"चन्द्रगोमिन": अवतरणों में अंतर

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'''चंद्रगोमिन''' प्रसिद्ध [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] वैयाकरणाचार्य थे। ये 'चांद्र व्याकरण' के [[प्रवर्तक]] थे। इनके अन्य नाम थे 'चंद्र' और 'चंद्राचार्य'। इनका समय जयादित्य और वामन की 'काशिका'<ref>वृत्तिसूत्र, समय 650 ई. के आसपास</ref> तथा [[भर्तृहरि]]<ref>या हरि</ref> के 'वाक्यपदीय' से निश्चित रूप में पूर्ववर्ती है। काशिका सूत्र वृत्ति में इनके अनेक नियमसूत्र बिना नामोल्लेख के गृहीत हैं। वाक्य पदीय में बताया गया है कि [[पंतजलि]] की शिष्य परंपरा में जो व्याकरणगम नष्ट-भ्रष्ट हो गया था, उसे चंद्राचार्यादि ने अनेक शाखाओं में पुन-प्रणीत किया।<ref>य: पंतजलिशिष्येभ्यो भ्रष्टो व्याकरणागम:। सनीतो बहुशाखत्वं चंद्राचार्यादिभि: पुन: 2/489</ref>
'''चन्द्रगोमिन''' प्रसिद्ध [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] वैयाकरणाचार्य थे। ये 'चांद्र व्याकरण' के [[प्रवर्तक]] थे। इनके अन्य नाम थे 'चंद्र' और 'चंद्राचार्य'। इनका समय जयादित्य और वामन की 'काशिका'<ref>वृत्तिसूत्र, समय 650 ई. के आसपास</ref> तथा [[भर्तृहरि]]<ref>या हरि</ref> के 'वाक्यपदीय' से निश्चित रूप में पूर्ववर्ती है। काशिका सूत्र वृत्ति में इनके अनेक नियमसूत्र बिना नामोल्लेख के गृहीत हैं। वाक्य पदीय में बताया गया है कि [[पंतजलि]] की शिष्य परंपरा में जो व्याकरणगम नष्ट-भ्रष्ट हो गया था, उसे चंद्राचार्यादि ने अनेक शाखाओं में पुन-प्रणीत किया।<ref>य: पंतजलिशिष्येभ्यो भ्रष्टो व्याकरणागम:। सनीतो बहुशाखत्वं चंद्राचार्यादिभि: पुन: 2/489</ref>
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==समय काल==
==समय काल==
चांद्र व्याकरण में उद्घृत उदाहरण 'अजयद् गुप्तो हूणान्‌' के संदर्भवैशिष्ट्य से सूचित है कि [[गुप्त साम्राज्य|गुप्त]]<ref>[[स्कंदगुप्त]] 465 ई. अथवा यशोवर्मा 544 ई.</ref> सम्राट की विजयघटना ग्रंथकार चंद्राचार्य के जीवनकाल में ही घटित हुई थी। अत: सामान्य रूप से चंद्रगोमिन का समय 470 ई. के आसपास माना जाता है। इनका सर्वप्रथम नामोल्लेख संभवत: 'वाक्यपदीय' में है।
चांद्र व्याकरण में उद्घृत उदाहरण 'अजयद् गुप्तो हूणान्‌' के संदर्भवैशिष्ट्य से सूचित है कि [[गुप्त साम्राज्य|गुप्त]]<ref>[[स्कंदगुप्त]] 465 ई. अथवा यशोवर्मा 544 ई.</ref> सम्राट की विजयघटना ग्रंथकार चंद्राचार्य के जीवनकाल में ही घटित हुई थी। अत: सामान्य रूप से चन्द्रगोमिन का समय 470 ई. के आसपास माना जाता है। इनका सर्वप्रथम नामोल्लेख संभवत: 'वाक्यपदीय' में है।<ref name="aa">{{cite web |url=http://khoj.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A8 |title= चन्द्रगोमिन|accessmonthday= 06 जून|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतखोज|language= हिन्दी}}</ref>
==ग्रंथ और भाषा==
==ग्रंथ और भाषा==
