उठाना पड़ा। इन लड़ाइयों के फलस्वरूप 1857 ई॰ तक सारे भारत पर सीधे कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित हो गया। दो-तिहाई भारत पर देशी राज्यों का शासन बना रहा। परन्तु उन्होंने कम्पनी का सार्वभौम प्रभुत्व स्वीकार कर लिया और अधीनस्थ तथा आश्रित मित्र राजा के रूप में अपनी रियासत का शासन चलाते रहे।
ग़दर- प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम
इन्हें भी देखें: झांसी की रानी लक्ष्मीबाई एवं तात्या टोपे इस काल में सती प्रथा का अन्त कर देने के समान कुछ सामाजिक सुधार के भी कार्य किये गये। अंग्रेज़ी के माध्यम से पश्चिम शिक्षा के प्रसार की दिशा में क़दम उठाये गये, अंग्रेजी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान ज़ाब्ता दीवानी और ज़ाब्ता फ़ौजदारी क़ानून लागू कर दिया गया, जिससे सारे देश में एकता की नयी भावना पैदा हो गयी। परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह अंग्रेजों के हाथों में रहा। 1833 के चार्टर एक्ट के विपरीत ऊँचे पदों पर भारतीयों को नियुक्त नहीं किया गया। भाप से चलने वाले जहाज़ों और रेलगाड़ियों का प्रचलन, ईसाई मिशनरियों द्वारा आक्षेपजनक रीति से ईसाई धर्म का प्रचार, लार्ड डलहौज़ी द्वारा ज़ब्ती का सिद्धांत लागू करके अथवा कुशासन के आधार पर कुछ पुरानी देशी रियासतों की ज़ब्ती तथा ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सिपाहियों की शिकायतें—इन सब कारणों ने मिलकर सारे भारत में एक गहरे असंतोष की आग धधका दी, जो 1857-58 ई॰ में ग़दर के रूप में भड़क उठी। अन्तिम मुग़ल बहादुर शाह ज़फ़र, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे (रामचंन्द्र पांडुरंग), बिहार के बाबू कुँवरसिंह, महाराष्ट्र से नाना साहिब, इस प्रथम क्रान्ति के प्रयास के नायक थे किन्तु प्रयास विफल हो गया।
अधिकांश देशी राजाओं ने अपने को ग़दर से अलग रखा। देश की अधिकांश जनता ने भी इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया। फलस्वरूप कम्पनी को बल पूर्वक ग़दर को कुचल देने में सफलता मिली, परन्तु ग़दर के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारत पर कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया। भारत का शासन अब सीधे ब्रिटेन के द्वारा किया जाने लगा। महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणा पत्र जारी करके अपनी भारतीय प्रजा को उसके कुछ अधिकारों तथा कुछ स्वाधीनताओं के बारे में आश्वासन दिया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना
इस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा काल (1858-1947 ई॰) आरम्भ हुआ। इस काल का शासन एक के बाद इकत्तीस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। गवर्नर-जनरल को अब वाइसराय (ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधी) कहा जाने लगा। लार्ड कैनिंग पहला वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे प्रमुख घटना है—भारत में राष्ट्रवादी भावना का उदय और 1947 ई॰ में भारत की स्वाधीनता के रूप में अंतिम विजय। 1857 ई॰ में कलकत्ता (कोलकाता), मद्रास (चेन्नई) तथा बम्बई (मुम्बई) में विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद शिक्षा का प्रसार होने लगा तथा 1869 ई॰ में स्वेज़ नहर खुलने के बाद इंग्लैण्ड तथा यूरोप से निकट सम्पर्क स्थापित हो जाने से भारत में नये मध्यवर्ग का विकास हुआ। यह मध्य वर्ग पश्चिमी दर्शन शास्त्र, राजनीति शास्त्र तथा अर्थशास्त्र के विचारों से प्रभावित था और ब्रिटिश शासन में भारतीयों को जो नीचा दर्ज़ा मिला हुआ था, उससे रुष्ट था। ब्रिटिश में स्थापित शान्ति के फलस्वरूप यह वर्ग सारे भारत को एक देश तथा समस्त भारतीयों को एक क़ौम मानने लगा और ब्रिटेन की भाँति संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना उसका लक्ष्य बन गया। वह एक ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस करने लगा जो समस्त भारतीय राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सके।
इसके फलस्वरूप 1885 ई॰ में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई जिसमें देश के समस्त भागों से 71 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1883 ई॰ में कलकत्ता में हुआ, जिसमें सारे देश से निर्वाचित 434 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में माँग की गयी कि भारत में केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार किया जाये और उसके आधे सदस्य निर्वाचित भारतीय हों। कांग्रेस हर साल अपने अधिवेशनों में अपनी माँगें दोहराती रही। लार्ड डफ़रिन ने कांग्रेस पर व्यग्य करते हुए उसे ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था बताया जिसे सिर्फ़ ख़ुर्दबीन से देखा जा सकता है। लार्ड लैन्सडाउन ने उसके प्रति पूर्ण उपेक्षा की नीति बरती, लार्ड कर्ज़न ने उसका खुलेआम मज़ाक उड़ाया तथा लार्ड मिन्टो द्वितीय ने 1909 के इंडियन कौंसिल एक्ट द्वारा स्थापित विधानमंडलों में मुसलमानों को अनुपात से अनुचित रीति से अधिक प्रतिनिधित्व देकर उन्हें फोड़ने तथा कांग्रेस को तोड़ने की कोशिश की, फिर भी कांग्रेस जिन्दा रही।
प्रारम्भिक सफलता
कांग्रेस को पहली मामूली सफलता 1909 में मिली, जब इंग्लैण्ड में भारत मंत्री के निर्शदन में काम करने वाली भारत परिषद में दो भारतीय सदस्यों की नियुक्ति पहली बार की गयी, वाइसराय की एक्जीक्यूटिव काउंसिल में पहली बार एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति की गयी तथा इंडियन काउंसिल एक्ट के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधानमंडलों का विस्तार कर दिया गया तथा उनमें निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों का अनुपात पहले से अधिक बढ़ा दिया गया। इन सुधारों के प्रस्ताव लार्ड मार्ले ने हालाँकि भारत में संसदीय संस्थाओं की स्थापना करने का कोई इरादा होने से इन्कार किया, फिर भी एक्ट में जो व्यवस्थाएँ की गयीं थी, उनका उद्देश्य उसी दिशा में आगे बढ़ने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता था। 1911 ई॰ में लार्ड कर्जन के द्वारा 1905 ई॰ में किया बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया गया और भारत ने ब्रिटेन का पूरा साथ दिया। भारत ने युद्ध को जीतने के लिए ब्रिटेन की फ़ौजों से, धन से तथा समाग्री से मदद की। भारत आशा करता था कि इस राजभक्ति प्रदर्शन के बदले युद्ध से होने वाले लाभों में उसे भी हिस्सा मिलेगा।
द्वैधशासन प्रणाली
भारत के लिए स्वशासन की माँग करने में पहली बार भारतीय मुसलमान भी हिन्दुओं के साथ संयुक्त हो गये और अगस्त 1917 ई॰ में ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि भारत में ब्रिटेश शासन की नीति है कि शासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों को अधिकारिक स्थान दिया जाय तथा स्वायत्त शासन का क्रमिकरूप से विकास किया जाय, ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत भारत में उत्तरदायी सरकार की उत्तरोत्तर स्थापना हो सके। इस घोषणा के अनुसार 1919 का गवर्नमेण्ट आफ इंडिया एक्ट पास किया गया। इस एक्ट के द्वारा विधान मंडलों का विस्तार कर दिया गया और अब उनके बहुसंख्य सदस्य भारतीय जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होने लगे। एक्ट के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों के कार्यों का विभाजन कर दिया गया और प्रान्तों में द्वैधशासन प्रणाली लागू करके कार्यपालिका को आंशिक रीति से विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बना दिया गया। इस एक्ट के द्वारा भारत ने सुनिश्चित रीति से प्रगति की। भारतीय के इतिहास में पहली बार एक ऐसी संस्था की स्थापना की गयी, जिसके द्वारा ब्रिटिश भारत के निर्वाचित प्रतिनिधि सरकारी आधार पर एकत्र हो सकते थे। पहली बार उनका बहुमत स्थापित कर दिया गया और अब वे सरकार के कार्यों की निर्भयतापूर्वक आलोचना कर सकते थे।
