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{{सूचना बक्सा राजनीतिज्ञ
==हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास==
|चित्र=सुशील कुमार सांभाजीराव शिंदे.jpg
'''हिंदी''' भारतीय [[गणराज]] की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन [[2001]] की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय [[हिंदी]] का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। सन [[1998]] के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।
|चित्र का नाम=सुशील कुमार सांभाजीराव शिंदे
==राष्ट्रभाषा क्या है==
|पूरा नाम=सुशील कुमार सांभाजीराव शिंदे
*राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है—समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात् आमजन की भाषा (जनभाषा)। जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन–जन के विचार–विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है।
|अन्य नाम=सुशील कुमार शिंदे
*राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं, किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तत्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
|जन्म= [[4 सितम्बर]] [[1941]]  
*स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत के सन्दर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ति हिंदी ने की। यही कारण है कि हिंदी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान<ref>विशेषतः 1900 ई.-1947 ई.</ref> राष्ट्रभाषा बनी।
|जन्म भूमि=[[शोलापुर]], [[महाराष्ट्र]]
* राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है, बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है।
|मृत्यु=
* राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है।
|मृत्यु स्थान=
* राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क–भाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है।
|मृत्यु कारण=
* राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
|अभिभावक=
* राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
|पति/पत्नी=उज्जवला शिंदे
====अंग्रेज़ों का योगदान====
|संतान=तीन पुत्रियाँ (एक [[पुत्री]] का नाम प्रणीति शिंदे है, जो कि महाराष्ट्र के शोलापुर से विधायक हैं।)
*राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क भाषा होती है। हिंदी दीर्घकाल से सारे देश में जन–जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तरी भारत की नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों [[वल्लभाचार्य]], [[रामानुज]], [[रामानंद]] आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिंदी भाषी राज्यों के भक्त–संत कवियों (जैसे—[[असम]] के शंकरदेव, [[महाराष्ट्र]] के [[ज्ञानेश्वर]] व नामदेव, [[गुजरात]] के [[नरसी मेहता]], बंगाल के [[चैतन्य महाप्रभु|चैतन्य]] आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था।
|स्मारक=  