ये प्रसिद्ध बौद्ध वैयाकरण थे। इनका निर्मित ग्रंथ - जो मूलत: सूत्रात्मक है परंतु जिसपर लिखित वृत्तिभाग भी संभवत: उन्हीं का है ,चांद्र व्याकरण है। पाणिनिपूर्ववर्ती अलब्ध चांद्र व्याकरण से यह भिन्न है। ऐसा अनुमित है कि इस चांद्र व्याकरण की रचना चंद्राचार्य ने बौद्धभिक्खुओं आदि का पढ़ाने के लिये की थी। इसमें वैदिक भाषा प्रयोग प्रकिया का व्याकरणांश नहीं है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। [[बौद्ध]] होने के कारण कदाचित्‌ चंद्रगोमिन्‌ ने ब्राह्मण धर्मानुयायियों के धर्मग्रंथ को उन्हीं का धार्मिक-सांस्कारिक वाङ्‌मय समझकर उक्त भाषा का व्याकरण निर्माण अनावश्यक समझा हो। यह भी हो सकता है कि हजारों [[वर्ष]] पुरानी [[वैदिक]] [[संस्कृत]] के भाषाप्रयेगों की व्यकरणविवेचना को अधिक प्रयोजन का न समझा हो,विशेष रूप से संस्कृत भाषाज्ञानार्थी बौद्धों के लिये। एक कारण यह भी है,सरलीभूत व्याकरणपद्धति निर्माण के प्रति आग्रहवान्‌ होने से पुरानी और व्यवहार में अप्रचलित किंतु वाङ्‌मय मात्र में अवशिष्ट [[भाषा]] का [[व्याकरण]] लिखना उन्हें अभीष्ट न रहा हो। इस व्याकरण ग्रंथ की रचना ऐसा सर्वप्रथम महाप्रयास है जिसे हम पाणिनीय अष्टाध्यायी का प्रतिसंशोधित पुनस्संस्करण कह सकते हैं।  
ये प्रसिद्ध बौद्ध वैयाकरण थे। इनका निर्मित ग्रंथ - जो मूलत: सूत्रात्मक है परंतु जिसपर लिखित वृत्तिभाग भी संभवत: उन्हीं का है ,चांद्र व्याकरण है। पाणिनिपूर्ववर्ती अलब्ध चांद्र व्याकरण से यह भिन्न है। ऐसा अनुमित है कि इस चांद्र व्याकरण की रचना चंद्राचार्य ने बौद्धभिक्खुओं आदि का पढ़ाने के लिये की थी। इसमें वैदिक भाषा प्रयोग प्रकिया का व्याकरणांश नहीं है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। [[बौद्ध]] होने के कारण कदाचित्‌ चन्द्रगोमिन्‌ ने ब्राह्मण धर्मानुयायियों के धर्मग्रंथ को उन्हीं का धार्मिक-सांस्कारिक वाङ्‌मय समझकर उक्त भाषा का व्याकरण निर्माण अनावश्यक समझा हो। यह भी हो सकता है कि हजारों [[वर्ष]] पुरानी [[वैदिक]] [[संस्कृत]] के भाषाप्रयेगों की व्यकरणविवेचना को अधिक प्रयोजन का न समझा हो,विशेष रूप से संस्कृत भाषाज्ञानार्थी बौद्धों के लिये। एक कारण यह भी है,सरलीभूत व्याकरणपद्धति निर्माण के प्रति आग्रहवान्‌ होने से पुरानी और व्यवहार में अप्रचलित किंतु वाङ्‌मय मात्र में अवशिष्ट [[भाषा]] का [[व्याकरण]] लिखना उन्हें अभीष्ट न रहा हो। इस व्याकरण ग्रंथ की रचना ऐसा सर्वप्रथम महाप्रयास है जिसे हम पाणिनीय अष्टाध्यायी का प्रतिसंशोधित पुनस्संस्करण कह सकते हैं।<ref name="aa"/>
==असंज्ञक व्याकरण संप्रदाय==
==असंज्ञक व्याकरण संप्रदाय==
चंद्रगोमिन्‌ का दूसरा महाप्रयास है भोजराज का 'सरस्वतीकंठाभरण' नामक व्याकरण ग्रंथ।<ref>इसी नाम के साहित्यग्रंथ से भिन्न</ref> इसमें [[कात्यायन]] और पतंजलि के वार्तिक और महाभाष्यीय संपूर्ण सुझावों और संशोधनों को प्राय: अपना लिया गया है। इस व्याकरण में पाणिनिकल्पित और तदुद्भावित संज्ञाओं का विशेषत: 'टि', 'घु' आदि एकाक्षर पारिभाषिक [[संज्ञा|संज्ञाओं]] का बहिष्कार किया गया है। इसी कारण इस संप्रदाय को '''असंज्ञक व्याकरण''' भी कहते हैं। फिर भी, निश्चित रूप से इसका मूल ढाँचा अष्टाध्यायी (वार्तिक और महाभाष्य) के सर्वाधार पर ही निर्मित है। इस व्याकरण के अधिकांश सूत्र अष्टाध्यायो के ही हैं या [[अष्टाध्यायी]] सूत्रों के ही रूपांतर हैं। रूपांतरित सूत्रों में कुछ ऐसे हैं जिनमें शब्द तक पाणिनि के ही हैं केवल उनका क्रम बदल गया है, जैसे पाणिनि के अनेकाशित्‌ सर्वस्य एवं 'आद्यंतौ टकितौ' सूत्रों के स्थान पर क्रमश: 'शिदनेकाल' सर्वस्थ और टकितावार्घंतौ हैं। कालक्रम से प्रचलित नवप्रयोगों के लिये कुछ (लगभग 35) नूतन सूत्र भी निर्मित हैं। इसकी सूत्रसंख्या लगभग 3100 है।  