असहयोग और सत्याग्रह
इन सुधारों से पुराने कांग्रेसजन संतुष्ट हो गये, परन्तु नव युवकों का दल, जिसे मोहनदास करमचंद गाँधी के रूप में एक नया नेता मिल गया था, संतुष्ट नहीं हुआ। इन सुधारों के अंतर्गत केन्द्रीय कार्यपालिका को केन्द्रीय विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाया गया था और वाइसराय को बहुत अधिक अधिकार प्रदान कर दिये गये थे। अतएव उसने इन सुधारों को अस्वीकृत कर दिया। उसके मन में जो आशंकाएँ थीं, वे ग़लत नहीं थी, यह 1919 के एक्ट के बाद ही पास किये गये रौलट एक्ट जैसे दमनकारी कानूनों तथा जलियाँवाला बाग़ हत्याकांण्ड जैसे दमनमूलक कार्यों से सिद्ध हो गया। कांग्रेस ने 1920 ई॰ में अपने नागपुर अधिवेशन में अपना ध्येय पूर्ण स्वराज्य की स्थापना घोषित कर दी और अपनी माँगों को मनवाने के लिए उसने अहिंसक असहयोंग की नीति अपनायी। चूंकि ब्रिटिश सरकार ने उसकी माँगें स्वीकार नहीं की और दमनकारी नीति के द्वारा वह असहयोग आंदोलन को दबा देने में सफल हो गयी। इसलिए कांग्रेस ने दिसम्बर 1929 ई॰ में लाहौर अधिवेशन में अपना लक्ष्य पूर्ण स्वीधीनता निश्चित किया और अपनी माँग का मनवाने के लिए उसने 1930 में नमक सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर दिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध
सरकार ने पहले की तरह आंदोलन को दबाने के लिए दमन और समझौते के दोनों रास्ते अख़्तियार किये और 1935 का गवर्नेण्ट आफ इंडिया एक्ट पास किया। इस एक्ट के द्वारा ब्रिटश भारत तथा देशी रियासतों के लिए सम्मिलित रूप से एक संघीय शासन का प्रस्ताव किया, केन्द्र में एक प्रकार के द्वैध शासन की स्थापना की गयी तथा प्रान्तों को स्वशासन प्रदान कर दिया गया। एक्ट का प्रान्तों से सम्बन्धित भाग लागू कर दिया गया तथा अप्रैल 1937 ई॰ में प्रान्तीय स्वशासन का श्रीगणेश कर दिया गया। परन्तु एक्ट के संघ सरकार से सम्बन्धित भाग के लागू होने से पहले ही सितम्बर 1939 ई॰ में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया जो 1945 ई॰ तक जारी रहा। यह विश्वव्यापी युद्ध था और ब्रिटेन को अपने सारे साधन उसमें झोंक देने पड़े। भारत ने ब्रिटेन का साथ दिया और भारत के पास जन और धन की जो विशाल शक्ति थी उससे लाभ उठाकर तथा अमरीका की सहायता से ब्रिटेन युद्ध जीत गया। गाँधी जी के अमित प्रभाव तथा अहिंसा में उनकी दृढ़ निष्ठा के कारण भारत ने यद्यपि ब्रिटिश सम्बन्ध को बनाये रखा, फिर भी यह स्पष्ट हो गया कि भारत अब ब्रिटिश साम्राज्य की अधीनता में नहीं रहना चाहता।
सम्प्रदायिक दंगे
कुछ ब्रिटिश अफ़सरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और मुसलमानों की भारत विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई॰ में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय लार्ड वेवेल अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है। जिसका नियंत्रण मुध्य रूप से अंग्रेजों के हाथों में हो। अतएव सितम्बर 1946 ई॰ में लार्ड वेवेल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण मुस्लिम लीग के दिमाग़ काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।
स्वाधीनता
भारत का संविधान बनाने के लिए एक भारतीय संविधान सभा का आयोजन किया गया। 1947 ई॰ के शुरू में लार्ड वेवेल के स्थान पर लार्ड माउंटबेटेन वाइसराय नियुक्त हुआ। उसे पंजाब में भयानक सम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ा। जिनको भड़काने में वहाँ के कुछ ब्रिटिश अफसरों का हाथ था। वह प्रधानमंत्री एटली के नेतृत्व में ब्रिटेन की सरकार को यह समझाने में सफल हो गया कि भारत का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान करने से शान्ति की स्थापना सम्भव हो सकेगी और ब्रिटेन भारत में अपने व्यापारिक हितों को सुरक्षित रख सकेगा। 3 जून 1947 को ब्रिटिश सरकार की ओर से यह घोषणा कर दी गयी कि भारत का; भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान कर दी जायगी। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 15 अगस्त 1947 को इंडिपेडंस आफ इंडिया एक्ट पास कर दिया। इस तरह भारत उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, बलूचिस्तान, सिंध, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल तथा पश्चिम बंगाल के मुसलिम बहुल भागों से रहित हो जाने के बाद, सात शताब्दियों की विदेशी पराधीनता के बाद स्वाधीनता के एक नये पथ पर अग्रसर हुआ।
गांधी जी की हत्या
स्वाधीन भारत को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा, वे सरल नहीं थीं। उसे सबसे पहले साम्प्रदायिक उन्माद को शान्त करना था। भारत ने जानबूझकर धर्म निरपेक्ष राज्य बनना पसंद किया। उसने आश्वासन दिया कि जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान को निर्गमन करने के बजाय भारत में रहना पसंद किया है उनको नागरिकता के पूर्ण अधिकार प्रदान किये जायेंगे। हालाँकि पाकिस्तान जानबूझकर अपने यहाँ से हिन्दुओं को निकाल बाहर करने अथवा जिन हिन्दुओं ने वहाँ रहने का फैसला किया था, उनको एक प्रकार से द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना देने की नीति पर चल रहा था। लॉर्ड माउंटबेटेन को स्वाधीन भारत का पहला गवर्नर जनरल बनाये रखा गया और पंडित जवाहर लाल नेहरू तथा अंतरिम सरकार में उनके कांग्रसी सहयोगियों ने थोड़े से हेरफेर के साथ पहले भारतीय मंत्रिमंडल का निर्माण किया। इस मंत्रिमंडल में सरदार पटेल तथा मौलाना अबुलकलाम आज़ाद का तो सम्मिलित कर लिया गया था, परन्तु नेताजी के बड़े भाई शरतचंद्र बोस को छोड़ दिया गया। 30 जनवरी 1948 ई॰ को नाथूराम गोडसे नामक हिन्दू ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या कर दी। सारा देश शोक के सागर में डूब गया। नौ महीने के बाद, पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्नाहकी भी मृत्यु हो गयी। उसी वर्ष लार्ड माउंटबेटेन ने भी अवकाश ग्रहण कर लिया और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारत के प्रथम और अंतरिम गवर्नर जनरल नियुक्त हुए।
रियासतों का विलय
अधिकांश देशी रियासतों ने , जिनके सामने भारत अथवा पाकिस्तान में विलय का प्रस्ताव रखा गया था, भारत में विलय के पक्ष में निर्णय लिया, परन्तु, दो रियासतों—कश्मीर तथा हैदराबाद ने कोई निर्णय नहीं किया। पाकिस्तान ने बलपूर्वक कश्मीर की रियासत पर अधिकार करने का प्रयास किया, परन्तु अक्टूबर 1947 ई॰ में कश्मीर के महाराज ने भारत में विलय की घोषणा कर दी और भारतीय सेनाओं को वायुयानों से भेजकर श्रीनगर सहित कश्मीरी घाटी तक जम्मू की रक्षा कर ली गयी। पाकिस्तानी आक्रमणकारियों ने रियासत के उत्तरी भाग पर अपना क़ब्ज़ा बनाये रखा और इसके फलस्वरूप पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया। भारत ने यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया और संयुक्त राष्ट्र संघ ने जिस क्षेत्र पर जिसका क़ब्ज़ा था, उसी के आधार पर युद्ध विराम कर दिया। वह आज तक इस सवाल का कोई निपटारा नहीं कर सका है। हैदराबाद के निज़ाम ने अपनी रियासत को स्वतंत्रता का दर्जा दिलाने का षड़यंत्र रचा, परन्तु भारत सरकार की पुलिस कार्यवाही के फलस्वरूप वह 1948 ई॰ में अपनी रियासत भारत में विलयन करने के लिए मजबूर हो गये। रियासतों के विलय में तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की मुख्य भूमिका रही।
