"ब्राह्मण": अवतरणों में अंतर
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'''ब्राह्मण''' [[भारत]] में [[आर्य|आर्यों]] की समाज व्यवस्था अर्थात [[वर्ण व्यवस्था]] का सबसे ऊपर का वर्ण है। भारत के सामाजिक बदलाव के [[इतिहास]] में जब भारतीय समाज को [[हिन्दू]] के रूप में संबोधित किया जाने लगा, तब ब्राह्मण वर्ण, जाति में भी परिवर्तित हो गया। ब्राह्मण वर्ण अब हिन्दू समाज की एक जाति भी है। ब्राह्मण को 'विप्र', 'द्विज', 'द्विजोत्तम' या 'भूसुर' भी कहा जाता है। | |||
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ब्रह्म = [[वेद]] का पाठक अथवा ब्रह्म = परमात्मा का ज्ञाता। [[ऋग्वेद]] की अपेक्षा अन्य [[संहिता|संहिताओं]] में यह साधारण प्रयोग का शब्द हो गया था, जिसका अर्थ [[पुरोहित]] है। ऋग्वेद के 'पुरुषसूक्त' (10.90) में वर्णों के चार विभाजन के सन्दर्भ में इसका जाति के अर्थ में प्रयोग हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में यह वर्ण [[क्षत्रिय|क्षत्रियों]] से ऊँचा माना गया है। [[राजसूय यज्ञ]] में ब्राह्मण क्षत्रिय को कर देता था, किन्तु इससे [[शतपथ ब्राह्मण]] में वर्णित ब्राह्मण की श्रेष्ठता न्यून नहीं होती। इस बात को बार-बार कहा गया है कि क्षत्रिय तथा ब्राह्मण की एकता से ही सर्वागींण उन्नति हो सकती है। यह स्वीकार किया गया है कि कतिपय राजन्य एवं धनसम्पन्न लोग ब्राह्मण को यदि कदाचित दबाने में समर्थ हुए हैं, तो उनका सर्वनाश भी शीघ्र ही घटित हुआ है। ब्राह्मण [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] के [[देवता]] ('भूसुर') कहे गये है, जैसे कि स्वर्ग के देवता होते हैं। [[ऐतरेय ब्राह्मण]] में ब्राह्मण को दान लेने वाला (आदायी) तथा [[सोम रस|सोम]] पीने वाला (आपायी) कहा गया है। उसके दो अन्य विरूद 'आवसायी' तथा 'यथाकाम-प्रयाप्य' का अर्थ अस्पष्ट है। पहले का अर्थ सब स्थानों में रहने वाला तथा दूसरे का आनन्द से घूमने वाला हो सकता है।<ref>ऐतरेय ब्राह्मण 7.29,2</ref> | |||
==अधिकार तथा कर्तव्य== | |||
*शतपथ ब्राह्मण में ब्राह्मण के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए उसके अधिकार इस प्रकार कहे गये हैं- | |||
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*आचार्यपद से ब्राह्मण का अपने पुत्र को अध्याय तथा याज्ञिक क्रियाओं में निपुण करना एक विशेष कार्य | |||
*उपनिषद ग्रन्थों में [[आरुणि]] एवं [[श्वेतकेतु]]<ref>बृ0 उ0 6,1,1</ref> तथा [[वरुण देवता|वरुण]] एवं [[भृगु]] का उदाहरण | *ब्राह्मण स्वयं को ही संस्कृत करके विश्राम नहीं लेता था, अपितु दूसरों को भी अपने गुणों का दान आचार्य अथवा [[पुरोहित]] के रूप में करता था। | ||
*आचार्य के अनेकों शिष्य होते थे तथा उन्हें वह धार्मिक तथा सामाजिक प्रेरणा से पढ़ाने को बाध्य होता था। उसे प्रत्येक ज्ञान अपने छात्रों पर प्रकट करना पड़ता था। इसी कारण कभी कभी छात्र आचार्य को अपने में परिवर्तित कर देते थे, अर्थात आचार्य के समान पद प्राप्त कर लेते थे। | *आचार्यपद से ब्राह्मण का अपने पुत्र को अध्याय तथा याज्ञिक क्रियाओं में निपुण करना एक विशेष कार्य था।<ref>शतपथ ब्राह्मण 1,6,2,4</ref> | ||