चन्द्रगोमिन्‌ का दूसरा महाप्रयास है भोजराज का 'सरस्वतीकंठाभरण' नामक व्याकरण ग्रंथ।<ref>इसी नाम के साहित्यग्रंथ से भिन्न</ref> इसमें [[कात्यायन]] और पतंजलि के वार्तिक और महाभाष्यीय संपूर्ण सुझावों और संशोधनों को प्राय: अपना लिया गया है। इस व्याकरण में पाणिनिकल्पित और तदुद्भावित संज्ञाओं का विशेषत: 'टि', 'घु' आदि एकाक्षर पारिभाषिक [[संज्ञा|संज्ञाओं]] का बहिष्कार किया गया है। इसी कारण इस संप्रदाय को '''असंज्ञक व्याकरण''' भी कहते हैं। फिर भी, निश्चित रूप से इसका मूल ढाँचा अष्टाध्यायी (वार्तिक और महाभाष्य) के सर्वाधार पर ही निर्मित है। इस व्याकरण के अधिकांश सूत्र अष्टाध्यायो के ही हैं या [[अष्टाध्यायी]] सूत्रों के ही रूपांतर हैं। रूपांतरित सूत्रों में कुछ ऐसे हैं जिनमें शब्द तक पाणिनि के ही हैं केवल उनका क्रम बदल गया है, जैसे पाणिनि के अनेकाशित्‌ सर्वस्य एवं 'आद्यंतौ टकितौ' सूत्रों के स्थान पर क्रमश: 'शिदनेकाल' सर्वस्थ और टकितावार्घंतौ हैं। कालक्रम से प्रचलित नवप्रयोगों के लिये कुछ (लगभग 35) नूतन सूत्र भी निर्मित हैं। इसकी सूत्रसंख्या लगभग 3100 है।  
==रचना==
==रचना==
व्याकरणपरिशिष्ट रूप में चंद्रगोमिन्‌ ने उणादिपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, लिंगकारिका, वर्णसूत्र और उपसर्गवृत्ति की भी रचना की थी जिनमें उणादिसूची और धातुपाठ का प्रकाशन 'चांद्रव्याकरण' ग्रंथ के साथ ही हुआ है। 'वर्णसूत्र' में पाणिनीय शिक्षा के समान सूत्रों में वर्णो के स्थान प्रयत्न का विवरण है। 'चांद्रव्याकरणसूत्रवृत्ति' के अतिरिक्त धार्मिक ग्रंथ 'शिष्यलेख' और 'लोकानंद' नाटक के निर्माण का, जिनका अधिक महत्व नहीं है, गौरव भी चंद्राच्य्राा को प्राप्त है। इस संदर्भ में सब से आश्चर्यजनक बात यह है कि बंगाल में कुछ ही शताब्दी पूर्व तक अध्ययनाध्यापन में प्रचलित तथा वहाँ के परवर्ती वैयकरणों द्वारा उद्धृत यह ग्रंथ काश्मीर, नेपाल और तिब्बत में ही मिला बंगाल में नहीं। डा. लीबिश<ref>Dr Liebich</ref> ने [[तिब्बत]] से प्राप्त कर इसका प्रकाशन किया। डेकन कालेज, [[पूना]], से वृत्तिसहित तथा व्याख्यात्मक विवृति के साथ एक ओर सुसंपादित संस्करण दो खंडों में प्रकाशित हुआ है।
व्याकरणपरिशिष्ट रूप में चन्द्रगोमिन्‌ ने उणादिपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, लिंगकारिका, वर्णसूत्र और उपसर्गवृत्ति की भी रचना की थी जिनमें उणादिसूची और धातुपाठ का प्रकाशन 'चांद्रव्याकरण' ग्रंथ के साथ ही हुआ है। 'वर्णसूत्र' में पाणिनीय शिक्षा के समान सूत्रों में वर्णो के स्थान प्रयत्न का विवरण है। 'चांद्रव्याकरणसूत्रवृत्ति' के अतिरिक्त धार्मिक ग्रंथ 'शिष्यलेख' और 'लोकानंद' नाटक के निर्माण का, जिनका अधिक महत्व नहीं है, गौरव भी चंद्राच्य्राा को प्राप्त है। इस संदर्भ में सब से आश्चर्यजनक बात यह है कि बंगाल में कुछ ही शताब्दी पूर्व तक अध्ययनाध्यापन में प्रचलित तथा वहाँ के परवर्ती वैयकरणों द्वारा उद्धृत यह ग्रंथ काश्मीर, नेपाल और तिब्बत में ही मिला बंगाल में नहीं। डा. लीबिश<ref>Dr Liebich</ref> ने [[तिब्बत]] से प्राप्त कर इसका प्रकाशन किया। डेकन कालेज, [[पूना]], से वृत्तिसहित तथा व्याख्यात्मक विवृति के साथ एक ओर सुसंपादित संस्करण दो खंडों में प्रकाशित हुआ है।<ref name="aa"/>