संघ राज्यों का विलय
भारतीय संविधान सभा के द्वारा 26 नवम्बर 1949 में संविधान पास किया गया। भारत का संविधान अधिनियम 26 जनवरी 1950 को लागू कर दिया गया। इस संविधान में भारत को लौकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया था और संघात्मक शासन की व्यवस्था की गयी थी। डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद को पहला राष्ट्रपति चुना गया और बहुमत पार्टी के नेता के रूप में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने प्रधान मंत्री का पद ग्रहण किया। इस पद पर वे 27 मई 1964 ई॰ में, अपनी मृत्यु तक बने रहे। नवोदित भारतीय गणराज्य के लिए उनका दीर्घकालीन प्रधानमंत्रित्व बड़ा लाभदायी सिद्ध हुआ। उससे प्रशासन तथा घरेलू एवं विदेश नीतियों में निरंतरता बनी रही। पंडित नेहरू ने वैदेशिक मामलों में गुट-निरपेक्षता की नीति अपनायी और चीन से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किये। फ्राँस ने 1951 ई॰ में चंद्रनगर शान्तिपूर्ण रीति से भारत का हस्तांतरित कर दिया। 1956 ई॰ में उसने अन्य फ्रेंच बस्तियाँ (पांडिचेरी, कारीकल, माहे तथा युन्नान) भी भारत को सौंप दीं। पुर्तग़ाल ने फ्राँस का अनुसरण करने और शान्तिपूर्ण रीति से अपनी पुर्तग़ाली बस्तियाँ (गोवा, दमन और दीव) छोड़ने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप 1961 ई॰ में भारत को बलपूर्वक इन बस्तियों को लेना पड़ा[8]। इस तरह भारत का एकीकरण पूरा हो गया।
भौतिक विशेषताएँ
मुख्य भूभाग में चार क्षेत्र हैं, नामत: महापर्वत क्षेत्र, गंगा और सिंधु नदी के मैदानी क्षेत्र और मरूस्थली क्षेत्र और दक्षिणी प्रायद्वीप।
हिमालय की तीन श्रृंखलाएँ हैं, जो लगभग समानांतर फैली हुई हैं। इसके बीच बड़े - बड़े पठार और घाटियाँ हैं, इनमें कश्मीर और कुल्लू जैसी कुछ घाटियाँ उपजाऊ, विस्तृत और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर हैं। संसार की सबसे ऊंची चोटियों में से कुछ इन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं में हैं। अधिक ऊंचाई के कारण आना -जाना केवल कुछ ही दर्रों से हो पाता है, जिनमें मुख्य हैं -
- चुंबी घाटी से होते हुए मुख्य भारत-तिब्बत व्यापार मार्ग पर जेलप ला और नाथू-ला दर्रे
- उत्तर-पूर्व दार्जिलिंग
- कल्पना (किन्नौर) के उत्तर - पूर्व में सतलुज घाटी में शिपकी ला दर्रा
पर्वतीय दीवार लगभग 2,400 कि.मी. की दूरी तक फैली है, जो 240 कि.मी. से 320 कि.मी. तक चौड़ी है। पूर्व में भारत तथा म्यांमार और भारत एवं बांग्लादेश के बीच में पहाड़ी श्रृंखलाओं की ऊंचाई बहुत कम है। लगभग पूर्व से पश्चिम तक फैली हुई गारो, खासी, जैंतिया और नगा पहाडियाँ उत्तर से दक्षिण तक फैली मिज़ो तथा रखाइन पहाडियों की श्रृंखला से जा मिलती हैं।
मरुस्थली क्षेत्र को दो भागों में बाँटा जा सकता है बड़ा मरुस्थल कच्छ के रण की सीमा से लुनी नदी के उत्तरी ओर आगे तक फैला हुआ है। राजस्थान सिंध की पूरी सीमा इससे होकर गुजरती है। छोटा मरुस्थल लुनी से जैसलमेर और जोधपुर के बीच उत्तरी भूभाग तक फैला हुआ बड़े और छोटे मरुस्थल के बीच का क्षेत्र बिल्कुल ही बंजर है जिसमें चूने के पत्थर की पर्वत माला द्वारा पृथक किया हुआ पथरीला भूभाग है।
पर्वत समूह और पहाड़ी श्रृंखलाएँ जिनकी ऊँचाई 460 से 1,220 मीटर है, प्रायद्वीपीय पठार को गंगा और सिंधु के मैदानी क्षेत्रों से अलग करती हैं। इनमें प्रमुख हैं अरावली, विंध्य, सतपुड़ा, मैकाला और अजन्ता। इस प्रायद्वीप की एक ओर पूर्व घाट दूसरी ओर पश्चिमी घाट है जिनकी ऊँचाई सामान्यत: 915 से 1,220 मीटर है, कुछ स्थानों में 2,440 मीटर से अधिक ऊँचाई है। पश्चिमी घाटों और अरब सागर के बीच एक संकीर्ण तटवर्ती पट्टी है जबकि पूर्व घाट और बंगाल की खाड़ी के बीच का विस्तृत तटवर्ती क्षेत्र है। पठार का दक्षिणी भाग नीलगिरी पहाड़ियों द्वारा निर्मित है जहाँ पूर्वी और पश्चिमी घाट मिलते हैं। इसके आगे इलायची की पहाडियाँ पश्चिमी घाट के विस्तारण के रुप में मानी जा सकती हैं।
भूगर्भीय संरचना
भूवैज्ञानिक क्षेत्र व्यापक रुप से भौतिक विशेषताओं का पालन करते हैं और इन्हें तीन क्षेत्रों के समूह में रखा जा सकता है:
- हिमाचल पर्वत श्रृंखला और उनके संबद्ध पर्वत समूह
- भारत-गंगा मैदान क्षेत्र
- प्रायद्वीपीय ओट
उत्तर में हिमाचलय पर्वत क्षेत्र और पूर्व में नागालुशाई पर्वत, पर्वत निर्माण गतिविधि के क्षेत्र है। इस क्षेत्र का अधिकांश भाग जो वर्तमान समय में विश्व का सार्वधिक सुंदर पर्वत दृश्य प्रस्तुत करता है, 60 करोड़ वर्ष पहले समुद्री क्षेत्र में था। 7 करोड़ वर्ष पहले शुरु हुए पर्वत-निर्माण गतिविधियों की श्रृंखला में तलछटें और आधार चट्टानें काफ़ी ऊँचाई तक पहुँच गई। आज हम जो इन पर उभार देखते हैं, उनको उत्पन्न करने में अपक्षय और अपरदक ने कार्य किया। भारत-गंगा के मैदानी क्षेत्र एक जलोढ़ भूभाग हैं जो दक्षिण के प्रायद्वीप से उत्तर में हिमाचल को अलग करते हैं।
प्रायद्वीप सापेक्ष स्थिरता और कभी-कभार भूकंपीय परेशानियों का क्षेत्र है। 380 करोड़ वर्ष पहले के प्रारंभिक काल की अत्याधिक कायांतरित चट्टानें इस क्षेत्र में पायी जाती हैं, बाक़ी क्षेत्र गोंदवाना के तटवर्ती क्षेत्र से घिरा है, दक्षिण में सीढ़ीदार रचना और छोटी तलछटें लावा के प्रवाह से निर्मित हैं।
नदियाँ
प्राचीन नाम | आधुनिक नाम |
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भारत की नदियों को चार समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है जैसे :-
- हिमाचल से निकलने वाली नदियाँ
- दक्षिण से निकलने वाली नदियाँ
- तटवर्ती नदियाँ
- अंतर्देशीय नालों से द्रोणी क्षेत्र की नदियाँ
हिमालय से निकलने वाली नदियाँ
हिमालय से निकलने वाली नदियाँ बर्फ़ और ग्लेशियरों के पिघलने से बनी हैं अत: इनमें पूरे वर्ष के दौरान निरन्तर प्रवाह बना रहता है। मॉनसून माह के दौरान हिमालय क्षेत्र में बहुत अधिक वृष्टि होती है और नदियाँ बारिश पर निर्भर हैं अत: इसके आयतन में उतार चढ़ाव होता है। इनमें से कई अस्थायी होती हैं। तटवर्ती नदियाँ, विशेषकर पश्चिमी तट पर, लंबाई में छोटी होती हैं और उनका सीमित जलग्रहण क्षेत्र होता है। इनमें से अधिकांश अस्थायी होती हैं। पश्चिमी राजस्थान के अंतर्देशीय नाला द्रोणी क्षेत्र की कुछ् नदियाँ हैं। इनमें से अधिकांश अस्थायी प्रकृति की हैं।
हिमाचल से निकलने वाली नदी की मुख्य प्रणाली सिंधु और गंगा ब्रहमपुत्र मेघना नदी की प्रणाली की तरह है।
सिंधु नदी
विश्व की महान, नदियों में एक है, तिब्बत में मानसरोवर के निकट से निकलती है और भारत से होकर बहती है और तत्पश्चात् पाकिस्तान से हो कर और अंतत: कराची के निकट अरब सागर में मिल जाती है। भारतीय क्षेत्र में बहने वाली इसकी सहायक नदियों में सतलुज (तिब्बत से निकलती है), व्यास, रावी, चिनाब, और झेलम है।
गंगा