*[[पुरोहित]] के रूप में ब्राह्मण महायज्ञों को कराता था। साधारण गृहृयज्ञ बिना उसकी सहायता के भी हो सकते थे, किन्तु महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ (श्रौत) उसके बिना नहीं सम्पन्न होती थीं। क्रियाओं के विधिवत किये जाने पर जो धार्मिक लाभ होता था उसमें दक्षिणा के अतिरिक्त पुरोहित यजमान का साझेदार होता था। [[पुरोहित]] का स्थान साधारण धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक भी होता था। वह राजा के अन्य व्यक्तिगत कार्यों में भी उसका प्रतिनिधि होता था। राजनीति में उसका बड़ा हाथ रहने लगा था। | *उपनिषद ग्रन्थों में [[आरुणि]] एवं [[श्वेतकेतु]]<ref>बृ0 उ0 6,1,1</ref> तथा [[वरुण देवता|वरुण]] एवं [[भृगु]] का उदाहरण है।<ref>शतपथ ब्राह्मण 11,6,1,1</ref> | ||
*आचार्य के अनेकों शिष्य होते थे तथा उन्हें वह धार्मिक तथा सामाजिक प्रेरणा से पढ़ाने को बाध्य होता था। उसे प्रत्येक ज्ञान अपने छात्रों पर प्रकट करना पड़ता था। इसी कारण कभी कभी छात्र आचार्य को अपने में परिवर्तित कर देते थे, अर्थात आचार्य के समान पद प्राप्त कर लेते थे। अध्ययन काल तथा शिक्षण प्रणाली का सूत्रों में विवरण प्राप्त होता है। | |||
*[[पुरोहित]] के रूप में ब्राह्मण महायज्ञों को कराता था। साधारण गृहृयज्ञ बिना उसकी सहायता के भी हो सकते थे, किन्तु महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ (श्रौत) उसके बिना नहीं सम्पन्न होती थीं। क्रियाओं के विधिवत किये जाने पर जो धार्मिक लाभ होता था, उसमें दक्षिणा के अतिरिक्त पुरोहित यजमान का साझेदार होता था। [[पुरोहित]] का स्थान साधारण धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक भी होता था। वह राजा के अन्य व्यक्तिगत कार्यों में भी उसका प्रतिनिधि होता था। राजनीति में उसका बड़ा हाथ रहने लगा था। | |||
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इनमें पठन, यजन और दान सामान्य तथा पाठन, याजन तथा प्रतिग्रह विशेष कर्तव्य हैं। आपद्धर्म के रूप में अन्य व्यवसाय से भी ब्राह्मण निर्वाह कर सकता था, किन्तु स्मृतियों ने बहुत से प्रतिबन्ध लगाकर लोभ और हिंसावाले कार्य उसके लिए वर्जित कर रखे हैं। [[गौड़]] अथवा लक्षणावती का राजा [[आदिसूर]] ने ब्राह्मण धर्म को पुनरुज्जीवित करने का प्रयास किया, जहाँ पर [[बौद्ध धर्म]] छाया हुआ था। | |||