*यही कारण था कि जनता और सरकार के बीच संवाद स्थापना के क्रम में फ़ारसी या अंग्रेज़ी के माध्यम से दिक्कतें पेश आईं तो कम्पनी सरकार ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिंदी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिंदी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न–भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिंदी को सराहा।
|क़ब्र=  
*'''सी. टी. मेटकाफ़ ने 1806 ई. में अपने शिक्षा गुरु [[जॉन गिलक्राइस्ट]] को लिखा'''— 'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, [[कलकत्ता]] से लेकर [[लाहौर]] तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर [[नर्मदा नदी]] तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं [[कन्याकुमारी]] से लेकर [[कश्मीर]] तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।'
|नागरिकता=भारतीय
*'''टॉमस रोबक ने 1807 ई. में लिखा'''— 'जैसे [[इंग्लैण्ड]] जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेज़ी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी–फ़ारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
|प्रसिद्धि=राजनीतिज्ञ
*'''विलियम केरी ने 1816 ई. में लिखा'''— 'हिंदी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।'
|पार्टी=[[कांग्रेस]]
*'''एच. टी. कोलब्रुक ने लिखा'''— 'जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े–लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिंदी है।'
|पद=पूर्व मुख्यमंत्री (महाराष्ट्र), राज्यपाल ([[आंध्र प्रदेश]]), ऊर्जा मंत्री, गृहमंत्री।
*'''[[जार्ज ग्रियर्सन]] ने हिंदी को 'आम बोलचाल की महाभाषा' कहा है।
|कार्य काल='''[[मुख्यमंत्री]]''' ([[महाराष्ट्र]]) : [[18 जनवरी]], [[2003]] - [[4 नवम्बर]], [[2004]]<br />
*इन विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि हिंदी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने हिंदी को अपनाया। उस समय हिंदी और उर्दू को एक ही भाषा माना जाता था। अंग्रेज़ों ने हिंदी को प्रयोग में लाकर हिंदी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।
'''[[राज्यपाल]]''' ([[आंध्र प्रदेश]]) : [[4 नवम्बर]], 2004 - [[29 जनवरी]], [[2006]]<br />
'''ऊर्जा मंत्री''' : [[2006]]-[[2012]]<br />
'''गृहमंत्री''' : [[31 जुलाई]], 2012 - [[26 मई]], [[2014]]
|शिक्षा=कानून डिग्री
|भाषा=[[हिन्दी]]
|विद्यालय=शिवाजी यूनिवर्सिटी
|जेल यात्रा=
|पुरस्कार-उपाधि=
|विशेष योगदान=
|शीर्षक 1=मह्त्त्वपूर्ण तथ्य
|पाठ 1=एक समय महाराष्ट्र में सीआईडी के सब-इंस्पेक्टर के रूप में काम करने वाले शिंदे, [[शरद पवार]] के आग्रह पर पुलिस की नौकरी छोड़कर राजनीति में आ गए।