ब्रह्मपुत्र मेघना एक अन्य महत्वपूर्ण प्रणाली है जिसका उप द्रोणी क्षेत्र भागीरथी और अलकनंदा में हैं, जो देवप्रयाग में मिलकर गंगा बन जाती है। यह उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश, बिहार और प.बंगाल से होकर बहती है। राजमहल की पहाडियों के नीचे भागीरथी नदी, जो पुराने समय में मुख्य नदी हुआ करती थी, निकलती है जबकि पद्भा पूरब की ओर बहती है और बांग्लादेश में प्रवेश करती है।
सहायक नदियाँ
यमुना, रामगंगा, घाघरा, गंडक, कोसी, महानदी, और सोन; गंगा की महत्वपूर्ण सहायक नदियाँ है। चंबल और बेतवा महत्वपूर्ण उप सहायक नदियाँ हैं जो गंगा से मिलने से पहले यमुना में मिल जाती हैं। पद्मा और ब्रह्मपुत्र बांग्लादेश में मिलती है और पद्मा अथवा गंगा के रुप में बहती रहती है।
ब्रह्मपुत्र
ब्रह्मपुत्र तिब्बत से निकलती है, जहाँ इसे सांगणो कहा जाता है और भारत में अरुणाचल प्रदेश तक प्रवेश करने तथा यह काफ़ी लंबी दूरी तय करती है, यहाँ इसे दिहांग कहा जाता है। पासी घाट के निकट देबांग और लोहित ब्रह्मपुत्र नदी से मिल जाती है और यह संयुक्त नदी पूरे असम से होकर एक संकीर्ण घाटी में बहती है। यह घुबरी के अनुप्रवाह में बांग्लादेश में प्रवेश करती है।
सहायक नदियाँ
भारत में ब्रह्मपुत्र की प्रमुख सहायक नदियाँ सुबसिरी, जिया भरेली, घनसिरी, पुथिभारी, पागलादिया और मानस हैं। बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र तिस्त आदि के प्रवाह में मिल जाती है और अंतत: गंगा में मिल जाती है। मेघना की मुख्य नदी बराक नदी मणिपुर की पहाडियों में से निकलती है। इसकी महत्वपूर्ण सहायक नदियाँ मक्कू, ट्रांग, तुईवई, जिरी, सोनई, रुक्वी, कचरवल, घालरेवरी, लांगाचिनी, महुवा और जातिंगा हैं। बराक नदी बांग्लादेश में भैरव बाजार के निकट गंगा-ब्रह्मपुत्र के मिलने तक बहती रहती है।
दक्कन क्षेत्र में अधिकांश नदी प्रणालियाँ सामान्यत पूर्व दिशा में बहती हैं और बंगाल की खाड़ी में मिल जाती हैं।
गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, आदि पूर्व की ओर बहने वाली प्रमुख नदियाँ हैं और नर्मदा, ताप्ती पश्चिम की बहने वाली प्रमुख नदियाँ है। दक्षिणी प्रायद्वीप में गोदावरी का दूसरी सबसे बड़ी नदी का द्रोणी क्षेत्र है जो भारत के क्षेत्र 10 प्रतिशत भाग है। इसके बाद कृष्णा नदी के द्रोणी क्षेत्र का स्थान है जबकि महानदी का तीसरा स्थान है। डेक्कन के ऊपरी भूभाग में नर्मदा का द्रोणी क्षेत्र है, यह अरब सागर की ओर बहती है, बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं दक्षिण में कावेरी के समान आकार की है और परन्तु इसकी विशेषताएँ और बनावट अलग है।
कई प्रकार की तटवर्ती नदियाँ हैं जो अपेक्षाकृत छोटी हैं। ऐसी नदियों में काफ़ी कम नदियाँ-पूर्वी तट के डेल्टा के निकट समुद्र में मिलती है, जबकि पश्चिम तट पर ऐसी 600 नदियाँ है।
राजस्थान में ऐसी कुछ नदियाँ है जो समुद्र में नहीं मिलती हैं। ये खारे झीलों में मिल जाती है और रेत में समाप्त हो जाती हैं जिसकी समुद्र में कोई निकासी नहीं होती है। इसके अतिरिक्त कुछ मरुस्थल की नदियाँ होती है जो कुछ दूरी तक बहती हैं और मरुस्थल में लुप्त हो जाती है। ऐसी नदियों में लुनी और मच्छ, स्पेन, सरस्वती, बानस और घग्गर जैसी अन्य नदियाँ हैं।
भारत की प्रमुख नदियों की सूची
क्रम | नदी | लम्बाई (कि.मी.) | उद्गम स्थान | सहायक नदियाँ | प्रवाह क्षेत्र (सम्बन्धित राज्य) |
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राज्यों का गठन एक झलक
क्रम | राज्य का नाम | पूर्ण राज्य के रूप में | राज्य के नाम का अर्थ, उद्भव, परिचय |
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कृषि
फ़सल/फ़सल समूह | राज्य | उत्पादन (मिलियन टन) | देश के कुल उत्पादन का प्रतिशत |
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कृषि भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों एवं प्रयासों से कृषि को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में गरिमापूर्ण दर्जा मिला है। कृषि क्षेत्रों में लगभग 64% श्रमिकों को रोजगार मिला हुआ है। 1950-51 में कुल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 59.2% था जो घटकर 1982-83 में 36.4% और 1990-91 में 34.9% तथा 2001-2002 में 25% रह गया। यह 2006-07 की अवधि के दौरान औसत आधार पर घटकर 18.5% रह गया। दसवीं योजना (2002-2007) के दौरान समग्र सकल घरेलू उत्पाद की औसत वार्षिक वृद्धि पद 7.6% थी जबकि इस दौरान कृषि तथा सम्बद्ध क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर 2.3% रही। 2001-02 से प्रारंभ हुई नव सहस्त्राब्दी के प्रथम 6 वर्षों में 3.0% की वार्षिक सामान्य औसत वृद्धि दर 2003-04 में 10% और 2005-06 में 6% की रही।
देश में राष्ट्रीय आय का लगभग 28% कृषि से प्राप्त होता है। लगभग 70% जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। देश से होने वाले निर्यातों का बड़ा हिस्सा भी कृषि से ही आता है। ग़ैर कृषि-क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में उपभोक्ता वस्तुएं एवं बहुतायत उद्योगों को कच्चा माल इसी क्षेत्र द्वारा भेजा जाता है।
भारत में पाँचवें दशक के शुरुआती वर्षों में अनाज की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 395 ग्राम थी, जो 1990-91 में बढ़कर 468 ग्राम, 1996-97 में 528.77 ग्राम, 1999-2000 में 467 ग्राम, 2000-01 में 455 ग्राम, 2001-02 में 416 ग्राम, 2002-03 में 494 ग्राम और 2003-04 में 436 ग्राम तक पहुँच गई। वर्ष 2005-06 में यह उपलब्धता प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 412 ग्राम हो गई। विश्व में सबसे अधिक क्षेत्रों में दलहनी खेती करने वाला देश भी भारत ही है। इसके बावजूद प्रति व्यक्ति दाल की दैनिक उपलब्धता संतोषजनक नहीं रही है। इसमें सामान्यत: प्रति वर्ष गिरावट दर्ज़ की गई है। वर्ष 1951 में दाल की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 60.7 ग्राम थी वही यह 1961 में 69.0 ग्राम, 1971 में 51.2 ग्राम, 1981 में 37.5 ग्राम, 1991 में 41.6 ग्राम और 2001 में 30.0 ग्राम हो गई। वर्ष 2005 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दाल की निवल उपलब्ध मात्रा 31.5 ग्राम तथा 2005-06 के दौरान 33 ग्राम प्रतिदिन प्रति व्यक्ति हो गई। भारत में ही सर्वप्रथम कपास का संकर बीज तैयार किया गया है। विभिन्न कृषि क्षेत्रों में आधुनिकतम एवं उपयुक्त प्रौद्योगिकी का विकास करने में भी भारतीय वैज्ञानिकों ने सफलता अर्जित की है।
फ़सल-चक्र विविधतापूर्ण हो गया है। हरित क्रान्ति के शुरू होने के बाद के समय में 1967-68 से 2005-06 तक कृषि उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर लगभग 2.45% रही। 1964-65 में खाद्यान्न उत्पादन 890 लाख टन से बढ़कर 1999-2000 में 2098 लाख टन, 2000-01 में 1968 लाख टन, 2001-02 में 2119 लाख टन, 2002-03 में 1748 लाख टन, 2003-04 में 2132 लाख टन, 2004-05 में 1984 लाख टन और 2005-06 में 2086 लाख टन हो गया जबकि 2006-07 के दौरान 2173 लाख खाद्यान्न उत्पांदन संभावित है। फ़सल-चक्र में परिवर्तन के परिणामस्वरूप सूरजमुखी, सोयाबीन तथा गर्मियों में होने वाली मूँगफली जैसी ग़ैर परम्परागत फ़सलों का महत्व बढ़ता जा रहा है। 1970-71 में कृषि उत्पादन सूचकांक 85.9 था। यह सूचकांक 1980-81 के सूचकांक 102.1 और 1990-91 के सूचकांक 148.4 से बढ़कर 2001-2002 में 178.8, 2002-03 में 150.4, 2003-04 में 182.8, 2004-05 में 177.3 और 2005-06 में यह सूचकांक 191.6 हो गया जबकि 2006-07 में यह सूचकांक 197.1 संभावित है। इसका मुख्य कारण चावल, गेहूँ, दाल, तिलहन, गन्ना तथा अन्य नक़दी फ़सलों की पैदावार में वृद्धि रही है।