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14:22, 6 जून 2015 का अवतरण

चन्द्रगोमिन प्रसिद्ध बौद्ध वैयाकरणाचार्य थे। ये 'चांद्र व्याकरण' के प्रवर्तक थे। इनके अन्य नाम थे 'चंद्र' और 'चंद्राचार्य'। इनका समय जयादित्य और वामन की 'काशिका'[1] तथा भर्तृहरि[2] के 'वाक्यपदीय' से निश्चित रूप में पूर्ववर्ती है। काशिका सूत्र वृत्ति में इनके अनेक नियमसूत्र बिना नामोल्लेख के गृहीत हैं। वाक्य पदीय में बताया गया है कि पंतजलि की शिष्य परंपरा में जो व्याकरणगम नष्ट-भ्रष्ट हो गया था, उसे चंद्राचार्यादि ने अनेक शाखाओं में पुन-प्रणीत किया।[3]

समय काल

चांद्र व्याकरण में उद्घृत उदाहरण 'अजयद् गुप्तो हूणान्‌' के संदर्भवैशिष्ट्य से सूचित है कि गुप्त[4] सम्राट की विजयघटना ग्रंथकार चंद्राचार्य के जीवनकाल में ही घटित हुई थी। अत: सामान्य रूप से चन्द्रगोमिन का समय 470 ई. के आसपास माना जाता है। इनका सर्वप्रथम नामोल्लेख संभवत: 'वाक्यपदीय' में है।[5]

ग्रंथ और भाषा

ये प्रसिद्ध बौद्ध वैयाकरण थे। इनका निर्मित ग्रंथ - जो मूलत: सूत्रात्मक है परंतु जिसपर लिखित वृत्तिभाग भी संभवत: उन्हीं का है ,चांद्र व्याकरण है। पाणिनिपूर्ववर्ती अलब्ध चांद्र व्याकरण से यह भिन्न है। ऐसा अनुमित है कि इस चांद्र व्याकरण की रचना चंद्राचार्य ने बौद्धभिक्खुओं आदि का पढ़ाने के लिये की थी। इसमें वैदिक भाषा प्रयोग प्रकिया का व्याकरणांश नहीं है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। बौद्ध होने के कारण कदाचित्‌ चन्द्रगोमिन्‌ ने ब्राह्मण धर्मानुयायियों के धर्मग्रंथ को उन्हीं का धार्मिक-सांस्कारिक वाङ्‌मय समझकर उक्त भाषा का व्याकरण निर्माण अनावश्यक समझा हो। यह भी हो सकता है कि हजारों वर्ष पुरानी वैदिक संस्कृत के भाषाप्रयेगों की व्यकरणविवेचना को अधिक प्रयोजन का न समझा हो,विशेष रूप से संस्कृत भाषाज्ञानार्थी बौद्धों के लिये। एक कारण यह भी है,सरलीभूत व्याकरणपद्धति निर्माण के प्रति आग्रहवान्‌ होने से पुरानी और व्यवहार में अप्रचलित किंतु वाङ्‌मय मात्र में अवशिष्ट भाषा का व्याकरण लिखना उन्हें अभीष्ट न रहा हो। इस व्याकरण ग्रंथ की रचना ऐसा सर्वप्रथम महाप्रयास है जिसे हम पाणिनीय अष्टाध्यायी का प्रतिसंशोधित पुनस्संस्करण कह सकते हैं।[5]