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|अन्य जानकारी=शिंदे महाराष्ट्र के [[मुख्‍यमंत्री]] बनने वाले पहले दलित नेता हैं।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''सुशील कुमार सांभाजीराव शिंदे''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Sushil kumar Sambhajirao Shinde'', जन्म: [[4 सितम्बर]] [[1941]]) एक राजनीतिज्ञ हैं, जो कि [[महाराष्ट्र]] से हैं। वे [[मनमोहन सिंह]] सरकार में गृहमंत्री तथा पंद्रहवीं [[लोकसभा]] के सदस्य थे। इसके अलावा वे लोकसभा में [[कांग्रेस]] के नेता भी हैं। यह पद हासिल करने वाले वे पहले दलित नेता हैं और इससे पहले [[प्रणब मुखर्जी]] इस पद पर थे।
==जन्म तथा शिक्षा==
शिंदे का जन्म [[4 सितम्बर]] [[1941]] को [[महाराष्ट्र]] के [[शोलापुर]] में हुआ था। उन्होंने दयानंद कॉलेज, शोलापुर से आर्ट्‍स में ऑनर्स डिग्री ली थी और बाद में शिवाजी यूनिवर्सिटी से कानून की डिग्री भी हासिल की। शिंदे ने अपना करियर शोलापुर सेशन कोर्ट में एक नाजिर के तौर पर शुरू किया था लेकिन बाद में वे राज्य पुलिस में सब इंस्पेक्टर बन गए। शिंदे महाराष्ट्र के [[मुख्‍यमंत्री]] बनने वाले पहले दलित नेता हैं।
==राजनिति में प्रवेश==
[[शरद पवार]] के आग्रह पर वे पुलिस की नौकरी छोड़कर राजनीति में आ गए थे। शोलापुर जिले के करमाला से उन्होंने पहली बार विधानसभा का उप चुनाव लड़ा और जीत गए। तत्कालीन [[मुख्यमंत्री]] स्वर्गीय वीपी नाईक ने उन्हें अपनी सरकार में जूनियर मंत्री बनाया था। बाद में वे फिर से [[कांग्रेस]] में आए और नए वसंतराव पाटिल मंत्रीमंडल में वित्तमंत्री बने। [[वर्ष]] [[1978]] से [[1990]] तक वे [[राज्य]] [[विधानसभा]] के लिए चुनाव जीतते रहे। जुलाई [[1992]] में वे राज्य से राज्यसभा के लिए चुने गए।
वर्ष [[2002]] में उन्होंने राजग के प्रत्याशी [[भैरोंसिंह शेखावत]] के खिलाफ [[उपराष्ट्रपति]] पद का चुनाव लड़ा था, लेकिन वे हार गए। बाद में वे [[आंध्र प्रदेश|आंध्रप्रदेश]] के [[राज्यपाल]] बना दिए गए, लेकिन एक [[वर्ष]] बाद ही उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। [[2006]] में फिर एक बार राज्यसभा में चुनकर आए और [[प्रणब मुखर्जी]] के [[राष्ट्रपति]] बनने के बाद [[लोकसभा]] में कांग्रेस के नेता बनाए गए।
==कार्यकाल==
सुशील कुमार शिंदे [[2006]] से [[2012]] तक उर्जा मंत्री रहे। उनके कार्यकाल में जब उत्तरी [[भारत]] का पावर ग्रिड फेल हो गया तो लोगों ने उनकी आलोचना की। इस पर उनका उत्तर था कि [[अमेरिका]] और [[ब्राजील]] जैसे देशों में ‍भी ग्रिड फेल हो जाते हैं। वे इसके पहले और बाद में भी विवादास्पद टिप्पणियों के लिए जाने जाते रहे हैं। [[पुणे]] में उन्होंने कहा था कि बोफोर्स घोटाले की तरह से लोग कोलगेट घोटाला भी भूल जाएंगे। शिंदे वर्ष 2012 में [[भारत]] के गृहमंत्री बनाए गए थे।
==वैवाहिक जीवन==
इनका विवाह उज्जवला शिंदे के साथ हुआ है। सुशील कुमार शिंदे की तीन पुत्रियां हैं। उनकी एक पुत्री प्रणीति शिंदे शोलापुर से [[विधायक]] हैं। सुशील कुमार शिंदे के रूप में [[भारत]] को नया गृहमंत्री मिल गया है, एक समय महाराष्ट्र में सीआईडी के सब-इंस्पेक्टर के रुप में काम करने वाले शिंदे अब देश भर में क़ानून व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार हैं।