भारत में मुख्य रूप से तीन फ़सलों बोई जाती है- यथा ख़रीफ़, रबी एवं गर्मी (ज़ायद)। ख़रीफ़ की फ़सल में मुख्य रूप से मक्का, ज्वार, बाजरा, धान, मूँगफली, सोयाबीन, अरहर आदि हैं। रबी की मुख्य फ़सलों में गेहूँ, जौ, चना, मटर, सरसों, तोरिया आदि है। गर्मी की फ़सलों में मुख्य रूप से सब्ज़ियाँ ही बोई जाती है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 3287.3 लाख हेक्टेयर का 93.1% खेती के प्रयोग में लिया जाता है।
कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें उत्पादन के बहुत से कारक हैं जिन पर कृषक या वैज्ञानिकों का कोई वश नहीं चलता हे। इस तरह के कारकों में जलवायु सबसे महत्वपूर्ण कारक है। विभिन्न स्थानों पर सामान्य मौसम-चक्र के अतिरिक्त भी कब मौसम कैसा हो जाएगा कोई पता नहीं। इसके अलावा फ़सलें जलवायु के अनुसार बदली जाती हैं न कि फ़सल के अनुसार जलवायु को। अतएव किसी स्थान पर कौन सी फसल के अनुसार जलवायु को। अतएव किसी स्थान पर कौन सी फ़सल बोई जाय यह वहाँ की जलवायु, मृदा, ऊँचाई, वर्षा आदि पर निर्भर करती हे।
भारतीय कृषि की विशेषताएँ
भारतीय कृषि की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं-
- भारतीय कृषि की महत्वपूर्ण विशेषता जोत इकाइयों की अधिकता एवं उनके आकार का कम होना है।
- भारतीय कृषि में जोत के अन्तर्गत कुल क्षेत्रफल खण्डों में विभक्त है तथा सभी खण्ड दूरी पर स्थित हैं।
- भूमि पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से जनसंख्या का अधिक भार है।
- कृषि उत्पादन मुख्यतया प्रकृति पर निर्भर रहता है।
- भारतीय कृषक गरीबी के कारण खेती में पूँजी निवेश कम करता है।
- खाद्यान्न उत्पादन को प्राथमिकता दी जाती है।
- कृषि जीविकोपार्जन की साधन मानी जाती हें
- भारतीय कृषि में अधिकांश कृषि कार्य पशुओं पर निर्भर करता है।
- भारत की प्रचलित भूमिकिर प्रणाली भी दोषयुक्त है।
भूमि उपयोग- भारत में भूमि उपयोग में विविधता देखने को मिलती है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 3287.3 लाख हेक्टेयर में से 1950-51 में 404.8 लाख हेक्टेयर भूमि पर वन थे। 1998-99 में यह क्षेत्र बढ़कर 689.7 लाख हेक्टेयर और 2000-01 में 694-07 लाख हेक्टेयर हो गया। इसी अवधि में बुआई वाली भूमि 1,187.5 लाख हेक्टेयर से बढ़कर क्रमश: 1,426 लाख हेक्टेयर और 1,411.01 लाख हेक्टेयर हो गई। फ़सलों के प्रकार की दृष्टि से अगर देखा जाये तो कृषि वाले कुल क्षेत्रों में गैर-खाद्यान्न की अपेक्षा खाद्यान्न की कृषि अधिक होती रही है, किन्तु खाद्यान्न की कृषि जो 1950-51 में 76.7% भूमि पर हो रही थी, वह 1998-99 के दौरान घटकर 65.6% रह गई। कृषि गणना के अनुसार बड़ी जोत (10 हेक्टेयर और इससे अधिक) के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र 1985-86 में 20.1% की अपेक्षा 1990-91 में घटकर 17.3% रह गया है। इसी प्रकार सीमांत जोत (1 हेक्टेयर से कम की जोत) के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र 1985-86 में 13.4% से बढ़कर 1990-91 में 15% हो गया है।
भारतीय कृषि के प्रकार
भारतीय कृषि अनेक विविधताओं के युक्त है। जलवायविक भिन्नता, मिट्टी की उर्वरता, परिवर्तनशील मौसम, खेती करने के ढंग आदि से भारतीय कृषि प्रभावित है। उत्पादन की मात्रा तथा कृषि ढंग के आधार पर भारत की कृषि को शुद्ध और संकर कृषि के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। शुद्ध कृषि मूलत: परंपरागत प्रकार की कृषि है जिसके द्वारा कृषकों की केवल मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाती है।
सस्य विज्ञान
सस्य विज्ञान (Agronomy) कृषि की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत फसल उत्पादन तथा भूमि प्रबन्ध के सिद्धान्तों और कृषि क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। फसलों का महत्व- पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीव-जन्तुओं की जीवन परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से वनस्पतियों पर निर्भर करता है। वनस्पति से जीव-जन्तुओं को भोजन तथा आक्सीजन के अलावा जनसंख्या हेतु वस्त्र, आवास एवं दवाओं आदि की पूर्ति भी की जाती है।
फ़सलों का वर्गीकरण
- जीवन चक्र के अनुसार वर्गीकरण
- एक वर्षी- ये फ़सलें अपना जीवन चक्र एक वर्ष अथवा इससे कम समय में पूरा करती है, जैसे – धान, गेहूँ, जौ, चना, सोयाबीन आदि।
- द्विवर्षी- ऐसे पौधों में पहले वर्ष वानस्पतिक वृद्धि होती है और दूसरे वर्ष उनमें फूल तथा बीज बनते हैं। यानी वे अपना जीवन चक्र दो वर्षों में पूरा करते हैं। यथा चुकन्दर, गन्ना आदि।
- बहुवर्षी- ऐसे पौधे अनेक वर्षों तक जीवित रहते हैं। परन्तु इनके जीवन चक्र में प्रतिवर्ष या एक वर्ष के अन्तराल पर फूल और फल आते हैं और जीवन चक्र पूरा हो जाता है। जैसे- लूसर्न, नेपियर घास।
- ऋतुओं के आधार पर वर्गीकरण
- ख़रीफ़- इन फसलों को बोते समय अधिक तापमान एवं आर्द्रता तथा पकते समय शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है। उत्तर भारत में इनको जून-जुलाई में बोते हैं। धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, मूँग, मूँगफली, गन्ना आदि इस ऋतु की प्रमुख फ़सलें हैं। ख़रीफ़ की फ़सलें C3 श्रेणी में आती हैं। इस श्रेणी के पौधे में जल उपयोग क्षमता और प्रकाश संश्लेषण पर दोनों ही अधिक होती है जबकि प्रकाश-श्वसन दर कम होती है।
- रबी- इन फ़सलों को बोआई के सयम कम तापमान तथा पकते समय शुष्क और गर्म वातावरण की आवश्यकता होती है। ये फ़सलें सामान्यत: अक्टूबर-नवम्बर के महीनों में बोई जाती हैं। गेहूँ, जौ, चना, मसूर, सरसों, बरसीम आदि इस वर्ग की प्रमुख फसलें हैं। रबी फसलें, C4 श्रेणी में आती हैं। इस श्रेणी के पौधे की विशेषता है कि इनमें जल उपयोग क्षमता एवं प्रकाश-संश्लेषण दर दोनों ही कम होती है। इस प्रकार, इन पौधों में दिन के प्रकाश में भी श्वसन एवं प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया संपन्न होती है।
- ज़ायद- इस वर्ग की फ़सलों में तेज गर्मी और शुष्क हवाएं सहन करने की अच्छी क्षमता होती है। उत्तर भारत में ये फसलें मुख्यत: मार्च-अप्रैल में बोई जाती हैं। तरबूज, ककड़ी, खीरा आदि इस वर्ग की प्रमुख फ़सलें हैं।
खनिज संपदा
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में खनिजों के उत्पादन में निरन्तर वृद्धि हुई है। कोयला, लौह, अयस्क, बॉक्साइड आदि का उत्पादन निरंतर बढ़ा है। 1951 में सिर्फ 83 करोड़ रुपये के खनिजों का खनन हुआ था, परन्तु 1970-71 में इनकी मात्रा बढ़कर 490 करोड़ रुपये हो गई। अगले 20 वर्षों में खनिजों के उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। 2001-02 में निकाले गये खनिजों का कुल मूल्य 58,516.36 करोड़ रुपये तक पहुँच गया जबकि 2005-06 के दौरान कुल 75,121.61 करोड़ रुपये मूल्य के खनिजों का उत्पादन किया गया। यदि मात्रा की दृष्टि से देखा जाये, तो भारत में खनिजों की मात्रा में लगभग तिगुनी वृद्धि हुई है, उसका 50% भाग सिर्फ पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के कारण तथा 40% कोयला के कारण हुआ है। अन्य शब्दों में 2005-06 में कुल खनिज मूल्य (75,121.61 करोड़ रु) में से पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस से 26,851.31 करोड़ रुपये तथा कोयला और लिग्नाइट से 29,560.75 करोड़ रुपये के मूल्य शामिल हैं। शेष 11,575.35 करोड़ रुपये मूल्य के अन्य धात्विक तथा अधात्विक खनिज थे।