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पश्चिम में [[अफ़ग़ानिस्तान]] का [[गोर|गोर देश]], [[पंजाब]], जिसमें [[कुरुक्षेत्र]] सम्मिलित है, [[गोंडा]]-[[बस्ती ज़िला|बस्ती जनपद]], [[प्रयाग]] के दक्षिण व आसपास का प्रदेश, [[पश्चिम बंगाल]], ये पाँचों प्रदेश किसी न किसी समय पर [[गौड़]] कहे जाते रहे। इन्हीं पाँचों प्रदेशों के नाम पर सम्भवत: सामूहिक नाम 'पंच गौड़' पड़ा। आदि गौड़ों का उद्गम [[कुरुक्षेत्र]] है। इस प्रदेश के ब्राह्मण विशेषत: [[गौड़ ब्राह्मण|गौड़]] कहलाये। [[कश्मीर]] और पंजाब के ब्राह्मण [[सारस्वत]], [[कन्नौज]] के आस-पास के ब्राह्मण [[कान्यकुब्ज ब्राह्मण|कान्यकुब्ज]], [[मिथिला]] के ब्राह्मण [[मैथिल ब्राह्मण|मैथिल]] तथा [[उत्कल]] के ब्राह्मण [[उत्कल ब्राह्मण|उत्कल]] कहलाये। [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] के दक्षिणस्थ आन्ध्र, द्रविड़, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुर्जर, इन्हें 'पंच द्रविड' कहा गया है। वहाँ के ब्राह्मण इन्हीं पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं। | |||
====अन्तर्विभाग==== | |||
उपर्युक्त दसों के अनेक अन्तर्विभाग हैं। ये सभी या तो स्थानों के नाम से प्रसिद्ध हुए, या वंश के किसी पूर्व पुरुष के नाम से प्रख्यात, अथवा किसी विशेष पदवी, विद्या या गुण के कारण नामधारी हुए। बड़नगरा, विशनगरा, भटनागर, नागर, माथुर, मूलगाँवकर इत्यादि स्थानवाचक नाम हैं। वंश के पूर्व पुरुष के नाम, जैसे- सान्याल (शाण्डिल्य), नारद, विशष्ठ, कौशिक, भारद्वाज, कश्यप, [[गोभिल]] ये नाम वंश या गोत्र के सूचक हैं। पदवी के नाम, जैसे चक्रवर्त्ती वन्द्योपाध्याय, मुख्योपाध्याय, भट्ट, फडनवीस, कुलकर्णी, राजभट्ट, जोशी (ज्योतिषी), देशपाण्डे इत्यादि। विद्या के नाम, जैसे- चतुर्वेदी, त्रिवेदी, शास्त्री, पाण्डेय, पौराणिक, व्यास, द्विवेदी इत्यादि। कर्म या गुण के नाम, जैसे दीक्षित, सनाढय, सुकुल, अधिकारी, वास्तव्य, याजक, याज्ञिक, नैगम, आचार्य, भट्टाचार्य इत्यादि। | |||
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*पुराणों और स्मृतियों में हव्य-कव्यग्रहण के सम्बन्ध में ब्राह्मणों की एक पंक्ति में बैठने की पात्रता पर विस्तार से विचार हुआ है। | *पुराणों और स्मृतियों में हव्य-कव्यग्रहण के सम्बन्ध में ब्राह्मणों की एक पंक्ति में बैठने की पात्रता पर विस्तार से विचार हुआ है। | ||
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14:00, 25 मार्च 2015 का अवतरण
ब्राह्मण भारत में आर्यों की समाज व्यवस्था अर्थात वर्ण व्यवस्था का सबसे ऊपर का वर्ण है। भारत के सामाजिक बदलाव के इतिहास में जब भारतीय समाज को हिन्दू के रूप में संबोधित किया जाने लगा, तब ब्राह्मण वर्ण, जाति में भी परिवर्तित हो गया। ब्राह्मण वर्ण अब हिन्दू समाज की एक जाति भी है। ब्राह्मण को 'विप्र', 'द्विज', 'द्विजोत्तम' या 'भूसुर' भी कहा जाता है।
व्याख्या
ब्रह्म = वेद का पाठक अथवा ब्रह्म = परमात्मा का ज्ञाता। ऋग्वेद की अपेक्षा अन्य संहिताओं में यह साधारण प्रयोग का शब्द हो गया था, जिसका अर्थ पुरोहित है। ऋग्वेद के 'पुरुषसूक्त' (10.90) में वर्णों के चार विभाजन के सन्दर्भ में इसका जाति के अर्थ में प्रयोग हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में यह वर्ण क्षत्रियों से ऊँचा माना गया है। राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण क्षत्रिय को कर देता था, किन्तु इससे शतपथ ब्राह्मण में वर्णित ब्राह्मण की श्रेष्ठता न्यून नहीं होती। इस बात को बार-बार कहा गया है कि क्षत्रिय तथा ब्राह्मण की एकता से ही सर्वागींण उन्नति हो सकती है। यह स्वीकार किया गया है कि कतिपय राजन्य एवं धनसम्पन्न लोग ब्राह्मण को यदि कदाचित दबाने में समर्थ हुए हैं, तो उनका सर्वनाश भी शीघ्र ही घटित हुआ है। ब्राह्मण पृथ्वी के देवता ('भूसुर') कहे गये है, जैसे कि स्वर्ग के देवता होते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मण को दान लेने वाला (आदायी) तथा सोम पीने वाला (आपायी) कहा गया है। उसके दो अन्य विरूद 'आवसायी' तथा 'यथाकाम-प्रयाप्य' का अर्थ अस्पष्ट है। पहले का अर्थ सब स्थानों में रहने वाला तथा दूसरे का आनन्द से घूमने वाला हो सकता है।[1]
अधिकार तथा कर्तव्य
- शतपथ ब्राह्मण में ब्राह्मण के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए उसके अधिकार इस प्रकार कहे गये हैं-
- अर्चा
- दान
- अजेयता
- अवध्यता
- ब्राह्मण के कर्तव्य इस प्रकार हैं-
- 'ब्राह्मण्य' (वंश की पवित्रता)
- 'प्रतिरूपचर्या' (कर्तव्यपालन)
- 'लोकपक्ति' (लोक को प्रबुद्ध करना)
- ब्राह्मण स्वयं को ही संस्कृत करके विश्राम नहीं लेता था, अपितु दूसरों को भी अपने गुणों का दान आचार्य अथवा पुरोहित के रूप में करता था।
- आचार्यपद से ब्राह्मण का अपने पुत्र को अध्याय तथा याज्ञिक क्रियाओं में निपुण करना एक विशेष कार्य था।[2]
- उपनिषद ग्रन्थों में आरुणि एवं श्वेतकेतु[3] तथा वरुण एवं भृगु का उदाहरण है।[4]
- आचार्य के अनेकों शिष्य होते थे तथा उन्हें वह धार्मिक तथा सामाजिक प्रेरणा से पढ़ाने को बाध्य होता था। उसे प्रत्येक ज्ञान अपने छात्रों पर प्रकट करना पड़ता था। इसी कारण कभी कभी छात्र आचार्य को अपने में परिवर्तित कर देते थे, अर्थात आचार्य के समान पद प्राप्त कर लेते थे। अध्ययन काल तथा शिक्षण प्रणाली का सूत्रों में विवरण प्राप्त होता है।
- पुरोहित के रूप में ब्राह्मण महायज्ञों को कराता था। साधारण गृहृयज्ञ बिना उसकी सहायता के भी हो सकते थे, किन्तु महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ (श्रौत) उसके बिना नहीं सम्पन्न होती थीं। क्रियाओं के विधिवत किये जाने पर जो धार्मिक लाभ होता था, उसमें दक्षिणा के अतिरिक्त पुरोहित यजमान का साझेदार होता था। पुरोहित का स्थान साधारण धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक भी होता था। वह राजा के अन्य व्यक्तिगत कार्यों में भी उसका प्रतिनिधि होता था। राजनीति में उसका बड़ा हाथ रहने लगा था।
स्मृति ग्रन्थों का उल्लेख
स्मृति ग्रन्थों में ब्राह्मणों के मुख्य छ: कर्तव्य (षट्कर्म) बताये गये हैं-
- पठन
- पाठन
- यजन
- याजन
- दान
- प्रतिग्रह