==गृहमंत्री  के रूप में==
शिंदे का कहना है कि उन्होंने ये कल्पना कभी नहीं की थी कि वे एक दिन देश के गृहमंत्री बनेंगे। ये लोकतंत्र की वजह से संभव हुआ है। इसके लिए ये [[मनमोहन सिंह]] और [[सोनिया गांधी]] को धन्यवाद देते हैं। इससे पहले वो ऊर्जा मंत्री हुआ करते थे और [[मंगलवार]] को जब उनको पदोन्नत कर गृहमंत्री बनाया गया तब देश का आधे से ज़्यादा हिस्सा अंधेरे में डूबा हुआ था। उत्तरी, पूर्वी और पूर्वोत्तर पॉवर ग्रिड के फेल हो जाने से सैकड़ों ट्रेनें यहाँ वहाँ अटकी हुई थीं और औद्योगिक उत्पादन ठप पड़ा हुआ था। मीडिया में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस निर्णय की जमकर आलोचना हुई है कि ऐसे दिन में जब उन्हें पॉवर ग्रिड फेल होने के लिए जवाबदेह माना जाना था, उन्हें पदोन्नत कर दिया गया। इस पदोन्नति के साथ सुशील कुमार शिंदे सरकार के सबसे महत्वपूर्ण और ताक़तवर मंत्रियों में से एक हैं। यह भी संयोग है कि उनको सब-इंस्पेक्टर के पद से इस्तीफ़ा दिलवाकर [[1971]] में राजनीति में लाने वाले शरद पवार केंद्र में मंत्री तो हैं लेकिन उनका कृषि मंत्री का ओहदा उतना ताक़तवर नहीं है।
==शिंदे का राजनीतिक सफर==
*शिंदे कांग्रेस के लो-प्रोफ़ाइल नेता माने जाते हैं। [[महाराष्ट्र]] के शोलापुर में वर्ष [[1941]] में एक दलित परिवार में जन्में शिंदे के पास आर्ट्स की ऑनर्स डिग्री और कानून की डिग्री है।
*इन्होंने वर्ष [[1965]] तक वे शोलापुर की अदालत में वकालत करते रहे फिर पुलिस में भर्ती हो गए। पाँच साल तक पुलिस की नौकरी करने के बाद राजनीति में आ गए।
* ये पाँच बार महाराष्ट्र विधानसभा के सदस्य चुने गए और राज्यमंत्री से लेकर वित्तमंत्री और मुख्यमंत्री तक हर पद पर रहे। एक बार महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। वर्ष [[1992]] में उन्हें पार्टी ने राज्यसभा में भेजने का निर्णय लिया। यहाँ उन्हें सोनिया गांधी के नज़दीक जाने का मौक़ा मिला और इसी की वजह से [[1999]] में उन्हें अमेठी में सोनिया गांधी का प्रचार संभालने का मौक़ा मिला।
*1999 में ये लोकसभा के लिए चुने गए फिर सोनिया गांधी के निर्देश पर वर्ष 2002 में उन्होंने एनडीए के उम्मीदवार भैरोसिंह शेखावत के ख़िलाफ़ उपराष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा और हार गए। जब केंद्र में [[2004]] में जब यूपीए की सरकार आई तो उन्हें [[आंध्र प्रदेश]] का राज्यपाल बनाकर भेजा गया लेकिन एक साल बीतते बीतते उन्होंने यह पद भी छोड़ दिया।
*वर्ष [[2006]] में यह एक बार फिर राज्यसभा के सदस्य बने और फिर ऊर्जा मंत्री [[2009]] में चुनाव में दूसरी बार ऊर्जा मंत्री बनाए गए और [[31 जुलाई]], [[2012]] को गृहमंत्री बनाए गए।
*गृहमंत्री के रूप में उनके सामने ढेर सारी चुनौतियाँ होंगी लेकिन ऊर्जा मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल को बिना किसी उपलब्धि के कार्यकाल के रुप में याद किया जाएगा, जो ऐसे समय में ख़त्म हुआ जब मंत्रालय अपने [[इतिहास]] की सबसे बड़ी चुनौती से जूझ रहा था।