खनिज | अनुमानित भण्डार | प्राप्ति के क्षेत्र | विशेष बिन्दु |
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ऊर्जा और ईंधन
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परमाणु ऊर्जा
भारत का परमाणु ऊर्जा विभाग तीन चरणों में नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम चला रहा है-
- पहले चरण में दाबित गुरुजल रिएक्टरों (पी एच डब्ल्यू आर) और उनसे जुड़े ईंधन-चक्र के लिए विधा को स्थापित किया जाना है। ऐसे रिएक्टरों में प्राकृतिक यूरेनियम को ईंधन के रुप में गुरुजल को मॉडरेटर एवं कूलेंट के रुप में प्रयोग किया जाता है।
- दूसरे चरण में फास्ट ब्रीडर रिएक्टर बनाने का प्रावधान है, जिनके साथ पुनः प्रसंस्करण संयंत्र और प्लूटोनियम-आधारित ईंधन संविचरण संयंत्र भी होंगे। प्लूटोनियम को यूरेनियम 238 के विखंडन से प्राप्त किया जाता है।
- तीसरा चरण थोरियम-यूरेनियम-233 चक्र पर आधारित है। यूरेनियम-233 को थोरियम के विकिरण से हासिल किया जाता है।
पहला चरण
नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम के प्रथम चरण का उपयोग व्यावसायिक क्षेत्रों में हो रहा है। भारतीय नाभिकीय ऊर्जा निगम लिमिटेड (एन.पी.सी.आई.एल.) परमाणु ऊर्जा विभाग की सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई है जिस पर नाभिकीय रिएक्टरों के डिजाइन, निर्माण और संचालन का दायित्व है। कम्पनी 17 रिएक्टर्स (दो उबलते जल वाले रिएक्टर और 15 दाबित गुरुजल रिएक्टर) का संचालन करती है जिनकी कुल क्षमता 4120 मेगावॉट है। एनपीसीआईएल 03 पीएचडब्ल्यू रिएक्टर्स का तथा दो हल्के जल रिएक्टर्स का निर्माण का रही है जिससे इसकी क्षमता वर्ष 2008 तक बढ़ का 6780 मेगा इलेक्ट्रिक वॉट हो जाएगी।
द्वितीय चरण
फास्ट ब्रीडर कार्यक्रम तकनीकी प्रदर्शन के चरण में है। दूसरे चरण का अनुभव प्राप्त करने के लिए इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान केन्द्र (आई. जी. सी. ए. आर.) तरल सोडियम द्वारा ठंडे किए जा रहे फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों के डिजाइन और विकास में लगा है। इसने फास्ट ब्रीडर रिएक्टर प्रौद्योगिकी विकसित करने में सफलता हासिल कर ली है। इसके 500 मेगावाट क्षमता के प्रोटोटाइप फास्ट ब्रीडर रिएक्टर (पी.एफ.बी.आर.) का निर्माण कलपक्कम में शुरू कर दिया गया है। इन परियोजनाओं को लागू करने के लिए नई कंपनी भारतीय नाभिकीय विद्युत निगम (बीएचएबीआरएनआई) ‘भाविनी’ द्वारा वर्ष 2010-11 तक दक्षिणी ग्रिड को 500 मेगा इलेक्ट्रिक वाट विद्युत की आपूर्ति की जा सकेगी।
तृतीय चरण
नाभिकीय उर्जा कार्यक्रम का तीसरा चरण तकनीकी विकास के चरण में है। बार्क में 300 मेगावाट के उन्नत गुरुजल रिएक्टर (ए.एच.डब्लू.आर.) का विकास कार्य चल रहा है ताकि थोरियम इस्तेमाल में विशेषज्ञता हासिल हो सके और सुरक्षा के पुख्ता तरीकों का प्रदर्शन हो जाए। थोरियम आधारित प्रणालियों जैसे एएचडब्ल्यूआर को व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए तभी स्थापित किया जा सकता है जबकि फास्ट ब्रीडर रिएक्टर के आधार पर उच्च क्षमता का निर्माण कर लिया जाए।
रक्षा
भारत में प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम का विकास इस प्रकार हुआ-
- 1967 में भारत ने अंतरिक्ष शोध और उपग्रह प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम प्रारम्भ किया और वर्ष 1972 तक रॉकेट रोहिणी-560 का परीक्षण कर लिया गया। रोहिणी-560 की मारक क्षमता लगभग 100 किलो भार के साथ 334 किलोमीटर दूर तक थी।
- 1979 में भारत ने पहली बार उपग्रह प्रक्षेपण यान 'एसएलवी-3' अंतरिक्ष बूस्टर का प्रक्षेपण किया।
- 1980 में 35 किलो भार वाले रोहिणी-1 उपग्रह का सफल प्रक्षेपण किया गया।
- 1983 में भारत के 'रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान' (डी आर डी ओ) ने एकीकृत प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम की घोषणा की जिसमें पाँच प्रक्षेपास्त्र विकसित किए जाने थे-
- पृथ्वी जो सतह से सतह पर मार करने वाला प्रक्षेपास्त्र है (तरल ईंधन वाला बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र)।
- पृथ्वी-1 जिसकी मारक क्षमता डेढ़ सौ किलोमीटर, एक हज़ार किलोग्राम की क्षमता है। यह सेना के लिए है।
- पृथ्वी-2 जिसकी मारक क्षमता ढाई सौ किलोमीटर, पाँच सौ किलोग्राम की क्षमता है। यह वायु सेना के लिए है।
- पृथ्वी-3 जिसकी मारक क्षमता साढ़े तीन सौ किलोमीटर, पाँच सौ किलोग्राम की क्षमता है। यह नौसेना के लिए है।
- अग्नि जो सतह से सतह पर मार करने वाला प्रक्षेपास्त्र है और जिसकी क्षमता डेढ़ हज़ार किलोमीटर है। यह एक हज़ार किलोग्राम भार वाला अस्त्र ले जा सकता है। इस प्रक्षेपास्त्र का पहला चरण एसएलवी-3 के ठोस ईंधन वाले मोटर का और दूसरा चरण तरल ईंधन वाले पृथ्वी का प्रयोग करता है।
- आकाश जो सतह से सतह पर मार करने वाला लंबी दूरी का प्रक्षेपास्त्र है। यह 55 किलोग्राम वजन का अस्त्र ले जा सकता है और अधिकतम 25 किलोमीटर की दूरी तक यह एक साथ पाँच विमानों को निशाना बना सकता है।
- त्रिशूल जो सतह से सतह पर या सतह से हवा में मार करने वाला कम दूरी का प्रक्षेपास्त्र है। इसकी मारक दूरी 50 किलोमीटर है और यह रडार के निर्देशों से कार्य करता है।
- नाग जो टैंक रोधी प्रक्षेपास्त्र है। यह लगभग चार किलोमीटर की क्षमता वाला प्रक्षेपास्त्र है और निर्देशों के लिए संवेदी प्रौद्योगिकी पर बना है।
- 1987 में भारत ने आधुनिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (ए एस एल वी) का परीक्षण प्रारम्भ किया। चार हज़ार किलोमीटर की क्षमता वाले इस प्रक्षेपण की क्षमता डेढ़ सौ किलोग्राम है। इसमें तीन उपग्रह प्रक्षेपण यान रहते हैं।
- 1988 में भारत ने 'पृथ्वी' की परीक्षण उड़ान का परीक्षण किया। भारत ने ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पी एस एल वी) के निर्माण की घोषणा की जिसकी क्षमता लगभग आठ हज़ार किलोमीटर थी। एक हज़ार किलो वजन की क्षमता के इस यान से एक टन का उपग्रह ध्रुवीय कक्षा में स्थापित किया सकता था। यदि इस यान को हथियार प्रणाली की भाँति किया जाए तो यह परमाणु अस्त्र को एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक ले जाने में सक्षम है।
- 1989 में भारत ने अग्नि का परीक्षण किया और नवंबर में नाग का परीक्षण किया।
- 1994 के मध्य तक पृथ्वी-1 का प्रारम्भिक उत्पादन प्रारम्भ हो गया था। भारतीय सेना ने 100 पृथ्वी-1 प्रक्षेपास्त्र लेने का आदेश दिया जिसे उसकी 333 प्रक्षेपास्त्र ग्रुप के साथ तैनात किया जाना था।
- 1996 में भारत ने कहा कि वह 'भू-समकालिक उपग्रह प्रक्षेपण यान' विकसित कर रहा है। भारत की योजना जनवरी माह में रूस की जी एस एल वी के लिए सात क्रायोजेनिक इंजन देने की योजना थी।
- 1998 में भारत में 'भारतीय जनता पार्टी' ने 'पृथ्वी प्रक्षेपास्त्रों' का उत्पादन अधिक करने की योजना के साथ ही मध्यम दूरी के 'अग्नि प्रक्षेपास्त्र' विकसित करने का भी फ़ैसला लिया।