असंज्ञक व्याकरण संप्रदाय

चन्द्रगोमिन्‌ का दूसरा महाप्रयास है भोजराज का 'सरस्वतीकंठाभरण' नामक व्याकरण ग्रंथ।[6] इसमें कात्यायन और पतंजलि के वार्तिक और महाभाष्यीय संपूर्ण सुझावों और संशोधनों को प्राय: अपना लिया गया है। इस व्याकरण में पाणिनिकल्पित और तदुद्भावित संज्ञाओं का विशेषत: 'टि', 'घु' आदि एकाक्षर पारिभाषिक संज्ञाओं का बहिष्कार किया गया है। इसी कारण इस संप्रदाय को असंज्ञक व्याकरण भी कहते हैं। फिर भी, निश्चित रूप से इसका मूल ढाँचा अष्टाध्यायी (वार्तिक और महाभाष्य) के सर्वाधार पर ही निर्मित है। इस व्याकरण के अधिकांश सूत्र अष्टाध्यायो के ही हैं या अष्टाध्यायी सूत्रों के ही रूपांतर हैं। रूपांतरित सूत्रों में कुछ ऐसे हैं जिनमें शब्द तक पाणिनि के ही हैं केवल उनका क्रम बदल गया है, जैसे पाणिनि के अनेकाशित्‌ सर्वस्य एवं 'आद्यंतौ टकितौ' सूत्रों के स्थान पर क्रमश: 'शिदनेकाल' सर्वस्थ और टकितावार्घंतौ हैं। कालक्रम से प्रचलित नवप्रयोगों के लिये कुछ (लगभग 35) नूतन सूत्र भी निर्मित हैं। इसकी सूत्रसंख्या लगभग 3100 है।

रचना

व्याकरणपरिशिष्ट रूप में चन्द्रगोमिन्‌ ने उणादिपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, लिंगकारिका, वर्णसूत्र और उपसर्गवृत्ति की भी रचना की थी जिनमें उणादिसूची और धातुपाठ का प्रकाशन 'चांद्रव्याकरण' ग्रंथ के साथ ही हुआ है। 'वर्णसूत्र' में पाणिनीय शिक्षा के समान सूत्रों में वर्णो के स्थान प्रयत्न का विवरण है। 'चांद्रव्याकरणसूत्रवृत्ति' के अतिरिक्त धार्मिक ग्रंथ 'शिष्यलेख' और 'लोकानंद' नाटक के निर्माण का, जिनका अधिक महत्व नहीं है, गौरव भी चंद्राच्य्राा को प्राप्त है। इस संदर्भ में सब से आश्चर्यजनक बात यह है कि बंगाल में कुछ ही शताब्दी पूर्व तक अध्ययनाध्यापन में प्रचलित तथा वहाँ के परवर्ती वैयकरणों द्वारा उद्धृत यह ग्रंथ काश्मीर, नेपाल और तिब्बत में ही मिला बंगाल में नहीं। डा. लीबिश[7] ने तिब्बत से प्राप्त कर इसका प्रकाशन किया। डेकन कालेज, पूना, से वृत्तिसहित तथा व्याख्यात्मक विवृति के साथ एक ओर सुसंपादित संस्करण दो खंडों में प्रकाशित हुआ है।[5]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वृत्तिसूत्र, समय 650 ई. के आसपास
  2. या हरि
  3. य: पंतजलिशिष्येभ्यो भ्रष्टो व्याकरणागम:। सनीतो बहुशाखत्वं चंद्राचार्यादिभि: पुन: 2/489
  4. स्कंदगुप्त 465 ई. अथवा यशोवर्मा 544 ई.
  5. 5.0 5.1 5.2 चन्द्रगोमिन (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 06 जून, 2015।
  6. इसी नाम के साहित्यग्रंथ से भिन्न
  7. Dr Liebich

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