====धर्म/समाज सुधारकों का योगदान====
*धर्म/समाज सुधार की प्रायः सभी संस्थाओं ने हिंदी के महत्त्व को भाँपा और हिंदी की हिमायत की।
*[[ब्रह्म समाज]] (1828 ई.) के संस्थापक [[राजा राममोहन राय]] ने कहा, '''इस समग्र देश की एकता के लिए हिंदी अनिवार्य है।''' ब्रह्मसमाजी [[केशव चंद्र सेन]] ने 1875 ई. में एक लेख लिखा, भारतीय एकता कैसे हो, 'जिसमें उन्होंने लिखा— '''उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार।''' अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिंदी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिंदी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बन जाए तो यह काम सहज ही और शीघ्र ही सम्पन्न हो सकता है। एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चंद्र राय ने [[पंजाब]] में हिंदी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।
*[[आर्य समाज]] (1875 ई.) के संस्थापक [[स्वामी दयानंद सरस्वती]] गुजराती भाषी थे एवं [[गुजराती भाषा|गुजराती]] व [[संस्कृत]] के अच्छे जानकार थे। हिंदी का उन्हें सिर्फ़ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मज़बूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिंदी में ही लिखा। उनका कहना था कि '''हिंदी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।''' वे इस 'आर्यभाषा' को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिंदी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, 'मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती हैं, जब [[कश्मीर]] से [[कन्याकुमारी]] तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाएँगे।
*अरविन्द दर्शन के प्रणेता [[अरविन्द घोष]] की सलाह थी कि 'लोग अपनी–अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिंदी को ग्रहण करें।'
*[[थियोसोफ़िकल सोसाइटी]] (1875 ई.) की संचालिका [[एनी बेसेंट]] ने कहा था, "भारतवर्ष के भिन्न–भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिंदी है। हिंदी जानने वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिंदी बोलने वाले मिल सकते हैं। भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।"
*उपर्युक्त धार्मिक/सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त [[प्रार्थना समाज]]<ref>स्थापना 1867 ई., संस्थापक—आत्मारंग पाण्डुरंग</ref>, सनातन धर्म सभा<ref>स्थापना 1895 ई., संस्थापक—[[दीनदयाल उपाध्याय|पंडित दीनदयाल]]</ref>, [[रामकृष्ण मिशन]]<ref>स्थापना 1897 ई., संस्थापक—[[स्वामी विवेकानंद]]</ref> आदि ने हिंदी के प्रचार में योग दिया।
*इससे लगता है कि धर्म/समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिंदी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिंदी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त के लोगों से सिर्फ़ इस भाषा में ही विचारों का आदान–प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्म/समाज सुधारकों ने किया।
====कांग्रेस के नेताओं का योगदान====
*[[1885]] ई. में [[कांग्रेस]] की स्थापना हुई। जैसे–जैसे कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया, वैसे–वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झण्डा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता ही गया।
*[[1917]] ई. में [[लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक]] ने कहा, "यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ, जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।" तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि वे हिंदी सीखें।
*[[महात्मा गाँधी]] राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था, "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।" गाँधीजी हिंदी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे— "हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।" उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा–समस्या पर गम्भीरता से विचार किया। 1917 ई. में भड़ौंच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा,
'''राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्तें होनी चाहिए'''—
#अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
#यह ज़रूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
#उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार होना चाहिए।
#राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
#उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर ज़ोर नहीं देना चाहिए।"
वर्ष 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के [[इन्दौर]] अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधी जी ने राष्ट्रभाषा हिंदी का समर्थन किया, "मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।" इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएँ और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएँ सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए [[दक्षिण भारत]] में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में [[चेन्नई]] भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927 ई.) एवं वर्धा (1936 ई.) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएँ स्थापित की गईं।