- क्लिंटन प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी ने अमेरीका में कहा कि भारत के पास 'सागरिका' नाम का समुद्र से जुड़ा प्रक्षेपास्त्र है। सागरिका की क्षमता 200 मील की है और वह परमाणु अस्त्र ले जाने में सक्षम है।
- 11मई भारत ने त्रिशूल का सफल परीक्षण किया है। यह सतह से सतह और सतह से हवा में मारने वाला प्रक्षेपास्त्र है।
अंतरिक्ष कार्यक्रम
विकासशील अर्थव्यवस्था और उससे जुड़ी समस्याओं से घिरे होने के बावज़ूद भारत ने अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी को प्रभावी ढंग से विकसित किया है और उसे अपने तीव्र विकास के लिए इस्तेमाल भी किया है तथा आज विश्व के अन्य देशों को विभिन्न अंतरिक्ष सेवाएं उपलब्ध करा रहा है। 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में अंतरिक्ष अनुसंधान की शुरूआत भारत में मुख्यत: साउंडिंग रॉकेटों की मदद से हुई। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की स्थापना 1969 में की गई। भारत सरकार द्वारा 1972 में 'अंतरिक्ष आयोग' और 'अंतरिक्ष विभाग' के गठन से अंतरिक्ष शोध गतिविधियों को अतिरिक्त गति प्राप्त हुई। 'इसरो' को अंतरिक्ष विभाग के नियंत्रण में रखा गया। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के इतिहास में 70 का दशक प्रयोगात्मक युग था जिस दौरान 'आर्यभट्ट', 'भास्कर', 'रोहिणी' तथा 'एप्पल' जैसे प्रयोगात्मक उपग्रह कार्यक्रम चलाए गए। इन कार्यक्रमों की सफलता के बाद 80 का दशक संचालनात्मक युग बना जबकि 'इन्सेट' तथा 'आईआरएस' जैसे उपग्रह कार्यक्रम शुरू हुए। आज इन्सेट तथा आईआरएस इसरो के प्रमुख कार्यक्रम हैं। अंतरिक्ष यान के स्वदेश में ही प्रक्षेपण के लिए भारत का मजबूत प्रक्षेपण यान कार्यक्रम है। यह अब इतना परिपक्व हो गया है कि प्रक्षेपण की सेवाएं अन्य देशों को भी उपलब्ध कराता है। इसरो की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स, भारतीय अंतरिक्ष सेवाओं का विपणन विश्व भर में करती है। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की खास विशेषता अंतरिक्ष में जाने वाले अन्य देशों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और विकासशील देशों के साथ प्रभावी सहयोग है।
- वर्ष 2005-06 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की सबसे प्रमुख उपलब्धि 'पीएसएलवीसी 6' का सफल प्रक्षेपण रही है।
- 5 मई, 2005 को 'पोलर उपग्रह प्रक्षेपण यान' (पीएसएलवी-एफसी 6) की नौवीं उड़ान ने श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र (एसडीएससी) से सफलतापूर्वक दो उपग्रहों - 1560 कि.ग्रा. के कार्टोस्टार-1 तथा 42 कि.ग्रा. के हेमसेट को पूर्व-निर्धारित पोलर सन सिन्क्रोनन आर्बिट (एसएसओ) में पहुंचाया। लगातार सातवीं प्रक्षेपण सफलता के बाद पीएसएलवी-सी 6 की सफलता ने पीएसएलवी की विश्वसनीयता को आगे बढ़ाया तथा 600 कि.मी. ऊंचे पोलर एसएसओ में 1600 कि.ग्रा. भार तक के नीतभार को रखने की क्षमता को दर्शाया है।
- 22 दिसंबर 2005 को इन्सेट-4ए का सफल प्रक्षेपण, जो कि भारत द्वारा अब तक बनाए गए सभी उपग्रहों में सबसे भारी तथा शक्तिशाली है, वर्ष 2005-06 की अन्य बड़ी उपलब्धि थी।
- इन्सेट-4ए डाररेक्ट-टू-होम (डीटीएच) टेलीविजन प्रसारण सेवाएं प्रदान करने में सक्षम है।
- इसके अतिरिक्त, नौ ग्रामीण संसाधन केंद्रों (वीआरसीज) के दूसरे समूह की स्थापना करना अंतरिक्ष विभाग की वर्ष के दौरान महत्वपूर्ण मौजूदा पहल है। वीआरसी की धारणा ग्रामीण समुदायों की बदलती तथा महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अंतरिक्ष व्यवस्थाओं तथा अन्य आईटी औजारों से निकलने वाली विभिन्न प्रकार की जानकारी प्रदान करने के लिए संचार साधनों तथा भूमि अवलोकन उपग्रहों की क्षमताओं को संघटित करती है।
पशु पक्षी जगत
क्रम | राष्ट्रीय उद्यान एव अभयारण्य | प्रदेश | प्राप्य वन जीव |
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वन्य जीवन प्रकृति की अमूल्य देन है । भविष्य में वन्य प्राणियों की समाप्ति की आशंका के कारण भारत में सर्वप्रथम 7 जुलाई, 1955 को वन्य प्राणी दिवस मनाया गया । यह भी निर्णय लिया गया कि प्रत्येक वर्ष दो अक्तूबर से पूरे सप्ताह तक वन्य प्राणी सप्ताह मनाया जाएगा। वर्ष 1956 से वन्य प्राणी सप्ताह मनाया जा रहा है । भारत के संरक्षण कार्यक्रम की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक मजबूत संस्थागत ढांचे की रचना की गयी है । जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, बोटेनिकल सर्वे आफ इण्डिया जैसी प्रमुख संस्थाओं तथा भारतीय वन्य जीवन संस्थान, भारतीय वन्य अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वन अकादमी तथा सलीम अली स्कूल ऑफ आरिन्थोलॉजी जैसे संस्थान वन्य जीवन संबंधी शिक्षा और अनुसंधान कार्य में लगे हैं । भारत कई प्रकार के जंगलों जीवों का, अनेक पेड़ पौधों और पशु-पक्षियों का घर है। शानदार हाथी, मोर का नाच, ऊँट की सैर, शेरों के पहाड़ सभी एक अनोखे अनुभव है। यहाँ के पशु पक्षियों को अपने प्राकृतिक निवासस्थान में देखना आनन्दायक है। भारत में जंगली जीवों को देखने पर्यटक आते हैं। यहाँ जंगली जीवों की बहुत बड़ी संख्या है। भारत में 70 से अधिक राष्ट्रीय उद्यान और 400 जंगली जीवों के अभ्यारण्य है और पक्षी अभ्यारण्य भी हैं।
प्रकृति प्रेमियों के लिए यह जंगल स्वर्ग है परन्तु अब यहाँ के कुछ जीव जैसे चीते, शेर, हाथी, बंगाल के शेर और साइबेरियन सारस अब खतरे में है। भारत की लम्बाई और चौडाई में फैला यह जंगल क्षेत्र, रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान, राजस्थान से हज़ारी बाघ जंगली जीव अभ्यारण्य, बिहार से, हिमालय के जिम कोर्बेट राष्ट्रीय उद्यान, अन्डमान के छह राष्ट्रीय उद्यानों तक एक शानदार जंगल की सैर कर सकते है। हाथी, चीते, जंगली भैंस, हिरन, जंगली गधे एक सींध वाला गेंड़ा, साही, हिम चीते आदि जन्तु हिमालय में दिखने को मिलते है।
भारत में, विश्व के अस्सी, प्रतिशत एक सींग वाले गेंड़ों का निवास है। काज़ीरंगा खेल अभ्यारण्य गेंड़ों के लिए उपयुक्त निवास है और प्राकृतिक संस्थाओं के लिए और जंगली सैर करने वाले के लिए भी अच्छी जगह है। भारत के सोन चिड़िया और ब्लैक बक, करेश अभ्यारण्य में होते है। माधव राष्ट्रीय उद्यान में, जो शिवपुरी राष्ट्रीय उद्यान कहलाता था,जीवों का एक निवास है। कोर्बोट राष्ट्रीय उद्यान सबसे प्रसिद्ध है्। उत्तर भारत में जंगली जानवरों के पर्यटकों के लिए अच्छी जगह है। ऐसे अभ्यारण्य और राष्ट्रीय उद्यान, पर्यटन को भारत में काफ़ी संख्या में हैं। भारत में शेरों की संख्या बहुत है। भारत का राष्ट्रीय पशु, शेर, तेजी और ताकत का चिन्ह है। भारत में बारह शेर निवास है। शाही बंगाल के शेर, सबसे शानदार जाति के पशुओं में से है। विश्व के साठ प्रतिशत शेरों की संख्या भारत में है। मध्य प्रदेश, शेरों के निवास की सबसे प्रसिद्ध जगह है। यहाँ बंगाल के शेर, चीतल, चीते, गौर, साम्भर और कई जीव देखने को मिलते है।
अभयारण्य | राज्य |
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भारत में जंगली जीवों के साथ-साथ, पक्षियों की भी संख्या अच्छी है। कई सौ जातियों के पक्षी भारत में मिलते है। घना राष्ट्रीय उद्यान या भरतपुर पक्षी अभ्यारण्य जो राजस्थान में है, यहाँ पर घरेलू पक्षी और जमीन पर जीने वाले पक्षी भी है। पर्यटक कई देशों से आते है। दुधवा जंगली जीव अभ्यारण में बंदर, गिद्ध और चील पक्षी भी है। अंडमान के निकोबर में कबूतर पाये जाते हैं।