इनमें पठन, यजन और दान सामान्य तथा पाठन, याजन तथा प्रतिग्रह विशेष कर्तव्य हैं। आपद्धर्म के रूप में अन्य व्यवसाय से भी ब्राह्मण निर्वाह कर सकता था, किन्तु स्मृतियों ने बहुत से प्रतिबन्ध लगाकर लोभ और हिंसावाले कार्य उसके लिए वर्जित कर रखे हैं। गौड़ अथवा लक्षणावती का राजा आदिसूर ने ब्राह्मण धर्म को पुनरुज्जीवित करने का प्रयास किया, जहाँ पर बौद्ध धर्म छाया हुआ था।
वर्गीकरण
इस समय देश भेद के अनुसार ब्राह्मणों के दो बड़े विभाग हैं-
- पंचगौड
- पंचद्रविण
पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान का गोर देश, पंजाब, जिसमें कुरुक्षेत्र सम्मिलित है, गोंडा-बस्ती जनपद, प्रयाग के दक्षिण व आसपास का प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ये पाँचों प्रदेश किसी न किसी समय पर गौड़ कहे जाते रहे। इन्हीं पाँचों प्रदेशों के नाम पर सम्भवत: सामूहिक नाम 'पंच गौड़' पड़ा। आदि गौड़ों का उद्गम कुरुक्षेत्र है। इस प्रदेश के ब्राह्मण विशेषत: गौड़ कहलाये। कश्मीर और पंजाब के ब्राह्मण सारस्वत, कन्नौज के आस-पास के ब्राह्मण कान्यकुब्ज, मिथिला के ब्राह्मण मैथिल तथा उत्कल के ब्राह्मण उत्कल कहलाये। नर्मदा के दक्षिणस्थ आन्ध्र, द्रविड़, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुर्जर, इन्हें 'पंच द्रविड' कहा गया है। वहाँ के ब्राह्मण इन्हीं पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं।
अन्तर्विभाग
उपर्युक्त दसों के अनेक अन्तर्विभाग हैं। ये सभी या तो स्थानों के नाम से प्रसिद्ध हुए, या वंश के किसी पूर्व पुरुष के नाम से प्रख्यात, अथवा किसी विशेष पदवी, विद्या या गुण के कारण नामधारी हुए। बड़नगरा, विशनगरा, भटनागर, नागर, माथुर, मूलगाँवकर इत्यादि स्थानवाचक नाम हैं। वंश के पूर्व पुरुष के नाम, जैसे- सान्याल (शाण्डिल्य), नारद, विशष्ठ, कौशिक, भारद्वाज, कश्यप, गोभिल ये नाम वंश या गोत्र के सूचक हैं। पदवी के नाम, जैसे चक्रवर्त्ती वन्द्योपाध्याय, मुख्योपाध्याय, भट्ट, फडनवीस, कुलकर्णी, राजभट्ट, जोशी (ज्योतिषी), देशपाण्डे इत्यादि। विद्या के नाम, जैसे- चतुर्वेदी, त्रिवेदी, शास्त्री, पाण्डेय, पौराणिक, व्यास, द्विवेदी इत्यादि। कर्म या गुण के नाम, जैसे दीक्षित, सनाढय, सुकुल, अधिकारी, वास्तव्य, याजक, याज्ञिक, नैगम, आचार्य, भट्टाचार्य इत्यादि।
पंक्तिदूषण ब्राह्मण
- जिन ब्राह्मणों के बैठने से ब्रह्मभोज की पंक्ति दूषित समझी जाती है, उनको पंक्तिदूषण कहा जाता है।
- ऐसे लोगों की बड़ी लम्बी सूची है।
पंचर्विश ब्राह्मण
सामवेदीय ब्राह्मण ग्रन्थों में ताण्ड्य ब्राह्मण सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। इसमें पच्चीस अध्याय हैं। इसलिए यह पंचर्विश ब्राह्मण भी कहलाता है।
भातपाँत
- भातपाँत एक विचारधारा है। भातपाँत का अर्थ है, "एक पंक्ति में बैठकर समान कुल के लोगों के द्वारा कच्चा भोजन करना।"
- यह विचारधारा बहुत प्राचीन है।
- पुराणों और स्मृतियों में हव्य-कव्यग्रहण के सम्बन्ध में ब्राह्मणों की एक पंक्ति में बैठने की पात्रता पर विस्तार से विचार हुआ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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