*वर्ष 1925 ई. में कांग्रेस के [[कानपुर]] अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि 'कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का काम–काज आमतौर पर हिंदी में चलाया जाएगा।' इस प्रस्ताव में हिंदी–आंदोलन को बड़ा बल मिला।
*वर्ष [[1927]] ई. में गाँधीजी ने लिखा, "वास्तव में ये [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] में बोलने वाले नेता हैं, जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते। वे हिंदी सीखने से इंकार करते हैं, जबकि हिंदी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अन्दर सीखी जा सकती है।
[[चित्र:Hindi.jpg|300px|right|thumb]]
*वर्ष [[1927]] ई. में [[सी. राजगोपालाचारी]] ने दक्षिण वालों को हिंदी सीखने की सलाह दी और कहा, "हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में [[राजभाषा]] भी होगी।"
*वर्ष [[1928]] ई. में प्रस्तुत [[नेहरू रिपोर्ट]] में भाषा सम्बन्धी सिफ़ारिश में कहा गया था, "[[देवनागरी लिपि|देवनागरी]] अथवा [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राष्ट्रभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेज़ी का उपयोग ज़ारी रहेगा।" सिवाय 'देवनागरी या फ़ारसी' की जगह 'देवनागरी' तथा 'हिन्दुस्तानी' की जगह 'हिंदी' रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।
*वर्ष 1929 ई. में [[सुभाषचंद्र बोस]] ने कहा, "प्रान्तीय ईर्ष्या–द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिंदी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज़ से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिंदी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है।"
*वर्ष 1931 ई. में गाँधीजी ने लिखा, "यदि स्वराज्य अंगेज़ी–पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो सम्पर्क भाषा अवश्य अंग्रेज़ी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताए हुए अछूतों के लिए है तो सम्पर्क भाषा केवल हिंदी हो सकती है।" गाँधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे।
*वर्ष 1936 ई. में गाँधीजी ने कहा, "अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिंदी को प्राप्त है, वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता है।"
*वर्ष 1937 ई. में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिंदी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया।
*जैसे–जैसे स्वतंत्रता संग्राम तीव्रतम होता गया वैसे–वैसे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया। 20वीं सदी के चौथे दशक तक हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत–प्रोत जितनी रचनाएँ हिंदी में लिखी गईं उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गई। राष्ट्रभाषा प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना पड़ा।
{|
|- valign="top"
|
{| class="bharattable" border="1"
|+ राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिंदी आंदोलन) से सम्बन्धित धार्मिक–सामाजिक संस्थाएँ
|-
! नाम
! मुख्यालय
! स्थापना
! संस्थापक
|-
| [[ब्रह्मसमाज|ब्रह्म समाज]]
| [[कलकत्ता]]
| 1828 ई.
| [[राजा राममोहन राय]]
|-
| [[प्रार्थना समाज]]
| [[मुम्बई|बंबई]]
| [[1867]] ई.
| आत्मारंग पाण्डुरंग
|-
| [[आर्य समाज]]
| [[मुम्बई|बंबई]]
| [[1875]] ई.
| [[दयानन्द सरस्वती]]
|-
| [[थियोसॉफिकल सोसायटी]]
| अडयार, [[चेन्नई]]
| [[1882]] ई.
| कर्नल एच.एस.आल्काट एवं मैडम एच.पी.ब्लैवेत्स्की
|-
| सनातन धर्म सभा
| [[वाराणसी]]
| [[1895]] ई.
| पं. दीनदयाल शर्मा
|-
| [[रामकृष्ण मिशन|(भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन) रामकृष्ण मिशन]]
| [[बेलूर]]
| [[1897]] ई.
| [[विवेकानंद]]
|}
|
{| class="bharattable" border="1"
|+ राष्ट्रभाषा आंदोलन से सम्बन्धित साहित्यिक संस्थाएँ
|-
! नाम
! मुख्यालय
! स्थापना
|-
| [[नागरी प्रचारिणी सभा]]
| [[वाराणसी]]
| [[1893]] ई. (संस्थापक-त्रयी—[[श्यामसुन्दर दास|श्यामसुंदर दास]], रामनारायण मिश्र व [[ठाकुर शिव कुमार सिंह|शिवकुमार सिंह)]]
|-
| हिंदी साहित्य सम्मेलन
| [[प्रयाग]]
| [[1910]] ई. (प्रथम सभापति– [[मदन मोहन मालवीय]])
|-
| गुजरात विद्यापीठ
| [[अहमदाबाद]]
| [[1920]] ई.
|-
| हिन्दुस्तानी एकेडमी
| [[इलाहाबाद]]
| [[1927]] ई.
|-
| दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (पूर्व नाम- हिंदी साहित्य सम्मेलन)
| [[चेन्नई]]
| [[1927]] ई.
|-
| हिंदी विद्यापीठ
| [[देवघर]]
| [[1929]] ई.
|-
| राष्ट्रभाषा प्रचार समिति
| वर्धा
| [[1936]] ई.
|-
| महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा
| [[पुणे]]
| [[1937]] ई.
|-
| बंबई हिंदी विद्यापीठ
| [[बंबई]]
| [[1938]] ई.
|-
| असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति
| [[गुवाहाटी]]
| [[1938]] ई.
|-
| [[बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना]]
| [[पटना]]
| [[1951]] ई.
|-
| अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ
|
| [[1964]] ई.
|-
| नागरी लिपि परिषद
| [[नई दिल्ली]]
| [[1975]] ई.
|}
|}