भारत का वन्य जीवन
- संसार में पौधों की 2,50,000 ज्ञात प्रजातियों में से 15,000 प्रजातियां भारत में मिलती हैं।
- इस प्रकार संसार में जीव-जन्तुओं की कुल 15 लाख प्रजातियों में से 75,000 प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं।
- भारत में पक्षियों की 1,200 प्रजातियां और 900 उप-प्रजातियां पाई जाती हैं।
- भारत के सुविख्यात पक्षियों में बहुरंगी राष्ट्रीय पक्षी मोर उल्लेखनीय है।
- पांच फुट की ऊंचाई वाला भव्य सारस तथा संसार का दूसरा सबसे भारी पक्षी हुकना (सोहनचिड़िया) महत्त्वपूर्ण पक्षी हैं।
- संसार में प्रसिद्ध केवलादेव (भरतपुर) के राष्ट्रीय उद्यान में ढाई लाख पक्षियों का घर है।
भारतीय भाषा परिवार
भारत की मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ विभिन्नता में एकता है। भारत में विभिन्नता का स्वरूप न केवल भौगोलिक है, बल्कि भाषायी तथा सांस्कृतिक भी है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1652 मातृभाषायें प्रचलन में हैं, जबकि संविधान द्वारा 22 भाषाओं को राजभाषा की मान्यता प्रदान की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 344 के अंतर्गत पहले केवल 15 भाषाओं को राजभाषा की मान्यता दी गयी थी, लेकिन 21वें संविधान संशोधन के द्वारा सिन्धी को तथा 71वाँ संविधान संशोधन द्वारा नेपाली, कोंकणी तथा मणिपुरी को भी राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया। बाद में 92वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के द्वारा संविधान की आठवीं अनुसूची में चार नई भाषाओं बोडो, डोगरी, मैथिली तथा संथाली को राजभाषा में शामिल कर लिया गया। इस प्रकार अब संविधान में 22 भाषाओं को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया है। भारत में इन 22 भाषाओं को बोलने वाले लोगों की कुल संख्या लगभग 90% है। इन 22 भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी भी सहायक राजभाषा है और यह मिजोरम, नागालैण्ड तथा मेघालय की राजभाषा भी है। कुल मिलाकर भारत में 58 भाषाओं में स्कूलों में पढ़ायी की जाती है। संविधान की आठवीं अनुसूची में उन भाषाओं का उल्लेख किया गया है, जिन्हें राजभाषा की संज्ञा दी गई है।
भाषा-परिवार | भारत में बोलने वालों का % |
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भारोपीय | 73% |
द्रविड़ | 25% |
आस्ट्रिक | 1.3% |
चीनी–तिब्बती | 0.7% |
नाम | प्रयोग काल | उदाहरण |
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1.प्राचीन भारतीय आर्यभाषा | 1500 ई. पू.– 500 ई. पू. | वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत |
2.मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा | 500 ई. पू.– 1000 ई. | पालि, प्राकृत, अपभ्रंश |
3.आधुनिक भारतीय आर्यभाषा | 1000 ई.– अब तक | हिन्दी और हिन्दीतर भाषाएँ – बांग्ला, उड़िया, मराठी, सिंधी, असमिया, गुजराती, पंजाबी आदि। |
नाम | प्रयोग काल | अन्य नाम |
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वैदिक संस्कृत | 1500 ई. पू.– 1000 ई. पू. | छान्दस् (यास्क, पाणिनि) |
लौकिक संस्कृत | 1000 ई. पू.- 500 ई. पू. | संस्कृत भाषा (पाणिनि) |
नाम | प्रयोग काल | विशेष टिप्पणी |
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प्रथम प्राकृत काल– पालि | 500 ई. पू.– 1 ई. | भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पालि में ही हैं। |
द्वितीय प्राकृत काल– प्राकृत | 1 ई.– 500 ई. | भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही हैं। |
तृतीय प्राकृत काल– अपभ्रंश अवहट्ट | 500 ई.– 1000 ई.
900 ई. – 1100 ई. |
संक्रमणकालीन/संक्रान्तिकालीन भाषा |
नाम | प्रयोग काल |
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प्राचीन हिन्दी | 1100 ई. – 1400 ई. |
मध्यकालीन हिन्दी | 1400 ई. - 1850 ई. |
आधुनिक हिन्दी | 1850 ई. – अब तक |
भारतीय भाषा सूची
भाषा | लिपि | क्षेत्र | प्रयोगकर्ता जनसंख्या |
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राष्ट्रीय चिन्ह और प्रतीक
पर्यटन
भारतवासी अपनी दीर्घकालीन, अनवरत एवं सतरंगी उपलब्धियों से युक्त इतिहास पर गर्व कर सकते हैं। प्राचीन काल से ही भारत एक अत्यन्त ही विविधता सम्पन्न देश रहा है और यह विशेषता आज भी समय की घड़ी पर अंकित है। यहाँ प्रारम्भ से अनेक अध्यावसायों का अनुसरण होता रहा है, पृथक्-पृथक् मान्यताएँ हैं, लोगों के रिवाज़ और दृष्टिकोणों के विभिन्न रंगों से सजा यह देश अतीत को भूत, वर्तमान एवं भविष्य की आँखों से देखने के लिए आह्वान कर रहा है। किन्तु बहुरंगी सभ्यता एवं संस्कृति वाले देश के सभी आयामों को समझने का प्रयास इतना आसान नहीं है।
ऐतिहासिक स्थल
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में इतने अधिक विचार एवं दृष्टिकोण केवल इसीलिए फल-फूल पाएँ हैं कि यहाँ वैचारिक विविधता और वाद-संवाद को प्रायः सर्व- सहमति प्राप्त रही है। भारत की विविधता हमें स्थलों के अनुशीलन में भी दिखाई देती है। ऐतिहासिक स्थलों के अध्ययन तथा विवेचन में भारतीय संस्कृति का स्वरूप स्वयं प्रकाशित होता है। इससे इतिहास के बिखरे सूत्रों की प्रभावी रूप से तलाश संभव है। यह भी उल्लेखनीय है कि नगर एवं नगर-जीवन के विकास का विविरण सभ्यता के विकास का प्रधान सूत्र है। राजनीतिक और आर्थिक प्रगति तथा शिल्प, कला एवं विद्या का बहुमुखी विकास के साथ ही सम्पन्न हुआ है।
प्राचीन धार्मिक स्थल
प्राचीन काल से ही भव्य देवालयों और धर्म स्थलों से भरपूर भारत स्थापत्य कला के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
धार्मिक स्थल
अनेक धर्म और परंपराओं से सजा भारत अपने भीतर हज़ारों धार्मिक स्थल बसाए हुए है। जो पूरे भारत में देशी और विदेशी पर्यटकों और श्रद्धालुओं का मुख्य आकर्षण हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑
सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पंथा विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र सत्सत्यस्य परमं निधानम्॥ - ↑ 2.0 2.1 India : Census 2011
- ↑ Population Density per Square Mile of Countries
- ↑ 4.0 4.1 4.2 4.3 Report for Selected Countries and Subjects (अंग्रेज़ी) (ए.एस.पी) International Monetory Fund। अभिगमन तिथि: 15 मई, 2012।
- ↑ सितम्बर 2006-2011 की स्थिति के अनुसार
- ↑ प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता लेखक- दामोदर धर्मानंद कोसंबी
- ↑ इतिहास कारों के अनुसार यह प्राचीन भरतों का क़बीला भरत है जो उत्तर-पश्चिम में था भरत वंशी भी इन्हें ही माना जाता है
- ↑ 1975 ई॰ में पुर्तग़ाली शासन ने वास्तविकता को समझकर इसको वैधानिक मान्यता दे दी है।
- ↑ प्रत्येक 170 किग्रा वजन वाली मिलियन गांठे
- ↑ प्रत्येक 180 किग्रा वजन वाली मिलियन गांठे
- ↑ सम्पूर्ण विश्व का लगभग 25% विद्यमान है।
- ↑ (कोल्लार स्वर्ण क्षेत्र तथा अनन्तपुर ज़िले से बहुत कम मात्रा में सोना निकाला जाता है)
- ↑ लगभग 383 करोड़ टन
- ↑ (लाख टन)
- ↑ खदानों की संख्या
- ↑ 16.0 16.1 16.2 देश के कुल भंडार का प्रतिशत सन्दर्भ त्रुटि:
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अमान्य टैग है; "प्रतिशत" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है - ↑ 2000-01 (लाख टन)
- ↑ (क्यूबिक मीटर)