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*[http://www.pravakta.com/reflections-in-relation-to-hindi-language हिन्दी भाषा के सम्बंध में कुछ विचार]
*[http://www.rachanakar.org/2010/03/blog-post_3350.html हिन्दी भाषा-क्षेत्र एवं हिन्दी के क्षेत्रगत रूप]
*[http://www.scribd.com/doc/22142436/Hindi-Urdu हिन्दी-उर्दू का अद्वैत]
*[http://www.scribd.com/doc/22573933/Hindi-kee-antarraashtreeya-bhoomikaa हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीय भूमिका]
==संबंधित लेख==
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07:34, 5 मई 2016 का अवतरण

हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास

हिंदी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन 2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय हिंदी का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। सन 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।

राष्ट्रभाषा क्या है

  • राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है—समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात् आमजन की भाषा (जनभाषा)। जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन–जन के विचार–विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है।
  • राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं, किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तत्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
  • स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत के सन्दर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ति हिंदी ने की। यही कारण है कि हिंदी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान[1] राष्ट्रभाषा बनी।
  • राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है, बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है।
  • राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है।
  • राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क–भाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है।
  • राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
  • राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।

अंग्रेज़ों का योगदान

  • राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क भाषा होती है। हिंदी दीर्घकाल से सारे देश में जन–जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तरी भारत की नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानंद आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिंदी भाषी राज्यों के भक्त–संत कवियों (जैसे—असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था।
  • यही कारण था कि जनता और सरकार के बीच संवाद स्थापना के क्रम में फ़ारसी या अंग्रेज़ी के माध्यम से दिक्कतें पेश आईं तो कम्पनी सरकार ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिंदी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिंदी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न–भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिंदी को सराहा।
  • सी. टी. मेटकाफ़ ने 1806 ई. में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा— 'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।'
  • टॉमस रोबक ने 1807 ई. में लिखा— 'जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेज़ी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी–फ़ारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
  • विलियम केरी ने 1816 ई. में लिखा— 'हिंदी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।'
  • एच. टी. कोलब्रुक ने लिखा— 'जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े–लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिंदी है।'
  • जार्ज ग्रियर्सन ने हिंदी को 'आम बोलचाल की महाभाषा' कहा है।
  • इन विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि हिंदी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेज़ों ने हिंदी को अपनाया। उस समय हिंदी और उर्दू को एक ही भाषा माना जाता था। अंग्रेज़ों ने हिंदी को प्रयोग में लाकर हिंदी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।

धर्म/समाज सुधारकों का योगदान

  • धर्म/समाज सुधार की प्रायः सभी संस्थाओं ने हिंदी के महत्त्व को भाँपा और हिंदी की हिमायत की।
  • ब्रह्म समाज (1828 ई.) के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा, इस समग्र देश की एकता के लिए हिंदी अनिवार्य है। ब्रह्मसमाजी केशव चंद्र सेन ने 1875 ई. में एक लेख लिखा, भारतीय एकता कैसे हो, 'जिसमें उन्होंने लिखा— उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिंदी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिंदी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बन जाए तो यह काम सहज ही और शीघ्र ही सम्पन्न हो सकता है। एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चंद्र राय ने पंजाब में हिंदी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।
  • आर्य समाज (1875 ई.) के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजरातीसंस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिंदी का उन्हें सिर्फ़ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मज़बूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिंदी में ही लिखा। उनका कहना था कि हिंदी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। वे इस 'आर्यभाषा' को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिंदी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, 'मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाएँगे।
  • अरविन्द दर्शन के प्रणेता अरविन्द घोष की सलाह थी कि 'लोग अपनी–अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिंदी को ग्रहण करें।'
  • थियोसोफ़िकल सोसाइटी (1875 ई.) की संचालिका एनी बेसेंट ने कहा था, "भारतवर्ष के भिन्न–भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिंदी है। हिंदी जानने वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिंदी बोलने वाले मिल सकते हैं। भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।"
  • उपर्युक्त धार्मिक/सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त प्रार्थना समाज[2], सनातन धर्म सभा[3], रामकृष्ण मिशन[4] आदि ने हिंदी के प्रचार में योग दिया।
  • इससे लगता है कि धर्म/समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिंदी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिंदी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त के लोगों से सिर्फ़ इस भाषा में ही विचारों का आदान–प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्म/समाज सुधारकों ने किया।

कांग्रेस के नेताओं का योगदान

  • 1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना हुई। जैसे–जैसे कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया, वैसे–वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झण्डा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता ही गया।
  • 1917 ई. में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा, "यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ, जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।" तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि वे हिंदी सीखें।
  • महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था, "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।" गाँधीजी हिंदी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे— "हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।" उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा–समस्या पर गम्भीरता से विचार किया। 1917 ई. में भड़ौंच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा,

राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्तें होनी चाहिए

  1. अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
  2. यह ज़रूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
  3. उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार होना चाहिए।
  4. राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
  5. उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर ज़ोर नहीं देना चाहिए।"

वर्ष 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधी जी ने राष्ट्रभाषा हिंदी का समर्थन किया, "मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।" इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएँ और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएँ सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927 ई.) एवं वर्धा (1936 ई.) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएँ स्थापित की गईं।

  • वर्ष 1925 ई. में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि 'कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का काम–काज आमतौर पर हिंदी में चलाया जाएगा।' इस प्रस्ताव में हिंदी–आंदोलन को बड़ा बल मिला।
  • वर्ष 1927 ई. में गाँधीजी ने लिखा, "वास्तव में ये अंग्रेज़ी में बोलने वाले नेता हैं, जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते। वे हिंदी सीखने से इंकार करते हैं, जबकि हिंदी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अन्दर सीखी जा सकती है।
  • वर्ष 1927 ई. में सी. राजगोपालाचारी ने दक्षिण वालों को हिंदी सीखने की सलाह दी और कहा, "हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी।"
  • वर्ष 1928 ई. में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में भाषा सम्बन्धी सिफ़ारिश में कहा गया था, "देवनागरी अथवा फ़ारसी में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राष्ट्रभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेज़ी का उपयोग ज़ारी रहेगा।" सिवाय 'देवनागरी या फ़ारसी' की जगह 'देवनागरी' तथा 'हिन्दुस्तानी' की जगह 'हिंदी' रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।
  • वर्ष 1929 ई. में सुभाषचंद्र बोस ने कहा, "प्रान्तीय ईर्ष्या–द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिंदी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज़ से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिंदी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है।"
  • वर्ष 1931 ई. में गाँधीजी ने लिखा, "यदि स्वराज्य अंगेज़ी–पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो सम्पर्क भाषा अवश्य अंग्रेज़ी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताए हुए अछूतों के लिए है तो सम्पर्क भाषा केवल हिंदी हो सकती है।" गाँधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे।
  • वर्ष 1936 ई. में गाँधीजी ने कहा, "अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिंदी को प्राप्त है, वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता है।"
  • वर्ष 1937 ई. में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिंदी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया।
  • जैसे–जैसे स्वतंत्रता संग्राम तीव्रतम होता गया वैसे–वैसे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया। 20वीं सदी के चौथे दशक तक हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत–प्रोत जितनी रचनाएँ हिंदी में लिखी गईं उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गई। राष्ट्रभाषा प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना पड़ा।
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिंदी आंदोलन) से सम्बन्धित धार्मिक–सामाजिक संस्थाएँ
नाम मुख्यालय स्थापना संस्थापक
ब्रह्म समाज कलकत्ता 1828 ई. राजा राममोहन राय
प्रार्थना समाज बंबई 1867 ई. आत्मारंग पाण्डुरंग
आर्य समाज बंबई 1875 ई. दयानन्द सरस्वती
थियोसॉफिकल सोसायटी अडयार, चेन्नई 1882 ई. कर्नल एच.एस.आल्काट एवं मैडम एच.पी.ब्लैवेत्स्की
सनातन धर्म सभा वाराणसी 1895 ई. पं. दीनदयाल शर्मा
(भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन) रामकृष्ण मिशन बेलूर 1897 ई. विवेकानंद
राष्ट्रभाषा आंदोलन से सम्बन्धित साहित्यिक संस्थाएँ
नाम मुख्यालय स्थापना
नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी 1893 ई. (संस्थापक-त्रयी—श्यामसुंदर दास, रामनारायण मिश्र व शिवकुमार सिंह)
हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग 1910 ई. (प्रथम सभापति– मदन मोहन मालवीय)
गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद 1920 ई.
हिन्दुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद 1927 ई.
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (पूर्व नाम- हिंदी साहित्य सम्मेलन) चेन्नई 1927 ई.
हिंदी विद्यापीठ देवघर 1929 ई.
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा 1936 ई.
महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा पुणे 1937 ई.
बंबई हिंदी विद्यापीठ बंबई 1938 ई.
असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति गुवाहाटी 1938 ई.
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना पटना 1951 ई.
अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ 1964 ई.
नागरी लिपि परिषद नई दिल्ली 1975 ई.


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विशेषतः 1900 ई.-1947 ई.
  2. स्थापना 1867 ई., संस्थापक—आत्मारंग पाण्डुरंग
  3. स्थापना 1895 ई., संस्थापक—पंडित दीनदयाल
  4. स्थापना 1897 ई., संस्थापक—स्वामी विवेकानंद

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